क्या था तुलसी का मानस, क्या थी तुलसी की रामायण? क्यों यह हमें इतना डूबोती हैं, कई विविध पहलू हैं। आज हम बात करेंगे रामायण में प्रकृति कैसे मानव के साथ जुड़कर एक शिक्षक के रूप में , एक संपूर्ण तस्बीर, नीति शास्त्र और दर्शन की तरह उभरी है।
प्रकृति में दर्शन और दर्शन में नीति…मानस में प्रकृति वर्णन सिर्फ प्रकृति तक ही तो सीमित नहीं।
प्रकृति एक सशक्त और खूबसूरत उपकरण की तरह उभरी है मानस के पन्नों पर। प्रकृति के सहारे चार चांद लग जाते हैं वर्णन में। कथन बहु आयामी हो जाते हैं और भावों में गहनता, रोचकता और प्रखरता आ जाती है, वह भी एक अतुलनीय कोमल और सरस सुगमता के साथ। प्रकृति का मानवी भावों के साथ अद्भुत समन्वय, प्रकृति को मात्र एक जड़ दृश्य नहीं रहने देता। जितना तुलसी का एकात्म है प्रकृति के साथ उतना ही रामचरित मानस का भी। यहाँ प्रकृति में नीति व दर्शन है, पर्यावरण की चिंता है और समाजशास्त्र भी। उपमाओं में अच्छे-बुरे का समस्त विवेक लिए मानो पूरा मानव समाज ही सिमट आया है।
हर उपमा कवि की प्रखर कल्पना शक्ति और चरित्र की दृढ़ता को तो दर्शाती ही है, समाज के प्रति जिम्मेदार रवैये को भी दर्शाती है। अपरिमित इस कथा को इतनी तन्मयता से कहने वाले तुलसी सर्वोपरि रामभक्त थे, कवि थे या दार्शनिक और समाज सुधारक, निर्णय वाकई में कठिन है। सभी देवी देवताओं के वंदन और आवाहान के बाद तुलसीदास बालकांड के आरंभ में ही लिखते हैं कि रामायण के सात कांड इस मानस सरोवर की सुंदर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञानरूपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। रघुनाथ की निर्गुण और निर्बाध महिमा का वर्णन ही इस सुंदर जल की अथाह गहराई है। सुंदर छंद सोरठा और दोहा अनेक रंग वाले कमलों के समूह से शोभायमान हैं और अनुपम अर्थ , सुंदर भाव और अच्छी भाषा पुष्प रज, मकरन्द और इसकी सुगन्ध है।
मुझे नहीं लगता किसी अन्य महाकाव्य की उसके रचयिता ने इतनी सुंदर और प्राकृतिक प्रस्तावना इसके पहले कभी की है। फिर भी आगे वह लिखते हैं कि ‘भाव अनेक और आखर थोरे।‘
कवि तुलसी की बात करें तो कल्पना की उड़ान अनुपम है पूरे ही इस महाकाव्य में और जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि -उक्ति को चरितार्थ करती दिखती है- वाटिका में जब सखियों को छाड़ियों के पीछे से नील वर्ण राम और गौर वर्ण लखन एकसाथ दिखते हैं, तो वर्णन देखिए-मानो समुद्र से चंद्रमा उग रहा हो।
तुलसी अपने सजीव शब्द चित्रों के साथ-साथ दार्शनिक और विचारक के अद्भुत मिश्रित रूप में दिखते हैं यहाँ। उपमा एक-से-एक अनूठी। ऋतु वर्णन अप्रतिम । कहीं रघुपति भक्ति वर्षा ऋतु है, जो सींचती और तृप्त करती है। हर्ष और हरियाली लाती है। और अच्छे भक्त धान समान, जो लगातार अपने सद्गुण और सद् प्रयासों से समाज को पोषित और सुदृढ़ रखते हैं। और रा व म -राम नाम के दोनों अक्षर ही इस ऋतु के श्रावण और भादो दोनों मास हैं—उजाला-अंधेरा, सुख-दुख, जीवन-मृत्यु सृष्टि के सारे रहस्यों को खुद में संजोए-समेटे । अन्य कहीं वर्षा ऋतु वह ऋतु है जब कोयल मौन हो जाती है और मेंढक टर्राने लग जाते हैं।
प्रकृति और पुरुष में एक नैसर्गिक जुड़ाव दिखता है। वे एक दूसरे को आकर्षित और प्रभावित करते हैं, बदल देते हैं। जबसे उमा सैल गृह आईं, नदियों का जल शीतल और मीठा हो गया। शांत बहने लगा। पेड़ फल-फूलों से लद गए और खग-मृग-वृंद, वैमनस्य और भेदभाव को भूल प्रेम से रहने लगे। ऐसा ही प्रभाव रिष्यमूक पर्वत पर भी पड़ा, जब राम और लखन वहाँ कुटिया बनाकर रहने लगे थे।
राम और लक्ष्मण के संरक्षण में न सिर्फ मुनि निर्भय हैं अपितु,
गिरि वन नदी ताल छवि छाए।
दिन दिन प्रीति अति होहि सुहाय।।
यह परिवर्तन सकारात्मक सोच का और सदाचारी व्यक्तित्व के शौर्य और उपस्थिति की वजह से है। यहाँ अपरोक्ष रूप से पर्यावरण की चिंता तो है ही, सर्वे भवन्तु सुखिनः वाले रामराज्य की कल्पना भी है, जहाँ शेर और बकरी सारा वैमनस्य भूल एक ही घाट पर पानी पी पाएँगे। चाहे हम राम और कृष्ण की बात करें, या गौतम और गांधी की, हमारी तो सोच और शिक्षा- पूरी संस्कृति ही संरक्षण की है- संरक्षण प्रक़ति और पर्यावरण का, नैतिक मूल्यों का, मानव और समाज के हित का। सनातन धर्म और संस्कृति मात्र उपदेश या आदेश नहीं, एक जीवन पद्धति है।
मंगल कार्य पर वृक्षारोपण का वर्णन वैदिक काल से ही अपने ग्रंथों में मिलता है। सीता सहित जब चारो भाइयों का विवाह चारो बहनों से संपन्न हो जाता है तो गुरु वशिष्ठ आदेश देते हैं-
‘सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।’ और तब,
‘तुलसी तरुवर विविध सुहाए
कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए।’
आज भी तो यही एक उपाय है इस विनाशकारी पर्यावरण परिवर्तन को रोकने का।
प्रसंग अनुसार ही शब्द चयन व भाव हैं। इंद्र की आज्ञा पर कामदेव जब -‘निज माया बसंत निरमयऊ॥’ तो,’ कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥’
