15 अगस्त 1947 को बीबीसी के पत्रकार से बातचीत के दौरान महात्मा गांधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “ पूरी दुनिया से कह दो, गांधी अंग्रेजी भूल गया”। ऐसा कहने के पीछे गांधी जी का क्या तात्पर्य रहा होगा? क्या तत्कालीन स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक और राष्ट्र की बागडोर संभालनेवाले नेताओं ने इस कथन को गंभीरता से सुना और समझा होगा? अगर सुना होता, गंभीर मंथना कर कोई ठोस, रणनीतिक कदम उठाए होते तो शायद आज स्वतंत्रता के 73 वर्षों बाद भी आज की पीढ़ी के समक्ष राष्ट्रभाषा से संबंधित समस्या विराट आकार वाले सर्प की भांति खड़ी न होती। यदि यह कहा जाए कि राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ाने की सदीच्छा के कारण राष्ट्रभाषा बनाम राजभाषा के विकास, उसके प्रसार-प्रचार पर कम ध्यान दिया गया तो गलत नहीं होना चाहिए। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में न होने के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था की गोद में बैठकर अंग्रेजी पूरे भारत वर्ष पर भाषाई राज कर रही है और जिस भाषा ने स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी, उसे अपना अधिकार पाने और अनुवाद की जंजीरों से मुक्त होने के लिए आज भी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। इस लड़ाई में वह भाषा और उसके चाहने वाले अकेले खड़े हैं।
हिंदी माध्यम के विद्यालय और महाविद्यालय धीरे-धीरे बंद हो रहे हैं। हिंदी के नाम से या हिंदी माध्यम से शिक्षा देने के उद्देश्य से स्थापित शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान करने की विवशता यही दर्शाती है कि भारत के पास भाषा के संबंध में मजबूत नीति की कमी रही है या व्यवस्थित रणनीति नहीं है। लगभग 110 वर्ष पूर्व महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका की अपनी 21 दिनों की जहाजी यात्रा के दौरान ‘हिंद स्वराज’ नामक पुस्तिका लिखी। इसके 18वें अध्याय में भारत की शिक्षा नीति पर चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा था कि “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना, उन्हें गुलामी में डालने जैसा है।” यहीं पर वे आगे कहते हैं कि “अंग्रेजी शिक्षा को लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए लोगों ने प्रजा (सामान्य जन) को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ उठा नहीं रखा है।” स्पष्ट है कि महात्मा गांधी ने अंग्रेज और अंग्रेजी से मुक्ति की बात कही है। भारत अंग्रेजों से तो मुक्त हुआ किंतु अंग्रेजी से नहीं हो पाया।
दक्षिण अफ्रीका से भारत लोटने के बाद अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर गांधी जी ने देश का भ्रमण किया। उस दौरान वे हिंदी की संप्रेषणीयता से न केवल परिचित हुए बल्कि प्रभावित भी हुए। इसी को माध्यम बनाकर चंपारण में देश के प्रमुख किसान आंदोलन का नेतृत्व किया। इसी के माध्यम से अंग्रेज सरकार के विरूद्ध लोगों को जागृत और संगठित करने में वे सफल रहे। गांधी जी ने इंदौर में 29 मार्च 1918 को आठवें हिंदी साहित्य सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रस्ताव रखते हुए कहा था कि “ जैसे अंग्रेज मादरी जबान यानी अंग्रेजी में ही बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।” हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए यंग इंडिया के 20 अक्तूबर 1920 के अंक में उन्होंने हिंदी-भारत की राष्ट्रभाषा शीर्षक से एक लेख लिखा। उसमें उन्होंने राष्ट्रभाषा की कसौटी के लिए पाँच सूत्री मापदंड बताए-
