माह की कवियत्रीः जोशना बैनर्जी आडवानी


ढाँप दो निशानाथ को ….

ढाँप दो निशानाथ को
कुहुकिनी से कहो साधे गांधार
देवसरिता कराये हमारा स्नान
घनप्रिया से कहो अभी सो जाये
कह दो
इन सब से ऐसा ही करे
ढूँढों तुहिनकण वाली घास
जहाँ हम बैठ सकें पूरी रात
नीले नारंगी सभी स्वप्नों से कहो पहरा दें
घास के उस तरफ

हम बैठेंगे पूरी रात यहाँ
कोई हल्ला ना बोले हमारे मिलन की घड़ी में
दो संकेत हवाओं को ये सावधान रहें
समझा दो इन्हें
ये बासन घिसने जितना सहज नहीं
ये कठिन है
कोई दो प्रेमी जब मिलें
तो उन्हीं के संकेत का पालन करें पृथ्वी, देव और दिशायें

हमारा मन बहलाने केवल चिड़ियाँ, तितली और
वैशाखनंदन आ सकते हैं यहाँ
इनके समान सुंदर मन किसी और का नहीं
आते समय मेरी एक चप्पल गुम गई है
कहो लम्बोष्ठ से ढूँढ के लाये

अपनी पुतलियों से आओ ठेल दें सबको
यहाँ रूके हम, कहें हम, लजाऐं हम
भोर में जब हम निकलें यहाँ से
पृथ्वी पूरी पहले जैसी हो जाये
और भाषा भी

फुईयाँ बातें ….

बातों बातों में
हम मुम्बई पहुँचे
मैंने अमोल पालेकर से कहा कि
सीखा दे मेरे प्रेयस को मुझसे नर्मी से पेश
आने के छः- सात तरीके
और दीप्ति नवल से सीख ली सादगी से
शर्माने की कलाऐं

बातों बातों में
दिल्ली पहुँचने पर हमनें दरियागंज के किताब
मार्केट में घंटों किताबें छाटीं
ठीठठाक दाम में उपन्यासकारों के दुःख खरीदे
कॉफी हाउस में बैठकर पिछले दिनों की शिकायतें
पी गये
लोगो की आँखें हम पर पेपरवेट की तरह पड़ी रही
फड़फड़ाते रहे हम
घंटों पड़े रहे चिठ्ठियों की तरह उस लेटरबॉक्स नुमा
कॉफी हाउस में
विदा लेते वक्त कपास के फूल की तरह हल्का महसूस किया

इस दफे कुनलुन पार करके हम विश्व के सबसे ऊँचे
पठार पर जा पहुँचे
तिब्बत से नीचे हमने अपना ब्लड प्रैशर धकेल दिया
भविष्य बताने वाली झील में झाँकने पर हमें कुछ रोटियाँ
और एक ब्रेकअप दिखाई दिया
हम डर गये

बातों बातों में
हमने संगम में अपनी पापी इच्छाओं को नहलाया
देवदारों के नीचे बर्फ जलाई
हावड़ा के सामने खड़े होकर योजनाएं बनाई
कि कभी बिछड़े तो एक दूसरे तक पहुँचने के
लिए पुल कैसे बनेंगे
कच्छ मेंं पतंगों के साथ उड़ा दिए अपने वादे
गुफाओं मेंं चीख चीख कर आई लव यू बोलकर
अपनी आवाज़ की धमक सुनते रहेंं
दो बार से ज़्यादा नहीं चिल्लाये
वहाँ सोई आत्माओं को नतमस्तक कर के चल दिए

शनि मंदिर में सरसों के तेल के दीपक की जगह
अपना दिल जलाते रहे
बूढ़े पीपल से अपने मंगलदोष के बारे में चर्चा की
किले पर चढ़कर दूरबीन से पुआल तलाशते रहे
रेलगाड़ी की खिड़की वाली सीट बदल ली
ऊपर वाली बर्थ पर अपने हौसलो को हिलते हुए देखा

