माह की कवियत्रीः इन्दु झुनझुनवाला

बहुत वेग से उमड़ते हो तुम
किनारों से मिलने के लिए,
छूने को,
अपने आगोश में भरने को
बेताब से,
और जैसे ही
छूने लगते हो उसे,
छूते ही निस्पृह भाव,
वापस दबे पाँव
लौटते दिखते हो।
पर नहीं,
चतुर हो तुम,
साथ ले जाते हो
किनारे को
कतरा-कतरा हर बार।
घिसक जाती है,
फिसल जाती है,
किनारे की बालुशाही भूमि।
बहक जो उठती है
तुम्हारे प्यार में!
और तुम
छलिया बन छल जाते हो उसे।
सागर!
क्यूँ करते हो तुम ऐसा?
ये कैसा प्यार है तुम्हारा,
और कैसा समर्पण,
भूमि तुम्हारा?

आखिर क्यूँ?
ये कैसा प्यार है?
तुम जानते हो
वो आएगा,
बहा ले जाएगा
तुम्हें भी,
फिर भी,
तुम आने देते हो,
भर लेते हो आगोश में,
जानते हुए भी
कि वो चुरा ले जाएगा,
तुमसे तुम्हीं को
कतरा-कतरा।
ऐ किनारे की सोने-सी
चमकती रेत ,
आखिर क्यों?

मैं जानती हूँ
वो आता है
चुपचाप नहीं,
शोर मचाते हुआ,
बाजे-गाजे के साथ,
मुझसे मिलने।
पर मेरे आगोश में आकर,
शान्त, चुपचाप, खामोश-सा
कुछ लेकर जाता है,
तो कुछ देकर भी।
कुछ खाली होती हूँ मैं,
तो कुछ भरती भी हूँ,
छोड़ जाता है वो
कुछ अपना भी,
जिससे सूखी मैं,
थोड़ा भीग जाती हूँ,,,
फिर भी,
मेरा मैं और उसका मैं,
हमेशा बरकरार रहता है,
स्वतंत्र और
इस जहाँ से बेखबर,,,
यही प्यार है न !

पंक्षियों के नव ठिकाने हो गए।
नन्हें-नन्हें थे , सयाने हो गए।

माँ का आँचल फिर से सूना हो गया,
प्रीत के सब व्यर्थ गाने हो गए।

थामकर के अंगुली जिसकी थे बढ़े,
दूजे उनके अब खजाने हो गए।

जिसके सपने पूरे कर जीती रही,
नैनों से बिछुड़े, घराने हो गए।

ये सिला ममता का कैसे मिल रहा,
मिलके उनसे अब जमाने हो गए।

काँच-सा वो आशियाना, ढह गया,
भुरभुरे सब, पायदाने हो गए।

पूछता है मन,
आज स्वयं से विवश,
अशक्त होकर,
बन्दी अपने तन का,
बन्दी जैसे परिवार का भी,,
क्यों जीना है अब मुझे,,?
सोचता हूँ
सारे कर्तव्य निभाए मैंने।
अब बूढ़ा हो गया हूँ,
अब किसी काम का नहीं।
काश! वृक्ष होता तो
छाया ही देता तब भी,
आकर बैठते कुछ परिन्दें,
धोसलें बनाते,
कुछ राही थककर
मेरी ठंडी छाँव में बैठते।
मैं आह्लादित,,
अपने होने के अर्थ को पा जाता,,,,,।

पर मैं,,
सबकुछ सौंपकर
अपनी सन्तानों को,
किसी काम का नहीं रहा,
ठूंठ की भाँति खड़ा,
कटकर गिर जाना चाहता हूँ,
या उखाड़ कर
फेंक दिए जाने का इन्तजार करूँ?

इतने सारे लोग,
ढ़ेर सारी बातें,
और तुम भी,,,
कहने को
सभी तो हैं साथ में!
लोग कहते हैं
फिर
अकेली लगती हूँ?
जानते नहीं क्या,
अकेली नहीं मैं?
बसता है मेरे भीतर
एक भरा-पूरा संसार।
क्या तुम्हारे भीतर नहीं?

लोग कहते है ,
मिट्टी की है,
गल जाएगी पानी में।
भूल जाते हैं कि
भट्टी में तपकर
माटी भी
पत्थर-सी हो जाती है,
जिससे गलाना तो दूर की बात,
तोड़ना भी आसान नहीं होता।

प्रौढ कविताऐं
जिनमें राजनीति पर व्यंग्य हो,
सम्बन्धों पर तंज हो,
मधुरता में तंग हो,
विपक्षी की कडवाहट,
और सूरत बदरंग हो।
अक्ल वाले बेअक्ल हों,
स्वदेश पर ही फिकरे हों,
समझ के भी नखरे हों।
क्या-क्या बताएँ तुम्हें,
कैसे-कैसे जुमले हों,
स्त्री हो या मर्द हो,
रिश्तों-से झड़ती गर्द हो,
बच्चों की समझ से परे,
पत्थरों से अल्फाज जड़े,
कहीं गालियों की बौछार हो,
इन्सानियत पर ही वार हो।

पर मैं लिखती हूँ,
फूल की कहानी,
कहती हूँ
बूँद और समुन्दर की जुबानी।
सच ही लिखती हूँ,
पिरोती हूँ दिलों का दर्द,
मोती से आँसूओं की निशानी।
चाँद और तारों की बातें,
जमीं और पहाडों की रातें।
बीतते पलों की यादें,
वे मुलाकात और वादे।
बच्चों की तुतली बोली,
खेल-खेल में झगझते हमजोली,
प्यार और तकरार,
मिलते-बिछुड़ते बार-बार।