1) सरकारी कर्माचरियों के लिए वह सीखने में आसान होनी चाहिए।
2) उस भाषा में भारत का आपसी धार्मिक, व्यापारिक और राजनीतिक कामकाज देशभर में संभव होना चाहिए।
3) वह भारत के अधिकांश निवासियों की बोली होनी चाहिए।
4) सारे देश के लिए उसे सीखना सरल होना चाहिए।
5) इस प्रश्न का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी परिस्थितियों पर जोर नहीं देना चाहिए।
यहीं पर उन्होंने यह भी कहा कि “हमारे शिक्षित वर्गों की हालत देखकर यह खयाल होता है कि अगर हम अंग्रेजी का इस्तेमाल बंद कर दें तो हमारे सब कामकाज ठप हो जाएँगे। परंतु गहरे विचार से सिद्ध हो जाएगा कि अंग्रेजी भारत की राष्ट्रभाषा न कभी हो सकती है और न होनी चाहिए।” उपर्युक्त पाँच मापदंडों के आधार पर कहा जा सकता है कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा बनने की अधिकारीणी है।
संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा न कहकर राजभाषा कहा। संविधान के अनुच्छेद 343 में यह कथन दर्ज कर दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी भारत संघ की राजभाषा होगी। यह वाक्य भविष्य सूचक है। भविष्य तो अनिर्णित होता है। कभी दिखाई नहीं देता। इसे वर्तमान संदर्भ में लिखा जाना था। ‘राजभाषा है’ कहा जाना था। ‘राजभाषा होगी’ से ‘राजभाषा है’ के रूप में स्थापित करने का उत्तरदायित्व हर संविधान के अनुच्छे 351 के अनुसार पाँच वर्षों में बदलने वाली केंद्रीय सरकार को सौंपा गया। सरकार अपना सरकारी रुतबा बनाए रखने में इतनी व्यस्त रहती है कि यदाकदा इसके संबंध में कुछ कार्यालय ज्ञापन निकालकर अपने दायित्व का निर्वाह करती रहती है। पाँच वर्ष पूरे होने के बाद फिर नई सरकार आती है, वह नए सिरे से पिछले काम को आगे बढ़ाती है। नए कार्यालय ज्ञापन आते हैं। यह क्रम पिछले सत्तर वर्षों से निर्बाध गति से चल रहा है। संसदीय समितियों की सिफारिशों पर महामहिम राष्ट्रपति के आदेश भी समय-समय पर भारत के गजट में प्रकाशित होते रहते हैं। यह चक्र चलता रहता है। ‘हर स्थित में खेल चलते रहना चाहिए’ (दी शो मस्ट गो ऑन)। ’ यह खेल कब थमेगा, शुभमस्तु कब होगा?
महात्मा गांधी ने विभिन्न संदर्भों में मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की आवश्यकता और महत्व पर अपने विचार प्रकट किए हैं। वे विचार राजभाषा हिंदी के संबंध में आज भी प्रासंगिक हैं। उनके बताए मार्ग पर चलकर आज भी एक और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी जा सकती है। यह लड़ाई भाषाई स्वतंत्रता की लड़ाई होगी। गांधी के कथनों के आलोक से हिंदी भाषा तथा भारत की राष्ट्रीय भाषा-भाषियों को एकल इकाई से बाहर निकलने और एकता के सूत्र में फिर से बंधने का मार्ग प्रशस्त होता है। इसके अतिरिक्त राजभाषा के कार्यान्वयन के लिए रणनीति तैयार कर उसे अमल में लाने की समझ भी विकसित करने में सहायता मिलेगी। राजभाषा कार्यान्वयन और उसके प्रचार-प्रसार के लिए उपयोगी यहाँ पर महात्मा गांधी के विचारों की व्याख्या करने का प्रयास किया जा रहा है।
