मंथनः सभ्यता और संस्कृति-पद्मा मिश्रा


भारतीय संस्कृति की ज्ञान परंपरा में नैतिक जीवन मूल्यों एवं आदर्शों की अवधारणा

भारतीय संस्कृति में , इतिहास,साहित्य, मानवीयता, योग व सृजन की मौलिक ज्ञान परंपरा ने वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाई है।यह हमारी संस्कृति और पहचान का अभिन्न अंग है। सदियों से मानवता के पथ प्रदर्शक के रुप में हमने मैत्री प्रेम और वैश्विक सद्भावना का संदेश विश्व को दिया है।बसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा हमारे नैतिक आदर्शों का मूल मंत्र रही है।
“अयं निज : परोवेति गणना लघुचेतसाम् ,
उदार चरितार्थ तु वसुधैव कुटुम्बकम्।
आज विश्व जहां अनेक विवादों वादों और युद्ध के नाम पर हिसा की आग में जल रहा है ,वही हमारी संस्कृति ने मानव मात्र से प्रेम करना सिखाया। अनावश्यक युद्ध, हिंसा,अराजकता से परे विश्व को अनेक बौद्धिक चेतना और मानवीयता का मूल मंत्र भी दिया है। पौराणिक कथाओं एवं वेदों में व्याप्त करुणा के स्वर सामगान की तरह जहां गूंजते रहे हों,वह भारत विश्व गुरु की उपाधि से.विभूषित था।
करुणा,व मानवता जिसकी सांस्कृतिक विरासत का एक अनिवार्य तत्व है। महर्षि वाल्मकि का उदाहरण दृष्टव्य है जब क्रौंच पक्षियों के जोडे से एक को व्याध के द्वारा मारे जाने पर मादा पक्षी के विलाप पर करुणा का पहला काव्य स्रोत फूटा था-
मा निषाद प्रतिष्ठात्वम्,अगम शाश्वतीसमा:
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधी: काममोहिता:
यह प्रसंग एकमात्र उदाहरण था जिसने वैश्विक करुणा से संसार को परिचित कराया था।
वही करुणा बुद्ध के उपदेशों और महावीर के आध्यात्मिक परिचर्चाओं में दर्शनीय है।यही बौद्ध धर्म, जैन धर्म की आध्यात्मिक देन संस्कति व सभ्यता को राह दिखाती रही है। और आज भी विश्व की निगाहें भारत की ओर हैं ,किसी आशावादी सपने की चाहत में ,जिसका भविष्य मानव कल्याणकारी होगा एक ऐसे समाज की रचना हो सकती जहां हिंसा,द्वेष,कलह,साम्राज्य वाद की कोई जगह नहीं होगी।
भगवान महावीर जी ने दुनिया को सामाजिक बदलाव के सूत्रों के साथ सत्य, अहिंसा, करुणा, प्रेम, शांति एवं मैत्री का संदेश दिया। यही वे मूल्य हैं जो हर धर्म का आधार हैं और हमारे हर महापुरुष के संदेशों में मौजूद हैं। इन मूल्यों से ही दुनिया में हमारी पहचान है और इनका संरक्षण करना हमारा पुनीत कर्तव्य है।
कर्म रत जीवन एक मौलिक आदर्श -भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा और ज्ञान के पारंपरिक रुप ने साहित्य को समृद्ध किया है।साहित्य ने जनमानस को कर्म, त्याग, निष्ठा व समर्पण का पाठ पढाया है।
कर्म करना और फल की लेश मात्र भी चिंता न करने का गूढ ज्ञान गीता ने दिया था। आज गीता संपूर्ण विश्व के.लिए प्रेरणा का.सबसे बडा उपादान है ,जो कर्म, न्याय, अधिकार व कर्तव्य पर त्याग, समर्पण, और मानव प्रेम को सर्वोच्च मानता है।
गीता- में कहा गया है.-कर्मण्येवाधिकारास्ते मा फलेषु कदाचन। कर्म करों ,फल की चिता मत करो ,परिणाम स्वत: अपनी राह होकर सामने आ जायेगा।
