मैं जानूँ, बात पुरानी है, सोने की चिड़िया कहते थे।
वे किस्से और कहानी हैं, जब दादी नानी बसते थे।
जब हर आँगन तुलसी फलती, हर द्वारे नीम निबोली थी,
जब मैया के सिर पर आँचल, जब गुड़िया रानी होती थी।
जब सिर पर छईयाँ बाबु की, दादी का राज चला करता,
जब प्रीत-तराजु में देखो, हर व्योपार चला करता।
जो शान बुजुर्गों की घर में, तो आन सभी की रह जाती।
जो एक ईशारा वो कर दें, तो जान भी हाजिर हो जाती।
क्या बात थी उन चौबारों में ,क्या था जो अब मिल रहा नहीं।
क्यों मिनखों को बिलखा करके, चैन से भी सो रहा नहीं।
ऐसा क्या था जो छूट गया, ऐसा क्या था जो खुदा हुआ,
ये किसकी साजिश है यारा, भारत भारत से जुदा हुआ।
लो आज तुम्हें बतलाती हूँ, लो आज तुम्हें समझाती हूँ ,
था वार रीड की हड्डी पर, सब खेल तुम्हें दिखलाती हूँ।
यह देश राम कृष्ण का है, यह देश बुद्ध महावीर का भी ।
यह देश है वीर प्रतापी का, यह देश भगत वीर का भी।
इस देश की माटी ने उगले, मोती भी और हीरा भी।
जो नहीं चला बाजारों में पर, थोड़ा खोटा सिक्का भी।
मिल सारे शास्त्र बदल डाले, मिल सारे गात्र बदल डाले।
पश्चिम की लहर ने देखो तो, जीने के वार बदल डाले।
हम भूल गए रामायण और, महाभारत की शिक्षा सारी।
मन की बातों को रौंद किया, धन की चली धोंस सारी।
महलों पे महल सजे तो हैं, पर प्रेम-प्यार का वक्त नहीं।
रिश्तों की नदियाँ सूख गई, मनुहार मान को तख्त नहीं।
नानी के किस्से कौन कहे, दादी की साँकल कहाँ मिले,
जब माँ-बाबा का पता नहीं, स्नेह का आँचल कहाँ फले।
रिश्तों की बातों को छोड़ो, नन्हों के लिए समय कब है,
दाई के हाथों पल, ना जाने, रोते कब, सोते कब हैं।
सारी विद्या अब धन ही है, कागज के टुकडों पर मोहित,
हृदय की नदिया सूख रही, जाने ना कोई अपना हित।
राम चला जब वन को था , कौन वहाँ धन गढ़ा किया,
सीता सुकुमारी ने ही तो, जंगल में मंगल था किया।
ये शिक्षा गुरूकुल की ही थी, ये विद्या जीने की ही थी ,
जिस बिन प्यासे हम आज रहे, वो विद्या पीने की ही थी।
हे भारतवासी जागो अब , है देर मगर अंधेर ना कर।
फिर से हाथों में शास्त्र उठा, कूड़े में उसको ढ़ेर ना कर।
हर एक कथा कुछ कहती है, हर एक पात्र को जान जरा।
गलती करने वालों का क्या, हश्र हुआ है मान जरा।
भीष्म प्रतिज्ञा सही नहीं, ये शर-शैया बतलाती है।
दशरथ के वचन न हित के थे , रामायण ये सिखाती है।
स्त्री का अपमान हुआ क्यों, सीताहरण बतलाता है,
पुरूष का अहंकार घायल , चीरहरण दिखलाता है।
वाणी पर संयम ना हो तो, कुरूक्षेत्र सज जाता है,
मन जब बेकाबू हो जाए, पुत्र विरह सह पाता है।
अनाचार का राज जहाँ हो, धर्म अधर्म बन जाता है।
तब कृष्ण सारथी बन करके, रण का पाठ पढ़ाता है।
जब कामी लोभी हो समक्ष, तब मंत्रों से कुछ ना होगा,
जब शास्त्र वचन को भूल गए, तब तंत्रों से कुछ ना होगा।
शस्त्र जहाँ की भाषा हो, मानवता की कौन सुने,
जब मन अभिलाषा भारी हो, नैतिकता की कौन सुने।
जब नींव ही कच्ची मिट्टी पर, तब महल भला कैसे सम्भव,
रिश्तों में सेंध लगी जब हो, तब जीना सरल नहीं इस भव।
मोह कभी भी सही नही, हो सत्ता ,पुत्र किसी का भी,
