मंथनः भारत वर्ष- त्रिलोकी मोहन , विजय सिंह नहाटा


अपने भारत को पहचानो

भारत उतना ही महान है जितना कि ईसा से ५०००वर्ष पूर्व था। आज के जन मानस की जीवन शैली मैं जरूर अंतर आ गया है। पहले आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त करना मुख्य लक्ष्य हुआ करता था। भौतिक उपलब्धि गौण लक्ष्य था तथा आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए साधन मात्र था। आध्यात्मिक उपलब्धि साध्य और भौतिक उपलब्धि हेय एवं साधन मात्र था। आज यह जीवन परिदृश्य बदल सा गया है । भौतिक उपलब्धि मुख्य लक्ष्य हो गया तथा आध्यात्मिक उपलब्धि भौतिक उपलब्धि के लिए साधन मात्र रह गया है। यह अत्यंत चिंतनीय विषय है। सच्चे भारतीय- संस्कृति -प्रेमी जन को इस हेतु स्व क्षमतानुसार उचित प्रयास करना ही चाहिए।

भारत के जन-वृन्द का दिवस ही चरित्र की प्रतिष्ठा से प्रारम्भ होता है। जागरण के समय ही परमपिता परमात्मा का स्मरण , माता-पिता को प्रणाम और नित्य कर्म के पश्चात यौगिक प्रक्रिया . यह एक अद्भुत दिनचर्या है। भारत में संध्या-वंदन का चलन रहा है। संध्या-वंदन के बाद ही अन्यान्य धार्मिक एवम सामाजिक अनुष्ठानों के सम्पादन कि स्वीकृति दी गयी है.संध्या-वंदन में पढ़े जाने वाले समस्त वैदिक मन्त्रों में एक ही ब्रह्म की वन्दना है। सूर्य देव को ब्रह्म स्वरूप मानते हुए मन ,वचन, कर्म से किये हुए समस्त पापाचरण से मुक्ति की प्रार्थना की जाती है। यह अपने आप में अद्भुत है। पाप से मुक्ति हेतु प्रायश्चित का यह दैनिक अनुष्ठान विश्व में और कहीं नहीं किया जाता।

संध्या वंदन में सूर्य देव को जल से अर्घ्य देने का विधान है। एक बार मेरे गुरु-श्रेष्ठ लक्ष्मी नारायण शास्त्री संध्या-वंदन कर रहे थे। मैंने बाल स्वभाव से पूछा- संध्या-वंदन में अर्घ्य देते समय जलांजलि को ऊपर उठा कर क्यों विसर्जन किया जाता है ? वे मुस्कराये और कहा-

“यह समस्त ब्रह्माण्ड पंच-तत्त्वों से विनिर्मित है. किसी भी एक तत्त्व की कोई उपादेयता नहीं ,प्रत्येक तत्त्व एक दूसरे से मिल कर सृष्टी की रचना में सहायक हुआ. जलांजलि में प्रथम जल को लेकर ऊपर उठाया ,यह जल को आकाश तत्त्व से मिलाया गया, जल के विसर्जन में जब जल ऊपर से छोड़ा जाता है तब यह वायु के मिलन का अवसर है। जल वायु से मिलता हुआ पृथ्वी की ओर बढ़ता है। वह अपनी ही गति से तेज तत्त्व को प्राप्त कर लेता है। इस तरह चार तत्त्व जल, वायु, तेज, और आकाश मिला दिये गए। अब ये पृथ्वी से मिलते है। यह मिलन ही सृजन करता है। ब्रह्म इसी तरह शिव रूप में तत्त्वों का विखंडन एवम विष्णु रूप में संयोजन करते हैं । हमें जीवन में सभी की उपादेयता संयोजन में ही देखनी चाहिए। सभी जड़-चेतन पदार्थों में इन्हीं पंच तत्त्वों को देखना चाहिए और उनमें उस जीवन दाता ब्रह्म की अनुभूति करनी चाहिए । यही हमारी संस्कृति का मूल उत्स है”. दिवस की ऐसी निर्मल एवं कोमल आरम्भ की प्रक्रिया भारत के सिवाय कहीं देखने को नहीं मिलती है।

