जाने वे कैसे लोग थे…
मौसम तेजी से बदलता जा रहा है
सुबह की ठंडी हवा
मन को घड़ी भर राहत देकर
जा छुपती है पेड़ों पर टँगे स्तब्ध पत्तों के पीछे
और मन जलते-पिघलते
नदी हुआ जाता है
इन नामुराद पत्तों के खड़कने, हिलने-डोलने
और कुछ बोलने के इंतज़ार में
मैं अक्सर मापती हूँ
मन के बदलने की गति को
मौसम के बदलने की गति से
मौसम इशारे तो देते हैं कम से कम
अपने बदलने का
पर ये कमबख़्त मन तो
कब बदल जाते हैं
पता ही नहीं चलता
घाट का पानी यकायक सूख जाए
और आप मछली-सा तड़पने लगो
नदी के पीछे-पीछे दौड़ो
उसे पकड़ने के लिए
और मुट्ठी खोलकर देखो तो
हाथ नमक से भरे होते हैं
अपनी मुठ्ठी के नमक को
सहेज कर रख लेती हूँ अब
हर याद मीठी ही हो ज़रूरी तो नहीं
शाम साढ़े छह बजे भी घूमने निकलो
तो सूरज की तेज रोशनी
आँखों में इस तरह झाँकती है
मानों पल भर में
आँखों के सब राज़ खोल देगी
सोसाइटी के पीछे वाले मैदान में
फिर बंजारों ने तंबू गाड़े हैं
दो-चार दिनों में ही
मौन का नाता बन जाता है हमारे बीच
साँझ के वक्त वे साँवली दुबली-पतली औरतें
अपने माथे पर रखे
बड़े-बड़े मटकों से छलकते पानी में भीगते-भीगते
सँभलते -सँभलते कदम उठाती हैं
और मैं अपने मन में
पिघलती नदी के आवेग को
सँभालते- सँभालते
काली सड़क पर दौड़ लगाती हूँ
अक्सर ठिठक कर सोचती हूँ
मैं नदी में बह रही हूँ
या नदी मुझमें
इन दिनों सेमल ने अपना रेशम उड़ाया है जी भरकर
पत्ते-फूल सबसे बिछड़ने के बाद
रेशम हुआ है सेमल
सब खोकर भी भरा-भरा होना
शायद इसे ही कहते हैं
मेरा मन भी तो सब कुछ क्षिप्रा में तिरोहित करके भी
बरसों से भरा-भरा है
मैं चुपके से मुट्ठी खोलकर
उसमें से झरते नमक को देखती हूँ
और तभी खिजड़ी के झाड़ के नीचे लेटे
अर्जुन के रेडियो पर
गीत की स्वरलहरियाँ फूटती हैं
जाने वो कैसे लोग थे जिनके …..
मत छलना उसे
मत छलना उसे
जिसने किसी अबोध बालक की
दंतुरित मुस्कान-सा
अपना निरामय विश्वास
तुम्हारे हाथों में सौंप दिया ।
मत छलना उसे
जिसने तुम्हारी चुगली खाती
तमाम आवाज़ों की ओर से
फेर लिए अपने कान
और तुम्हारी एक पुकार पर
बिखेर दी अपनी अनारदाना हँसी ।
मत छलना उसे
जिसने सदियों से
अपनी आत्मा पर बंधी
पट्टियों को खोलकर
उसमें झाँकने का हक
तुम्हें दिया ।
मत छलना उसे
जिसने तुम्हारी ओर
इशारा करतीं तमाम उँगलियों को
अनदेखा कर
अपनी उँगली थमा दी तुम्हें ।
मत छलना उसे
जिसने झूठ से बजबजाती
इस दुनिया में
सिर्फ़ तुम्हें ही सच समझा ।
अपनी फितरत से मजबूर तुम जब
फिर भी छलोगे उसे
तो यकीनन
नहीं बदल जाएगी ग्रह-नक्षत्रों की चाल
धरती पर नहीं आएगा भूकंप
पहाड़ नहीं होंगे स्खलित
नदियों में बाढ़ नहीं आएगी
तट बंध नहीं होंगे आप्लावित
