[ कविता ]
कविता में भाषा को
लामबन्द कर
लड़ी जा सकती है लड़ाईयांँ
पहाड़ पर
मैदान में
दर्रा में
खेत में
चौराहे पर
पराजय के बारे में
न सोचते हुए ।
[ मैना ]
निष्ठुर दिनों में देखा है
कोई नहीं आता
मैना की ही बात करता हूँ
कई मौसमों के बीत जाने पर आयी है
मैं तो बच गया –
विस्मृत हो रही थी
तोता और मैना की कहानियाँ |
[ घर स्थिर है जंग लगी साइकिल की तरह ]
कोई था जो अब नहीं रहा
कोई है जो अपनी दिव्यता का शिकार हुआ
मारा गया कोई अपनी चुप्पी में
कोई अतीत के चिड़ियों के पीछे भागा
एक घर है जो रहा स्थिर
जंग लगी साइकिल की तरह |
[ घर ]
घर लौटना हो नहीं सका
किसके स्वप्न में नहीं आता घर
कौन घर नहीं लौटता
कितना अच्छा था हमारा घर
पर हम लौट नहीं सके
चलते हुए ठेस किसे नहीं लगती
पर हम तो मर गए |
[ बुद्ध ]
घर से बाहर निकलता हूँ
घड़ी देखता हूँ
नहीं
समय देखता हूँ
सोचता हूँ – कितना पहर बीत गया
बदहवास सा लौटता हूँ घर
बच्चों की तरह पूरे घर में दौड़ लगाता हूँ
मैं चाहता हूँ – कोई घर छोड़ कर नहीं जाए |
[ मिलना ]
उसके शरीर में
ख़ून की जगह आँसू थे
उससे जब भी मिला
महसूस किया
आषाढ़ के मौसम की नमीं
अपने आस-पास |
[ साधारण क्षणों में भी असाधारण रूप में औरतों को याद करता हूँ ]
दादी को
माँ को
चाची को
भौजी को
पत्नी को
बहन को
असंख्य औरतों को
गन्दे बर्तनों के बीच
गन्दे कपड़ों के बीच
अंधेरे रसोई में
साधारण कपड़ों में
साधारण बात कहते हुए
असाधारण रूप में याद करता हूँ |
[ घर लौटते हुए किसी अनहोनी का शिकार न हो जाऊँ ]
दिल्ली – बम्बई – पूना – कलकत्ता
न जाने कहाँ – कहाँ से
पैदल चलते हुए लौट रहा हूँ
अगर पहुँच गया अपने घर
उन तमाम शहरों को याद करूँगा
दुःख के सबसे खराब उदाहरणों में
हजारों मील दूर गाँव का घर
नाव की तरह डोल रहा है
उसी पर सवार हूँ
शरीर का पानी सूख रहा है
नाव आँख के पानी में तैर रही है
विश्वास हो गया है
नरक का भागी हूँ
घर पहुँचने से पहले आशंकित हूँ
किसी अनहोनी के |
[देहरी पर लालटेन ]
क्या आया मन में की रख आया
एक लालटेन देहरी पर
कोई लौटेगा दूर देश से कुशलतापूर्वक
आज खाते समय कौर उठा नहीं हाथ से
पानी की ओर देखते हुए
कई सूखते गले का ध्यान आया |
नाम – रोहित ठाकुर
वृति – शिक्षण
जन्म तिथि – 06 / 12 / 1978
विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं बया, हंस, वागर्थ, पूर्वग्रह ,दोआबा , तद्भव, कथादेश, आजकल, मधुमती आदि में कविताएँ प्रकाशित
सर्वाधिकार सुरक्षित
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