हमारे वेद- वीरेन्द्र यादव, प्रकाश गोविन्द

वेदों में वृक्ष संस्कृति ( पर्यावरण) की अवधारणा- वीरेन्द्र यादव

भारतीय संस्कृति को अरण्य (वृक्षों) की संस्कृति भी कहा जाता है क्योंकि भारतीय संस्कृति और सभ्यता वनों से ही आरम्भ हुई। भारतीय ऋषि-मुनियों, दार्शनिकों, संतों तथा मनस्वियों ने लोकमंगल के लिए चिंतन-मनन किया। अरण्य (वनों) में ही हमारे विपुल वाङ्मय, वेद-वेदांगों, उपनिषदों आदि की रचना हुई। अरण्य में लिखे जाने के कारण ग्रन्थ विशेष आरण्यक कहलाए। प्रकृति के विविध स्वरूप को समझते हुए वृक्षायुर्वेद की रचना की गई। भारतीय संस्कृति में वृक्षों की जितनी महिमा-गरिमा का उल्लेख किया गया है, सम्भवत: और किसी देश की संस्कृति में देखने को नहीं मिलता है। सदियों से ही ऋषि-मुनियों ने वृक्षों में देवत्व एवं दिव्यत्व का एहसास किया। वृक्षों में विराट विश्व एवं प्रकृति की विराटता का कोमल एहसास है। प्रत्येक पेड़-पौधों वनस्पति व वृक्ष में प्रकृति की एक अनुपम शक्ति और रहस्य छुपा हुआ है। जिसका आख्यान वेदों, उपनिषदों, पुराणों, शास्त्रों, लोक विश्वासों व परम्पराओं में अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है। इन वृक्षों के शुभ-अशुभ परिणामों को लेकर काफी अध्ययन भी किये गये, कौन से वृक्ष हमारे लिए स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी है ? कौन से वृक्ष केवल सौन्दर्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है ? कौन से वृक्ष हवन की दृष्टि से पवित्र हैं ? इन सभी सत्यों एवं तथ्यों की जानकारी हमारे वैदिक ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।

भारतीय संस्कृति में वृक्ष मानव के लिए स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में माने जाते हैं। आयुर्वेद में इनकी विशेषता का उल्लेख मिलता है और इन पौधों के गुण-धर्म के आधार पर इनका औषधि रूप में एवं पर्यावरण के लिए उपयोग किया जाता है। वनस्पतियों का यही गुण-धर्म एवं उनका सदुपयोगिता उन्हें देवत्व का स्थान प्रदान करती है। वृक्षों को देवता के समान मानकर उनकी उपासना, अभ्यर्थना की परम्पराएँ हमारी धरोहर रहीं है। वेदों में वृक्षों को पृथ्वी की संतति कहकर इन्हें अत्यधिक महत्व एवं सम्मान प्रदान किया गया है – सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद की एक ऋचा में कहा गया है – भूर्जज्ञ उत्तान पदो ………. (ऋग्वेद् १०/७२/४) अर्थात हमारी पृथ्वी वृक्ष से उत्पन्न हुई है। यह भी माना गया है कि बृह्मा ने जल में बीज बोया और वनस्पति उपजी ये मान्यताएं सृष्टि में वृक्षों के प्रथम आगमन की सूचनाएं ही नहीं देती, बल्कि इन्हें आदिशक्ति से भी जोड़ती हैं। गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वाधाहमहमौषधम् (९/१६) अर्थात् मैं ही औषधि हूँ तथा वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल) हूँ – अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां (१०/२६) वृहदारण्यक उपनिषद (३/९/२८) में वृक्ष का दृष्टांत देकर पुरूष का वर्णन किया गया है क्योंकि पुरूष का स्वरूप वृक्ष के समान है। दोनों में पर्याप्त समानताएं हैं। आयुर्वेदाचार्यों की दृष्टि में देखें तो विश्व में ऐसी कोई वनस्पति नहीं, जो औषधि के गुणों से युक्त न हो। यहाँ पर वृक्षों को देवतुल्य मानकर इन्हें व्यर्थ रूप से काटने पर नैतिक प्रतिबन्ध लगाया गया है। इसलिए श्वेताश्वतरोपनिषद में वृक्षों को साक्षात बृह्म के सदृश्य बताया गया है – वृक्ष इवस्तब्धों दिवि तिष्ठात्येक:। पद्य पुराण में भगवान विष्णु को अश्व रूप, वट को रूद्र रूप और पलाश को ब्रह्म रूप बताया गया है – अश्वत्थ रूपी भगवान विष्णुरेव न संशय:। रूद्ररूपी वटस्तदूत पालाशो ब्रह्मरूप धृक। महाभारत एवं रामायण में वृक्षों के प्रति मनोरम कल्पना की गई है। महाभारत के भीष्म पर्व में वृक्ष को सभी मनोरथों को पूरा करने वाला कहा गया है – सर्वकाम फला: वृक्षा। धार्मिक मान्यता है कि जिस घर में तुलसी की नित्य पूजा होती है, वहाँ पर यमदूत कभी नहीं पधारते हैं – तुलसी यस्य भवनै तत्यहं परिपूज्यते। तद्गृहं नीवर्सन्ति कदाचित यमकिंकरा। वाराह पुराण में उल्लेख किया गया है कि जो पीपल, नीम या बरगद का एक, अनार या नारंगी के दो, आम के पाँच एवं लताओं के दस वृक्ष लगाता है वह कभी भी नारकीय पीड़ा को नहीं भोगता है और न ही नरकऱ्यात्रा करता है।

अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दशपुष्पजाती:।

द्वे द्वे तथा दामिमातुलंगे पंचाम्ररोपी नरकं न याति।

महाभारत में वृक्षों को देवताओं के समान माना गया है और इसका पूजन सामग्री के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। महाभारत के एक पर्व में कहा गया है कि पर्ण और फलों से समन्वित कोई भी सुन्दर वृक्ष इतना सजीव एवं जीवंत हो उठता है कि वह पूजनीय हो जाता है –

एको वृक्षो हि यो ग्रामे भवेत् पर्णफलान्वित:।

चैत्यो भवति निर्ज्ञातिरर्चनीय: सुपूजित:।।(आ. १५१/३३)

समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का उद्भव होना एवं देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना वृक्षों की महत्ता को अवगत कराते हैं पृथ्वी सूक्त में लिखा है कि वन तथा वृक्ष वर्षा लाते हैं, मिट्टी को बहाने से बचाते हैं साथ ही बाढ़ तथा सूखे को रोकते हैं तथा दूषित गैसों को स्वयं पी जाते हैं। यही कारण है कि पुरातन काल में वृक्षों का देवता के समान पूजन किया जाता था। हमारे ऋषि-मुनि एवं पुरखे इसलिये कोई भी कार्य करने से पूर्व प्रकृति को पूजना नहीं भूलते थे –

