शनै: शनै: करके वक्त बीत चला है। यह ईस्वी भी डूब चुकी है। चंद सफ़ेद पन्ने हैं जिन पर इतिहास छप चुका है। कुछ पन्ने फड़फड़ा कर चहक रहे हैं तो कुछ भीगे हुये दर्द और स्याह की खामोश दास्तानों से लिपटे हुये खामोश से पड़े हैं। हजारों सालों से सभ्यताओं की जो टूटी हुई लड़ियाँ एक माला में गुंथ चुकी थी अब अपने चरम पर पहुँच कर पुनः टूटने को छटपटा रही हैं।
वाह रे काल? सभ्यताओं को जोड़ कर विकास किया और हे त्रिकालदर्शी फिर चुपके से विनाश की चिंगारी भी लगा दी।
धरा पर अरबों की आबादी अपना जीवन खोज रही है या जीवन को घसीट रही है, एक ऐसा जीवन जिसको मानव निर्मित अनुशासन, संविधान, व्यापार, देश, समाज और धर्म चला रहे हैं।
बिना किसी अनुसंधान के ये जिंदगी कैसे व्यर्थ जा रही है.
अजीब सी जद्दोजहद है की आखिर सही क्या है और गलत क्या है?
हिन्दुत्व के ग्रंथ, हज़रत की कुरान, ईसा की बाइबिल, पारसियों की जेंद-अवेस्ता या नानक की गुरुवाणी को लिख कर जो पन्ने इतरा रहे हैं और मानवता को राह दिखाने के दंभ भर रहे हैं। क्या ये सच हैं?
असंख्य मानव काल के हाथों वशीभूत होकर वो सभी कर्म कर रहे हैं जिसे शिव ने विनाश और विकास की कहानियों में गढ़ा था।
क्या पूरब, क्या पश्चिम, क्या उत्तर और क्या दक्षिण?
कुछ धर्मों के महान ज्ञाताओं के पीछे भेड़ों की जमात चल रही है।
तसल्ली होती है ये मान कर कि सब कुछ प्रारब्ध ने निर्धारित कर रखा है, हम क्यों मस्तिष्क खपाएँ।
भगवान की लीला भगवान ही जानें ।
बहुत अच्छा होता अगर ये शब्द वास्तव में होता ।
काश की ये शब्द सत्य होता तो किसी के मरने के बाद कुछ चेहरे सिसक न रहे होते।
जब सब प्रारब्ध निर्धारित ही था तो फिर हमने गीता के कर्मयोग का क्यों अनुसरण किया?
गीता के कर्मयोग ने महाभारत का विश्वयुद्ध तो दे दिया लेकिन हे श्री कृष्ण, भविष्य लगातार अर्जुन के उस सवाल का जवाब मांग ही रहा है, कि क्या करूंगा मैं युद्ध में जीते गए भूभाग पर शासन करके जिसके नीचे पितामह, गुरु, बांधवों, मात पिता और अन्य वंशजों की लाशें दबी पड़ी हों? शायद कृष्ण की मजबूरी थी महाभारत क्योंकि उस वक़्त भी धर्म के नाम पर कर्मकांडों, जातिय वर्गीकरण और अनाचार बढ़ चुका था।
आज भी हर श्लोक को सौ सौ बार छान कर पढ़ रहा है वर्तमान, संसार की समस्त ज्ञात मानव संहिताओं के सर्वोच्च आध्यात्मिक शिखर पर विराजमान गीता में उद्दत वो अंश मिल जाये जहां अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर था…
आखिर कौन जीता था?
