एक आश्वासन, एक सूना घर
बिछुड़ती यादों-सा , खोता जाता
लौटूँ भी तो गले ना लगाता
फिर भी एक खोज पुनः पुनः
एक चाह, एक टीस पुनः पुनः
मेरा भारत और भारत की ओर
मेरी दौड़ बेकल आतुर पुनः पुनः
हिमालय किरीट शीश पर
सागर रहे जिसके पग पखार
सींचें आओ मिलजुल इस हरित धरा को
जंगल घने कहीं पर, कहीं मरु का विस्तार
एक सम्मोहन, एक खोज पुनः पुनः
पहुँच जाती हूँ इसकी गोदी मैं पुनः पुनः
भारत की गोद में बैठी
मृत्यु का पल पल उत्सव मनाती
जीने का संदेश देती पावन नगरी
शिव के अभय त्रिशूल पर टिकी
मां की गोद-सी मुझे पुकारती
भटकाती, दंश देती, और संभालती
जल में लीन, उसी जल में मैं ढूँढती
खोए अपने, यादें और वादे पुनः पुनः
मुठ्ठी भर राख और कुछ हाथ न आता
माथे से लगाती और लौट आती
भटकने को फिर फिर पहुँच जाती
आंसुओं से जलाभिषेक करने पुनः पुनः
सदियों से खड़ी यह नगरी ही नहीं,
मेरा तो पूरा देश ही अति मनोरम
गांव शहर और प्रांत अनुपम
चित्रकूट से मोहक वन यहाँ
पावन पुनीत अयोद्धा धाम
जनमे यहीं पर थे
मर्यादा पुरुषोत्तम राम
और बृज में जन्मे जहाँ
नटवर नागर राधे-श्याम
जीना सिखलाया आनंद लेकर
परन्तु रहकर निर्लिप्त निष्काम
ऐसे राम का वंदन पुनः पुनः
कृष्ण की नीत-नवनीत पुनः पुनः
राम की साधना ने सिखाया
मर्यादाबद्ध होकर रहना
रखना पिता के वचनों की साख
कृष्ण ने जीना तजकर सब सानंद
दोनों का था एक ही संदेश
सत्कर्म की राह पर चलकर
उत्तरदायित्व निर्वहन पुनः पुनः
सुन पाती हूँ आज भी
वही कृष्ण की मधुर मुरलिया
और सीता का करुण विलाप
गोपियों संग दिखते आज भी गाय और ग्वाले
राधा रानी संग कान्हा रचाते अनुपम रास
राम और रावण बीच हुआ था यहीं पर
सच और झूठ का युद्ध भयंकर
बानर भालू और रीझ बने अभयंकर
अद्भुत मेरा देश अद्भुत हैं इसके संदेश
आस्था और विश्वास की ही होती
जीत पुनः पुनः
माखन मिश्री का भोग नित नित बृज में
और तोते मोर की हरित छवियाँ अविराम
भीख माँगते भूखे नंगे भी कितने
क्यों नहीं मिलता इन असंख्य परित्यक्त
विधवाओं की पीड़ा को भी कभी विराम
क्यों वही व्यथा और परिणाम पुनः पुनः
बहुत कुछ है नया
पर बहुत कुछ है वैसा-का-वैसा ही
चिर पुरातन और चिर सनातन
कीचड़ में खिलता कमल सा मेरा देश
सुख-दुख गलबहियाँ डाले चलते
और हंसता रहता गुरबत में इंसान पुनः पुनः
वक़्त की हर ललकार पर याद करूँ
इसी मिट्टी ने उगले लाल-जवाहर
सुभाष, भगत सिंह,चंद्रशेखर आजाद
वीर झांसी की रानी भी जन्मी थी यहीं
कर दिए थे जिसने दुश्मनों के खट्टे दांत।
महाराणा प्रताप ने चढ़ चेतक पर
साधी थी यहीं अपनी अकाट्य तलवार
मेरे देश में कायर कम, वीर अधिक
ज्ञानी, मनीषी, कवि और संत महान
सूर कबीर तुलसी रहीम और रसखान
आज भी तो इसकी संस्कृति के पहचान
नमन इन्हें और वंदन पुनः पुनः
किस-किस का नाम लूँ,
किस- किस को याद करूँ
प्रेमचन्द, प्रसाद, महादेवी, निराला, पंत
तुलसी, सूर कबीर और विवेकानंद
ऋषि-मुनियों का देश यह मेरा
यही तो है इसकी असली पहचान
कितने रूप कितने रंग इस मिट्टी के
पुनीत प्रयागराज और रामेश्वरम्
या फिर बद्रीनाथ और केदार धाम
हर दिशा में पवित्र तीर्थ-स्थल
बंगाल जो चैतन्य महा प्रभु का घर
गूंजता आज भी गीतांजलि बनकर
खेम करण की छटा है अनुपम
श्रद्धा से भर जाए मन
मदुराई कोणार्क और खजुराओ की
कला-कृतियाँ अद्भुत और बेमिसाल
लखनऊ की नजाकत भरे शाही पकवान
या फिर याद करूँ विश्व में गूंजती
बौलीबुड की इसकी मनोहारी झंकार
आगरे का ताज महल भव्य़ धवल
आज भी जग को खींचे बारबार
गंगा जमुना सी पुनीत नदियाँ यहाँ पर
बहतीं बृह्मपुत्र की लहरे आवेगी उद्दाम