अश्वत्थो वटवृक्ष चन्दन तरुर्मन्दार कल्पौद्रुमौ।

जम्बू-निम्ब-कदम्ब आम्र सरला वृक्षाश्च से क्षीरिण:।।

शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो तीर्थ स्थानों में वृक्षों को देवताओं का निवास स्थान माना है। वट, पीपल, आँवला, बेल, कदली, पदम वृक्ष तथा परिजात को देव वृक्ष माना गया है। भारतीय संस्कृति से धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का अत्यधिक महत्व है। पीपल (अश्वत्थ) को शुचिद्रुम, विप्र, यांत्रिक, मंगल्य, सस्थ आदि नामों से जाना जाता है। पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल प्रारब्ध जन्य कर्मों से निवृत्ति कारक माना गया है। पीपल को अखण्ड सुहाग से भी सम्बन्धित किया गया है। लोक परम्परा के अनुसार संतान की इच्छुक स्त्रियाँ उसकी पूजा अभ्यर्थना करती हैं। मान्यता है कि पीपल की परिक्रमा करने से जन्म-जन्मांतरों के पाप-ताप मिट जाते हैं। चित्त निर्मल होता है। अश्वत्थ की महिमा वेदों-पुराणों में जगह-जगह देखने को मिलती है। तुलसी को वायु शोधन एवं पवित्रता के लिए हर आँगन में लगाने की प्रथा है क्योंकि तुलसी को सर्वाधिक आक्सीजन प्रदायक पौधा माना जाता है। इसका पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसके पास हानिकारक जीवाणु-विषाणु या कीड़े-मकोड़े नहीं पनपते। यह घातक कृमि और कीटों को नष्ट करती है। भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामवाण औषधि है। भारतीय संस्कृति में बिल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया है। इसकी पत्तियों को शिवलिंग पर चढ़ाने का विधान है। परन्तु वावन पुराण में बिल्व पत्र को लक्ष्मी से उद्भव मानते हैं। इसमें लक्ष्मी का वास भी माना जाता है। इसे अथर्ववेद में महान ‘वै भद्रो बिल्वो महान भद्र उदुम्बर:।` अर्थात् औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण इसकी तुलना उपकारी पुरूष से की गई है। वामन पुराण में कदम्ब का जन्म कामदेव के माध्यम से किया गया है। कदम को भगवान विष्णु, लक्ष्मी एवं यशोदा नंदन कृष्ण से भी जोड़ा गया है – ढाक, पलाश, दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों में प्रयुक्त किया जाता है। इसके साथ ही अशोक, चम्पा अरिष्ट, पुन्ताग, प्रियंगू, शिरीश, उदूम्बर तथा पारिजात को शुभ माना गया है। इनमें देवताओं का निवास स्थान अथवा देवत्व शक्ति मानी गयी है। इन वृक्षों के सानिध्य से मनुष्य में तेज, ओज तथा वार्यवान होने की सम्भावना सुनिश्चित है। वाराह-मिहिर, कश्यप संहिता तथा विश्वकर्मा-प्रकाश आदि बहुमूल्य ग्रन्थों में लिखा है बाग लगाना हो तो सर्वप्रथम इन प्रमुख वृक्षों को लगाना चाहिए –

अशोक चम्पकारिष्ट पुन्नागाश्च प्रियंगव।

शिरीषो दुम्बरा: श्रेष्ठा: पारिजातक मेव च।।

एवे वृक्षा: शुभा ज्ञेया: प्रथमं तांश्च रोपयेत्।।

इसी तरह से भगवान विष्णु को बाल रूप में वट पत्रशायी कहा गया है। स्त्रियाँ वट सावित्री की पूजा ज्येष्ठ अमावस्या को करती है। वे अपने पति के दीर्घायुष्य एवं मंगल कामना के लिए व्रत रखकर वट वृक्ष की परिक्रमा करती हैं। नीम की पूजा का भी प्रचलन है। नीम के पेड़ का प्रेत बाधा के लिए उपयोग किया जाता है। कुछ आदिवासी एवं अन्य जातियाँ इसमें देवी का वास तथा नाग पूजा के रूप में पूजती हैं।

भारतीय परम्पराओं के अलावा बौद्ध और जैन साहित्य में वनऱ्यात्राओं एवं वृक्ष महोत्सवों का सुन्दर वर्णन मिलता है। बौद्ध एवं जैन परम्पराओं में वृक्षों को सम्मान एवं अदब की दृष्टि से देखा गया है। भगवान बुद्ध को पीपल के नीचे बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। तभी से उसे बोधिवृक्ष कहा जाता है। बोधिवृक्ष की पूजा के दृश्य का बोधगया, साँची, मथुरा, अमरावती आदि स्थानों से प्राप्त शुंगकला में सुन्दर अंकन हुआ है। साँची के तोरण में वृक्षों का अलंकरण अत्यन्त मनोहारी है। इसमें शाल, अशोक, चंपा एवं पलाश वृक्षों का सजीव एवं अनुपम वर्णन मिलता है। वन-उपवन शोभा और समृद्धि के आगम थे। ये वैरागियों के लिये मुक्ति पाने के साधन, वानप्रस्थ जीवन के आधार पर सन्यासी, तपस्वी, योगी और भिक्षुओं के लिए शरण स्थल थे। बोधिचर्यावनार (८/४०-४३) में वनों और वृक्षों के सम्बन्ध में कहा गया है कि वृक्ष सदैव देते रहने की प्रवृत्ति रखते हैं। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को गृहों में वास करने की अपेक्षा वृक्षों के नीचे वास करने का आदेश दिया था। प्राचीन काल में वन-उपवन में एकत्र होकर वृक्ष महोत्सव और बसंतोत्सव मनाने की परम्परायें थी। ”ग्रीक परम्परा में एडोडिनाअरिस, ओरिसस, डिमीटर जन्य या वनस्पति के देवता माने गए हैं। डायनिसस मदिरा और अंगूरलता का देवता था। एकेसियन आर्टेमिस देवता का आवास ओक वृक्ष के कोटर में माना जाता था।“ भारत के इन्द्र महोत्सव जो हरियाली एवं धरती के शस्य श्यामला तथा विश्वव्यापी प्रजनन और पृथ्वी की कोख में से पनपने वाली वनस्पतियों की दृष्टि से मनाया जाता है यही इन्द्र महोत्सव की तुलना यूरोप के स्मे-पोल उत्सव से की जाती है जो कनाडा और अमरीका में अत्यन्त लोकप्रिय है। पूर्वी अफ्रीका के बानिका नामक कबीले में पेड़ काटना मातृहंता जैसा जघन्य पाप माना जाता है। वहीं केन्द्रीय आस्ट्रेलिया के डीटी कबीले के लोग पेड़ों को अपने पूर्वजों का रूपान्तरण मानते हैं। फिलीपीन द्वीपवासी भी उन पर अपने पूर्वजों की आत्मा का वास मानते हुए उन्हें पुरोहित की आज्ञा से ही काटते हैं। विश्व के कई देशों में कबीले में रहने वाले लोग फल देने वाले वृक्षों की देखभाल एक परिवार के सदस्य के रूप में करते हैं, यहाँ तक कि उन वृक्षों के आसपास आग जलाना, शोर मचाना वर्जित माना जाता है जिससे कि वे भयभीत न हों।

