त्योहारों का मौसम है यह और अँधेरों का भी।
दिए और मोमबत्ती जलाकर अँधेरे को तो जीत लेते है हम और परिवार के साथ मिल-जुलकर उत्सव मना कर खुश भी हो लेते हैं। परन्तु जब यह अँधेरा बाहर नहीं मन के अंदर पैठ जाए तब यह सब कर पाना इतना आसान नहीं रह जाता। मन को भी रौशनी की जरूरत है, परन्तु सप्लाई या स्विच दोनों ही हमारे हाथ नहीं। एक ख़ूँख़ार जानवर की तरह अचानक ही और बेहद दबे पांव धावा बोलती है उदासी। और तब खुद ही तो आंसुओं का आचमन ले-लेकर दिए की तरह जलने लग जाता है इनसान । और अवसाद है कि हाथ ही नहीं आता, घुन की तरह खोखला ही करता चला जाता है। कभी-कभी तो आघात इतना तेज़ कि अपंगु और असहाय तक होते देखा गया है शिकार को। याद आ रहा है एक परिचित परिवार जहाँ पच्चीस वर्षीय पीड़ित को छोटे बच्चे की तरह गोदी में लेकर खाना खिलाते थे भाई-बहन। भाग्यशाली ही हैं वह जो इस प्रकरण से अक्षुण्म और बिना टूटे-फूटे वापस निकल आता है। कई बार तो गलती किसी की और भुगतता कोई और है और कई बार एक बीमार के साथ पूरा परिवार भी बिखरता देखा गया है। अगर कोई प्यार-परवाह करने वाला नहीं, तो जानवरों की तरह उन्हें ज़ंजीर से अकेले एक कमरे में बांधकर भी रखते देखा है।
समाधान क्या है? कैसे इन विकार या व्याधि से दूर रहें?
इक्कीसवीं सदी चल रही है पर अभी भी मन के अंदर सूरज-चांद उगाना नहीं सीख पाया इन्सान। हाँ अवसाद के चिन्ह शुरु होते ही कारणों को दूर करने में पीड़ित की मदद , उसे अकेला न छोड़ना, परिवार के सदस्यों का उसके साथ समय देना अवश्य ही परिस्थियों में सुधार लाएगा। दूसरी चीज जो ध्यान देने की है, आहार पूरी रोचक और पौष्टिक मिले , मरीज़ को और शरीर में खनिज और विटामिन आदि ज़रूरी तत्वों की कमी न हो। उदासी में प्रायः रोगी ख़ुद से और खाने-पीने से भी उदासीन हो जाता है।
बीती ताहे बिसार दे, यानी क्षमा, निश्चय ही सैकड़ों कुंठाओं की आज भी रामवाण दवा है, परन्तु जैसे शौर्य के लिए साहस चाहिए क्षमा के लिए भी। निर्बल के बस का नहीं यह गुण। वैसे भी गुनन-मनन, विवेक और अच्छे लोगों का साथ व समाधान और निदान ढूंढने पड़ते हैं हर समस्या के। विशेषकर मानसिक पीड़ा और ग्रंथि के, जो शारीरिक पीड़ा से कहीं अधिक पीड़ादायक व कष्टकर हो सकती है। जानती हूँ कि खुश रहना और खुश कर लेना आता है इनसान को, क्योंकि स्वभाव में हारना नही है इसके। जिजीषा इतनी कि हर परिस्थिति में जी ही नहीं सकता बृह्मांड तक को जीतने के सपने भी देखने लग जाता है यह मिनटों में ही।
जिस दिन इसने पत्थरों को घिसकर पहली चिनगारी ढूंढ निकाली थी और पत्थरों को घिस-तराशकर पहले दिन नुकीले हथियार की तरह इस्तेमाल किया था इसने, निश्चय ही एक अभूतपूर्व ताक़त का, दूसरे जीवों से स्व की श्रेष्ठता का अनुभव करने लगा था यह। निश्चय ही सपनों ने भी पंख पसार ही लिए होंगे और तब इसने खुद ही अपनी ताजपोशी भी कर ली होगी ।