नगंगा-जमुना-सी नित-नित सींचतीं मुझे
यादें इसकी अक्खड अलमस्त और मनमौजी
गुर्बत में भी जो जश्न मनाए
पुनीत है इसकी हर एक याद…
हिमालय करता जिसकी रखवाली
दो दो महासागर पग पखारते
आ जाते फिर भी आक्रमणकारी नादान
भटके ना कभी इस ओर पर अब दुश्मन
सीमा पर हैं वीर सपूत तैनात।
छप्पन भोग वाले मेरे भारत का भविष्य
मथुरा की खुरचन सा उजला और मीठा
रसगुल्ले सा रसमय रहे सदा
लवंगलता सी गमकें इसकी शान।
अपरिमित और इतना महान जो
मघई पान-सा नित घुलता रहे स्वाद
बनारसी सिल्क-सा यह बेशकीमती
तिरंगा प्यारा लहलहाता सरसराता
कर दूँ इस पर जी-जान कुर्बान
दुलराता-संभालता मां-बाप बनकर
हजार बाहों में समेटकर ले उड़ता कभी
कितने आकाश कितने सागर पार किए
मेरे भारत का आज भी नहीं है कोई जबाव
केन्द्र से परिधि तक परिक्रमा यह
आना और जाना रहेगा पुनः पुनः
नमन पुनः पुनः वंदन पुनः पुनः।
विदेश में रहो तो पल-पल ऐसे मौके आते हैं जब आपको देश की याद आती है-परदेश या अपनाए हुए देश में कभी आप उसकी अस्मिता स्थापित करना चाहते हैं, तो कभी खोए वर्चस्व और गौरव को।
टावर औफ लंदन घूमते हुए, जहाँ कोहनूर हीरा है, महाराज रणधीर सिंह की तलवार है, अपने देश की फूट और कायरता का इतिहास अक्सर आँखों में तैरने लग जाता है। स्थानीय लोगों के साथ क्रिसमस या फिर नये वर्ष की दावत खाते हुए, कभी साधारण बातचीत के बीच भी, या कई बार तो मात्र टी वी देखते हुए भी मन उद्वेलित हुआ है। मुद्दे उछले हैं। जब देश , देश न लगे और विदेश, विदेश, तो वाक़ई में भ्रामक स्थिति ही है यह भी।
उस आजादी और उपलब्धियों का जश्न मनाते हैं हम प्रतिवर्ष, जिसे अनगिनत वीरों के बलिदान से ही प्राप्त किया था। कुछ के नाम मशहूर हुए पर कई ऐसे भी थे जो धुरी की कील की तरह अदृश्य ही रहे और आज भी हैं।
शहीदों की मजार पर लगेगें हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बस यही आखिरी निशाँ होगा- ऐसे ही जाने अनजाने वीरों की याद में चन्द श्रद्धा-सुमन देना चाहता है यह मन। देश की प्रगति, दशा और दिशा का लेखा-जोखा रखना चाहता है यह मन। किधर जा रहा है भारत और क्या खुश हैं हम इसकी प्रगति व परिस्थितियों से, निरंतर जानना चाहता है। शायद सही ही है क्योंकि दूरियाँ और नज़दीक भी तो ले जाती हैं।
मदद कैसे, क्या हो सकता है एक आम आदमी का योगदान देश को सुधारने की दिशा में और आज की इन जटिल परिस्थितियों में?
सद्भावना, एकता और स्वच्छता तीन शब्द मस्तिष्क में आते हैं, एक सुसभ्य और सुसंमकृत देश में जीने के लिए।
आए दिन की प्राकृतिक आपदा और पडोसी मुल्कों द्वारा परोसी गईं बेवजह की मुसीबतें, न सिर्फ़ हमें सचेत करती रहती हैं, अपितु अन्य खबरे जैसे पर्यावरण के प्रति लापरवाही, धर्म और साम्प्रदायिकता का अंधा प्रचार और प्रसार, निजी के लालच से जुडी भाई और भतीजे वाद आदि की ख़बरें दीमक-सा ही चाट रही हैं हमारे विश्वास को और हमारे आज के प्रगितशील परन्तु सिद्धांत-हीन समाज के खोखले-पन की तरफ भी ध्यान खींचती हैं। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद शायद आज हमारे देश का ग़रीबी से भी बडा अभिशाप है।
जानती हूँ कि समय एक अनवरत धारा है, अगला-पिछला सब साथ लेकर बहता है। फिर भी बहुत कुछ है जो नदी की तह में भी चुपचाप जमता भी चला जाता है।
पचास वर्ष से अधिक हो गए ब्रिटेन में रहते , यही तो वह देश था जिससे हमने एक लंबे संघर्ष के बाद आजादी छीनी थी और अब उसी देश में रहना-बसना…बेचैनी होती है सोचकर ही, क्या यह भी एक गद्दारी ही नहीं?