बड़ी ही सकारात्मक ऊर्जा के साथ पुनः भारत का भविष्य खड़ा हुआ था लेकिन शायद पाँच हज़ार वर्ष पूर्व की तबाही पुनः विश्व पटल पर दस्तक दे रही है।
दुख इस बात का नहीं कि मानव का क्या होगा वरन दुख इस बात का है कि वो भारत जो मानवता के सर्वोच्च शिखर का गवाह था क्या वो भी धर्म और अधर्म में भेद स्थापित करने वालों के दुष्चक्र में फंस कर पीढ़ियों के दारुण विनाश का मूकदर्शक बनेगा।
वो भारतीय उपमहाद्वीप किसके दर्द से आँसू बहाएगा ? उन अबोध बच्चों की लाशों को अपने सीने में दफन करते वक़्त जिन्हें कुछ धर्मान्धों ने कलमा पढ़ा कर गोली मारी या उनके साथ जो वज़ीरिस्तान के किसी कबीले के एक झोपड़े में पैरों पर छोटे से बच्चे को झुलाते हुये उसकी किलकारियों से चहकते हुये चुल्हे पर रोटियाँ सेकती स्त्री के मुसकुराते चेहरे को देखते हुये सारे परिवार सहित अचानक ड्रोन बम से मांस – खून – धूल और लोथड़ों में बदलते हुये बदकिस्मत कबायली, जिन्हें कभी सियासत ने कश्मीर में झोंका था।
क्या भारत रोएगा उन नक्सलियों के साथ जिनकी जमीन पर ठेकेदार सोना लूट रहे हैं और आदिवासियों को जंगलों में विकास के नाम पर मारा जा रहा है अथवा उनको ज़मीनों से बेदखल करके मजदूर बना कर शोषित किया जा रहा है या फिर उनके साथ जो अपने परिवारों से दूर पूंजीवादियों के हितों की रक्षा के लिए बीहड़ों की खाक छान रहे हैं, जिन्हें विदेशों से मिले हथियारों की दम पर घात लगा कर मार दिया जाता है और उससे भी मन नहीं भरता तो उनकी लाशों में बम लगा कर, मानवता से भी विश्वास हट जाये ऐसी जघन्यता का प्रमाण दिया जाता है। असम में बोड़ो- बांग्लादेशियों- आदिवासियों- इसाईयों के मध्य खूनी आधिपत्य की भेंट के लिए छह महीने की बच्ची तक को गोली मार कर जला दिया जाता है. काश कि उसकी घुटती चीख सुन कर भी द्रवित इंसान बन पाते ये सियासी मोहरे।
एक फिल्म आई है हाल के दिनों मे, सुना है धर्मों पर कट्टर वार करती है। हिंदुओं पर तो कुछ ज्यादा ही। गलत नहीं कहा गया है की धर्म चंद ठेकेदारों के हाथ की कठपुतली बन गया है। सिर्फ इन्हीं लोगो का ही भगवान से सीधा संपर्क होता है और बिना इनकी सहायता के स्वर्ग मिलना असंभव है। वो ठेकेदार सारी भौतिक सुविधाएं इस्तेमाल करते हैं लेकिन अनुयाइयों को विरक्ति का मार्मिक संदेश देते हैं। इस फिल्म में भगवान के नाम पर समाज में व्याप्त आडंबरों पर करारा प्रहार किया जाता है। निश्चित ही भगवान के दूतों को तकलीफ होनी थी अब शायद ही कोई सिनेमाघर बचे इनके आक्रोश से।
आखिर उन ठेकेदारों ने भारत का भविष्य अपने बनाए संस्कारों के मुताबिक ढालने की कसम खा रखी है।
सच ही कहा है कि मूर्तियों, मंदिरों, ब्राह्मणों के कर्मकांडों को जनमानस सिर्फ एक अदृश्य डर की वजह से मानता है अन्यथा इनका कोई अस्तित्व नहीं और यदि इनका अस्तित्व नहीं तो धार्मिक ठेकेदारों की दुकानों का क्या होगा?
मैं उन कलाकारों और निर्देशकों को साधुवाद देता हूँ जिन्होने परंपरा से हटकर समाज को प्रेरणा देने का साहस किया।
लेकिन,
हिन्दुत्व की कमियाँ निकालने के अति उत्साह में ये उस हजारों सालों से जीवित संस्कृति का उपहास करने की भूल कर बैठे जिसने इन्हें, इनके पुरखों और इनकी पीढ़ियों को जन्म दिया है।
बंधु, शिव के बारे में जानना है तो ऊर्जा, आयुर्वेद और संगीत के सिद्धान्त की उत्पत्ति के बारे में खोज करना। शायद “आउम”, मस्तक प्रत्यारोपण और सात सुरों को विभक्त करती ध्वनि तुम्हें विश्व की किसी भी धार्मिक, ऐतिहासिक अथवा वैज्ञानिक पुस्तक में मिल पाये?