ईंटों की भट्टी में मन्नत माँगी अपने
भविष्य के घर के लिए
चप्पलें टूटने पर मोची नहीं वह दोस्त याद आया
जो कर्ज़ में डूबकर भी हमें सिगरेट पिलाता था
पेड़ पर चढ़कर घोंसलों की वीडियो बनाई
एक मेमने के साथ सेल्फी ली
लंच में अमरुद और ककड़ियाँ खाई

जहाँ जहाँ सुनते थे एम्बुलेंस का सॉयरन
घरवालों को फोन करके ख़ैरख़बर लेते रहे
शरतचन्द्र और इस्तम चुगताई पर चर्चा की सोने
से पहले
जगे तो बीड़ी पी
साबुन की जगह मिट्टी का इस्तेमाल किया

बातों बातों में
वो बना किसी फिल्म का स्क्रिप्टराईटर
और मैं बनी अंबानी की असीस्टेंट

जब कुछ ना बचेगा
बातें बची रह जायेंगी
बातें अपनी ज़ुबां बोलेंगी
हमें बाचेंगी इक पवित्र ग्रंथ की तरह

चित्रगुप्त की छाया तले ….

(एक)
तुम कौन हो?
पटकथा की साईड हीरोइन हूँ
कहाँ से आई हो?
हिक्किम के पोस्ट ऑफिस से
प्रेम करती हो?
हाँ, चित्रगुप्त से
चूमा है किसी को?
हाँ, कीटों और सुग्गो को
क्योंकर भला?
क्योंकि वे वापस चूमते हैं
उत्कट क्रोध की घड़ी में क्या बनना चाहोगी?
एक बागी झण्डा

(दो)
मुझे मात्र नाम से ही जानती है दुनिया
प्रकृति, विवेक, संगति, आलिंगन, पीड़ा से नहीं
मेरी मृत्यु को जानेगी दुनिया
अंतरतम में
एक बिरूद की तरह

(तीन)
जब ब्याह दी गई थी
तब उन्नीस बरस की थी
तब से
पवनचक्की की तरह चल रही हूँ
औज़ार की तरह रख दी गई हूँ
सरकारी मोहर की तरह उठा दी जाती हूँ
नक्षत्रमालाओं की तरह पूर्वजों को
चढ़ा दी जाती हूँ
वज्रघोष की तरह टंकार दी जाती हूँ
अब भी उन्नीस बरस की हूँ

(चार)
तलवों तक धँस जाने वाली रात में
तुम गड़ जाते हो मेरी गर्दन पर
जैसे कोई बच्चा सेब मे गाड़ देता है अपने दाँत
इससे पहले कि मैं सो जाऊँ
मुझे जड़ दो
दुःख के गाल पर
मुझे कविता में चुभने वाली पंक्ति बनना है

(पाँच)
एक तनावहीन दोपहर में
मक्खी की हुंह्ह सुनती हूँ
जैसे मक्खी कहना चाहती हो
मनुष्यों को भिनभिनाते देखना
एक संजीदा बात है

अनुकांक्षा

एक अनुकांक्षा इतनी क्रोधित है कि
उसके अंदर सिकतीं हैं कई रोटियाँ,
सिकुड़ते हैं राजमार्ग और वह त्रिनेत्र से
युद्ध की घोषणा करती है

एक अनुकांक्षा इतनी मौन है कि
तुमसे कभी नहीं पूछेगी कि उन्नीस अठ्ठे
कितना होता है और सेंधा नमक में क्या
क्या गुण है

एक अनुकांक्षा इतनी निर्भिक है कि
भाग कर मनचाहे वर से विवाह कर
लेती है और सारे श्रृंगार उतार कर
चुपचाप घर वापस आ जाती है