तुलसीदास- ने मानस में कहा -करम प्रधान विश्व रचि राखा” यह पूरा विश्व कर्म प्रधान है सभी अपने अपने कर्म के अनुसार ही फल.प्राप्त करते हैं। आज के समय में मनुष्य कर्म की अपेक्षा फल की कामना करता है।श्रम व निष्ठा से कर्म करना और तत्पश्चात उसके सुंदर फल की चाहत किसी को नहीं होती। तुलसी के राम मर्यादापुरुषोत्तम थे मानवीय पारिवारिक संबंधो की गरिमा को उच्चता के शिखर पर आसीन कराया था। मातापिता और गुरु का आदर, मित्र, भाई,के प्रति स्नेह,प्रजावतसलता इन सबकी अवधारणा भारतीय मनीषा की मौलिक चेतना में वर्तमान थी।तुलसी के आदर्श राम लोकनायक थे, और लोकनायक वहीं हो सकता है जो समन्वय कर सके,,राम ने धर्म में समन्वय किया, सामाजिक वर्गों, जातियों में समन्वय किया, मानवीय मूल्यों और परंपराओं, संबंधों में भी समन्वय कर उन्होंने मर्यादा की एक नई राह बनाई,,न्याय,धर्म, करुणा, और आदर की स्थापना की‌ थी,,यही जीवन मूल्य हमारी धरोहर हैं,। मैथिलीशरण गुप्त-ने अपने सृजन से बताया कि नर हो न निराश करो मन को ,मनुष्य को जीवन संघर्षों से निराश न होकर सिर्फ कर्म करना चाहिए, वही सुखी शांत जीवन की राह प्रशस्त करेगा।
भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जो सदियों से भाषा, दर्शन, विज्ञान, गणित, चिकित्सा आदि में अद्वितीय योगदान देती रही है,जहां दिनकर की रश्मि रथी ने उद्घोष किया था
*जय हो जग में जले जहाँ भी,*
*नमन पुनीत अनल को,*
*जिस नर में भी बसे,*
*हमारा नमन तेज को, बल को।*
*किसी वृन्त पे खिले विपिन में,*
*पर नमस्य है फूल,*
*सुधि खोजते नहीं गुणों का,*
*आदि, शक्ति का मूल।*
क्योंकि ज्ञान व्यक्ति व्यक्ति में भेद नहीं करता।ज्ञान धर्म, जाति, लिंग से परे केवल आध्यात्मिक, नैतिक आदर्शों को आत्मसात करने की बौद्धिक चेतना है जो अराजकता, अन्याय के विरुद्ध जनकल्याण कारी है।कहा भी गया.है *श्रद्धावान लभते ज्ञानम्। जिसमें निष्ठा
हो श्रद्धा हो वही ज्ञान का अधिकारी है।और आज हम समाज में यह होते हुए देख रहे हैं कि अयोग्य को दिया गया ज्ञान किस तरह समाज के लिए अभिशाप बन गया है।दिनकर ने कहा–
*ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,*
*दया-धर्म जिसमें हो,*
*सबसे श्रेष्ठ वही प्राणी है।*
*क्षत्रिय वही भरी हो जिसमें, निर्भयता की आग,*
*सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप त्याग।*
जो ऊँच-नीच का भेद नहीं मानते, वास्तव में वही श्रेष्ठ ज्ञानी कहलाने योग्य हैं और जिसमें दया और धर्म का भाव है वही इस संसार में श्रेष्ठ प्राणी है। जिसमें निर्भरता की आग भरी हो,वही क्षत्रिय कहलाने योग्य है और जिसमें तप और त्याग का भाव है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण कहलाने योग्य है।
गुरुकुल ,गुरु शिष्य परंपरा—
गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय संस्कृति में ज्ञान और शिक्षा को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का एक प्राचीन और महत्वपूर्ण तरीका है, जिसमें गुरु (शिक्षक) अपने ज्ञान और अनुभव को शिष्य को सिखाता है। यह परंपरा ज्ञान को सही अर्थों में सुपात्र के हाथों सौंपकर गुरु अपने ज्ञान को गरिमा प्रदान करते हैं।गुरु के संपर्क में रहकर साहित्य, विज्ञान, योग,राजनीति, धर्मनीति की शिक्षा शिष्य को समाज और जीवन की बडी चुनौतियों और संघर्षों का सामना करने योग्य बनाती है।अनुशासन जीवन को.महान बनाता है ,और यही अनुशासन उनका आत्मविश्वास, आत्मबल, और चेतना का उत्कर्ष भी है।