जिस गीता को तुमने हिन्दुत्व की परिधि में बांध कर विश्व की सारी धार्मिक पुस्तकों से तुलना की उस गीता को एकांत में तटस्थ होकर पढ़ के देखना।
शायद तुम्हें धार्मिक कर्मकांडों और मानवता के ठेकेदारों के मुंह पर तमाचे मारते श्लोकों का अर्थ समझ आ जाये।
थोड़ा और गहराई तक जा सको तो देखना की ऊर्जा के मूल में आत्मा, अणुओं की स्थिति से चैतन्य व अवचेतन जीव का निर्माण तथा सारी सृष्टि के मध्य भेद करती आणविक विसंगति को खत्म करते सूक्ष्म विज्ञान का सूत्र मिल जाये।
कभी गौर करना कि जिस संस्कृति का तुम मज़ाक बना कर दूसरों से तुलना कर रहे थे, क्या वजह है कि उसके सामने ऐसी हजारों संस्कृतियाँ आयीं और चली गईं लेकिन सिर्फ यही बची रही। यूनान, रोम, अरब, मंगोल अपनी संस्कृति से विस्मृत होकर भारत के सिंधु क्यों हो गए?
अरे क्षणिक धन लालसा के वशीभूत होकर अपनी अक्षुण्ण संस्कृति पर आघात मत करो, वो संस्कृतियाँ तुम्हें और तुम्हारे परिवारों को क्या भविष्य देंगी जिनका सर्वस्व दांव पर है. जिनके बच्चों के गले काटे जा रहे हैं प्रतिशोध के नाम पर, बिना किसी ग्लानि के।
वो संस्कृतियाँ तुम्हें क्या दे सकती हैं जो गैलीलियो को भगवान विरोधी करार देती हैं क्योंकि उसने गलती से कह दिया था कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, वो संस्कृतियाँ तुम्हें क्या दे सकती हैं जो अपने ईश्वर की सत्ता को चंद आड़ी तिरछी कलमों से बने कार्टून से व्यथित समझ लेती हैं काश कि उन कार्टूनिस्टों को मारने से पहले वो धर्म के पहरेदार ये सवाल अपने आप से करते कि वो भगवान, जिसकी व्याख्या ये चंद लोग करते हैं उसने कलम की ईजाद ही क्यों होने दी जिससे आज इंसान उसी का चेहरा बनाने की हिमाकत कर बैठा ?
और शायद उससे भी ज्यादा कि क्या भगवान अलग-अलग है जो अलग-अलग धर्म के लोगो को पैदा होने दे रहा है ?
विश्व का इतिहास इन मूर्ख कुतर्कों से भरा पड़ा है जहां कभी नरबली दी जाती थी देवताओं को शांत करने के लिए. जहां मंदिरों, गिरिजाघरों, मस्जिदों आदि में कर्मकांड बताए जाते हैं कि फलां पद्धति से पूजा करने पर ही निश्चित फल मिलता है अन्यथा नहीं।
कभी आग के सामने बैठ कर धुएँ के गुबार से भगवान को खुश करते हैं तो कभी चादर, फूल, अगरबत्ती, मोमबत्ती, गुगग्लू की धूप से परमात्मा का आह्वान करते हैं। जन्म, नाम, विवाह, मृत्यु आदि में भांति भांति के कर्मकांड किए जाते हैं कुछ विशेष तरह के धर्मसिद्ध व्यक्तियों द्वारा. अन्यथा कर्म, प्रारब्ध और भविष्य सब बदल जाएँगे. यहाँ तक कि अगर मृत्यु के बाद संस्कार नहीं हुये तो स्वर्ग मिलना असंभव है। शायद अब स्वर्ग में जगह ही न बची हो क्योंकि सबके संस्कार करके ही मृत आत्मा को पृथ्वी से भेजा जाता है। हिन्दू जला कर, मुस्लिम और ईसाई दफना कर तथा पारसी लोग गिद्ध को अपना मांस खिला कर, सब लोग स्वर्ग जाने के सारे यत्न कर जाते हैं।
जातियों और धर्मों के समीकरण में उलझे भारत को देख कर मन द्रवित हो उठता है की यदि भगवान ने ब्राह्मण को ही अपना दूत बना रखा है तो रैदास को संत क्यों बनने दिया?
अरे शिव के सनातन भारत को हिन्दुत्व की परिधि में बांधने वाले व्यावसायिक मानवों, क्यों ह्रास कर रहे हो मानवता का?