एक अनुकांक्षा इतनी हठी है कि जीत
आती है पाँच सौ मीटर की रेस और
निकाल लेती है पुराने कैसेट से अपने
पूर्व प्रेमी का गुड़ुड़ मुड़ुड़ चेहरा

एक अनुकांक्षा इतनी डरी हुई है
कि तकिये के नीचे से कभी नहीं
निकलेगी, चौबीसों घंटे पेट के
बल पड़ी रहती है

एक अनुकांक्षा इतनी गोपनीय है
कि जीवन को डी- कोड करती
रहती है, उसे ईश्वर की नहीं
अपराध की ज़रूरत है

एक अनुकांक्षा इतनी छोटी है कि
अचानक ही आटे के कनस्तर से
निकल आती है और फ्रिज खोलते ही
गायब हो जाती है

एक असभ्य अनुकांक्षा जूतों में
पड़ी रहती है
एक अनुकांक्षा छुरी से निकाल लेती
है मेरा रक्त
एक अनुकांक्षा आपके मन में जीवन
भर बिना कुछ कहे रह सकती है
एक अनुकांक्षा दराज़ में विलाप
करती है

हम इन अनुकांक्षाओं के प्रति
कितने क्रूर हैं

अनुकांक्षाओं की अमर बेल
हमारी अनुकांक्षित आत्मा में
कई अनुकांक्षाऐं लिए बढ़ती
चली जाती है
रूदन में, वृष्टि में, सुख में

मैं इन अनुकांक्षाओं के प्रति
नतमस्तक हूँ

मृत्यु आये और मेरे प्रेम में पड़ जाये ….

निकलूँँ तो किसी नौबतख़ाने की
मंगलध्वनि बन कर निकलूँ
नहीं निकलूँ कभी किसी स्त्री की
आत्मग्लानि बन कर
मृत्यु आये और मुझे ध्वनि की तरंगों
में ध्यानमग्न होकर ले जाये

गिरूँ तो तपते हुए ज्वर का तापमान
बन कर गिरूँ
किसी नवयुवक का दुष्चरित्र बन
कर कभी ना गिरूँ
मृत्यु आये और मुझे व्यक्तित्वविहीन
समझ कर ले जाये

आऊँ तो बिनब्याही लड़कियों के
पिताओं का बल बन कर आऊँ
किन्हीं दो प्रेमियों के बीच में
कभी ना आऊँ
मृत्यु आये और मुझे सतत
आश्चर्य में ले जाये

बनूँ तो बालसुलभ हँसी
बन जाऊँ
किसी बटमार का अट्टहास कभी
ना बनने पाऊँ
मृत्यु आये और मुझे सुखद हँसी
की संभावना समझ कर ले जाये

फूँटू तो तत वितत और सुषिर
का स्वर बन कर फूँटू
कभी ना फूँटू किसी निर्धन के चक्षु
से अश्रु बन कर
मृत्यु आये और मुझे स्वर शेष होने
से पहले ही ले जाये

मृत्यु तब ना आये जब मैंने पहना हो
अपना सबसे पसंदीदा पोशाक
मृत्यु तब भी ना आये जब बेटों में
बाँट रही होऊँ अपनी जायदाद
मृत्यु तब आये जब लिख रही होऊँ
कोई कविता

मृत्यु आये और मेरे प्रेम में पड़ जाये
मुझे पूरे विधि विधान
से ले जाये

अर्थ
तत वितत – तार वाले वाद्य जैसे सितार, वीणा, सारंगी, सरोद
सुषिर – फूँक कर बजाये जाने वाले वाद्य जैसे बाँसुरी, शहनाई

अबींद्रनाथ आयेंगे ….