चाहे कितना ही हम वसुधैव कुटुम्बकम का युग मान लें, फिर भी अपना घर भारत ही क्यों लगता है, नहीं जानती। जब कि अब तो मेरा घर यहीं हैं, और अपना भारत, वहाँ अपनों के बिना रहना खाना सब एक अपरिचित देश की तरह ही होता है, होटलों में…ख़रीदा हुआ या फिर अपनों के बीच भी कईबार एक मानसिक तनाव के साथ।
कई बार उतना अपना नहीं महसूस हुआ, जितना होना चाहिए था। और शायद यही एक प्रवासी की पीडा है, जहाँ जडों से उखडने और डाली से टूटने का डर और दुख भी है और पुननर्वास का संघर्ष और श्रम भी।
याद आ रहा है वर्ष 1997 जब भारत आजादी की स्वर्ण जयन्ती मना रहा था , कितना दंश दे रही थी यह बात कि मैं वहाँ क्यों नहीं हूँ अपने देश की ख़ुशी में उनके बाँच और साथ में, इतनी दूर क्यों बैठी हूँ ? और तब यह आंसू डूबी कविता स्वतः ही कागज पर उतरी थी-
अभिनन्दन
मेरे आजाद भारत देश की
पचासवीं साल गिरह पर
लोगों ने बहुत कुछ गाया
बहुत सुनाया खूब जश्न मनाया
फिर मेरे मस्तिष्क में आज क्यों
एक तूफान सा उठा है
जो हृदय को लपेटता
मेरे अस्तित्व को ही ले उड़ा है
दूर बहुत दूर
नदी–नाले समुंदर पहाड़
सब पार करता उस देश
उस धरती की ओर
जो मेरा घर था घर है
मेरा अपना भारत देश
माना कि धीरे–धीरे
मेरे सब निशान
मिटते जा रहे हैं
और बंजारे सी अपनी
इस नई पहचान के संग
खड़ी मैं सोच रही हूँ ––
कि कैसे तुम मुझे अब
इससे दूर–दूर रख पाओगे
मैं तो इसी की
मिट्टी से बनी हूँ
और यह मिट्टी
मेरे पूर्वजों के
खून से सिंची है
इसी ने तो मुझे
सर्वस्व दिया है
और इसी ने ही मेरा
सब सुख–चैन लिया है
मैं इसकी पहचान हूँ
और यह मेरा अभिमान।
पर स्वराज लेकर भी
सुराज का सपना देखने वाली
हर आँख क्यों आज भी बस
खून के ही आँसू रो रही है
क्यों गरीबी और भ्रष्टाचार के
बिस्तर पे लेटी मेरे आजाद भारत की
किस्मत आजतक भी सो रही है
क्यों दुराचार के दशानन के
दसों सर कटकर बार बार ही
फिर से उग आते हैं
देखो विभीषण के संग
राम, लक्ष्मण और हनुमान
कब कहाँ और कैसे
वापस फिर से मिल पाते हैं
सफेद हरे और वसंती
रंग में लिपटा यह तिरंगा
शान्ति, सौहाद्र्र्र्र्र्र और
संयम का प्रतीक है
हमने माना
अमन हमे प्यारा है
यह भी हमने जाना
भटके यदा–कदा भूले नहीं
बसंती चोले पर जब–जब
खून के वो छींटे पड़े
हजारों प्राण आज भी
कर्तव्य–पथ पर ही
एक साथ आगे बढ़े
शस्त्रों के संग लड़ने वाले
सब वे सेनानी वीर हैं
पर सिर्फ आत्म–बल पे
जो लड़े मेरे देशवासी
वीर ही नहीं महावीर हैं
राम, कृष्ण, बुद्ध और
नानक जैसे महात्मा
पैगम्बर पीर हैं
मेरे हाथों में
श्रद्धा के फूल हैं
और आँखों में
कर्तव्य का पानी
मेरे प्यारे देश बता
तुझ पर आज मैं
कौनसा फूल चढ़ाऊँ
देश–परिवेश की
परिधियों से परें
हम–तुम तो अभिन्न
और अविच्छेद हैं
जो कुछ भी मेरा
तन–मन–धन
सब तुझको ही अर्पण
आशीष यही चाहूँ अब तो
जब भी जन्मूँ
सिर्फ भारती
बनकर ही आऊँ
मैं तेरी पहचान हूँ
तू मेरा अभिमान
क्या हुआ जो दूर
मुझसे बहुत दूर
मेरा देश महान।
प्रवास जो सदियों से होता आया है, आदमी ही नहीं, पक्षियों तक में है। फरक-फरक वजह और फरक-फरक परिस्थितियों की वजह से हमेशा ही होता आया है यह। फिर हर जमीन , हर देश के अपने-अपने सुख दुःख भी हैं, अपना-अपना मौसम और परिस्थितियाँ हैं, जैसे इन्सान और उसके मन की। सब कुछ सुलझा पाना, समझ पाना, जी लेना भी तो संभव नहीं है और फिर मिलन और विछोह का तो जीवन के साथ चोली-दामन का साथ है। स्थायी तो कुछ भी नहीं जीवन में, प्रेम और अपनत्व भी नहीं।
प्रसाद याद आते हैं-मानव जीवन बेदी पर, परिणय है विरह मिलन का
सुख-दुख दोनों नाचेंगे, है खेल आंख का मन का ।
भ्रमण के लम्बे अनुभवों में मुझे दो तरह के प्रवासी मिले, एक वे जो खुद को कभी अपने मूल देश से, उसकी संस्कृत से अलग नहीं कर पाए और दूसरे वे, जिन्हें देश की याद तक हीन भावना और रोष से भर देती है। और दो तरह के अपने भी, एक वह जो गले लगाते हैं और दूसरे वह जो हाथ मिलाते हैं, दूर से मुस्कराते हैं। सच ही तो है जिसे जो दिया जिन्दगी ने वही तो वह लौटाएगा या बांटेगा।
…व्यक्ति का संबंध उसके देश, समाज और परिवार से होता है। अतीत,वर्मातन और भविष्य से होता है, क्योंकि निरंतर की एक कडी है जीवन । मेरा मानना है कि हम कहीं भी चले जाएँ, कहीं भी बस जाएाँ, याद, अनभुव…जीवन की इस निरंतरा से अलग हो पाना संभव नहीं। भारत के प्रति इस लगाव को, इस दर्द को हम प्रवासी दूर होकर और अधिक तीव्रता से महसूस करते हैं। जुड़ने की ललक में भारत की अच्छाई और बुराई को और अधिक स्पष्टता से देख पाते हैं। हम सभी ने जाना और महसूस किया है इस अहसास को कभी-न-कभी।
मेरे लिए तो भारत अनंत यादें ही नहीं , अनंत सहारा भी रहा है। जबकि बस शुरुवाती बीस वर्ष ही बिताए थे भारत में और शेष पूरा जीवन यहाँ ब्रिटेन में। यानी जीवन बीत चुका यहीं रहते-रहते। पहले मााँ-बाप की पुकार करेजा चीरती थी और अब जब वे नहीं रहे तो उन पुकारों को इधर-उधर और मंदिर-मंदिर मरहम सा ढूंढती-ढूंढती पुनुः-पुनुः पहुाँच जाती हूँ भारत । अजीब मनःस्थिति और परिस्थिति है यह भी । भारत मुझे अब अपना नहीं मानता और मैं भारत से अलग और दूर नहीं हो पाती हूँ। प्रवासी शब्द के वार से आज भी बुरी तरह से आहत होकर कराहने लग जाती हूाँ। माना वक्त की लहरों के संग दूर किनारों पर जा फिंकी हूँ, वहीं पर फली-फूली हूँ। पर सारे उन्हीं भारतीय रूप गुणों के साथ ही तो। आज भी तो बस वही अपना घर लगता है, जिसमें मेरे लिए जगह ही नहीं। उन्ही जर्जर और पुरानी की यादों में ही तो डूबी-रची रहती हूँ, जिनका अब कहीं नामो-निशान नहीं!