सनातन संस्कृति को विलुप्त करने के पहले दोषी तुम स्वयं हो। याद करो अट्ठारहवीं शताब्दी के बंगाल के अकाल को – जब लाखों की तादाद में शूद्र कहे जाने वाले दुबले, पसीने की गंध छोडते, मैले कुचैले फटे कपड़ों को पहने, अपनी छाया भी तुम पर न पड़ने देने वाले लोग तुम्हारे कुएं और बावड़ी के इर्द गिर्द रात के अंधेरे में भटकते प्राण देते मिलते थे या कभी ऊंची जातियों के दंभी, मुछों को तान कर लाठीयों से बेदम करते लोगो का मनोरंजन का साधन होते थे। इंसान का सबसे दुखद स्वरूप कभी तुम्हारे साहूकारों के सामने पीढ़ियों को गिरवी रखता था। दूर रखे बर्तन में पानी पीकर, दूर से पैर छूकर अपने बच्चों को समझाता था की बेटा हमेशा इनकी सेवा करना नज़रें नीची करके।
कृष्ण के देश में ये हिन्दुत्व का सबसे स्याह पन्ना है।
शायद उस कथित सभ्यता का हिस्सा जिसका अनुयायी हिटलर था जो अपनी जाति को सबसे श्रेष्ठ मानता था और स्वस्तिक का चिन्ह बाजू मे लगाकर गर्व से खुद को आर्य कहता था।
क्या ऊंची नीची जातियों के मध्य उल्लिखित् मार्मिक विषमताएं उस त्रासदी से कम थी जिस त्रासदी को विदेशी आक्रमणकारी भारत पर ढा रहे थे?
विश्व में हो रहे संकीर्ण परिवर्तनों से भारत भी अछूता नहीं रह सकता था उस पर भी थपेड़े अपनी छाप छोड़ रहे थे। असभ्य और सभ्य की लड़ाई में भी शिव का सनातन विज्ञान और कृष्ण का आध्यात्मिक ज्ञान किसी अदृश्य खूंटी की तरह भारत को थामे रहा।
भारत में आन बसे आर्य, हूण, कुषाण, मंगोल, बैप्टीशियन, नीग्रो आदि सब असभ्यता का जामा छोड़ द्रविड़ों के साथ सभ्य चोले से लिपट गए।
सबसे नवीन व कट्टर धर्म इस्लाम भी जब भारत आया, तो इस अद्भुत भौगोलिक अध्यात्म धरा में अपने मूल स्वरूप को त्याग बैठा और सूफियाना इस्लाम का उदय हुआ यानि वो भी नाचते गाते अपनी धुन में दीन दुनिया के दक़ियानूसी रिवाजों से दूर शिव के सन्यासी रूप में समाहित हो गया।
भारत से एक नवीन इस्लाम विश्व के सम्मुख प्रकट हुआ जिसमे आध्यात्मिक संगीत और अटूट प्रेम से सराबोर मानवता का अध्याय था, इसने न केवल रूढ़िवादी इस्लाम की परिभाषा बदली वरन हिन्दुत्व में व्याप्त मानव वर्गीकरण को भी हाशिये पर ला धकेला।
जितनी तेज़ी से कट्टर इस्लाम जो अरब से आया था लगभग उतनी ही तेज़ी से भारतीय प्रतिक्रिया के फलस्वरूप वापस पहुंचा और वहाँ भी बड़े पैमाने पर सूफियों की दरगाह और मज़ारों से प्रेम की धुन मे रंगे मुसलमान नाचने और झूमने लगे।
सूफियों अथवा फकीरों का ये समूह बिलकुल उसी तरह था जैसे भारत के जंगलों में बैठे धर्मनिरपेक्ष साधु सन्यासी। ये साधु किसी धर्म से नहीं ताल्लुक रखते थे वरन प्रेम भरे सरल स्वभाव से निस्वार्थ वैज्ञानिक की भांति निर्लिप्त मानवता की भलाई और मानव जन्म के प्रयोजन की खोज में अपना जीवन समर्पित कर देते थे।
भारत एक ऐसी आध्यात्मिक भूमि है जिसकी व्याख्या करना असंभव है. इस भूमि मे बैठे हुये अजान करते पुजारी को खरगोश की चिंता नहीं सताती कि अगर ये खरगोश हाथ से निकल गया तो खाऊँगा क्या, जैसा की ठीक अरब मे बैठा पुजारी अजान करते वक़्त सोच रहा होता है… अफ्रीका के जंगलो में पूजा करने वाले मानवों को जंगली जीवों से बचने का उपक्रम भी मन में रखना होता है।
मेरी कलम में इतना सामर्थ्य नहीं की इस भूमि के किस किस गुण का उल्लेख करूँ और न ही इनको पन्नो में समेट सकता हूँ परंतु फिर भी कुछ तथ्यों को उकेरने की कोशिश कर रहा हूँ जिन पर आत्म विश्लेषण करना और खुद से ही सवाल करना की इससे बेहतर कुछ था कहीं किसी के पास? उम्मीद करता हूँ, भारत की संतान के प्रश्नों के उत्तर उसकी अपनी खामोश आत्मा देगी।