अबींद्रनाथ आयेंगे
बदलेंगे माथे की पट्टियाँ
ऐसा तो ना होगा

ऐसा तो ना होगा कि अब मैं
तीन चार सत्यजीत रे जन्मूँगी
शलजम के खेतों की बनूँगी मालकिन
या खरीदूँगी आईपीएल की टीमें
ऐसा तो ना होगा

मेरे जूते का फीता बाँधने छः लड़के झुक जाये
कोई बवंडर आते आते अचानक रूक जाये
देव मेरे नाम मेघमालाऐं कर जायें
ऐसा तो ना होगा

मैंने खुद के साथ रोपा है जिसे वह कमबख्त़
फूटता नहीं
रिक्त ग्रीवा से गीत गाने पर सुर सजता नहीं
फ्रिज में कभी कोई मँहगा फल नहीं मिल सकता
एक रहस्य है जिसका खुलासा किया नहीं जा सकता

खिड़कियाँ और बॉलकनियाँ अब साथ नहीं देती
घर बारह कदमों में खत्म हो जाता है
पृथ्वी तेरहवें कदम पर
कबूतर नींद तोड़ देते हैं
विनोद मेहरा अब कम दीखते हैं
वेबिनार्स से दण्डित रहूँगी पता नहीं और कितने दिन

जीवन शाम की छाया की तरह सरक रहा है
मैं उस पर आँख कान मूँदकर पेट के बल लेटी पड़ी हूँ

बाजूबंद खुल जाता है ….

कनिष्ठ उँगली चली जाती है दाँतों के बीच
दिन जैसे किसी किन्नर का आशीर्वाद हो
ओंठ पा लेते हैं किसी राज्यनृत्यांगना की लीलाऐं
आँखें मुँद जाती है
मन जैसे माणिक्य बन जाता है
रत्न प्रसविनी बन जाती है मेरी देह
जैसे कह रही हो शिव उपासिका नंदी के कानों
में अपने मन की बात
बाज़ू जैसे उठे हो पूजा पंडाल में देवी की अंजली के लिए
तुम्हारी प्रतीक्षा में बढ़ जाता है रक्तचाप
बाजूबंद खुल जाता है

कितने धागे तुम्हारी ओर किये मैंने तुम्हें बाँधने के लिए
कितनी ही ताँत साड़ियाँ बन जाती उन धागो से
धागे हथकरघों से सधे हैं
प्रेम से कतई नहीं
हेमचंद बंदोपाध्याय का वृत्तसंहार पढ़ते पढ़ते बीत गई रात
भोर के स्वप्न में सैकड़ों इंद्रनील दिखाई दिये
उठते ही किवाड़ के दोनों तरफ देखा
तुम्हारी प्रतीक्षा में बढ़ जाता है रक्तचाप
बाजूबंद खुल जाता है

केशों को जैसे छू रही हो मलयाचल की सुगंधित हवा
ढाकाई जामदानी पर उभर आते हैं सैकड़ों पुष्प
सियालदह जंक्शन में आ सिकुड़ता है कोलकाता
कर्णफूल अस्थिर हो उठते हैं
भवें तन जाती हैं जैसे युद्ध में अर्जुन की छाती
रोमकूप बन जाते हैं कमलनाल के रेशे
तुम्हारी प्रतीक्षा में बढ़ जाता है रक्तचाप
बाजूबंद खुल जाता है

इस प्रतीक्षा के सम्मुख झुकी हुई है पृथ्वी
ब्रह्मा के अभिलेख के समक्ष विवश हूँ मैं
अब अधिक नहीं सींच पाऊँगी अपनी देह
कंठ सूख रहा है शनैः शनैः
शिथिल पड़ रही हूँ मैं
बचा नहीं अब भुजबल
मृत्यु मुझे हर लेगी
कोई जटायु नहीं आयेगा मेरी रक्षा करने
तुम आओ और खोलो बाजूबंद मेरा ऐसा हो नहीं पाता
तुम्हारी प्रतीक्षा में बढ़ जाता है रक्तचाप
बाजूबंद खुल जाता है

अर्थ
इंद्रनील- नीलकांत मणि
ढाकाई जामदानी- बंगाल में पहनी जाने वाली एक प्रकार की सूती साड़ी

किस आँख में है मेरा आलय ….

