महीयसी महादेवी वर्मा का रचना लोक-मंजरी पाण्डे

छायावादी कवियों में एक प्रमुख स्तंभ रहीं महादेवी जी।
यह सत्य है कि हर रचनाकार का अपना एक लोक होता है जिसमें वह विचरता है। वहीं वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करता है। भाव गढ़ता है,उकेरता है । शब्दों का गुंफन करता है। फिर रवानगी देता है जिससे उसमें एक प्रवाह बनता है। यह प्रवाह सुख दुख आक्रोश, श्रृंगार कुछ भी हो सकता है। पहला अवगाहन वह स्वयं लगाता है फिर इसी प्रवाह में पाठक डूबता,उतराता, अवगाहन करता है। रचनाकार का आंकलन होता है। जितने लोग इस प्रवाह में निमज्जित और अवतरित हों वह कृति और कृतिकार उतना सफल माना जाता है। रचनाकार का औरा निर्मित होता है। महादेवी तो महादेवी थीं। कोई दूसरी महादेवी अब तक न हुई।
महादेवी जी दैवीय कृपा का अंश थीं। तभी बाल्यावस्था से ही धर्म, आस्था, संस्कार से बंधने लगीं। कालान्तर में वही रूचि बन गई । परिणामस्वरूप अधिकांश कविताओं में नारी जन्य पीड़ा,संवेदना,विरह वेदना, श्रृंगार संयोग वियोग सब कुछ देखने को मिलता है ।यह उनका रचना संसार , आलोक का घेरा भी उनका ही है ।
जैसा कि हम जानते हैं कि उनका बाल विवाह हुआ । जो सफल न हो सका। लिहाजा एक बदसूरत अध्याय की तरह उनके जीवन संग हमेशा के लिये जुड़ गया। यह विडंबना ही थी । सर्वथा अप्रत्याशित , परन्तु त्रासदी तो थी , झेलना ही हुआ । पहले पूरे परिवार को झेलना पड़ा होगा । सयानी हो जाने पर महादेवी जी को भी कितना कुछ सोचना, समझना, झेलना हुआ होगा। सांस्कारिक परिवार था अतः शुरुआती संयम नियम, अनुशासन उनके जीवन में बड़ा काम आया । ।
मां धार्मिक महिला थीं। पूजा पाठ नियम संयम से रहना । इसी प्रभाव में महादेवी जी भी बचपन से ही सूर, तुलसी और मीरा के पद सुना करतीं थीं। गुनगुनाती भी रही होंगी।कह सकते हैं भक्ति और वियोग श्रृंगार बाल्यकाल से उन्हें मिला। मीरा जैसी ही भक्ति में रम गई । यही कब साहित्य बन गया। उन्हे भी आभास न हुआ होगा । सात वर्ष की अवस्था में पहली कविता लिखी । यानी उनकी कविताओं को संस्कार मिला बचपन से ही ।
उन्हें आधुनिक काल की मीरा इसलिए कहते हैं। क्योंकि मीरा की भक्ति,प्रेम, ईश्वरीय चिंतन सब वैसा ही रहा पर महादेवी जी में नारी समुदाय के प्रति चेतना, चिंतन भी बहुत है । देश दुनिया से सरोकार है । घर, परिवार, संसार से जुड़ीं रहीं , जिसका मीरा बाई में सर्वथा अभाव रहा।‌उन्हे तो कण-कण में गिरिधर से इतर कुछ नज़र ही नहीं आता था ।
इसी संस्कार के कारण ईश्वर विषयक प्रेम की अनुभूति उनकी प्रायः हर रचनाओं में दिखती है।
आत्मा परमात्मा का मिलन,विरह तथा प्रकृति के व्यापारों की छाया स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होती है ‌। वेदना और पीड़ा उनकी कविताओं के प्राण तत्व ही हैं जो प्रायः हर रचनाओं में आंशिक अथवा पूर्ण रूप में विद्यमान रहते हैं और उनके समस्त काव्य को वेदनामय कर देते हैं।
उन पर एकान्तवाद का आरोप भी लगता रहा है। विशेषकर सांध्यगीत काव्यसंग्रह में संकलित निम्नलिखित कविता की पंक्तियों का बहुधा उल्लेख होता है –
” मैं नीर भरी दुख की बदली ” ।
………
जिसके लिये उन्हें निराशावादी, पीड़ा ,अवसाद की कवयित्री भी कहा गया। पर इसी कविता के दूसरे बंद में उत्साह देखें –

मेरा पग पग संगीत भरा
श्वासों में स्वप्न पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दूकुल
छाया में मलय बयार पली ।