वास्तविकता यह है कि पेड़-पौधों की पूजा, अर्चना, वंदना एवं प्रार्थना के पीछे कर्मकाण्ड नहीं अपितु इनके पीछे कई मानवोपयोगी वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। जो किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य एवं आयुर्वेद की दृष्टि में उपयोगी तथा पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से धार्मिक आस्था के रूप में योगदान देते हैं। जहाँ पीपल का वृक्ष सर्वाधिक आक्सीजन देता है वहीं आयुर्वेद अर्थात् चिकित्सकीय दृष्टि से इस वृक्ष की छाल से उत्तम टेनिन की प्राप्ति होती है जो जीवाणु रोधक होती है। इसके फल गुणकारी होते हैं, इससे चर्मरोग एवं फेफड़ों के रोग दूर होते हैं। आयुर्वेद के मतानुसार तुलसी, चरपरी, कटु, अग्नि दीपक हृदय के लिए हितकारी, गर्मी दाह तथा पित्त नाशक और कुष्ठ, मूत्रकृच्छ, रक्ताविकार, पसली की पीड़ा कफ तथा वात नाशक है। तुलसी का प्रयोग विभिन्न प्रकार के रोग ज्वर, मन्दाग्नि, उदर शूल, कप-खाँसी आदि को दूर करने में सहायक होती है। वट वृक्ष को हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैन तीर्थंकर ऋषभ देव को वट वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अत: जैन धर्म में इसे केवली वृक्ष कहा जाता है। वट वृक्ष भीषण गर्मी में राहत प्रदान करता है तथा इसकी टहनियों के द्वारा पृथ्वी की श्वसन क्रिया उचित ढंग से संचालित होती है। इसकी रस्सी जैसी टहनियाँ चर्मरोग, आँख रोग, मधुमेह के लिये उपयोगी होती हैं। वेदों एवं उपनिषदों में वन से उपवन तक की यात्रा एक अत्यन्त ही रोचक विषय है। जो स्वास्थ्य-सम्बर्द्धन में औषधीय प्रयोग करने की महत्वपूर्ण विधियों के रूप में प्रयोग की जाती है। ”कंदमूल फलों के अलावा औषधि उपयोग में आने वाले गुलाब, मालवी, तुलसी, चमेली, चंपा, जूही, माधवी, बकुल, कदम्ब, केतकी, अशोक, बंधूक, हारसिंगार, कमल, पलाश, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, जटामांसी, नागकेशर, लवंग, प्रियंगु, दाडिम, तिल, गेंदा, इंगदी,, अलसी, करौंदा, कायफल, गुंजा, गधविरोजा, गुड़हल, शालपर्णी, तेमरू, पद्याख, पाषाण भेदी, दाऊहलदी, वट आदि किसी न किसी रूप में दवा के काम आते हैं आयुर्वेद की चिकित्सा इन्हीं पर आधारित है।“