भारतीय संस्कृति “भय से मुक्ति ” की एक सशक्त प्रक्रिया है. भय तब तक बना रहेगा जब तक द्वैत्व स्थापित है। भय से मुक्ति के लिए ही भारतीय संस्कृति अपने अंतर में प्रतिष्ठित पुरुष को बाह्य अशरीरी पुरुष के साथ एक रूप होने का सन्देश देती है। जो कुछ जगत में विद्यमान है और जैसा आप अनुभव कर रहें हैं बस वैसा ही आपके अंतर में विद्यमान है. इस तरह द्वैत्व के स्थान पर अद्वैतव को स्थापित कर भय से मुक्ति का रास्ता दिखा दिया गया. यह ज्ञान से ही संभव है. ज्ञान सत्य और ब्रह्म नित्य है।

बिना ज्ञान के भय से मुक्ति नहीं .अज्ञान मोह का कारक है. मोह पाप का तथा पाप भय का कारक है. अतः मुक्ति के लिए आत्मज्ञान जरूरी है .आत्म ज्ञान ही आनंद का श्रोत्र एवम अभयत्व का हेतु है. यह भारत की सांस्कृतिक पराकाष्ठा की पहचान है. जिसे आज पश्चिम शारीरिक-भाषा के रूप में ले रहा है.जिसे सीखने -सिखाने के लिए होड़ मची है.पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है. भारतीय इस में पीछे नहीं है .वे अपने ही उत्पाद को अन्य का मान खरीदने के लिए दीवाने दिखाई दे रहें हैं .

चीन , यूरोप, अमेरिका जिस योग और अंतर-यात्रा की बात कर रहें हैं वह भारत की उन पर उधारी है। अंतर-यात्रा भारतीय साधना है। यहाँ अंतर की यात्रा चरित्र-शोधन एवम जबरदस्त चरित्र-प्रतिष्ठा की जीवन यात्रा है. बिना चरित्र के भला आत्मानंद स्वरूप ब्रह्म कहाँ मिलने वाला है ? श्रीमद भगवत गीता में अर्जुन प्रभु श्री कृष्ण से पूछते है- प्रभु श्री! आपको कौन सा व्यक्ति प्रिय है ? श्री कृष्ण कहतें हैं- अर्जुन ! जो व्यक्ति द्वेष से रहित रहते हुए सभी प्राणियों के साथ मित्रता और करुणा के साथ रहता हो ,अनासक्त एवम अहंकार रहित रहता हो, दुःख एवम सुख में सामान रहता हो ,जो स्वयं में सम्पूर्ण लोक को एवम सपूर्ण लोक में स्वयं को देखता हो ,जो हर्ष , क्रोध ,भय जैसे अनुदात भावों से मुक्त है वह ही मुझे प्रिय है. श्री कृष्ण ने उदात्त और उदार चरित्र को बता दिया .जिसका चरित्र उदात्त और उदार है, वही आत्मज्ञान का अधिकारी है,वही अन्तर यात्रा का अधिकारी हो कर विराट ब्रह्म की सायुज्यता प्राप्त कर सकता है। मुझे दुःख है कि आज विश्व भारतीय चेतना को पकड़ रहा है और भारतीय अपने आत्म कल्याण को भूल कर साधन को ही साध्य मान रहें हैं।

जीवन का उद्देश्य आनंद है। क्योंकि ब्रह्म के सच्चिदानंद स्वरुप से सत-चित तत्त्वों से सृष्टि का रचन हुआ। सृष्टि में नहीं है, तो आनंद तत्त्व नहीं। इसीलिए यह सृष्टि निरानंद कही और मानी गयी। जो नहीं है उसे तो प्राप्त करना है। आनंद नहीं है। उसे प्राप्त कर के ही जीवन सार्थक कर सकतें हैं। आनंद प्राप्त किया तो मान लो कि ब्रह्म मिल गया। उसे प्राप्त करने के ऋषियों ने छह मार्ग -अन्न ,प्राण ,चक्षु ,श्रोत ,मन और वाणी बताये। तपश्चर्या से इन मार्गों का निर्वाह करने का आदेश दिया। इसी से विज्ञान और आनंद प्रशस्त होता है। और तभी विराट ब्रह्म में लय होता है. यह सब अभी बहुत आगे की बात है. पश्चिम ने तो अभी सतही तोर पर इस विराट विषय का स्पर्श मात्र अनुकरण किया है. अभी उसे बहुत कुछ समझना शेष है।