लिखित इतिहास को तो पता नहीं कितना सच माना जाये, इसीलिए आधुनिक वैज्ञानिक इतिहास के तथ्यों की कड़ियों को समझते हैं। डायनासोर युग अफ्रीका, एशिया में फल फूल रहा था, बड़ी बड़ी वनस्पतियाँ थी और विशालकाय जीव भी। काफी अच्छा वक़्त बीत रहा होगा लेकिन किसी अंजान प्रलय की भांति एक उल्का पृथ्वी के अफ्रीकन भूभाग से टकरा गयी। धूल – धुएँ का गु्बार सारे आसमान को अपने आगोश में ले लेता है। सूर्य की ऊष्मा अब न अंदर आ सकती थी और न बाहर जा सकती थी। पृथ्वी के लिए दारुण संकट की घड़ी थी, भीतर की ऊष्मा ने ज्वालामुखियों को विस्फोटित करना शुरू कर दिया लेकिन सृष्टि ने हार नहीं मानी, गोंडवानालैंड के टुकड़े को तेज़ी से यूरेशिया की मुख्य भूमि से टकराया. दक्षिण भारत की लौहयुक्त भूमि का उत्तरी ध्रुव की ओर खीचांव का बल इतना अधिक था की उस टकराव ने हिंदुकुश से लेकर पूर्व तक हिमालय श्रंखला को जन्म दिया।
सृष्टि की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी ये जिसने मानव जन्म की भूमिका बांधी। हिमालय ने एक हृदय धुरी की भांति गोलार्धों से दौड़ती गरम और ठंडी हवाओं को नियंत्रित किया जिससे वर्षा का समान वितरण हुआ और धीरे धीरे धूल-धुंध के बादल जमीन पर बैठने लगे. इसी क्रम में शीत युग भी आ गया। रासायनिक अभिक्रियाओं ने सरंक्षित जैविक श्रंखला में बदलाव किए और समुद्रों से जीवन उत्पत्ति शुरू हुई।
हिमालय बहुत बड़ी भूमिका निभा रहा था एक तरफ जलवायु स्थिर कर रहा था तो दूसरी तरफ शिवलिंग की भांति मातृभूमि को उर्वर कर रहा था (सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में शिवलिंग और मातृभूमि के गर्भ से निकलती जड़ रूपी प्रतीक मूर्तियाँ निकली थीं)
भारत भूमि पर हिमालय से टकरा कर बरसता आसमान का पानी एक नयी इबारत लिख रहा था हिमालय के इस ओर संसार की सबसे उपजाऊ जमीन, जीवन को संभालने के लिए तत्पर हुई जबकि इसके ठीक उलट तिब्बत का बियाबान निरजीव पठार……. एक ऐसी जलवायु की नियमत भारतीय उपमहाद्वीप को बख्शी गयी थी जो संसार की अन्य भूमियों के लिए अप्राप्य थी। केरल के तट के करीब पायी जाने वाली सबसे प्राचीन प्रजाति की मछली इस बात की तसदीक करती है या विष्णु का सबसे प्राचीन अवतार- मत्स्यावतार का वर्णन। खैर जो भी सत्य हो, भारत की स्थिर और उर्वर जलवायु से मुफीद जगह जीवोत्पत्ति के लिए हो भी नहीं सकती थी।
इसके लिए आज का पश्चिम विज्ञान तक तर्क और तथ्य का बल प्रदान कर रहा है जिसे कालांतर में हिन्दुत्व की कहानियों में रूपांतरित कर दिया गया था। आज जिस प्रकार भारतीय संस्कृति का विज्ञान कांग्रेस में मज़ाक उड़ाया जा रहा है कि भला कभी मस्तक प्रत्यारोपण भी हो सकता है या विमानों का वर्णन कपोल कल्पना है भारतीयों की।
निश्चित ही मैं भी इसे झूठ ही मानता हूँ क्योंकि विज्ञान तर्कों को नहीं वरन तथ्यों को मानता है। भला चंद लिखे पन्ने कितनी सत्यता बयान कर सकते हैं? ये तो लिखने वाले की लेखनी पर निर्भर करता है।
लेकिन मैं भारतीय संस्कृति में उद्धत वैज्ञानिक तथ्यों को झूठा बताने वालों से एक मनोवैज्ञानिक सवाल करता हूँ की कोई भी ऐसा वाक्य बोल कर दिखाएँ जो उनकी अपनी कल्पना से उपजा हो।
अर्थात कोई भी ऐसा शब्द… जिसके बारे में कभी सुना न हो, देखा न हो या महसूस न किया हो?