यही तो जीवन है पर। नदी-सा बहता, पीछे छूटे किनारों पर कभी न लौट पाता फिर भी अपने बहाव में , आँखों के उस पानी संग निरंतर जुड़ा हुआ। इसी दर्द को उकेरती अपनी ही एक और कविता याद आ रही है,
तिरंग फहरा लो।
तारा है वो, सितारा है वो
झिलमिल आँखों में
चंदामामा सा प्यारा है वो
जागती आँखों का सपना
देश वो हमारा है
तस्बीर यह आँखों में सजा लो,
तिरंग फहरा लो।
दूर हैं तो क्या
मजबूर हैं तो क्या
मन में कुछ यादे हैं
वादे और इरादे हैं
इरादों को आजमा लो,
तिरंग फहरा लो।
मिट्टी वह पुरखों के खून सनी
मिट्टी यह जिससे देह बनी
मिट्टी वह अपनी पहचान है
मिट्टी वह पूज्यनीय
माथे से लगा लो
तिरंग फहरा लो।
सूखा कहीं, बाढ कहीं
भूखे कई, नंगे कई
लालच और गुर्बत के मारे हैं
अपने पर सारे हैं
अपनों को बचा लो
तिरंग फहरा लो।
तन मन धन यह सब अर्पण
यही तो पूर्वजों का है तर्पण
मां का आवाहन है
वादों का जल दो
कर्मों की आहुति
जीवन को यज्ञ बना लो
तिरंग फहरा लो।
आज हमारा देश आजाद है। इसमे शक नहीं। पर अब लडाई आजादी की नहीं, संयम और समझ की है। कई बार जिस तेजी से हम पाश्चात सभ्यता की तरफ बढ़ रहे हैं वह कहीं पश्चाताप में न बदल जाए, इससे बचना ही होगा। शिव की तीसरी आाँख और कृष्ण के नवनीत यानी उत्कृष्ट और सारगर्भित विवेक की, राम की परिवार के प्रति कर्तव्यनिष्ठा व समर्पण की, आज भी उतनी ही तो जरूरत है, जितनी कि उनके अपने युग में थी। अपने देश की यह वैचारिक और सांस्कृतिक धरोहर संभालनी है हमें,अगर पूरे विश्व को एक रौबैटिक सभ्यता या समरूप सोच और व्यवहार से बचाना चाहते हैं।
वही पीजा और बर्गर रोज़ नहीं खाना चाहते और बस अंग्रेजी में ही बात नहीं करना चाहते हैं, तो हमें अपनी इस देश के प्रति जुड़ाव की चेतना को जीवित रखना होगा। बताना होगा कि-
मेरा देश बस साँप-सपेरे
और मदारियों का ही देश नहीं
जहां जादू से रस्सी चढ़कर
साधू गायब हो जाए
ना ही पुनर्जन्म
और अंधविश्वासों की यह कोई लम्बी रोमांचक गाथा है
मैने तुमसे कब कहा था
कि तुम सर मुड़ाकर
राम-नामी दुपट्टा ओढ़े
किसी नदी किनारे जा बैठो
तभी सच्चे हिन्दू बन पाओगे
ज्ञानी ही कहलाओगे
मेरा धर्म कोई विधिवत्
सन्यास नहीं, जीवन है
जीने की एक आदत है
जो जिओ और जीने दो ‘
का मूलमंत्र सिखलाता है
अन्दर से जो जगे
वही बुद्द है
वरना समस्त ज्ञान लेकर भी
ज्ञानी नेति-नेति चिल्लाता है
यह किसी प्रभु द्वारा लिखा
पराधीनता का दस्तावेज नहीं
निष्कर्म बना मानव को
जो बारबार
अपना ही नाम रटवाए…
कर्म-धर्म है यह
हर कर्म-योगी का
बादल, पवन, पक्षी-सा
हवा में उड़ता बस
एक खयाल नहीं।
हिन्दू, मुसलमान
सिख, ईसाई क्या
तुम पक्षी पौधे तक
कुछ भी बनकर
आ सकते हो
जैसे कर्म करोगे
वैसी योनि पाओगे
सीदे-सादे मेरे देश की
हर बात बड़ी ही सीधी है
गोदी में जो बिठलाए
भूख, प्यास मिटाए
वह धरती, नदिया, गैया
आज भी माता ही कहलाए ।
अपनी जन्मभूमि और भाषा की अवहेलना, खुद अपनी अस्मिता को मिटाना है-यह भी समझना ही होगा हमें। हमारे पास तो संस्कृति और भूगोल, दोनों की ही अक्षुण्ण धरोहर है। सारे जहााँ से अच्छा हन्दोस्तां हमारा ‘ भारतीयता की खुशबू को, उसकी आत्मा को जीवित रखना विदेश में हमारी ही तो जिम्मेदारी है।
अपने कोर-कोर में इसे सहेजे हम सभी अपनी अपनी धरती पर भारतीयता के प्रतीक और पहचान है। अपने देश के राजदूत हैं हम सभी। यह हमारी ही ज़िम्मेदारी है कि देश की छवि को मलिन न होने दें हम, न तो आचरण से और ना ही अपनी वाणी और इरादों से।
कई़ बार यूरोप में घूमते हुए, ब्रिटेन में समस्याओं से जझूते हुए मैंने खुद महसूस और अनुभव किया है इसे और गौरवान्वित भी हुई हूँ, कि पचास साल से अधिक भारत से बाहर रहते हुए भी अभी तक भारत ही मेरी असली पहचान रहा है। टूटी और छूटी नहीं है वह रिश्तों की कड़ी।
समय के साथ बदलाव अच्छाई के लिए, वह भी बह और डूबकर नहीं, धार के विपरीत भी तैरकर। गन्तव्य तक पहुँचना ही जीवन है। और यही संदेश भी देना चाहूँगी मैं अगली पीढ़ी को, निराश मत होना, हारना मत।