आयुर्वेद की चिकित्सा के साथ-साथ वृक्ष प्रदूषण रोकने में भी सहायक होते हैं। प्रदूषण रोकने के लिए अश्वत्थ (पीपल), नीम, अशोक, तुलसी आदि वृक्षों को लगाया जाता है इसमें धूम, धूल आदि सोखने की असीमित शक्ति होती है। पीपल ४.१५:, अशोक ४.५६:, आम्रलता २.२४:, आम्रवृक्ष ४.०५:, गुल्म (बेर, छोटी इलायची),

१.४४:, इमली २.०८:, कदम्ब ४.५६:, वट ३.५९:, धुआँ तथा धूल सोखने की शक्ति रखते हैं। अभी हुए एक शोध सर्वे अध्ययन के अनुसार ”प्रत्येक दिन वायु में ५.१ टन सल्फर डाई आक्साइड २०६.३ टन हाइड्रो कार्बन, ०.०३ टन नाइट्रोजन तथा १.०७ टन एसिड मिश्रित होता है। वास्तव में देखा जाए तो गैसों को अवशोषित करने के लिए उपर्युक्त पेड़-पौधों का आरोपण करें तो काफी हद तक प्रदूषण की रोकथाम एवं इसको नियंत्रित किया जा सकता है। वेदों में श्रेष्ठ ऋग्वेद् में इस तथ्य को भलीभाँति समझाया गया है। ऋषि प्रदूषण रहित वायु को औषधि के समान दीर्घ जीवनदायक तथा अमृत स्वरूप मानते हैं। तथा उसका अपने सम्बन्धियों के समान उल्लेख भी करते हैं। विष्णु धर्मसूत्र, स्कंद पुराण एवं याज्ञवल्क्य स्मृति में वृक्ष के काटने को अपराध माना गया है और इसके लिए दंड का विधान बनाया गया। इसके पीछे चाहे जो कारण एवं कर्मकाण्ड रहे हों परन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि वेदों एवं पुराणों के सृजनकर्ता प्राच्य ऋषि इस तथ्य को बारीकी से समझते थे। अत: उन्होंने मनुष्य की परा प्रकृति एवं अपरा प्रकृति के सूक्ष्म एवं स्थूल सम्बन्धों पर व्यापक चिंतन करके प्रकृति के विकास क्रम को पूर्ण करके इसके स्तरों पर आरोहरण करने का निर्देश दिया है। प्राच्य ऋषियों का उद्देश्य बाह्य प्रकृति से अंत: प्रकृति में प्रवेश कर तथा उसे पार कर आनंद पाना था। इसी वजह से भारतीय अरण्य संस्कृति इतनी समृद्धि और सम्पन्न रही है।

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि वृक्षों को सम्मान एवं पूजन अर्चन तथा वंदन तथा संरक्षण के पीछे पर्यावरण को सुरक्षित रखना था। वर्तमान में प्रकृति और पर्यावरण को बचाने, इसे फिर से संरक्षित, सुरक्षित और समृद्ध करने के लिए हमें इसके प्रति फिर से भावात्मक सम्बन्ध स्थापित करने होंगे। इसके साथ ही भारतीय वैदिक कालीन संस्कृति की प्राचीन मान्यताओं को सामयिक परिप्रेक्ष्य में कसौटी से कसकर फिर से हमें ‘माता भूमि: पुत्रो हं पृथिव्या:` का उद्घोष करना होगा। संस्कृति संवेदना से पनपती है और हमारे अंदर वृक्षों के प्रति जब तक गहरी संवेदना संप्रेषित नहीं होती तब तक पर्यावरण का शोषण एवं दोहन होता रहेगा। इसके लिए आवश्यकता है एक सर्वोपरि अखण्डित अनुशासन की। जिस तरह सूर्य, चन्द्रमा, आकाश अपनी-अपनी सीमाओं में आबद्ध होकर नियमबद्ध तरीके से परिचालित हैं। इसी को मूलमंत्र मानकर पर्यावरण के अपार क्षरण को रोका जा सकता है। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का प्रतिपालन करते हुए एवं भारतीय संस्कृति के विराट मूलमंत्र –

