महात्मा बुद्ध की कहानी से हम सभी थोडा बहुत परिचित हैं ।
मैंने भी पढ़ा है , राजकुमार गौतम अपनी पत्नी यशोधरा और कोमल कुमार को आधी रात में छोड़कर सत्य की तलाश करने निकल गए थे और पूरे बारह वर्षो बाद बन गए महात्मा बुद्ध ।
उनके उपदेश की सबसे प्रचलित पंक्ति “अप्प दीपो भव”
महावीर के समकालीन महात्मा बुद्ध ,,,एक बहुत बड़ी संख्या शिष्यों की ,,जिनके साथ विहार करते मगध की धरती पर भी ये इन दोनों महात्माओं के पावन चरण ,,,।
और वो बन गया विहार राज्य।
इससे अलग जिस बात ने मुझे एक खोज की ओर अग्रसर किया वो था उनके संध का सफल संगठन और उसका वर्षो तक सफल संचालन भी।
एक महात्मा और इतनी सुन्दर नीतियाँ ,आखिर क्या थी वे नीतियाँ ,,,
वैशाली में वज्जियों का सुगठित राज्य एक ओर और दूसरी ओर लिच्छविवंश,,,
लिच्छवी वंश के सेनापति पहले जैन थे, बाद में उन्होने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया ।
जैनधर्म के ऐतिहासिक वर्णन से मालूम होता है कि मगध के राजा बिम्बिसार के लडके अजातशत्रु की माता चेल्लना लिच्छवि वंश के चेटक की कन्या थी । यही चेटक वैशाली सभा का सभापति था।। महावीर की माता त्रिशला भी इसी की बहन थी ।
मगध का राजा अजातशत्रु की राजधानी राजगृह में थी उस समय में वैशाली का वैभव चरम सुख पर था और अजातशत्रु की नजर उस पर थी। पर वर्ज्जियों को हराना आसान नहीं था।
ऐसे में अजातशत्रु ने महात्मा बुद्ध के पास अपने अमर्त्य वर्षकार को टोह लेने और आक्रमण के विषय में उनकी जानने के लिए भेजा, क्योंकि बुद्ध वज्जियों की शासन व्यवस्था से परिचित ही नहीं अत्यंत संतुष्ट भी थे ।
महात्मा बुद्ध उस समय अन्तिम बर्षावास के लिए राजगृह के गृद्धकूट पवर्त पर ठहरे थे ।
महात्मा बुद्ध से उनके सबसे प्रमुख शिष्य ने वर्षकार की बात जब बताई तो जो महात्मा बुद्ध ने आनन्द से सात मत कहे, वो हर काल और हर युग के प्रजातंत्र की नींव है , जिसपर टिक कर ही लोकतंत्र सफल हो सकता है ।
महात्मा बुद्ध के वे सात मत , सात सिद्धांत हैं जीवन के जो समाज की सबसे छोटी ईकाई यानि परिवार से लेकर देश की व्यवस्था के लिए भी अत्यावश्यक है।
जिसे “सत्त अपरिहाणिक धम्मा” कहा गया है अर्थात seven virtues of vajjis leading non- decline सात अपरिहाणिक धर्म।
आन्नद सुना है –
1-“वर्जन बार-बार सभा करके ही अपना काम करते हैं।”
सुना है भगवन ।
2-वह एक राय से काम करते , उठते-बैठते हैं।
3-अवैधानिक वज्जिधर्म के विरूद्ध कोई काम नहीं करते ।
4 – अपने बड़ों का स्वागत-सत्कार करते हैं और उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं।
5- स्त्रियों और कुमारों पर जोर-जबर्दस्ती नहीं करते ।
6- सभी चैत्यालयों का पूजा-अर्चना करते हैं, उनके लिए प्रदत्त सम्पति और वस्तुओं को नहीं छीनते।
7- धर्माचार्यों की रक्षा करते हैं और उनके सुख से विचरण करने पर ध्यान रखते हैं ।
इसप्रकार वज्जियों के लिए बताए गए इन धर्मो का पालन किए जाने पर उनके राज्य को हराना सम्भव नहीं है,, ऐसा महात्मा बुद्ध आनन्द के माध्यम से अमर्त्य को सूचित कर देते हैं ।
इनमें से पहले तीन जनतांत्रिक व्यवस्था के मूल मंत्र हैं। दो उच्च संस्कृति का द्योतक है और दो बातें धर्म के प्रति उनकी उदारता और समझ को दर्शाती है ।
जब वर्षकार ने ये सुना तो उसे लगा वज्जियों को सीधे हराना तो मुश्किल है।