परदेश की धरती पर जब भी कोई अपना घर बनाता है तो पहली ईंट जहां महत्वाकांक्षा की होती है, दूसरी निश्चय ही यादों की। यादों की आच में तपी और पकी, आँसुओं के जल से तरी- लंदन पाती में लिखी अपनी ही इन पंक्तियों को दोहराने के लिए माफ़ी के साथ, पहली पीढ़ी तो इस लगाव और
प्यार को एक संग्रहालय सा मन में संजो पाती है पर अगली पीढ़ी को वक्त और जीवन की आपाधापी इतना वक्त नहीं देती, और वे दूर होते चले जाते हैं जडों से। और तब इन बातों और ऐसे प्रयासों का महत्व बढ़ जाता है कि हम उन्हें जोडे रख पाएँ । पश्चिम की चमक-धमक में हमारे युवा खो न जाएँ।
आज भारतीयों ने दुनिया के कोने-कोने में खुद को बेहद सफलता के साथ स्थापित कर लिया है। भारतीय मूल के व्यक्ति पार्लियामेंट के मेम्बर ही नहीं, प्रधान मंत्री तक बन चुके हैं अब अपने-अपने अपनाए हुए देशों में। जाने कितने भारतीय मूल के डॉ.और इन्जीनियर कितने देशों का स्वास्थ्य और व्यवस्था संभाले हुए हैं, गिनती बहुत लम्बी है। व्यवसाय की बात करें तो भी सबसे आगे रेत में से भी सोना निकालने वाले हमारे एशियाई मूल के प्रवासी ही सबसे ऊँचा परचम फहरा रहे हैं। जहााँ एक तरफ मुकेश अम्बानी जैसे व्यवसायी भारत के ही नहीं सर्वाधिक संपन्न व्यक्ति की क़तार में खड़े हैं, लक्ष्मी मित्तल और हिन्दूजा जैसी शख्शियत भारत से बाहर भारत का झंडा गाडे हुए हैं। ऋषि सूनक ने ब्रिटेन का प्रधान मंत्री बनकर हमें गौरव से भर दिया है।
अमेरिका की तो पूरी सिलिकौन वैली ही भारतीयों ने संभाल रखी है और सारे प्रश्नों का तुरंत ही उत्तर ढूाँढ लाने वाले गूगल महाराज के सी एम ओ भी तो भारतीय ही हैं।
फिर भी परदेश तो परदेश और परदेश को देश बनाने या मानने में वही समस्याएं आती हैं, वही भय होते हैं , जो अजान या अपरिचित से होते हैं, या अंधेरे में छलांग लगाते वक्त मन में आते हैं। कोई इसे मजबूरी कहता है तो कोई क़िस्मत या मजदूरी भी। बस मनःस्थिति की ही तो बात है सारी। जीत और हार दोनों इसी पर तो निर्भर करती हैं। फिर आजके इस त्वरित संचार युग में तो कुछ अजनबी रहा ही नहीं।
ही नहीं। न कुछ छुपा और डरावना या दुर्लभ ही है । देश-परदेश ही नहीं अब तो। जहाँ मौके हैं , संभावनाएाँ हैं , रोटी-रोजी है, बेहतर जिन्दगी है, वहीं जा बसता है इनसान। फिर वह देसी कहलाता है या परदेशी यह जगह और उसकी मनःस्थिति पर ही तो निर्भर है। यह प्रवास की प्रक्रिया तो पशु-पक्षिओं तक में होती आई है।
क्योंकि सुख समृद्धि की तलाश ही नहीं, आत्म-संरक्षण भी से तो जुडी हुई है कहीं न कहीं यह प्रवृत्ति।
सब कुछ जानते समझते आदमी का प्रवास आज भी दो तरह का है…एक जो स्वेच्छा से जाते हैं, बेहतरी की तलाश में गए, ऐसे लोगों को परदेश में देश महसूस करते ज्यादा वक्त नहीं लगता और ना ही पीछे छूटा भूलने में ही । ना ही पीछे छोडकर आए देश को पलपल याद ही करते हैं ये। अपितु खुश रहते हैं अपने ऩए परिवेश में। जितना वक्त देश में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने में लगता है, उतना ही या उससे भी कम इन्हें परदेश से देश और देश से परदेश जाने में लगता है।
घर में बैठे-बैठे ही दुनिया के किसी कोने में बैठे व्यक्ति से जुड़ा जा सकता है आज, बातचीत की जा सकती है।
भौगोलिक और सामाजिक पल-पल की खबरें और तसबीरें मिलती रहती हैं, दूरदर्शन और अन्य संचार साधनों से।
