मौसियाँ
वे बारिश में धूप की तरह आती हैं —
थोड़े समय के लिए और अचानक
हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
और सधोर की साड़ी लेकर
वे आती हैं झूला झुलाने
पहली मितली की ख़बर पाकर
और गर्भ सहलाकर
लेती हैं अन्तरिम रपट
गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की
झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
कर देती हैं चोटी-पाटी
और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
किस धुन में रहती है
कि बालों की गाँठें भी तुझसे
ठीक से निकलती नहीं
बालों के बहाने
वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की
करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से
और फिर हँसती-हँसाती
दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं ––
चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे ––
सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
ध्यान भी नहीं जाता औरों का
आँखों के नीचे धीरे-धीरे
जिसके पसर जाते हैं साये
और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप ––
ख़ून के आँसू-से
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
काले-कत्थई चकत्तों का
मौसियों के वैद्यक में
एक ही इलाज है ––
हँसी और कालीपूजा
और पूरे मोहल्ले की अम्मागीरी
बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
लेती गई खेत से कोड़कर अपने
जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें ––
जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी,
अम्मागीरी मग्न सारे भुवन की।
एक औरत का पहला राजकीय प्रवास
वह होटल के कमरे में दाख़िल हुई
अपने अकेलेपन से उसने
बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया
कमरे में अंधेरा था
घुप्प अंधेरा था कुएँ का
उसके भीतर भी !
सारी दीवारें टटोली अंधेरे में
लेकिन ‘स्विच’ कहीं नहीं था
पूरा खुला था दरवाज़ा
बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था
सामने से गुजरा जो ‘बेयरा’ तो
आर्त्तभाव से उसे देखा
उसने उलझन समझी और
बाहर खड़े-ही-खड़े
दरवाजा बंद कर दिया
जैसे ही दरवाजा बंद हुआ
बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल कमल !
“भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिश्ता ?” उसने सोचा
डनलप पर लेटी
चटाई चुभी घर की, अंदर कहीं–- रीढ़ के भीतर !
तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत ?
सात गलीचों के भीतर भी
उसको चुभ जाता है
कोई मटरदाना आदिम स्मृतियों का ?
पढ़ने को बहुत-कुछ धरा था
पर उसने बांची टेलीफोन तालिका
और जानना चाहा
अंतरराष्ट्रीय दूरभाष का ठीक-ठीक ख़र्चा
फिर, अपने सब डॉलर ख़र्च करके
उसने किए तीन अलग-अलग कॉल
सबसे पहले अपने बच्चे से कहा–-
“हैलो-हैलो, बेटे–-
पैकिंग के वक्त… सूटकेस में ही तुम ऊंघ गए थे कैसे…
सबसे ज़्यादा याद आ रही है तुम्हारी
तुम हो मेरे सबसे प्यारे !”
अंतिम दो पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं
आफिस में खिन्न बैठे अंट-शंट सोचते अपने प्रिय से
फिर, चौके में चिन्तित, बर्तन खटकाती अपनी माँ से
… अब उसकी हुई गिरफ़्तारी
पेशी हुई ख़ुदा के सामने
कि इसी एक ज़ुबाँ से उसने
तीन-तीन लोगों से कैसे यह कहा
–- “सबसे ज्यादा तुम हो प्यारे !”
यह तो सरासर है धोखा
सबसे ज्यादा माने सबसे ज्यादा !
लेकिन, ख़ुदा ने कलम रख दी
और कहा–-
“औरत है, उसने यह ग़लत नहीं कहा !”
स्त्रियां
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा ––
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग
सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चीखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं ––
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली-फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं !
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार-बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है
हे परमपिताओ,
परमपुरुषो ––
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो
नमक दुख है धरती का और उसका स्वाद भी!
पृथ्वी का तीन भाग नमकीन पानी है
और आदमी का दिल नमक का पहाड़
कमज़ोर है दिल नमक का,
कितनी जल्दी पसीज जाता है!
गड़ जाता है शर्म से
जब फेंकी जाती हैं थालियाँ
दाल में नमक कम या जरा तेज़ होने पर!
वो जो खड़े हैं न—
सरकारी दफ़्तर—
शाही नमकदान हैं।
बड़ी नफ़ासत से छिड़क देते हैं हरदम
हमारे जले पर नमक!
जिनके चेहरे पर नमक है—
पूछिए उन औरतों से—
कितना भारी पड़ता है उनको
उनके चेहरे का नमक!
जिन्हें नमक की क़ीमत
करनी होती है अदा—
उन नमकहलालों से
रंज रहता है महासागर।
दुनिया में होने न दीं उन्होंने क्रांतियाँ,
रहम खा गए दुश्मनों पर!
गाँधी जी जानते थे नमक की क़ीमत
और अमरूदों वाली मुनिया भी!
दुनिया में कुछ और रहे न रहे—
रहेगा नमक—
ईश्वर के आँसू और आदमी का पसीना—
ये ही वो नमक है कि जिससे
थिराई रहेगी ये दुनिया।
बेजगह
अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून” –
अन्वय करते थे किसी श्लोक का ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर!
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ
अपनी जगह पर!
जगह? जगह क्या होती है?
यह, वैसे, जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही!
याद था हमें एक-एक अक्षर
आरंभिक पाठों का-
“राम, पाठशाला जा!
राधा, खाना पका!
राम, आ बताशा खा!
राधा, झाडू लगा!
भैया अब सोएगा,
जा कर बिस्तर बिछा!
अहा, नया घर है!
राम, देख यह तेरा कमरा है!
‘और मेरा?’
‘ओ पगली,
लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता!”
जिनका कोई घर नहीं होता-
उनकी होती है भला कौन-सी जगह?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है
कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँस कर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली?
घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग,
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
छूटती गई जगहें
लेकिन कभी तो नेलकटर या कंघियों में
फँसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ!
परंपरा से छूट कर बस यह लगता है-
किसी बड़े क्लासिक से
पासकोर्स बीए के प्रश्नपत्र पर छिटकी
छोटी-सी पंक्ति हूँ –
चाहती नहीं लेकिन
कोई करने बैठे
मेरी व्याख्या सप्रसंग!
सारे संदर्भों के पार
मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ,
ऐसे ही समझी-पढ़ी जाऊँ
जैसे तुकाराम का कोई
अधूरा अभंग!
अनामिका
जन्म : 17 अगस्त 1961, मुजफ्फरपुर (बिहार) शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी साहित्य में एम॰ए॰, पी॰एचडी॰। डी॰ लिट्। अध्यापन- अँग्रेजी विभाग,सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
कविता संग्रह : गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, अनुष्टुप, समय के शहर में, खुरदुरी हथेलियाँ, दूब धान।
हिंदी कविता में अपने विशिष्ट योगदान के कारण राजभाषा परिषद् पुरस्कार, साहित्य सम्मान, भारतभूषण अग्रवाल एवं केदार सम्मान पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। सन् 2021 में उनको उनके ‘टोकरी में दिगन्त’ नाामक काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्रदान किया गया।