स्वाद सपने और संतोष की लहरों पर बहते हुए निरंतर ही नए-नए किनारे छुए हैं आज के मानव ने, नए-नए अविष्कार किए हैं । सभ्यता के नए-नए शिखरों पर जा पहुँचा यह अन्य सभी जीवों पर अपनी बुद्धि के बल से एकक्षत्र राज्य कर रहा है। पर तुनौतियों से नहीं बचा सकता, हार से भी नहीं और निराशा से भी नहीं। यही वह वक़्त होता है जब सहारे की ज़रूरत होती है। दिमाग़ के नट-बोल्ट को ढीला होते ज़्यादा वक़्त तो नहीं लगता। और इन्हें कसने की ताक़त सिर्फ़ प्यार में हीहोती है, अपनों के ही हाथ होती है। क्योंकि बीमार तो पूरी तरह से ख़ुद से प्यार करना भूल चुका है।
बुद्धि जितनी इसकी सहायक और मीत रही है उतनी ही अवरोधक और शत्रु भी।
घटनाओं और परिस्थितियों को पहले ही भांप लेना, हर संभावनाओं का अनुमान लगा पाना और फिर मन-माफिक न दिखने पर चिंता करने लग जाना , कुंठित हो जाना इस बुद्धि ने ही तो सिखाया है इसे।
वैसे भी तेज से तेज धावक को भी ठोकर लग ही जाती है और मोच आने पर सहारे व सहानुभूति की जरूरत भी पड़ती ही है। एक कुशल तैराक भी भँवरों में फंसकर डूब सकता है और अचेत को सहायता व उपचार की जरूरत भी होती ही है। यह उदासी भी तो कुछ ऐसी ही अकस्मात् की घटना है, आकस्मिक आई हताशा या फिर अनचाही बीमारी जैसी, तुरंत उपचार माँगती है उदासी।
इससे पहले कि हम उपचार की बात करें, सोचना जरूरी है कि क्या है यह उदासी या अवसाद, एक मानसिक बीमारी या लत, एक ग्रन्थि या फिर एक हताश् नाराजगी। पहले ग्रंथि बनकर जो मन में उत्पन्न होती है और फिर गांठ बनकर शरीर पर अतिक्रमण कर बैठती है। मानसिक व शारीरिक दोनों ही कारण हो सकते हैं उदासी के। परन्तु शरुवात प्रायः मन से ही होती है। शरीर और मन के आपसी संबंधों से हम सभी परिचित हैं। मन में खुशी हो तो आदमी अंधेरे से अंधेरे वक्त में नाचता-गाता है और दुखी मन के साथ उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता न किसी का साथ और ना ही कोई उल्लास या उत्सव।
प्रायः शारीरिक बीमारियाँ लम्बे मानसिक तनाव से ही जनमती हैं। और मानसिक तनाव के कई कारण है-वक्त की बर्बादी और फिर आसन्न परिस्थितियों से निपट न पाने की वजह से तनाव में आ जाना। शायद यह सबसे बड़ी वजह है कि बच्चों तक में अब यह अवसाद घुन की तरह सेंध लगा चुका है। स्पर्धा और महत्वाकांक्षा के चलते हर माँ-बाप अच्छी-से अच्छी शिक्षा ही नहीं, स्वर्णिम भविष्य की कामना और अपेक्षा रखता है, जो प्रायः कई कारणों से संभव नहीं।
डरे माँ-बाप खुद और आसपास के अन्य लोगों के उदाहरण के चलते, खुद तो तनाव में रहते ही हैं, बच्चों पर भी अवांछित बोझ व तनाव डालते हैं, सफल होने के लिए, कहीं-कहीं तो योग्यता से कई गुना आगे बढ़कर।
याद आ रही है अपनी एक सहपाठिनी जिसके पिता जी उसे रोज सुबह चार बजे पढ़ने के लिए उठा देते थे ताकि वह कक्षा में प्रथम आए, तीसरे या चौथे पायदान पर नहीं। न उठ पाती तो बेल्ट से पीटते । नतीजा यह हुआ कि वह वर्षांत में प्रथम आना तो दूर , पास तक नहीं हो पाई। जाने कितने उदाहरण बिखरे पड़े हैं जहाँ तनाव की वजह से, शर्मिंदगी की वजह से लोगों ने आत्महत्या तक कर डाली हैं।