दूसरे वे हैं जो मजबूरी में या किसी भय-वश प्रवासी बने। या तो इनकी मातृभूमि युद्ध का शिकार हुई या फिर किसी नैसर्गिक आपदा से बेघर हुए लोग हैं ये। और आज भी अवांछित प्रवासी हैं। बोझ मानते हैं अधिकांश देश इन्हें। और असुरक्षा की भावना आजीवन पीछा करती रहती है इनका। क्योंकि इनका प्रवास आकस्मिक और मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हुआ। कोई तैयारी नहीं कर पाए थे। परन्तु दुःख भी तो निखारता है। ये वो प्रवासी हैं जो कभी-कभी बहुत बडे-बडे कामों को अंजाम दे पाते हैं। बडी-बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की हैं कइयों ने, क्योंकि इन्हें हारी लडाई जीतनी होती है , हारने को कुछ और नहीं होता इनके पास। इन प्रवासियों या शरणार्थियों को जहाँपर घर बनाने जा रहे हैं , उस देश के बारे में कुछ पता नहीं होता। नहीं पता होता कि कौन-सा देश स्वीकारेगा, शरण देगा और फिर उस नए देश , नए वातावरण से उनका सामंजस्य हो भी पाएगा या नहीं! तन से और मन से टूटे-भटके लोग हैं ये। फिर भी अभाव के रहते एक आरामदेह और अपना घर पाने का प्रयास जारी रहता हैं इनका। कइयों की तो पूरी जिन्दगी ही शरणार्थी कैंपों में ही निकल जाती है। घर बना भी पाएँगे या नहीं , जहाँ एक बार फिर मनपसंद और आराम की जानी पहचानी वस्तुएँ, व्यक्ति हूबहू वही नहीं तो मिलती-जुलती, पहचानने वाले, प्यार करने वाले हों, यह सब सपने इनकी प्रार्थना में निरंतर रहते हैं! इन्हें तो यह तक पता नहीं होता कि क्या उनका नया देश उन्हें अपनाएगा भी? आज की यह अशांति, ये युद्ध और आतंकवाद कहीं न कहीं इन शरणार्थियों की समस्या से भी गहरे जुड़े है। सैकड़ों ठगे भी जाते हैं प्रवास के लिए। अनैतिक रूप से सीमा पार करते हुए कहीं दम घुट जाता है और कहीं छोटी-छोटी असुरक्षित रबर की नावों से गिरकर डूब जाते हैं। ऐसी असुरक्षित और भयावह खबरें आए दिन की बात हैं। इतने अभ्यस्त होते जा रहे हैं हम कि संवेदना तक कुंद होती जा रही है आम आदमी।
खुशहाल प्रवास की पहली शर्त अपनाने और अपने-पन की ही होती है और ज़रूरत सामंजस्य और सद्भाव की भी है। जिसने इस रहस्य और दूसरे के दुख को समझ लिया उसका घर कहीं पर भी हो, आरामदेह ही होगा।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है , कहीं भी हो जो समाज में घुलते-मिलते, समझने की और सामंजस्य की कोशिश नहीं करते, समाज भी उन्हें नहीं अपनाता।
आवारा बादल से अकेले-अकेले भटकते रहते हैं ये या फिर निराशा के रहते कई ग्रन्थियों के शिकार हो जाते हैं। विक्षिप्त और आत्मघाती तक हो जाते हैं कई तो। देश हो या परदेश प्रायः एक सुचारु जीवन का अर्थ ही संतुलन व सामंजस्य है और इसके लिए जरूरी है कि व्यर्थ के तनाव से दूर रहा जाए। सामंजस्य हर परिस्थिति में विवेक और संयम मांगता है। धैर्य की बहुत जरूरत है। और यह भी सच है कि दूसरों को कम, खुद को ही अधिक बदलना पडता है । कहाँ तक बदलें और कितना बदलें, ऐसा नीर-क्षीर विवेक भी किस्मत या दैवीय आशीर्वाद से ही मिलता है, संस्कारों से मिलता है। नए वातावरण , नए परवेश से सामंजस्य करने में कहीं किसी हीन मानसिकता या ग्रंथि का शिकार न होना, असुरक्षित न महसूस करना, इस बचाव की सारी तैयारी भी खुद ही करनी पड़ती है।
और मेरी नजर में एक आम प्रवासी के लिए यही प्रवास की सबसे बड़ी चुनौती है। प्रवास की ही क्यों, जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है। क्योंकि परिस्थिति और माहौल पल पल बदलते रहते हैं। सफलता में तो सैकड़ों आ जुटते हैं परन्तु जैसा कि तुलसीदास कह गए हैं-‘ धीर धरम मीत और नारी, आपदकाल परखिए चारी।‘
धैर्यवान , पत्नी या मित्र का मिलना ही नहीं, खुद व्यक्ति का भी हर ऊँच-नीच में संतुलित रह पाना इतना सहज नहीं। नए सिरे से जडें जमाने के लिए सही जमीन, सही मिट्टी की जरूरत तो पड़ती ही है।
अगला सवाल उठता है किन संघर्ष और मानसिकता से गुजरता है इनसान, जब वह अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने माहौल से निकलकर दूसरे देश में जा बसता है? क्या देश का माहौल, अपने देवी-देवता, मिर्च-मसालों और परिचित अन्य सामग्रियों को जुटा लेने से ही वापस आ जाता है सारा संतोष और चैन या फिर कुछ और भी है जो याद आता है, परेशान करता है प्रवासी को…ठीक से फलने-फूलने नहीं देता?