शांत हो जाएँगे ऐसे लोग और बहुत दिमाग खपाएंगे की कुछ तो ऐसा बोले जो बिलकुल बेसिर पैर का सबसे नवीन वाक्य हो।
याद रखना कल्पना को भी एक आधार की आवश्यकता होती है, और हमारे सारे ज्ञान का आधार सिर्फ यही तीन क्रियाएँ हैं। अगर इससे इतर कुछ भी घटित होता है तो उसे हम पारलौकिक की संज्ञा देते हैं क्योंकि वहाँ हमारे मस्तिष्क की तार्किक क्षमता खत्म हो जाती है फिर हम उस जवाब के लिए अपने से बुद्धिमान व्यक्ति को खोजते हैं। यदि उसके जवाब ने हमें संतुष्ट कर दिया तो उसे हम अपना गुरु मान लेते हैं फिर उसकी कही हर बात हमारे शिरोधार्य होती है।
अब तक ज्ञात भारतीय संस्कृति के मूल में शिव का सनातन विज्ञान किस तरह समाहित है उसकी झलक न चाहते हुये भी उद्धत हो जाती है, सात सुरों में विभक्त स्वर की व्याख्या दूसरी किसी संस्कृति में नहीं है। ॐ शब्द का विज्ञान देखना हो तो नवजात शिशु की आवाज़ को परखना जब उसके मुख से अम या माम अथवा वो ध्वनि निकले जिसमे अं का स्वर हो तो बच्चे की किलकारी को महसूस करना ये अं की ध्वनि किसी भी कर्कश ध्वनि के विपरीत बेहद सुकून देने वाली होती है और स्वस्थता का प्रमाण भी। इकतारा से लेकर किसी भी वाद्य जिससे अंत में अं, घंटी अथवा म से खत्म होता स्वर हो उस समय ऊर्जा का एकत्र होना एक सकारात्मक वातावरण पैदा करती है।
रामायण में वर्णित अनूठे कल्पना युक्त वाक्य आखिर आधार कहाँ से पाये। आज का विज्ञान कपि मानवों को हमारा पूर्वज बता रहा है तो शायद राम की सेना के हनुमान, जामवंत और सुग्रीव सजीव हो उठते हैं। चलो रामेश्वरम से लंका तक बना सेतु भी प्रकृति प्रदत्त रहा हो तो रावण वध यानि दशहरा के दिन से ठीक बीस दिन बाद हजारों किलोमीटर की यात्रा करके अयोध्या लौटे राम के स्वागत में दिवाली कैसे मनाई गयी अगर रावण के पास से मिला पुष्पक विमान नहीं था तो?
अद्भुत विविध संस्कृति है भारत में, जिसको जितना खोजो उतनी ही जटिल होती जाती है। पाश्चात्य वैज्ञानिक तर्क और तथ्य का सवाल करते हैं तो उनको जवाब कैसे और क्यों दूँ क्योंकि हम तो इस बहस से बहुत आगे जा चुके थे। पीढ़ियों के श्रुतविज्ञान को कभी लेखनी की जरूरत पड़ी ही नहीं। बस इतना ही कह सकता हूँ की जितनी बातें हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं वो धीरे धीरे काल दर काल नवीनतम खोजों के जरिये दुनिया के सामने आ ही जाएंगी।
इसमें विवाद कैसा?