सबकुछ सर्द तो नहीं!
बेरहम हर वक्त
मर्द ही नहीं,
सिक्कों के दोनों पहलू,
कैसे मैं सब कुछ कह लूँ?
फिर भी मेरी कविता,
रूलाती है, हँसाती भी है,
कभी जीना,
कभी मरना सिखाती भी है।
तुम्हें प्रौढ़ नहीं लगती,
ना सही,
मेरी कविता
आँगन चौबारों में पलती है,
मेरी कविता,
दिल वार-त्योहारों-सी सजती है।

अगर मूर्तियाँ बोलती,
कौन पूजता उन्हें?
गूँगी-बहरी,
पत्थर की स्थिर मूर्तियाँ,
मोटे-मोटे ग्रंथ,
दुआओं के लिए उठते हाथ,
सलीब पर चढ़ा, वो निष्पाप,
ईश्वरीय प्रतीक,
मन में विश्वास जगा,
जीने की राह सिखा,
पर,,,
जो सजीव हो तो!
आँखों में झाँककर,
पूछता कुछ सवाल,,,
जलधारा प्रवाहित कर पाते
उसपर काँपते तेरे हाथ?
दीपक-अर्चन कर पाते?
माथे पर टीका लगाने ,
उठती जब उंगलियाँ तुम्हारी ,
क्या धुली है?
पूछ उठती वो।
जिस पुष्प को
बाग से तोड़कर लाए हो,
कीमत चुकाई है तुमने?
जानना चाहती वो।
जो दौलत मुझे चढ़ाकर
खुश करना चाहते हो,
क्या तुम्हारे पसीने की कमाई है?
किसी के आँसू तो नही पिरोए तुमनेे,
इस रूपहली-सुनहली माला में?
किसी की भूख, किसी की प्यास,
सजी तो नही है, प्रसाद की थाली में?
कुछ माँगने तो नही आए तुम,
या खींच लाई है तुम्हें प्रेम की आस?
अनगिनत सवाल,,,
तार तार आत्मा का जाल,
नहीं पूजा पाता कोई ईश्वर को,
अगर सजीव हो उठता,
आकाश से आवाज लगाता,
ग्रंथों से पुकारता,
मन के विराने से बाहर आकर ,
साक्षात्कार हो उठता ईश्वर,
कौन पूजता उन्हें,
अगर मूर्तियाँ बोलती,
कौन पूजता उन्हें??

अन्तर्मन की पीड़ा लिखने, अब तो अपनी कलम उठाओ।

सबकी हर जरूरत तो समझी, कभी नहीं अपने को परखा ।
आशा के भी दीप अनकहे, अनबूझा रह गया वो लेखा।
स्वप्न सुनहरे पले-मिटे कब, कब उनका था लेखा-जोखा ।
अब तो तुम अपने को जोड़ो, अब तो अपनी कथा सुनाओ।
अन्तर्मन की पीड़ा लिखने, अब तो अपनी कलम उठाओ।

कलयुग, त्रेता, सतयुग कह लो, हर युग में घातें होती हैं।
कुछ तो लोग कहेंगे देखो, बातों में बातें होती हैं।
युग को पर तुम दोष न देना, हर युग में रातें होती हैं।
धूप सहा है, वर्षा भी तो, अंधियारों की व्यथा सुनाओ।
अन्तर्मन की पीड़ा लिखने, अब तो अपनी कलम उठाओ।

माना, ममता के आँचल में, देने की ही चाह पगी है।
इन बुझती आँखों में अब भी, मिलने की भी प्यास जगी है।
दूर हुए पक्षी अब सारे, और-और की राह ठगी है।
कर्म किए जा फल इच्छा बिन, जीवन का ये सार सुनाओ।
अन्तर्मन की पीड़ा लिखने, अब तो अपनी कलम उठाओ।

इंदु झुनझुनवाला, बैंगलुरु, भारत
स्थाई निवासः 94, 3rd E cross, 2nd block, 3rd stage, 4th main, Basheshwarnagar, Banglore- 560079
दूरभाषः 9341218152
ईमेलः induj47@gmail.com

कवयित्री, साहित्यकार, समीक्षक, कलाकार ,विचारक ,जीवन प्रशिक्षक, प्रोफेसर, अनुवादक , दार्शनिक, संस्थापक अध्यक्ष इत्यादि अनेक उपाधियों के चित्र में मुझे संजोते, अनेकों सम्मान और पुरस्कारों से मेरी रचनाओं और कार्यों  को सराहते मेरे अपने , मेरे मित्र, मेरे परिचित ,,, 
पर मेरा परिचय ,,,
मेरे लिए बस इतना ही, एक तलाश उन मोतियों कि जो मेरे, आपके, हमसबके अन्तर्मन में कहीं गहरे,  बहुत गहरे छुपे हैं । जिन्हें इन्तजार है मेरा ,आपका ,,हमसबका ,,,,,,
यह तलाश ही बन जाता है जैसे मेरा जीवन ,,जो हरपल मुझे गिरकर सम्भलना सिखाता है ,,,डूबकर तैरने की कला सीखने में व्यतीत जैसे सारा जीवन और जो थोडा भी आँचल में आया,, उसे बाँटते रहने का अथक प्रयास ।

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