हम सभी जानते हैं जाति और रंग के भेदभाव, ईर्षा और अदावट से, भेदभाव से भी प्रायुः जूझना पडता है प्रवास में, परन्तु यह
बुराइयााँ कहाँ नहीं, हाँ यह बात दूसरी है कि प्रवास में, अपनों के अभाव में ऐसी घटनाएँ और अधिक तीव्रता से महसूस होती हैंऔर यही वजह है कि रोटी-रोजी और सिर पर छत के बाद वह अपनों की तलाश में निकल पड़ता है प्रवासी… मित्र और परचितों के रूप में अपनों को जोड़ता और जुटाता है । अपने यार दोस्तों का, एक-सी रुचियों वालों का गुट या समूह बनाता है। क्योंकि समूह में ही सामाजिक ताकत है। पहचान है।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड सकता, जानता है प्रवासी। अपनों के साथ वह मनमानी योजनाएं बना सके, मनोरंजन कर सके और
कुछ ऐसे भी जिनके साथ वह निश्छल भाव से अपनेसुख-दुख बांट सके। हंस-रो सके। प्रायुः इस दूसरे रोल में
भगवान के अलावा बिरले ही मिल पाते हैं उसे। क्योंकि ऐसे बडे माता—पिता, गुरु. मित्र आदि तो सभी पीछे छूट चुके हैं।
निजता व विश्वास की गहनता सदैव वक्त मांगती है और खुशकिस्मत ही हैं वे जिन्हें ऐसे एक भी
मित्र या गाइड मिल पाते हैं परदेश की धरती पर। भगवान ही अकेला है जो सबका पिता है, जिसके पास कभी
भी कोई भी, बिना किसी भेदभाव के फरियाद या शिकायत लेकर पहुंच सकता है। मदद ही नहीं, चमत्कारों की
भी अपेक्षा कर सकता है। और वह उसकी सुनता है, दुख का प्रचार नहीं करता, चीभ चटकारे का मुद्दा नहीं
बनाता है। यही वजह है कि प्रवासी अपने घर के बाद आसपास ही एक भगवान के घर को भी तलाशने लगता है अपने आत्मबल के लिए। यही वजह है कि मित्र ही नहीं, धार्मिक स्थल भी जीवन में अहम् स्थान रखते हैं परदोश में ।
मशरूम से उगते ये मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे पापों के प्रयाश्चित के अलावा एक सच्चे साथी, अपनी पहचान की तलाश हैं। समाज के लिए कुछ करने और मेल-मिलाप की जगह है।…
ये धार्मिक संस्थान न सिर्फ आत्मिक बल देते हैं, अपितु निराशा और भटकन में जुडने का, अपनेपन का आत्मविश्वास और एक निजी समूह का अहसास भी देते हैं। और परदेशी अजनबी माहौल में यह कम संतोष की बात नहीं। व्यस्त जीवन शैली और संघर्ष मय जीवन के रहते, भूलते जाते तीज-त्योहार, परम्परागत रीति-रिवाज और विशेष दिनों आदि के आयोजनों द्वारा पीछे छूटे देश के प्रति उत्तरदायित्व की जरूरत और न कर पाने के बोझ तक को बांट लेते है अक्सर ही ये। यही वो जगहें हैं जो विदेश में पलते-बढ़ते बच्चों को देश की बोली , वेशभूषा और पारंपरिक खान-पान को भूलने नहीं देते। ऩई पीढ़ी को पीछे छूटे संस्कार और पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा आदि की त्योहारों के रूप में याद दिलाते रहते हैं। विदेश में देश का भाव और
मिलने-मिलाने का मौका देते हैं। कुछ पल को ही सही वापस देश के पुराने वातावरण में कुछ हद तक पहुंचा देते हैं।
संतोष की बात है कि हाल ही में देश के दूतावासों ने भी यह जिम्मेदारी अपनायी है और स्थानीय भारतीय मूल के लोगों से मेल-मिलाप बढ़ाया है।
नौस्टैल्जिया या पुरानी यादें प्रवासी जीवन का एक बड़ा हिस्सा हैं। तस्बीरें, संगीत, दावतों आदि के बहाने वह किसी-न-किसी रूप से एक प्रवासी देश को अपने आसपास जोडे ही रखता है। यही वजह है कि बौलीवुड की फिल्में भारत से बाहर बसे भारतीयों का एक मुख्य मनोरंजन रही हैं। इन्होंने न सिर्फ देश की याद को जिन्दा रखा है , बल्कि भारत को भी भूलने नहीं दिया। प्रवासियों की अगली पीढ़ी की हिन्दी से पहचान ( जिनके घरों में हिन्दी नहीं बोली जाती) शुरु में सबटाइटल पढ़-पढकर देखी इन्ही देशी फिल्मों से ही हुई है। इनके प्रचलित और मधुर गानों द्वारा हुई है।
कई विकसित देश जैसे अमेरिका आदि में इन्ही के सहारे बोलचाल की सरल हिन्दी पढ़ाने और
सिखाने के सफल प्रयोग भी किए गए हैं। कहने का सिर्फ यही तात्पर्य है कि जहाँ चाह वहाँ राह निकल ही
आती है। परिवार को बिखरने न देना यह प्रवास की ही नहीं, आज देश में भी सममया है। इसके लिए भी अभूतपूर्व सहनशीलता और प्यार की दरकार होती है परिवार के सभी सदस्यों से , जो आज के स्वार्थी परिवेश में दुर्लभ ही है।…
अपनों की याद आना एक बात है पर उस याद में घुलते ही रह जाना दूसरी… सफलता की चकाचौंध करती कहाननयों के साथ साथ नए वातावरण , नए पररवेश से सामंजमय न कर पाने की वजह से हीन मानसिकता या ग्रंथियों का शिकार होना असुरक्षित और अकेला महसूस करना आम समस्याएं हैं जो प्रायुः नौकरी के लिए संघर्ष करते, परिवार से दूर और अकेले रहते प्रवासी युवाओं में दिखती हैं परदेश में ।
प्रवास से कमाई करके नौका भर-भरके लौटने वालों की कहानी तो हम सत्यनरायण की कथा में भी सुनते आए हैं, परन्तु यहाँ बात लौटने की नहीं, वहीं पर बस जाने वालों की है। किन संघर्ष और मानसिकता से गुजरता है एक औसत दर्जे का आम इन्सान, जब वह अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने माहौल से निकलकर दूसरे देश में जा बसता है… या फिर कैसी-कैसी सुख वर्षा की रिमझिम के नीचे भीगता और फलता-फूलता है कि उसे अपनों की याद आना बन्द हो जाती है, विह्वल नहीं करती…हमें इन प्रवासियों के सुख-दुःख दोनों को ही समझना होगा।
क्या देश का माहौल , अपने देवी-देवता, मिर्च-मसालों और परंपरागत सामग्रियों और अलंकरणों को जुटा लेने से ही वापस आ जाता है देश या फिर कुछ और भी है जो याद आता रहता है या परेशान करता है प्रवासी मन को? या जिनकी अनुपस्थिति कसकती है उनके मन में!