त्रिलोकी मोहन , राजस्थान
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नदी के जल प्रवाह सा हो राष्ट्र चिंतन-विजय सिंह नहाटा
भारत एक भूखंड नहीं भू सांस्कृतिक इकाई है और है प्रभुत्व संपन्न राष्ट्र। गौरवशाली अतीत और प्राचीन सभ्यता संस्कृति का दाय मिला है भारत को। हमारी सांस्कृतिक जड़ें एक विस्तीर्ण कालखंड में पसरी हुई है। एक महान राष्ट्र होने की हमारी अर्हत्ता निर्विवाद है। अतीत से गौरव बोध ग्रहण करना बुरी बात नहीं लेकिन वर्तमान में गतिमान रहकर समय की करवट को समझना किसी भी राष्ट्र के लिए बहुत जरूरी शर्त हो सकती है। इक्कीसवीं सदी में राष्ट्रों के समूह में सार्थक और रचनात्मक भूमिका के लिए सशक्त और संभावनाओं से भरा भारत पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट कर रहा है। दुनिया के विपुल मानव संपदा वाले भारत राष्ट्र की उपस्थिति दुनिया में शाति सौहार्द और राष्ट्रों के मध्य पारस्परिक सहयोग और समन्वय की मिसाल है। इसके पीछे भारत का उदात्त चिंतन और लोकतंत्र में गहरी आस्था का होना बहुत कारगर हेतुभूत कारण रहे हैं। किसी राष्ट्र की समृद्धि उसके आंतरिक रूप से मजबूत होने से है कि वह राष्ट्र अपनी मानव संपदा का कैसा और किस इष्टतम पैमाने पर इस्तेमाल कर सकने की आधारिकी विकसित करता है। भारत ने बहुत प्रगति की है लेकिन अभी बहुत काम बाकी है कयोंकि विकास एक सतत और गत्यात्मक अवधारणा है । चलना और प्रवाह में रहना ही जीवन्त राष्ट्र की निशानी है। दूसरा तथ्य जो मुझे प्रासंगिक जान पड़ता वह उस राष्ट्र के नागरिकों की राष्ट्रीय निष्ठा और अनुशासन से संबद्ध है। एक राष्ट्र अराजक जन समूह न होकर देश के प्रति अनुराग रखने वाली जनमैदिनी का समेकित प्रस्फुटन है। व्यक्तिगत क्रिया कलाप भी राष्ट्र को खंडित करने वाले कदापि न हों — यह भावना देश की मजबूती को वर्धमान बनाने वाली है।
तीसरा यह कि हम वर्तमान विश्व की वास्तविकता को समझें और काल्पनिक आदर्शवाद की जगह ठोस हकीकत का अवलंबन करें। विज्ञान , तकनीकी , व्यापार– वाणिज्यिक कर्म , विकासात्मक गतिविधियों में नेतृत्व क्षमता का विकास करें। देश की बहुसंख्यक जनता के उन्नयन के बिना कोई आकाश गामी विकास कारगर नहीं हो सकता। हमारे राष्ट्रीय मानदंड हमारी सोच से निकल कर आयें न कि थोपे हुए हों। एकता अखंडता हर नागरिक का सपना हो न कि सरकार की एक कार्य संस्कृति का हिस्सा मात्र। हर नागरिक का योगदान राष्ट्र को बलशाली बनाता है। सोच में मूढता और जड़ता किसी देश को अग्रगामी नहीं बना सकते हैं अतः हमारे सोच का स्तर बहती हुई नदी की तरह हो न कि सरोवर के ठहरे हुए जल सा मलिन। वैचारिक ताजगी , नये विचारों का स्वागत और प्रगतिशील कार्य संस्कृति को धारण कर हम भारत को महान बना सकते हैं और महान भारत दुनिया को विधायक नेतृत्व प्रदान कर सकता है। आज बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत आशा की नयी किरण बन कर उभरा है। प्रवासी भारतीयों ने भी भारत की साख को दिगंत तक फहराया है जिस पर गर्व किया जा सकता है।

आलेख –:
विजय सिंह नाहटा
बी –92
स्कीम 10 — बी
गोपाल पूरा बाई पास
जयपुर -302018
राजस्थान भारत
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