अनुचरी हूँ
बलपूर्वक बंद किये हैं मैंने अपने ओंठ
दमखम के नाम पर दो हथेलियाँँ हैं
जीवन एक कूटप्रश्न से बढ़कर कुछ नहीं
मैं पौ फटने की वेला हूँ
दोपहर तक के इंधन की संभावना लिए
निरूद्देश्य रात्रि तक अनुपस्थित रहती हूँ दृश्य में
क्या रात्रि की आँख में है मेरा आलय

मैं मयूरभंज की एक मुद्रा हूँ
एक मुख्यमंत्री के सम्मुख किसी चरित्र को दर्शाती एक तकनीक भर
मैं एक चुंबन की मोहर हूँ
एक तितली के स्वप्न में पुष्प बनकर अडोल पड़ी हूँ
दीवार घड़ी का मौन हूँ
कई युद्ध, कई जन्म, कई मरण, कई कर्फ्यू देखने को नियमबद्ध हूँ
क्या किसी नियम की आँख में है मेरा आलय

धीरे धीरे मरने की प्रक्रिया हूँ
चारो तरफ खड़े लोगों को एक निरर्थक प्रतीक्षा कराती एक देह भर
गुलेल से निकला एक कंकड़ हूँ
तुम्हारे सीने पर लगने वाली चोट से निकली आह का पानी
क्या किसी प्रतीक्षा करती हुई आँख में है मेरा आलय

कितनी चीज़े नष्ट हुई हैं मुझसे
दिमाग में चलती है एक पवनचक्की
आँखें दिशाओं को उठाकर मुट्ठी में बंद कर देती है हठपूर्वक
औचक ही टूट जाती है नींद किसी कागज़ के फड़फड़ से
क्या किसी नींद भरी आँख में है मेरा आलय

मैं उठी थी एक बार जंगल बचाने की उम्मीद बनकर
मेरे एक हाथ में धूँ धूँ की ध्वनि है
एक हाथ में कुछ कविताऐं
क्या कविता पढ़ती किसी आँख में है मेरा आलय

कहो देव
किस आँख में है मेरा आलय

सोनागाछी मतलब सोने का पेड़ ….

वे नर्तकियाँ थीं
नृत्य कला में सम्पन्न
मणि खचित, अमल, धवल
देवी को पूजती स्वयं कला की देवियाँ
राजसम्मान पाती थीं
उनके समीप नहीं जा पाता था कोई भी सामान्य जन
यह अक्षुण्ण नहीं रहा
समय की प्रलयाग्नि बुझी इनकी देहों पर
देव का कौन सा आज्ञाकारी मेघ देता उन्हें शीतलता
पृथ्वी के अश्रुओं से महीन हो जाती थी इनकी हँसी
कहलाई सिद्धि दात्री शक्तिस्वरूपा पंचवेश्या
राजवेश्या, गुप्तवेश्या, देववेश्या, नागरी एंव ब्रह्मावेश्या
अप्सराएँ और गणिकाएँ कहलाती थी वैदिक काल में
कहलाई देवदासियाँँ और नगरवधुएँ मध्ययुग में
वे लोष्ठवत चीज़ों में तुली
अब वे वेश्याऐं कहलाईं
मात्र वैश्याऐं

चित्तरंजन एवेन्यू में फैला है बाज़ार
कई सौ बहु मंज़िला इमारतों में
कमलिनियाँ खिलती हैं भीषण झंझानिल में
जनी गई कन्याओं को छाती से चिपका कर बैठी माँओं
से छीन ली जाती हैं उनकी बेटियाँ
बारह साल की कन्या सीख जाती है कंचुकी उतारना,
पुरूषों के साथ सो जाना, पीड़ा में कीकना
उठती हैं तो पाती हैंं अपने ही हाथों में अपनी
मृत देह और दो सौ रूपये
इतना ही है इनका मूल्य
किसी भी एकादशी स्नान से पवित्र नहीं होती ये वेश्याऐं