यूाँ तो अब सफल प्रवाससयों की ऐसी भी खेप दिख रही है, जिनके मां बाप हर वर्ष ही उनकी मदद करने वहााँ आते हैं , उनकी भी सैर हो जाती है और पोते पोतियों का भी इम्तहान आदि के तनावपूर्ण वक्त में सही भरण-पोर्ण व साथ हो जाता है। नौकरी पेशा व्यस्त दम्पति के लिए भी यह कम राहत की बात नहीं । परन्तु समस्या वहााँ उठती है
जहााँ ऐसे घरों में बूढ़े मां-बापों की औकात नैनी और रसोइयों से अधिक नहीं रह जाती। या फिर ये मां-बाप जिनके बच्चों ने उनका जी भरकर ए.टी.एम मशीन की तरह इमतेमाल तो किया परन्तु लुटने के बाद वही उन्हें अवांछनीय बोझ लगने लग जाते हैं। घर में ही कैद इन वृद्धों की जी भरकर दुर्गत आम बात हो चली हैं। कम-से-कम यूरोप के समाज में एक खुलापन तो है, यदि बीमार और अशक्त मां बाप की देखभाल नहीं हो सकती तो उन्हें केअर होम में उनकी छोड देते हैं बच्चे उनकी क़िस्मत और सरकार के भरोसे। समाज के आगे कोई झूठा मुखौटा नहीं और ना ही परदे के पीछे कोई अत्याचार या दुर्व्यवहार…लाड़-प्यार नहीं पर भरण-पोषण तो होता ही रहता है उनका दो वक़्त के भरपेट गरम खाने के साथ।
यहाँ के मां-बाप एशियाई मां-बाप की तरह न तो अपना सब कुछ बच्चों को सौंपते हैं और ना ही बच्चे उन्हें अपने व्यस्त जीवन का कोई विशेष समय ही देते हैं। परन्तु एशियाई परिवारों में कई पिछली पीढ़ी के अभी भी वैसे ही भावुक और भ्रमित अभिवावक हैं, जो बच्चों को बुढ़ापे की लाठी मान सर्वस्व न्योछावर करने को सदैव तत्पर रहते हैं और उनकी उदास सलेटी
आाँखों का दर्द या तो मंदिरों और गुरुद्वारों में भजन और गुरुबानी के बोलों में फूटता और बहता है या फिर, उदास एकाकी अंधेरे घरों में, पार्क और बस स्टौप की सूनी बैन्चों पर। दो संस्कृतियों के बीच चलते इस संघर्ष की वजह से यहााँ भी कई वृद्ध भयानक त्रासदी से गुजर
रहे हैं । यह एकाकीपन या उपेक्षा …यह उदासी ही अब प्रवास की सबसे बडी सममया है उनके लिए जिनके अपने उन्हें छोड़ चुके हैं!
दूसरी बडी सममया बच्चों के लिए योग्य जीवनसाथी चुनने की है। अधिकांश बच्चे समझ और मान चुके हैं अब कि अरेंज शादी गले में फांसी का फंदा हैं क्योंकि दोनों तरफ ही अपेक्षाएँ तो बहुत अधिक रहती हैं परन्तु
सामंजस्य की इच्छा न्यूनतम … एक अच्छे रिश्ते के लिए जिस धैर्य भरी समझ और नेह की जरूरत होती है उतना वक्त ही नहीं आज के दौडते-भागते युवाओं के जीवन में। फलतुः अगधकांश सफल-असफल शादियााँ अब लव मैररज ही हैं अब और अभिभावक विहीन एकल परिवारों में प्रायः एक बडे तनाव का कारण भी हैं ।
आज जब हमारे खान-पान ही नहीं वेशभूषा और रहन-सहन, हमारे जीवन-दर्शन और सिद्धान्त तक ने पवदेशियों को मोहित कर लिया है, तो फिर हमारे अंदर यह हीनता का भाव क्यों, पवदेशी चमक की ललक क्यों रहती है हम भारतीयों के मन में? कहीं यह पूवजों के दासता भरे इनतहास की ही प्रतिछाया तो नहीं!
प्रवास का इतिहास यदि हम देखें तो भय और असुरक्षा का भाव तो रहेगा ही प्रवासी के मन में, चाहे वह प्रवासियों के ही बाहुल्य वाले देश में ही क्यों न रह रहे हों, जैसे अमेरिका या औस्ट्रेलिया और ब्रिटेन आदि, भले ही कितने ही वर्षों से नहीं, कई पीढ़ियों का वास हो उनका ! एशिया से आए लोग और भारतीय तो सदा ही नौस्टैल्जिया या यादों में ही
जीते हैं- देश जा रहे हैं जब भी कहते है, तो उनका तात्पर्य हमेशा वर्षों पहले पीछे छूटा देश ही होता है। भारत से वापस लौटते समय मैंने किसी को यह कहते नहीं सुना कि अपने देश लौट रहे हैं, चाहे उनके पासपोर्ट का रंग कोई भी ही क्यों न हो। और यही आधी अधूरी मनःस्थिति है जो यदा कदा स्थानीय लोगों को अखरती भी है।
क्या है वह भय या दुख जो जुडने नहीं देता, दूर-दूर ही रखता है, तब भी जब कि हमारे अपने एक एक करके बिछुड़ते जा रहे हैं और भारत की अगली पीढ़ी हमें पराया समझ
चुकी हैं और हमारी अपनी नई पीढ़ी नई मिट्टी खुशहाल है और फलफूल रही है? क्या यह सिर्फ़ चमडी के रंग का अंतर है…खान-पान और विचारों का ही फ़र्क़ है या फिर अपने अस्तित्व अपनी पहचान के पूर्णतः पिलय हो जाने का भय भी आ समाया है इसमें !…
शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
shailagrawal@gmail.com
साभार, आगामी पुस्तक ‘ पुनः पुनः भारत’ से