दिन और रात का फर्क भी नहीं मिटेगा,
मगर ताकीद रहे
कि किसी की भाषा से
विलुप्त हो जाएंगे
विश्वास और उसके तमाम पर्यायवाची शब्द
और शब्दों के पलायन से उपजा
यह रिक्त स्थान ही
एक दिन लील जाएगा तुम्हें ।
इतना सा मनुष्य होना
शहर की बड़ी सब्जी मंडी में
एक किनारे टाट का बोरा बिछाकर
अपने खेत की दो-चार ताज़ी सब्जियाँ
लिए बैठी रमैया
अक्सर छुट्टे पैसों के हिसाब में
करती है गड़बड़ ।
न…न….यह समझ लेने की भूल मत करना
कि रमैया को नहीं आता
इतना भर गणित,
हाँ बेशक, दो-पाँच रुपए बचाकर
महल बाँधने का गणित
नहीं सीखा उसने ।
घर में काम करती पारबती
मालकिन के कहने पर
सहर्ष ही ले आती है
दो-चार किलो मक्की
अपने खेत से
और महीने के हिसाब में
उसका दाम भी नहीं जोड़ती ।
उसे मूर्ख समझकर
एक तिर्यक मुस्कान
अपने होठों पर मत लाना,
अनाज की कीमत जानती है वह
लेकिन मालकिन के कोठार में
उसके अनाज का भी हिस्सा है
यह भाव सन्तोष से भर देता है उसे ।
सफाई वाले का लड़का विपुल
अच्छे से जानता है कि
कोने वाले घर की शर्मा आंटी
उसे एक छोटा कप चाय पिलाने के बहाने
अपने बगीचे की सफाई भी
करवा लेती हैं उससे,
ये मत समझ बैठना
कि कॉलेज में बी.ए. की पढ़ाई करता विपुल
परिचित नहीं है
“शोषण” की शब्दावली से,
लेकिन खुश होता है वह कि
सुबह-सुबह की दौड़-भाग के मध्य
आंटीजी का एक काम
उसने निपटा दिया ।
आप बेशक इन्हें कह सकते हैं
निपट मूर्ख, गंवार, जाहिल और अनपढ़
लेकिन बोरा भर किताबों की पढ़ाई
अगर सिखा न सके मानवता की ए बी सी डी
अगर सीख न सकें हम दु:ख को मापने की पद्धति
अगर गहन न हो संवेदना हमारी
अगर समझ न सकें हम
सामाजिक ताने-बाने का मनोविज्ञान
तो कम पढ़ा-लिखा होने में
क्या बुराई है?
कम से कम बचे रहेंगे मानवीय मूल्य
बचा रहेगा प्यार, स्नेह, सौहार्द
बचे रहेंगे रिश्ते
बचा रहेगा विश्वास
और बचा रहेगा
हमारा इतना-सा मनुष्य होना ।
4 होटल के रूम नम्बर 303 में
होटल के रूम नम्बर 303 में
फल काटने के लिए मुझे
एक चाकू की दरकार थी
रूम सर्विस पर दी गई
तीन-तीन सूचनाओं के बाद भी
जब पन्द्रह मिनट तक
कोई चाकू लेकर नहीं आया
तो मेरी बेचेनी और कुलबुलाहट बढ़ने लगी ।
इतने बड़े होटल के
इतने बड़े किचन में ढेरों चाकू होंगे
फिर भी आम काटने के लिए
मुझे चाकू नहीं मिल रहा
यानी, सारे चाकू व्यस्त हैं ?
तब तो जल्दी पता किया जाना चाहिए
कि वे कहाँ व्यस्त हैं !
वे ब्रेड पर बटर और जैम लगा रहे हैं
या उनसे भाजी-तरकारी,
फल-अंडे और पनीर काटे जा रहे हैं
या वे काट रहे हैं
किसी का सर….किसी का धड़ ?
वे क्या निकाल रहे हैं अपनी तेज़ नोक से ?
फलों के बीज या
सब्जियों में अंदर छुपे कीड़े
या फिर वे निकाल रहे हैं अपनी नोक से
किसी मजलूम के शरीर की आँते?