सर्वे भवन्ति सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय:।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दु:ख भागभवेत्।।

की आज पर्यावरण संरक्षण में सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज के ग्लोबल वार्मिंग के युग में और महत्वपूर्ण हो गई है।

इस्लाम बनाम वैदिक मान्यताएँः प्रकाश गोविन्द

वेद सार्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ हैं तथा वैदिक आचरणों से परे न तो कोई अराधना विधि है और न प्रभु तक पहुँचने का मार्ग ! क्षेत्र विशेष तथा समयानुसार इसमें स्वाभाविक परिवर्तन तो होते रहे हैं परन्तु मूल वेद ही रहे !

संस्कृत भाषा में ‘मख’ का अर्थ पूजा की अग्नि होता है सभी जानते हैं कि इस्लाम के आने से पहले समस्त पश्चिम में अग्नि-पूजा का चलन था ! ‘मख’ इस बात का सूचक है कि वहां एक विशिष्ट अग्नि-मंदिर था ! ‘मक्का-मदीना’ वास्तव में ‘मख-मेदिनी’ अर्थात यज्ञं की भूमि का सूचक है !
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इस्लाम धर्म के अनुयायी सामान्य रूप से विस्मयादिबोधक अव्यय एवं आराधना के लिए ‘या अल्लाह (अल्ल: ) का प्रयोग करते हैं ! यह शब्द भी विशुद्ध रूप से संस्कृत मूल का है ! संस्कृत में अल्ल: , अवकः और अन्बः पर्यायवाची हैं और इनका अर्थ माता अथवा देवी से होता है ! माँ दुर्गा का आवाह्न करते समय ‘अल्ल :’ का प्रयोग किया जाता है ! अतः ‘अल्लाह’ शब्द इस्लाम में पुरातनकाल से संस्कृत से ज्यों का त्यों ग्रहण कर प्रयोग में लाया गया !
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मुस्लिम में माह ‘रबी’ सूर्य के द्योतक ‘रवि’ का अपभ्रंश लगता है क्योंकि संस्कृत का ‘व’ प्राकृत में ‘ब’ में परिवर्तित हो जाता है !
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यह आश्चर्यजनक समानता है कि अधिकाँश मुस्लिम त्यौहार शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाये जाते हैं, जो एकादशी के पुरातन वैदिक महत्त्व का द्योतक है !
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इसी प्रकार संस्कृत में ‘ईड ‘ का अर्थ पूजन है ! पूजा से आनंद जन्मता है ! आनंदोत्सव के रूप में इस्लाम का शब्द ‘ईद’ विशुद्ध रूप से संस्कृत का ही है !
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हिन्दू धर्म में राशियों का विवरण है ! एक राशि ‘मेष’ है, जिसका सम्बन्ध मेमने (भेड़) से है ! पुराने समय में जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता था, तो नवीन वर्ष का आरम्भ होता था ! इस अवसर पर मांस-भोजन का प्रचलन था ! लोग ऐसा करके अपनी ख़ुशी प्रकट करते थे ! ‘बकरी- ईद’ का उदभव भी इसी तरह हुआ होगा !
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ईदगाह भी इसी तरह सामने आया होगा ! जहाँ तक नमाज़ का सवाल है, वह संस्कृत की दो धातुएं ‘नम’ और ‘यज’ से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ झुकना तथा पूजा करना है !
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रमजान के महीने को अरबी भाषा में ‘सियाम’ भी कहा जाता है ! ‘सियाम’ शब्द ‘सौम’ से बना है, जिसका अर्थ है – रुक जाना अर्थात एक विशेष अवधि तक के लिए खाने-पीने एवं स्त्री प्रसंग में रुक जाना !
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प्रार्थना करने से पहले शरीर के पांच भागों की स्वच्छता मुस्लिमों के लिए अनिवार्य है ! यह विधान भी ‘शरीर शुद्धयर्थ पंचांगन्यास’ से ही व्यत्पन्न स्पष्ट होता है !

इससे प्रतीत होता है कि मूलाधार एक ही है, सिर्फ पूजाविधि परिवर्तित है।

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