रणभेरी बज जाती देखो, ना बचे वहाँ कुल दीपक भी।
ना राम बनो ना दुर्योधन, कृष्ण बनो, करो वृहद फलक,
ना भीष्म पितामह बन करके, पोषित होने दो वृथा ललक।
दशरथ-सा ना हो वचनबद्ध, जो राजा के हित का धातक,
लक्ष्मण सा भाई बनो नहीं, जो धर्मपत्नी का नहीं साधक।
तुममें रावण-सा दुरहंकार, ना पास कभी आने पावे।
सतपथ पर चलते-चलते, हनुमान -सा तुममें बल आवे।
भरत-सा भाई बनना हो, तो पतिधर्म भी मत भूलो,
माता के दिल की जानो, ममता को भी मत सूलो।
सबकुछ जो कागज के टुकड़े, हर धनवान सुखी होता,
फिर सोने की लंका पाकर, भी रावण क्यों दुःखी होता।
राजा होकर भी भरत भला, क्यों संयासी बन जाता,
पुत्र विरह में दशरथ क्यूँ, प्राण-त्याग स्वर्ग जाता।
फिर क्योंकर पंचवटी में भी, सीता की चितवन प्यारी -सी।
क्यूँ धास-फूस के बीच रही, द्रौपदी खिली फुलवारी-सी।
प्रीत प्रेम के बिना नहीं, जीवन की बगिया हरी-भरी।
ये बात निगम-आगम कहते, मैं भी कहती हूँ खरी-खरी।
सब यहीं धरा रह गया जहाँ, पट गई धरती थी लाशों से,
क्या लेकर आया था रावण, जो लेकर चला आज घर से।
बाहों का बल या धन का बल, सब यही धरा दुर्योधन ने,
जब अन्त समय आया देखो, खाली ही गया, देखा किसने।
ना पास कोई ना साथ कोई, सब पीछे छूटा पौरूष बल ,
जिसपर इतराया करता था, वो राजा महाराजा दल बल ।
ना गोद पिता की भी पाई , ना माँ के आँचल का साया,
ना भगिनी का कोई धागा, ना भाई का था सरमाया।
वो चला सिकंदर भी तो था, जब अन्तिम धड़ी थी मँडराई,
बूंद नीर की भी नसीब कब, प्राणों पर शामत आई।
अभिमानी जो पुरूष बने , वंचित वो सर्व सुख से,
जब नारी का सम्मान नहीं, तन्हा वो संचित दुःख से।
कृष्ण प्रेम में पगी हुई, उन गोपन की भोली बातें,
मात यशोदा की ममता, मक्खन-सी मीठी रातें।
मीरा का प्रेम अमर देखो, जन्मों-जन्मों की दीवानी,
परकीया रही राधा प्यारी, श्याम की थी वो परवानी।
ये किस्से कौन सुनाएगा, मन की बातें बतलाएगा,
अहसास कहाँ से पाएगा, गर साहित्य पढ़ा ना जाएगा।
कामायनी का वो पुत्र-स्नेह, मानवता का संदेश पढ़े।
मनु छोड़ चले जब घर को भी, तब भी श्रद्धा ने सत्य गढ़े।
गौतम की परित्यक्ता होकर, भी यशोधरा कब तिक्त हुई,
राहुल को आँचल में बाँधा , भले ही मन से रिक्त हुई।
वाणी कबीर सच की साधक, ताप मिटाए जन-जन के।
जाति-पाति के भेद जहाँ हो, अगन बुझाए हरिजन के।
तुलसी और सूर को जानो, जीने की कला बखानी है,
महादेवी मीरा को मानो, प्रेम की अगन बुझानी है।
प्रेमचन्द को पढ़कर के तुम, भारत को भी जान सको,
प्रसाद और पंत को जानो, हिन्दुस्तां को मान सको।
भिक्षुक की दुर्दशा दिखी, सूर्य की लेखनी फड़की है।
नागार्जुन की खरी-खोटी में, सत्य की गागर छलकी है।
सारी बातें कौन कहे, ये जीवन सार तू कैसे गहे,
साहित्य संस्कृति का संवाहक, क्यों जिससे अब दूरी सहे।
कृष्ण और राधा की भाँति, निर्मल प्रेम तुम्हें छू ले।
आत्म और परमात्म के रस को, हर रिश्तों में तू अब जी ले।
कितनी बातें कहूँ तुम्हें मैं, कम में ही जानो विरद सम ,
हर किस्से में राज छुपा है, बनता जीवन कब सुन्दरतम ।
इन्दु झुनझुनवाला
जनवरी 2022