कंजकली खिल नहीं पाती सोनागाछी में
एक अबूझ भाषा तैरती है इनकी आँखों में
एक अ- मापे समय का अश्रु मज्जन है जीवन इनका
मीलों की यात्रा एक दिन में पूर्ण करके
गिरती हैं ये अनलपिण्ड की तरह
वज्र के समान कठोर हृदय लिए प्रयत्न करती है
गिरती हैं, झरती हैं, बहती हैं, रूलती हैं
इनकी आख्यायिका में केवल कालिमा और हतभाग्य है

जिस परिश्रम से होती है खेती, उसी परिश्रम से
बनता है आलय, बनती हैं सड़के, बनते हैं कारखाने
इनके परिश्रम से बनती हैं और कई वेश्याऐं
प्रेमपत्रों और माथे के स्नेह चुंबनों से वंचित
सम्मान से और सुख से वंचित
सुरक्षा से और अनुराग से वंचित
राख राख है ये सभी पर वास है सोनागाछी में
सोनागाछी मतलब सोने का पेड़

आदिवासी प्रेमी युगल ….

वो झारखंड जिले के संथल से
बत्तीस किलोमीटर दूर ऊसर भूमि
पर वास करती है
आँखो मे वहनि सा तेज
सूरत से शतावरी
मंदाकिनी से होंठ
काकपाली सी आवाज़
जंगली पुष्पो के आभूषण पहन
शिलिमुख बन धँस जाती है
नवयुवकों की छाती में

और वो …. श्याम वर्ण ओढ़े
जब अपने समुदाय संग
तटिनि पार करता है तो
सुरम्य लगता है
शोभन वाटिका रचने की चाह मे
देवो ने आदिवासियो का खेड़ा रचा
आदिवासी मानवों की श्रेणी के
सबसे शिथिल एंव वसुतुल्य
काननवासी हैं

इसी दल में जन्में दो देहो ने
प्रेम के लावण्य से और चक्षु के
कुरूशिये से फुलकारी बुनी है
उनके पास कोई तकनीकी यंत्र
नही जिसमे वो दिन रात प्रेम पुष्कर
मे नहान करें वरन् उनकी धरणी ही
एकमात्र सूत है जो दोनो को
समेटता है समीप

दलछाल की चटनी बना
वो अपने प्रेयस को खिलाती है
सबसे छिपकर
और वो उसे भेंट करता है
जंगली बैंगनी पुष्प
जिसे पाकर वो इन्द्राणी सा
इठलाती है
रात्रि जलसे में वे दोनो जब
नृत्य करते हैं तो चंद्रमा भी
सोलह कलाओं से
परिपूर्ण हो दमकता है

कामदेव के गन्ने के धनुष से
आहत है दोनो
प्रेम के सातो आसमानों के
सबसे ऊपरी तह के बादल पर
विराजित हो विचरण करते हैं
वो अपनी प्रेयसी के लिये
बाँस, टहनी और फूलो से
फूलमहल गणना चाहता है
मोक्षदायिनी देवी की प्रार्थना में
रख आया है मन की बात

और वो खुद को विसर्जित कर
देना चाहती है उसके प्रेम पोखर में
उसके अंतिम स्मृति मे
केवल उसके प्रेयस का वास है
हाँ …. उसका प्रेयस
पीले तपन में
सुरमयी सौम्य ब्यार के समान
छुपी ओट से टकटक करती
परिकल्पना के समान

उन जंगली गुफाओं में
अंधेरो की आँखे मध्यम
उजाला कर शरण देते हैं
प्रेमी युगल को
उनके पैरो तले लाल मिट्टी
उरवर्क बनकर बेले खिंच देती हैं
जहाँ वे दोनों
वही प्रणय की शहनाई

वे कभी एक होंगे या नही
ये देवों का निष्कर्ष
वर्तमान ही उनकी मज़बूत शाखें
जिनपर झूल उनके पेटो में
गिलहरियाँ और तितलियाँ
फर-झड़ करते हैं
एक दूसरे के जालीदार ओट हैं
वे आदिवासी प्रेमी युगल ….