वास्तव में उन्होंने विशुद्ध रूप से अपनी भावनाएं रखीं हैं। माना कि उनकी अधिकांश रचनाएं आत्मकेंद्रित ही रही हैं। पर समवेदना की पराकाष्ठा भी है जिसके कारण पाठक स्वाभाविक अनुभूति में उतर जाता है । जहां महादेवी जी के कथ्य के साथ तादात्म्य स्थापित होता है। एकाकार हो रसानुभूति करता है । उकताता नहीं है ।
उन्होंने स्वयं जिस अन्तर्पीड़ा को भोगा,सहा ,उसे प्रेम में ढाल कर पी गई और विरह रस में भी मगन हो उल्लास मनाती हैं। यही सीख भी महिला समाज को देती हैं कि कभी न घबराना न हार मानना है ।
कविता के अंत में नारी जीवन का सत्य उद्घाटित करती हैं । बताती हैं नारी समुदाय को कि हताश निराश होने की आवश्यकता नहीं । इसमें दैन्यावस्था नहीं उसकी महानता को दर्शाया है । नीचे दी गई पंक्ति भी कुछ ऐसा ही बोध कराती है-
नारी तेरी यही कहानी
आंचल में दूध और आंखों में पानी ।
ये तो हर नारी का नारीत्व है । कुछ लोग अन्यथा अर्थ लगाते हैं कि स्त्री को बिचारी अवस्था में दर्शाया गया है । परन्तु ऐसा नहीं नारी के उस सामर्थ्य ,संस्कारगत कोमलता को दर्शाने की कोशिश है , जिसमें विषम परिस्थितियों में भी नारी ही सब कुछ सह कर भी सबको,घर परिवार,समाज को मजबूती से थामें रखती है ।आंचल में कुल, संसार, मर्यादा हृदय में पीड़ा का आगार ये तो उसका अपना स्वाभाविक स्वरूप है । जिसके कारण ही वेदवाक्य कहे गए –
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ” इतना ऊँचा स्थान दिया गया । इससे विलग होने की क्यों सोचना ? अपनी मर्यादा को क्यों खोना ? ।
कितनी भी आधुनिक हो जाए नारी पर यह शाश्वत सत्य है कि नारी त्याग और ममता की प्रतिमूर्ति हैं । इसे अधिकार समझ लें तो इसे निभाने में भी सुख और आनन्द आएगा । महादेवी जी ने ये समझ लिया था । उन्होंने इसी कविता के अंतिम बंद में कहा –

विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना ,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली।

हर नारी जीवन की क्या यही गाथा नहीं है ? तो क्या वह दुखित, पीड़ित हो रो रो कर जान दे दे या हिम्मत से जीवन का गरल पीकर शान से चले। महादेवी जी शान से मान सम्मान के साथ सर उठा कर जीने की पक्षधर हैं।

छायावादी चारों कवियों में से महादेवी जी के लिये कहा जाता है कि वे उस काल की रचनाओं में प्राण डालती है। यानी भावनात्मकता को समृद्ध करती है।। इसे निराशावाद कैसे कहा जा सकता है ? मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि महादेवी जी स्वयं आत्मानुभूति अपनी रचनाओं में रख कर स्वयं जैसे मुक्त हो जाती, हल्की हो जाती है। परिस्थितियों से संघर्ष करने की उनमें ऊर्जा आ जाती है । जैसे कहा गया है कि दुख बांटने से व्यक्ति का अपना दुख दर्द हल्का होता है। तभी तो वह जीवन भर की पीड़ा को ढाल बना सकीं ।
प्रगतिशील नारियों के लिये वह आदर्श व्यक्तित्व हैं। नारियों के लिये आजीवन समर्पित रहीं। यहां कृष्ण की मीरा से अलग हैं महादेवी जी‌ । ्सामाजिक सरोकारों से भी इत्तेफाक रखतीं हैं। प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महिला शिक्षा के क्षेत्र में यह क्रांतिकारी क़दम था । वो स्वयं कुलपति भी रहीं। महिलाओं की प्रमुख पत्रिका” चांद ” का संपादन, प्रकाशन किया। भारत में महिला कवि सम्मेलन की स्थापना की । लगभग सभी राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजी गई। गांधी जी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। यानी नारियों के उत्थान के लिये बहुत काम किये स्वयं भी मिसाल बनीं । ये अदम्य ऊर्जा अपनी रचनाओं से प्राप्त किया। इस तरह से उन पर लगने वाला आरोप तो एक ओर से खारिज हो जाता है।
हां एकान्तवाद उनका अपना है ।अपनी अनुभूतियों का भण्डार, अपने आचार, विचार और उसमें सृजन । उनका रचना लोक इतना विस्तृत है जिसमें बाल्यकाल में हुए बालविवाह की विडंबना के बावजूद अपने को सँभाला । पूरा जीवन अंधकारमय हो जाने से बचाया । उनकी अनुभूति,उनकी रचनाएं पतवार का काम करती हैं। जिसके सहारे न केवल अपना जीवन व्यतीत किया वरन् सशक्त नारी के रूप में उभर कर आती हैं। कितनों की प्रेरणास्त्रोत है।
प्रथम काव्य संग्रह ” नीहार” में कविताओं संग एकमात्र गीत है-

जो तुम आ जाते एक बार”
………….
तो क्या ……..? क्या होता ? पता नहीं पर जाने क्या होता ? रहस्य को समेटे नारी मन की अकथनीय वेदना की ओर इशारा है । एक वाक्य पूरा वर्णन है । पूरे कथ्य को समझा जा सकता है। रहस्यवादी रचनाकार की ख्याति भी है महादेवी जी की । ऐसी रचनाओं में अपनी गरिमा के साथ आत्म निवेदन है , विरह जनित व्याकुलता के साथ संयोग की तीव्र लालसा भी छिपी है।।पूर्ण आशावादी हैं।
नीरजा काव्य संग्रह में

” बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं ” शीर्षक से कविता का एक बंद देखें –

नयन में जिसके जलद वह तुषित चातक हूं
शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूं
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूं,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूं,
दूर तुमसे हूं अखण्ड सुहागिनी भी हूं ।

कदाचित मन विचलित होता है ।पर आशा और विश्वास कम नहीं होता। फूल से कोमल विचार हृदय में छिपे हैं। मगर व्याकुलता अपने अदृश्य प्रियतम से मिलने की भी है । यहीं नहीं जो मान लिया,ठान लिया वहां दृढ़प्रतिज्ञ है । जैसे मीरा कहती हैं –
” मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ”
वैसी ही महादेवी जी कहती हैं । ” दूर हूं तो क्या मैं तो अखण्ड सुहागिनी हूं ” ।
मेरा सुहाग है वो अदृश्य प्रियतम । उसे कौन छीन सकता है ? यह लौकिक विवाहादि सब तुच्छ हैं ।
उनका प्रेम तो मीरा जैसा है । एक उस अदृश्य अलौकिक सत्ता के अलावा कुछ दिखता न भाता है । महादेवी जी सकारात्मक सोच के साथ खड़ी होती है तब ये पंक्तियां कहती हैं –

फिर विकल हैं प्राण मेरे !
तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उस ओर क्या है !
जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है ?
क्यों मुझे प्राचीर बन कर
आज मेरे श्वास घेरे ?

ईश्वर के प्रति अत्यंत आस्थावान महादेवी जी का अनुभूति लोक वस्तुत: अतिविस्तृत और एकान्तिक था। यानी वो और उनकी अनुभूतियों के अतिरिक्त किसी का प्रवेश नहीं था। इसीलिये वो आत्मकेंद्रित होकर बोलती हैं । हालांकि कहती वो जन जन की बात , जन जन के लिये हैं । ये अनुभूतियां ही उनका संसार, जीने का आधार है। यही जमापूंजी है जिसे लेखनी के माध्यम से खर्चा भी है बांटा भी है और इसी से अपनी रचना का संसार निर्मित किया ,सजाया, संवारा है । जिसके आसपास न कोई अब तक पहुंच पाया है न जल्दी कोई उम्मीद दिखाई दे रही।
परिवेश को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि कविता का संस्कार और आध्यात्मिक आधार परिवार की देन है।इनके नाना जी ब्रजभाषा में लिखते थे। महादेवी जी ने भी शुरुआत ब्रजभाषा में लेखन के साथ किया । ब्रजभाषा से जुड़ना भी माना आध्यात्म कीओर एक कदम ही था। कृष्ण स्वरूप को मन मंदिर मे बिठाने का संयोग ही बना होगा । बाद में समकालीन रचनाकारों ने खड़ी भाषा में लिखने के लिये प्रेरित किया।
पर एक विशेषता इनके लेखन की ये भी द्रष्टव्य हैं कि काव्य की जो संवेदना, वेदना एकदम छलक कर आती है वह गद्य में नहीं दिखती। यहां यथार्थ स्पष्ट है। निबंध,ललित निबंध,लेख, संस्मरण सब कुछ उत्कृष्ट लेखन का नमूना है।
इस तरह महादेवी जी का रचना आलोक आध्यात्म और रहस्य से भरा हुआ है। संस्कृतनिष्ठ भाषा है । भारतीय संस्कृति के मानक पर खरा उतरता है । जो चाहे उनके साहित्य में अपने मनोनुकूल तथ्य कथ्य प्राप्त कर सकता है पर प्यास फिर भी बनी रहेगी । ऐसा आकर्षण है । उनके साहित्य में एक और बात महत्वपूर्ण है । वह एक चित्रकार तो हैं । चित्र भी बनाए हैं उन्होंने । परन्तु प्रतीकों के माध्यम से भी अपनी बात रखी है । यहां यह भी ध्यातव्य है कि इनका प्रायः हर जगह प्रयुक्त होने वाला प्रतीक दीपक है । बचपन में सात वर्ष की उम्र में जो कविता लिखी। वह दीपक पर ही केन्द्रित थी। आगे अनेक रचनाओं में दीपक प्रयुक्त हुआ है ।संभव है ये दीपक उनका आध्यात्मिक , सर्वव्यापी ईश्वर ही है ।
उन्ही की पंक्तियों के साथ अपनी लेखनी को विराम दे रही हूं –

उड़ उड़ कर जो धूल करेगी
मेघों का नभ में अभिषेक
अमिट रहेगी उसके अंचल-
में मेरी पीड़ा की रेख ।

डाॅ मञ्जरी पाण्डेय
सेवानिवृत्त शिक्षिका,( राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त )
कवयित्री, लेखिका, रंगकर्मी
सारनाथ, वाराणसी।
दूरभाष- 9973544350

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