एक प्रश्न और है कि विज्ञान हमेशा परिष्करण की ओर बढ़ता है उसका ह्रास नहीं होता। बिलकुल वाजिब तर्क है। लेकिन कृष्ण के आध्यात्मिक ज्ञान की अलौकिक गीता ने जब धर्म के नाम पर हो रही हानि को रोकने के लिए कर्मयोग का सिद्धान्त दिया तब उनको भी भान नहीं था की महाभारत का परिणाम क्या होगा। ये मात्र कुछ राजाओं के मध्य युद्ध और उसके पश्चात पुनः शांत-सभ्य साम्राज्य स्थापित करने का प्रयत्न न होकर विश्व में महाप्रलय की गाथा बन जाएगा।
इस भारतीय उपमहाद्वीप से अत्यधिक परिष्कृत मानसिक व आध्यात्मिक ज्ञान का विनाश हुआ। युद्ध का समापन एक निश्चित घटना थी और भारतीय मानसिक अध्यात्म का चरम आता किन्तु लड़ाई के कुछ दिनों बाद अश्वत्थामा का प्रकट होना और फिर अर्जुन के साथ ब्रह्मास्त्र की लड़ाई ने विश्व का भविष्य दांव पर रख दिया। दोनों के ब्रह्मास्त्र छूटे लेकिन कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने इसे वापिस ले लिया क्योंकि वो इसकी विद्या जानते थे परंतु अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र ने सर्वनाश कर दिया।
भारत का वो आध्यात्मिक ज्ञान फिर कभी नहीं देखने को मिला।
कितना मानव मरा होगा इसका अंदाज़ लगाना कठिन है क्योंकि थार मरुस्थल का जिक्र गांधार से लेकर कुरु तक कहीं नहीं था उससे पहले। सरस्वती नदी से आबाद धरा अब शमशान थी, द्वारिका की भव्यता समुद्र की तलहटी में थी।
प्रमाणित हुआ था कि काल का पाश सबसे रहस्यमयी संरचना है ब्रह्मांड की।
तथाकथित भगवानों को भी नहीं बख्शा उसने। ऊर्जा के इस अद्भुत स्वरूप से ब्रह्मांड का सबसे अद्भुत लोक भारत भी विदीर्ण हो गया था।
परंतु काल ने फिर करवट ली. लड़ाई से बचा इंसान जो विश्व के अन्य हिस्सों में था, धीरे धीरे भारत की ओर लौटा। पर अपने अविवेकी संस्कारों, अंधविश्वास भरे तांत्रिक अनुष्ठान और भगवानों की कथाएँ लेकर… वो भला गीता के कर्मयोग से लेकर पुरषोत्तम योग को क्या समझ पाता? उसे तो बस मूर्खों जैसे सवाल और तर्कों को विराम देती कहानियों में अपना भविष्य ढूँढना था. उसे तो अब विभाजित करना था भारत को वर्णव्यवस्था के नाम पर। उसे भला गीता के खंड क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग के श्लोक !!13-22!! से क्या सरोकार था:-
उपद्रष्टानुमंता च
भर्ता भोक्ता महेश्वर:!
परमातमेति चापयुक्तों
देहेस्मिंपुरुष: पर:!!