धितांग ….

हेमंत कुमार का धितांग धितांग बोले
गीत पर कुछ लिखने की इच्छा नहीं मुझे यहाँ
मेरे अपने जीवन में जितने धितांग बजते हैं हर दिवस
उन सब के बारे में कहना है मुझे आज

मैं कालीबाड़ी पोखर की आत्मजा हूँ
वहीं से जन्मी
पोखर किनारे टीमटाम वाला छोटा सा घर था
पोखर से कोकनद तोड़ कर पूजाघर में माँ लोक्खी को चढ़ा दिया करती थी
वहाँ की लड़कियाँ छुटपन में हरिप्रिया हरिप्रिया खेलने की होड़ में खुद को ही हरिप्रिया समझ जाया करती थीं
ये मेरे जीवन का पहला धितांग था
मैं हरिप्रिया ना बन सकी

भारत के दूसरे सबसे बड़े महानगर में जन्मने के बावजूद मैं आज तक बिरला तारामंडल में माँ बाबा को नहीं देख पाई
दादा उमेशचंद्र बैनर्जी कहते थे मरने के
बाद हम सब तारा बनते हैं
कितने पापिष्ठ निकले दादा
कौन कहता है इतना बड़ा असत्य अपनी पौत्री से
यह दूसरा असत्य धितांग बनकर कानों में अभी तक टंकार भरता है

घर के आँगन में देवी की प्राण प्रतिष्ठा में वैश्यालय की मिट्टी लेने जाती थी माँ और काकियाँ
सभी पुरुष अपनी पवित्रताऐं वैश्यालय के बाहर छोड़कर अंदर प्रवेश करते हैं
एक ओज देखा है मैंने वैश्याओं के मुख पर
मंत्रमहोदधि पढ़ाती रही माँ और काकियाँ बचपन में हम बच्चों को
काकी की नज़र बचाकर मैंने काका को देखा था एकबार वैश्याओं को देखते हुए
यह तीसरा धितांग मुझे किन्हीं चार पुरूषों पर विश्वास नहीं करने देता

जिस विद्यालय में प्रधानाचार्या हूँ
वहाँ का चपरासी मुझसे घृणा करता है
उसकी चाहना है कि मैं अपना ऑफिस तीन बजे ही बंद कर दिया करूँ
वो डॉयबेटिक है, दोपहर में नींद की आदत है उसे
कभी देर हो जाती है तो घूरता है मुझे
मैं सौरी भईया बोलकर मुस्कुरा देती हूँ
यह चौथा धितांग मुझे ही धिक्कारता है
ईश्वर उन्हें सदा स्वस्थ रखें

सुबह केश काढ़ती हूँ फिर अगली सुबह ही मौका मिल पाता है
थककर अगर मोबाईल में रबींद्र संगीत लगाती हूँ तो बच्चे ईयरफोन पकड़ा देते हैं
बच्चो के बादशाह और जस्टिन बीबर से मेरे रवींद्रनाथ ठाकुर हार जाते हैं
इस पाँचवें धितांग में मेरा आत्मसम्मान खो जाता है

घृणा नहीं कर पाती किसी से
दूसरों की गलती पर भी खुद ही आगे बढ़कर क्षमायाचना कर लेती हूँ
कलयुग में चालाक बने रहना चाहिए
जेठानी कहती है मुझसे
यह छठवाँ धितांग मुझे मेरी पहचान नहीं बनाने देता