हिंदी दिवस या विश्व हिंदी दिवस जैसे समारोह में मंच पर आसीन उच्च अधिकारी हिंदी न आने या कम आने की बात कहते हैं। उनसे यह सुनने को मिलता है कि ‘मैं तो उनकी तरह स्पष्ट या धारा प्रवाह हिंदी नहीं जानता’ ऐसा कहकर वे अपना भाषण अंग्रेजी में देने लगते हैं या ‘हिंदी में बोलने की कोशिश करूगाँ’ कहकर बटलर हिंदी में बोलने लगते हैं। इसमें ही वे अपनी शान भी समझते हैं। सभा में उपस्थित अन्य सज्जन उनकी प्रशंसा भी करते हैं। क्योंकि वे उच्च अधिकारी हैं। राजभाषा नियम, 1976 के नियम 12 के अनुसार राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार का उत्तरदायित्व कार्यालय प्रधान पर होता है और उसी क्रम में कार्यालय के उच्च अधिकारियों पर। वे अपने अन्य उत्तरदायित्वों का निर्वाह तो पूरी निष्ठा के साथ करते हैं, राजभाषा के प्रति क्यों विफल होते हैं? इसका जवाब गांधी के पास है। वे कहते हैं – “भाषा माता के समान है। माता पर हमारा प्रेम होना चाहिए, वह हम लोगों में नहीं है। वास्तव में मुझे तो ऐसे सम्मेलनों से प्रेम नहीं है। तीन दिन का जलसा होगा। तीन दिन कह-सुनकर हमें (आगे) जो करना चाहिए, उसे हम भूल जाएँगे।” राजभाषा को मात्र संप्रेषण का माध्यम न मानकर इसे जन्मदेने वाली माता के समान सम्मान दिया जाना चाहिए। इसके लिए आयोजित कार्यक्रम मात्र रस्म अदायगी न होकर किसी ठोस कार्य के प्रेरित करने वाला कार्य हो। संसदीय समिति की रिपोर्ट के 9वें भाग के 105वीं सिफारिश है कि “माननीय राष्ट्रपति सहित सभी गणमान्य व्यक्ति और सभी मंत्री विशेष रूप से जो हिंदी पढ़ सकते हैं और बोल सकते हैं, से अनुरोध किया जा सकता है कि वे अपना भाषण / कथन केवल हिंदी में दे।” पर राजभाषा विभाग,गृहमंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी संकल्प सं. 20012/1/2017-रा.भा. (नीति), दि. 31 मार्च 2017 में महामहिम राष्ट्रपति की स्वीकृति दर्ज है। इसके अनुसार उच्च अधिकारियों को केवल हिंदी की सभाओं में नहीं बल्कि अन्य सभा व बैठकों में भी हिंदी में अपने विचार रखने चाहिए। यदि हिंदी नहीं आती है तो राष्ट्रपति आदेश, 1960 के अनुसार उन्हें हिंदी भाषा प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए। इन दोनों ही आदेशों की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। कहते हैं गंगा ऊपर से बहती है। उच्च अधिकारी की देखा-देखी उनके निचले स्तर के अधिकारी काम करते हैं। यह बात भाषा प्रयोग पर भी लागू होती है। महात्मा गांधी ने अपने समय के राजा-महाराजाओं से अपील की थी कि वे अपनी कचहरी में हिंदी का और प्रांतीय बोलियों का प्रयोग करें। उनका कहना था कि ‘‘राजा-महाराजाओं से भाषा की बड़ी सेवा हो सकती है। XXX जब हम प्रतिदिन इसी कार्य की धुन में लगे रहेंगे, तभी इस कार्य की सिद्धि हो सकेगी। सैकड़ों स्वार्थत्यागी विद्वान जब इस कार्य को अपनाएँगे, तभी सिद्धि संभव है।’’
संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसार उच्च और उच्चतम न्यायलयों की भाषा आज भी अंग्रेजी है। (कुछ अपवादों के अलावा-) देश की प्रजा को उसकी अपनी भाषा में न्याय प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्त के समय यह तर्क दिया गया कि हिंदी में न्यायालय की भाषा में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली नहीं है। इसलिए जब तक इसकी व्यवस्था नहीं होगी तब तक न्यायालयों की कार्यवाही अंग्रेजी में होती रहेगी। यह प्रावधान किया गया कि संसद में कानून पारित कर राष्ट्रपति से सहमति लेकर इस स्थिति को बदला जा सकता है। संसद के पास यह शक्ति है लेकिन अब तक ऐसा नहीं किया गया है। हालांकि, कुछ उच्च न्यायालयों में, राष्ट्रपति की सहमति के साथ, हिंदी के वैकल्पिक उपयोग की अनुमति मिली है। इस तरह के प्रस्ताव राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों में सफल रहे हैं। महात्मा गांधी का कथन है, “ हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक प्रजा को राजनीतिक कार्यों में ठीक तालीम नहीं मिलती है। हमारे हिंदी अखबार इस कार्य को थोड़ा सा करते हैं, लेकिन प्रजा को तालीम अनुवाद से नहीं मिल सकती है। हमारी अदालतों में जरूर राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषा का प्रचार होना चाहिए। न्यायाधीशों की मार्फत जो तालीम हमको सहज ही मिल सकती है। उस तालीम से आज प्रजा वंचित रहती है।” यहाँ गांधी जी ने राजभाषा की संप्रेषणीयता को बढ़ाने का सूत्र दिया है। उनका मानना था कि न्यायालयों की भाषा राष्ट्रीय भाषा होने पर आम जन कानूनी शब्दावली से सहजरूप में परिचित हो सकता है। आमजन के लिए कानून की भाषा सीखना उपयोगी होगा। इससे राजभाषा का प्रचार-प्रसार भी आसानी से हो सकता है।
राजभाषा संकल्प, 1968 के अनुसरण में राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन से संबंधित प्रति वर्ष ‘वार्षिक कार्यक्रम’ जारी किया जाता है। उसमें राजभाषा कार्यान्यव की क्षमता के आधार पर पारिभाषित क, ख और ग क्षेत्र के लिए पत्राचार व मूल टिप्पणी लेखन का लक्ष्य भी निर्धारित किया जाता है। देखने में आया है कि क क्षेत्र में स्थित मंत्रालय अर्थात दिल्ली से, के विभिन्न विभागों (हिंदी विभाग के अलावा) से दक्षिण में स्थित अर्थात ग क्षेत्र, को संप्रेषित पत्र अंग्रेजी में ही होते हैं। यहाँ यह सवाल अवश्य उठता है कि ग क्षेत्र के साथ पत्राचार का उनका लक्ष्य किस तरह हासिल किया जा रहा है? यदि हासिल हो रहा है तो हिंदी में जारी पत्र किसे प्रेषित हो रहा है? यह आरटीआई का प्रश्न हो सकता है। गांधी जी कहते हैं कि “मुझे खेद तो यह है कि जिन प्रांतो की मातृभाषा हिंदी है, वहाँ भी उस भाषा की उन्नति करने का उत्साह नहीं दिखाई देता है। उन प्रांतों में हमारे शिक्षित वर्ग में आपस में पत्र-व्यवहार और बातचीत अंग्रेजी में करते हैं। XXX फ्रांस में रहनेवाले अंग्रेज अपना सब व्यवहार अंग्रेजी में रखते हैं। हम अपने देश में महत् कार्य विदेशी भाषा में करते हैं। मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं। ” कहने का अभिप्राय यह है कि राजभाषा के कार्यान्यव के लिए और स्वराज्य की सही अर्थों में स्थापना के लिए महात्मा गांधी के भाषा संबंधी कथनों के आलोक में विचार मंथन करने की आवश्यकता है। उनके सुझाव को अमल करने से राजभाषा कार्यान्यवन में अवश्य ही व्यावहारिकता आ सकती है। अस्तु।
संदर्भः-
1) गांधी वाङ्मय से , महात्मा गांधी की विचार दृष्टि, चतुर्वेदी, त्रिलोकी नाथ (सं), साहित्य अमृत, जनवरी, 2020, , नई दिल्ली
2) चतुर्वेदी, उमेश, गांधी और हिंदी, चतुर्वेदी, त्रिलोकी नाथ (सं), साहित्य अमृत, जनवरी, 2020, नई दिल्ली
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