किसी की गर्दन पर तने
वे टटोल रहे हैं जेबें
या फिसल रहे हैं
किसी आठ साला लड़की की देह पर ।
ये चाकुओं के काम पर लगे रहने का वक्त है
चाकू अति व्यस्त हैं इन दिनों
घर और रसोई की देहरी से बाहर निकलकर
अपनी धार साबित करने में ।
जल्दी पता करो
कौन सा चाकू कहाँ व्यस्त है
रूम नम्बर 303 में
मुझे दरकार है एक चाकू की
मैं एक हाथ में फल
और एक हाथ से गर्दन सँभाले बैठी हूँ।
मालिनी गौतम
मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ में जन्मी डॉ. मालिनी गौतम का बचपन आदिवासियों के बीच बीता । उज्जैन एवं इंदौर से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद सन1994 में वे गुजरात के सुदरूवती आदिवासी अंचल संतरामपुर में आ बसीं।
▪️मालिनी संतरामपुर के महाविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं। एक प्राध्यापक के रुप में वे जीवन का एकमात्र लक्ष्य इन बच्चों को शिक्षण के साथ-साथ दुनिया जहान की जानकारी देकर, बच्चों के सर्वाांगीण विकास के द्वारा उन्हें मुख्य धारा में लाना मानती है ।
▪️मालिनी विभिन्न एन जी ओ के साथ मिलकर सन्तरामपुर के दूर-दराज के गााँवों में आयोजित
कार्यक्रमों में अंधविश्वास, बेटी-बचाओ, कन्या भ्रूण हत्या जैसे ज्वलंत विषयों पर व्याख्यानों के द्वारा जागृति फैलाने के कार्य में सक्र्य हैं। वे यहााँ के अंतररम गााँवों में जाकर सफाई-स्वच्छता, साक्षरता,
अंधविश्वास, व्यसन-मुक्ति जैसे काययक्रमों में लगातार शिरकत करती हैं ।
▪️अंग्रेजी विषय की प्रोफेसर मालिनी गौतम हिंदी की अनुरागी हैं। वे कविता के साथ-साथ ग़ज़ल, नवगीत, एवं अनुवाद विधाओं में भी कार्य करती हैं।
▪️ उनकी कविताएं, गजलें, नवगीत समकालीन स्तरीय साहित्य,कथादेश, नया ज्ञानोदय, पाखी,वागीर्थ, आजकल,अक्षरा, इंद्रप्रस्थ, बया, सदानीरा, हंस, निकट, दोआबा, बहुवचन, पूर्वाग्रह, साक्षात्कार, लोकमत समाचार, जनसत्ता, मंतव्य, युद्धरत आम आदमी सहित महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीेे हैं।
▪️अभी तक मालिनी गौतम के दो कविता संग्रह बूाँद-बूाँद अहसास (गुजरात हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा अनुदानित), एक नदी जामुनी-सी प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा एक ग़ज़ल संग्रह दिये का कारवााँ, एक नवगीत संग्रह चिल्लर सरीखे दिन प्रकाशित हो चुका हैं।
▪️मालिनी गौतम की कविताओं का गुजराती, अंग्रेजी, मराठी, मलयालम. नेपाली, पंजाबी, बांग्ला आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ।
▪️ मालिनी गौतम को दो बार गुजरात साहित्य अकादमी पुरस्कार (वर्ष 2016 एवं 2017) , पिम्पिा
ऋतुिाज सम्मान (हदल्िी, 2015) वागीश्विी पुिस्काि (मध्यप्रदेश हिदंी साहित्य सम्मेिन
भोपाि,2017) तथा जनकवव मुकुटबििािी सिोज स्मतृत सम्मान(सिोज स्मतृत न्यास ग्वालियि,
2019)* से नवाजा जा चुका है।
▪️माललनी गौतम ने अनुवाद के क्षेत्र में िी काम क्रकया है । हाल ही में उन्होंने गुजराती दललत
कववताओं के दहन्दी अनुवाद का एक महत्वपूणय कायय पूणय क्रकया है ।
▪️इन ददनों वे कहाननयााँ िी ललख रही हैं । उनकी कहाननयााँ पाखी, ननकट, समावतयन आदद पत्रत्रकाओं
में प्रकाशित हो चुकी हैं।