सातवां धितांग आ चिपका है मेरी आत्मा से
बांग्लाभाषी होने के बावजूद भी मुझपर बांग्ला शब्दों के नकल का आरोप लगा है
मैं अचम्भित हूँ
यह तो ऐसा हुआ जैसे पक्षी को कोई आरोप लगाये कि उसने अपने पर चुराये हों कहीं से
मैंने उनका मन दुखाया
मैंने क्षमा याचना की, समझाया, ईश्वर की सौगंध भी खाई कि ऐसा मैंने नहीं किया
मेरी नहीं सुनी गई
मैं उनसे स्नेह रखती हूँ
ईश्वर उनसे पृथ्वी की सबसे सर्वश्रेष्ठ कविताऐं लिखवायें

कैसे होने चाहिए ये धितांग
सुंदरबन के किसी बाघिन की तरह,
या राशन की कतार में लगी एक सत्रह साल की लड़की की तरह जो अपनी छाती ढापे खड़ी है
समुद्र किनारे सनबाथ लेते दो अंग्रेज़ो की तरह, या किसी किरानची की बुद्धि की तरह,
युद्ध में जाते सैनिक की तरह या
उस अधेड़ औरत की तरह जिसका सुख उसके शादी के लहँगे में संदूक में सो रहा है
या उस लड़के की तरह जो प्रोपोज़ करने से डर रहा है
या उस बीमा एजेंट की तरह जिसकी कोरोना में पौलिसी नहीं बिक रही

ये धितांग हम सब के जीवन में है
अंतर बस इतना है कि कोई इसे टूटे पहाड़ की तरह साधता है और कोई
धितांग धितांग बोले गीत की तरह

उसकी छवि को देखते हुए ….

रोटी देर तक चबाती हूँ
और देखती हूँ जैसे किसी गोप ने पृथ्वी के हर बच्चे तक
दूध पहुँचा दिया हो
जैसे तीजनबाई छितरा रहींं हो पंडवानी का जादू
जैसे जीवनोदक आ टपका हो पृथ्वी के हर अस्वस्थ
पिता के कंठ में
जैसे किन्नरेश आ पहुँचे हों मेरे द्वारे

उसकी छवि को देखते हुए लगता है
जैसे कर्नाटक की ढालवाँ ज़मीन पर खड़ी हों
असंख्य चंदन की खपच्चियाँ
जैसे किसी सुकुमार को यज्ञोपवीत के लिए
‘यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं’ बुलवा रहा हो कोई विशारद
जैसे किसी लिखने वाली सहेली को राष्ट्रीय पुरस्कार
की सूचना मिली हो फोन पर
लगता है जैसे बीहड़ में वर्षा हुई हो अभी अभी

उसकी छवि को देखते हुए लगता है
जैसे ऊष्मा में प्रेमी ने फूँक मारी हो प्रेमिका के चेहरे पर
जैसे त्रिपथगा में तीन डुबकियाँ लगा कर निकली हो देह
जैसे प्राणप्रिया मार्गी गुनगुना रही हो घर के आँगन में
जैसे मदांध मार रही हो प्रेयसी अपने प्रेयस को देख देखकर
जैसे चाय बागान में औरतें गा रही हों सुमधुर लोकगीत

उसकी छवि को देखते हुए लगता है
जैसे अनेक रानीकीट फिर से पाये जाने लगे हों बागानों में
और प्रत्येक रोमकूप में खिले हों ब्रह्मकमल

– डॉ. जोशना बैनर्जी आडवानी

31 दिसंबर, 1983 को आगरा में जन्म। आगरा विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद बी.एड., एम.एड. और पीएच.डी.। पहला कविता संग्रह “सुधानपूर्णा”। सीबीएसई की किताबों के संपादन में सक्रिय। अधिकांश समय कोलकाता में बीता। बोलपुर और बेलूर, कोलकाता में रहकर इन्होंने कत्थक और भरतनाट्यम सीखा। इनकी कविताओं में बांग्ला भाषा का प्रयोग अधिक पढ़ा जा सकता है।

संप्रति, आगरा के स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक स्कूल में प्रधानाचार्या पद पर कार्यरत।

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