क्या यह एकल परिवार ही बड़ी वजह हैं समाज में व्याप्त इस उदासी की, जैसा कि अक्सर सुनने में भी आता है प्रौढ़ पीढ़ी से, कि महत्वाकांक्षा की आँच पर मोमबत्ती दिन-रात और दोनों सिरों से जलाई जाती है युवाओं द्वारा और अकाल ही शरीर और दिमाग़ दोनों थक जाते हैं रोग-ग्रस्त हो जाते हैं।
इसका भी हाथ हो सकता है, क्योंकि समय और कार्य-भार को साझा नहीं कर पाते वे अकेले-अकेले । परन्तु शायद सपनों का टूटना, अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाना दूसरों की भी, और ख़ुद अपनी भी शायद सबसे बड़ी वजह है आधुनिक उदासी की। जहाँ स्पर्धा तो हम हरेक से करते हैं और काबलियत या मौक़े क़तई नहीं होते। एक संतुलित सोच के धरातल पर बच्चों को बड़ा करना भी एक बड़ा कदम होगा एक स्वस्थ वयस्क और समाज की ओर। अपेक्षाएँ कम और कर्तव्य अधिक।
याद नहीं आता कि जब छोटे थे तो कभी सिर-दर्द शब्द तक मुँह से निकला था। अगर कभी गलती से निकल भी गया तो तुरंत ही बगीचे में , ताजी हवा में खेलने भेज दिया जाता था। आज की यह लगातार मोबाइल और कम्प्यूटर की स्क्रीन को घूरना, बन्द कमरों में रहना, ताजी हवा में न खेलना आपस में न हँसना- बोलना कितने कारण हो सकते हैं बच्चों में तो अवसाद के।
आजकल सोशल मीडिया और मोबाइल की वजह से समय की अत्याधिक बर्बादी होती है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। पर इससे कितनी सहूलियत और फायदे भी हुए हैं , इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता।
लत हमेशा खराब होती है और अति की लत यानी जिसके आगे इनसान बेबस हो जाए, अति खराब। हर चीज के दो पहलू होते हैं, अच्छा या बुरा दोनों तरह से उसका इस्तेमाल कर सकते हैं हम उसे। जैसे कि आग रौशनी देती है, उसपर हम खाना पकाते हैं। पर अगर सावधान न रहें तो वही आग हमें ही नहीं, सबकुछ जला सकती है। मोबाइल का भी यही हाल है। इससे दैनिक जीवन में कई सुगमता आई हैं। संवाद और सूचना त्वरित है। ज्ञान और जावकारी का हाइवे बन चुका है। और मनोरंजन का साधन भी। परन्तु यदि लत पड जाए तो मानसिक विकार का कारण भी। इसलिए बस लत न पडने दें। मोबाइल माता -पिता या संरझक नहीं है। मशीन है। प्यार और परवाह व साथ सिर्फ इनसान ही इनसान को दे सकता है।
एक माँ शिकायत कर रही थी कि अब उसके बच्चा तो डिज़ाइनर लेबल के अलावा कुछ और पहनता ही नहीं और दो दिन में कपड़े छोटे भी हो जाते हैं। पूछ बैठी पर इस शौक़ को हवा किसने दी थी तो माँ ने तुरंत ही चुप होकर नज़रें नीचे झुका ली थीं।