‘चली सुहावनि त्रिबिध बयारी।
काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥’
पर राम जब सीता को पुष्प वाटिका में देखते हैं तो, कामाग्नि का कहीं उल्लेख नहीं।
* बसंत रितु रही लोभाई॥’
‘लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥’
‘नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥’
उन्माद नहीं एक शांत ललित वर्णन है बसंत का यह।
जबकि बरखा ऋतु गरज-बरस के साथ ही अच्छी –
‘बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥’
श्री राम छोटे भाई लक्ष्मण जी से सीता के विरह में वर्षा रितु के माध्यम से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान को पूर्ण परिभाषित कर देते हैं ।
वर्षाकाल में आकाश में छाए हुए बादल गरजते हुए सुहावने तो लगते हैं, परन्तु विरह की वेदना से भी भर देते हैं तो कहीं यही बादल गृहस्थ को आते संत के सत्संग की अभिलाषा और उत्साह से भर देते हैं। और मोरों के झुंड बादलों को देखकर ऐसे नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं॥ पर
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
या फिर
दामिनि दमक रही घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।
जैसे दुष्ट की प्रीति अस्थिर होती है वैसे ही यह आकाश में तिरकती-थिरकती चपल बिजली- अद्भुत उपमा और कल्पना है। कब कहाँ किस पर गिर पड़े कुछ पता नहीं।
एक और
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥
पर्वत पर बूंदें अनायास ही गिर रही हैं। आघात कर रही हैं। और पर्वत सह रहे हैं ।
बादल पृथ्वी पर बरस रहे हैं, और पृथ्वी नम, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं।
* छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥
नदियाँ भरकर किनारों को तोड़ चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं और मर्यादा त्याग देते हैं। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे जीव से माया लिपट जाती है- जितनी अद्भुत उपमा उतना ही सटीक दर्शन।
वहीं सज्जन के पास आकर-
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥
या फिर:
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥
-पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड मत के प्रचार से सद्ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं -धर्म पाखंड नहीं, समाज का संबल होना चाहिए। आगे देखें,
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥
चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक और ज्ञान प्राप्त होने पर हरा-भरा हो गया॥
अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी
मदार और जवासा वृक्ष बिना पत्ते के हो गए हैं। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम नहीं टिकता। धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिल रही, जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है। सामाजिक चेतना और मर्यादा हर उपमा के साथ है तभी तो ग्रंघ का नाम राम-चरित मानस। चरित शब्द भी उतना ही मुखर जितना कि मानस।
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
-अन्न से युक्त और लहराती हुई खेती से हरी-भरी पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दंम्भियों का समाज आ जुटा हो।
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥
बरखा का पानी वैसे ही मेड़ों को तोड़कर बेरोक- टोक बह निकला है जैसे बिगड़ी हुई नारी स्वतंत्र हो जाती है।
संयमित मर्यादा है मानस में। प्रेम के अति कोमल प्रसंग भी बालों में गजरे लगाने तक ही सीमित रखे गए हैं। काम के उन्माद का वर्णन लिपटती लताओं और उमगती लहरों द्वारा है। शब्दों की ताकत का तुलसी को ज्ञान है तो कहाँ क्या सुधार की जरूरत है समाज में, इसका भी पूरा अनुमान। साथ ही यह भी कि-समरथ को नहिं दोष गुषाईं। गंगा में चाहे कितनी भी गंदगी गिरे, वह पवित्र गंगा ही कहलाएगी।
तुलसी दास जानते थे कि चित्र विचित्र है हमारा संसार और समाज – तुलसी जा संसार में भांतिभांति के लोग, हिलमिल सबसे राखिए नदी नाव संजोग।
यह हिलमिल ललित भाव ही है ,जो सर्वाधिक मुखर और प्रभावी लगा मुझे रामायण में। सफल वही हुआ जिसने अपनों का साथ नहीं छोड़ा।
मानो तुलसी ही नहीं, पूरी रामकथा बेचैन हो हमें रिश्तों की दुरुहता और समाज की विपन्नता और कठोरता की कालिमा से बाहर निकालने को। तत्कालीन बिखरे और भटके भारत को एक सूत्र में पिरोने और जोड़ने को…एक अभ्युदय आंदोलन है रामचरितमानस मानस। नीति और दर्शन से भरे मानस में प्रकृति वर्णन विषय वस्तु के अनुकूल और सारगर्भित तो है ही, नौ रसों से युक्त भी- प्रकृति व पुरुष पूर्णतः एकात्म भी हैं और एक दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पित भी –
बहुत कुछ लेती और देती है रामायण। भूलने नहीं देती कि-
‘संत विटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह के करनी।।’
शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com