तब उसने कूटनीति से काम लिया और उनके बीच जाकर, रहकर उनमें फूट के बीज बोए और वैशाली को जीत लिया ।
इस सम्पूर्ण प्रसंग को समक्ष रखने के कुछ बड़े कारण हैं –
पहला तो किसी भी लोकतान्त्रिक देश में अगर इन बातों पर अमल किया जाए तो कभी भी कोई भी संध नहीं टूट पाएगा ।
दूसरी बात , सीधे-सीधे लोगों में फूट डलवाकर आसानी से उनपर राज्य किया जा सकता है ।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, महात्मा बुद्ध बनने के पूर्व सिद्धार्थ राजकुमार थे, जिसका राज्य या किसी भी संध को किस प्रकार सफल बनाया जा सकता है, वे भलीभाँति जानते थे ।
चौथी और खास बात यह है कि कोई महात्मा हो जाने पर, वीतराग हो जाने पर या संयासी बन जाने पर समाज से इतना परे नहीं समझा जाना चाहिए कि उसकी सांसारिक समझ से काम लेने की, उसकी सांसारिक ज्ञान का लाभ लेने की बजाय सांसारिकता की बात करने पर भी उसे कपटी या अपने पद से च्युत समझा जाए ।
हमारे सभी शास्त्र इस तथ्य को हमेशा हमारे समक्ष रखता हैं कि महान राजाओं ने भी ऋषियों-मुनियों से समय-समय पर सम्पर्क कर मंत्रणा की है ।
महात्मा बुद्ध आनन्द से कहते हैं ,” आनन्द मैं तुम्हें बताता हूँ कि जिनमें ये सात गुण है, संसार की कोई शक्ति भी उन्हें पराजित नहीं कर सकती ।
भगवान बुद्ध ने सबसे अधिक इस बात पर जोर दिया कि शासन सभाओं का समय-समय पर होते रहना अत्यावश्यक है । नहीं तो डिक्टेटरशिप फैलने का डर रहता है ।
दूसरी बात सभी का मिलजुल कर काम करना और साथ में उठना बैठना और सभी की सहमति से राष्ट्रीय कर्तव्यों का निर्वाह करना भी बहुत आवश्यक है ।
वैशाली में 7777 प्रतिनिधि थे , जो हर सभा में उपस्थित होते थे ।
तीसरी बात है बिना कानून बनाए आज्ञा जारी नहीं करना और बने हुए नियमों का उच्छेद नहीं करना तथा पुराने नियमों का पालन करना ।
कानून कभी भी जल्दीबाजी में बदलना लोगों के मन में आस्था पर प्रहार है ,जो उच्छेदित का कारण बनती है ।
चौथा मूलमंत्र है – वृद्धजन एवम् नेताओं का आदर-सत्कार और उनकी उचित बातों पर अमल करना। अगर सभी नेता बन जाएँगें तो राष्ट्र का काम नहीं चलेगा ।
पर इसमें ध्यान देनेवाली बात यह है कि महात्मा बुद्ध ने “उचित बातों का ” प्रयोग करके नेता एवम् वृद्धजन को भी समझाने का प्रयत्न किया है कि वे बहुत सोच-समझकर और सावधानी से ही अपनी बात को रखें ।
पाँचवी बात स्त्रियों एवम् कुमारों के सम्मान की रक्षा की है। उनपर जोर-जबर्दस्ती एवम् अत्याचार नहीं करना है । देश की शान्ति एवम् समृद्धि के लिए यह भी अत्यावश्यक है ।
महात्मा बुद्ध के समय तक सिर्फ चैत्यालय एवम् स्तूप का निर्माण ही हुआ था जो कि चीनी यात्री हुएंनसांग के यात्रा वृतांत से भी स्पष्ट होता है ।
अतः छठा मत धार्मिक स्थानों यानि चैत्यभूमि एवम् स्तूप का आदर करना है । उससमय वैशाली सभी धर्मों का केन्द्र बनती जा रही थी । ऐसे में इस नियम का पालन राज्य की सुख शान्ति के लिए अत्यावश्यक था ।
किसी भी राष्ट्र की उन्नति की कसौटी है वहाँ के धार्मिक पुरूषों या महात्माओं को स्वतंत्रतापूर्वक देश में भ्रमण की आजादी और उनकी सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होना।
ये सातों आदर्श आज भी हर गणतन्त्र की महती आवश्यकता हैं।
डॉ.इन्दु झुनझुनवाला