दोष व्यक्ति का भी हो सकता है और समाज का भी। हर परिस्थिति अलग होती है और हर व्यक्ति भी। विवेक नहीं छूटना चाहिए परिवार और समाज से जान छुडाने या वक्त बचाने के चक्कर में। छोटे बच्चों के हाथ का खिलौना तो हरगिज ही न बनाएं इसे और खुद भी इसे चौबीसो घंटे लेकर न बैठें। बच्चे बडों से ही तो सीखते हैं और उन्ही की तो नकल करते हैं। जो भी आदतें आप उन्हें देना चाहते हैं, खुद उसका उदाहरण बनें, तभी वह असर कर पाएँगी। असफल कामनाएँ और बन्दिशें, टूटे सपनों की किरच और हार मान चुका मन , संक्षेप में कहें तो तन मन की अपंगुता, विशेषतः मन की निराशा या असफलता के मुख्य कारण है। फिर आज की दौड़ती-भागती ज़िन्दगी , सब कुछ पाने की चाह में अधिकांश सपनों का सूखी रेत-सा ही मुठ्ठी से फिसल जाना, योग्यता और सामर्थ से अधिक की कामना व अपेक्षा कुछ अन्य बड़े कारण हो सकते है इस अवसाद के।
एक तलाश, एक मृग-मरीचिका में भटकते नज़र आते हैं अधिकांश , जहाँ एक सपना पूरा होते ही छोटे दिखने लग जाता है, क्योंकि दूसरे के पास हमसे बहुत ज्या है। वैसे भी दूसरे की घास हमेशा अपनी से ज़्यादा ही हरी लगती है।
किसी भी हाल में संतुष्ट न रह पाना भी एक बड़ा कारण है आज बच्चों और बड़ों में फैले इस उदासी के संक्रमण का।
आज यह रोग इतना समाज में व्याप्त हो चुका है कि बच्चे तक नहीं अछूते रह गए इससे। कहीं अभिभावकों की अफेक्षाएँ निरर्थक दबाव डालती हैं कोमल मन पर तो कहीं सदा ही स्लिम ट्रिम दिखने का सामाजिक दबाव।
हमारी वर्ण व्यवस्था और परिवारों की आर्थिक स्थिति में विभिन्नता भी एक कारण हो सकती है। कभी समाज अपनों से छोटों को बग़ल में बैठने की इजाज़त नहीं देता तो कहीं प्रवेश तक निषिद्ध कर देता है और अगर कर भी ले तो कर्ण की तरह उसे सज़ा भुगतनी ही पड़ती है। जैसी कि उसे परुषराम ने दी थी, क्योंकि सूदपुत्र होते हुए भी वह क्षत्रियों के साथ उनके गुरु से शिक्षा ले रहा था।
याद आ रही है , हाल ही में पढ़ी एक ख़बर जब एक शूद्र माता-पिता ने अपनी तेज़ और होनहार बेटी के सुंदर भविष्य की ख्वाइश में उसे शहर के एक महँगे और कुलीन स्कूल में दाख़िला दिलवा दिया था। लड़की पूरी स्कालरशिप परथी , इतनी तेज़ थी। पर जब अन्य अभिभावक और बच्चों को इस बात का पता चला तो उन्होंने बच्ची द्वारा स्कूल के टायलेट घर जाने से पहले रोज़ साफ़ करने की माँग की और कार्यक्ता समिति पर दबाब डाला। अंततः लड़की ने टायलेट रोज़ साफ़ करने शुरु कर दिए। पर सभी की नफ़रत कम होने के बजाय बढ़ती ही चली गई। अंततः वहीं शौचालय में ही एक शाम सीलिंग से ठूलता लड़की का शव मिला।
तो सामाजिक क्रूरत, अन्याय और अवांछित दबाब चाहे जहाँ हों उनका तुरंत ही दमन होना चाहिए। कम-से-कम पहचानने का साहस तो समाज में होना ही चाहिए। यह भी एक स्वस्थ समाज के लिए बड़ा कदम होगा।
कहा जाता है कि यदि परिस्थितियाँ नहीं बदल सकते तो ख़ुद को बदलो। पर इतना सामंजस्य , इतनी समझ हरेक के पास नहीं होती। आदर्श परिस्थिति तो यह है कि हम एक स्वेदनशील और सहानुभूति भरा वातावरण…परिवार और समाज विकसित करें, जहाँ सफ़ेद, सफ़ेद और काला , काला तो है, पर हर सदस्य इस भेद को समझता भी है और मानता भी है, बिना किसी ऊँच-नीच या भेदभाव के।
एक स्वस्थ समाज के लिए ईमानदारी और खुलापन बहुत ज़रूरी है, रिश्तों में भी और लेन-देन में भी। …
शैल अग्रवाल
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