सांदीपनी वशिष्ठ ,वाल्मकि ,विश्वामित्र, नरहरिदास, वल्लभाचार्य, द्रोणाचार्य जैसे गुरुओं से सीखकर अनुशासन का महत्वपूर्ण पाठ पढकर ही कृष्ण, राम, अर्जुन, एकलव्य तुलसीदास, और कबीर, सूरदास जैसे महान पुरुष भारतीय संस्कति को एक पहचान दिलाने में सफल रहे हैंगुरु अपने ज्ञान, कौशल और अनुभव को शिष्य को सिखाता है, जो बाद में खुद गुरु बनकर दूसरों को सिखाता है। इस ज्ञान के हस्तांतरण:से जो परंपरा बनती गई वही बौद्धिकता का चरमोत्कर्ष कही जाती है। यह परंपरा केवल शिक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि गुरु और शिष्य के बीच एक गहरा आध्यात्मिक और बौद्धिक संबंध भी स्थापित करती है।
प्रकृति जीवन की चिर सहचरी है-हमारी ज्ञान करने की परंपरा हमें प्रकृति से प्रेम करना भी सिखाती है।सृष्टि के प्रारंभ से लेकर अब तक वो समस्त प्राकृतिक उपादान जो जीवन और पर्यावरण के लिए आवश्यक रहे हैं उन सबकी पूजा और सम्मान की परंपरा आज भी निभाई जाती है। सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र, जल,वायु,धरती सभी वैदिक काल से पूजनीय रहे हैं। वैश्विक परिवेश आधुनिक, वैज्ञानिक और तकनीक में बहुत आगे निकल जाने पर भी अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए विशेष कुछ नहीं कर पाया है। विकास की आंधी ने आज मनुष्य से बहुत कुछ छीन लिया है।
हमारे देश में प्रकृति पर्वो पर्वो, उत्सवों, और प्रकृति के महत्व को दरशाने के लिए विविध व्रत, उपवास, त्योहार, पर्व, मेलों आदि की सुंदर सामाजिक व्यवस्था है जो समाज में अनुशासन और नियमबद्धता लाती है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में यही अनुशासन आपसी सौहार्द व स्नेह को भी बढाता है।
योग और अनुशासन-जैसे योग का विलक्षण ज्ञान भारत से.ही विश्व को मिला ।और यह योग शारीरिक तथा मानसिक दृढता और ओजस्विता के निर्माण में सहायक है ।वेदों मे,हमारे उपनिषदों में बताया गया है कि -अनुशासन ही जीवन को महान बनाता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा हमेशा प्रासंगिक रही है और आज भी है. यह परंपरा, समाज, संस्कृति, दर्शन, विज्ञान, प्रबंधन, कला, शिक्षा, स्वास्थ्य, और कई अन्य क्षेत्रों में व्यापक दृष्टिकोण देती है. इसे समाज की समस्याओं को हल करने में भी मदद मिल सकती है. और आज भारतीय मनीषा एवं इसकी ज्ञान परंपरा की अत्यंत आवश्यकता है गुरु शिष्य परम्परा योजना की नयी अवधारणा के अंतर्गत संस्कृति मंत्रालय ने 2003-04 में गुरु शिष्य परम्परा योजना शुरू की थी, जिसका उद्देश्य संगीत, नाटक और अन्य कला रूपों के क्षेत्र में प्रतिभाओं को बढ़ावा देना है।
मानवता के उत्थान व सशक्तिकरण के.लिए जीवन में मैजिक आदर्श और सुदृढ जीवन मूल्यों का होना आवश्यक है ।प्रसाद जी ने कहा था-
शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं जो इण्डिया
समन्वय उनका करें समस्त,
विजयिनी मानवता हो जाय।
पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर
शोध संदर्भ–
संस्कृति के चार अध्याय-दिनकर
रामचरितमानस-तुलसीदास, ,भगवद्गीता, पौराणिक कहानियां,,
मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी,आदि का स्व अध्ययन।

पद्मा मिश्रा, जमशेदपुर।

error: Content is protected !!