अर्थात इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साथी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से स्वयं परमात्मा है।
कभी नहीं इंसान समझ पाएगा की किस बिनाह पर कृष्ण की गीता को हिन्दुत्व की किताब घोषित किया गया था, किस बिनाह पर उसे पुराणों की कहानियों मे समेटा गया था? किस बिनाह पर भगवान की अवधारणा विभक्त की गयी थी, जबकि साफ साफ संदेश था गीता का कि हर जीव के भीतर परमेश्वर मौजूद है इसलिए किसी का अपकार मत करो बस अपने तथा उसके भीतर छिपे भगवान को पहचानो और बिना किसी का अहित किए हुये जीवन चक्र से मुक्त हो जाओ।
एटोमिक थ्योरी के मुताबिक एलेक्ट्रोन व प्रोटोन हमेशा एटम के चक्कर लगते रहते हैं और जैसे जैसे न्यूक्लियस की बंधन शक्ति क्षीण होती जाती है एलेक्ट्रोन व प्रोटोन दूर होते जाते हैं फिर एक समय बाद एटम का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।
गीता विशुद्ध वैज्ञानिक ग्रंथ है, जिसे यदि तटस्थ होकर एकाग्रचित्त पढ़ा जाये किसी भी भगवान की कल्पना खारिज करते हुये तो पुरा भारतीय मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति का दर्शन होता है। पुरातन काल से लेकर आज के युग तक की मानव स्थिति की एक एक घटना और उसके कारकों का उल्लेख मिल जाता है। ऐसा रहस्यमयी विज्ञान छिपाए यह वैज्ञानिक ग्रंथ आइन्स्टाइन जैसे वैज्ञानिक को अमर कर गया, जिसने इसके वास्तविक स्वरूप को खोजने के लिए “थ्योरी आफ रिलेटिविटी या सापेक्षता का सिद्धान्त” पर काम शुरू किया था।
मानव मस्तिष्क की असीमित शक्तियों को सिर्फ भारतीय दर्शन के द्वारा ही गहनता से समझा जा सकता है, अरे आज जिन चीजों को खोज कर संसार इतरा रहा है उन भौतिकवादी वस्तुओं को भारतीय संस्कृति ने सहस्त्राब्दियों पूर्व परख कर छोड़ दिया था।
भारतीय भूगोल ने मानव को भौतिकता के दीर्घकालिक दुष्परिणाम की झलक दिखा कर उससे परे जाने के लिए मन की शक्ति का सदुपयोग करने की प्रेरणा दी है।
योग इसी की श्रंखला है।
चौरासी लाख योनियों की कल्पना शायद मज़ाक ही समझी जाये परंतु विश्व के वैज्ञानिक अभी तक सिर्फ बहत्तर लाख जीवों को पहचान तक ही पहुँच पाये हैं और सत्तासी लाख का अनुमान लगाए हैं। तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की कहानियों का उपहास करने वाले भोले मानवों, भारत के हर परिवार का अपना कुल देवता होता है अर्थात वो अपने माता पिता से लेकर पुरखों तक को भगवान का दर्जा देता है।
लेकिन नहीं इससे भी गहरा परिचय है तैंतीस करोड़ भगवानों का, इसके लिए गीता का श्लोक फिर से पढ़ो। अब इसमे देखोगे की जीवित व निर्जीव सभी वस्तुओं को उत्पन्न करने वाला पदार्थ एटम अर्थात आत्म जब स्वरूप ग्रहण करता है तो एक नयी उत्पत्ति होती है।
लोहा, सोना, मिट्टी, पत्थर, आक्सीजन, कार्बन, सिलिका, घास, बंदर, कुत्ता, पीपल, गुलाब जैसे असंख्य उत्पत्तियों का प्रारम्भ करने वाला “आत्म” का सबसे विशुद्ध स्वरूप परमात्मा है अर्थात तैंतीस करोड़ तरह के पदार्थों के रूप में भगवान।
अब मुझे किस मूर्ख से भगवान के बारे में जानने की इच्छा बचती है जब मेरे इर्द गिर्द, हर क्रिया, हर वस्तु, हर जीव, हर कण में भगवान है।
मुझे अगर भगवान को प्राप्त करना है तो सबसे सरल सिद्धान्त गीता से लेना है कि मेरे सामने वाला भगवान है और इसका अहित न करना मेरा धर्म…
अब क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या अमेरिका, क्या हिंदुस्तान, क्या बकरी, क्या पेड़?? हर वस्तु में है मेरा भगवान…
यहाँ से गीता का असली रहस्य शुरू होता है, मानव के भीतर छुपे दुर्लभ आत्म बोध का इंद्रियों और मन की शक्ति से साक्षात्कार होता है। विज्ञान में पदार्थ का वर्गिकरण ठोस, द्रव्य और गैस के रूप में किया जाता है। इनकी अवस्था को परिवर्तित किया जा सकता है बाह्य ऊर्जा के प्रहार से। लेकिन एक सवाल ये उठता है की जब ऊर्जा न तो उत्पन्न होती है न ही खत्म तो यह भी संभव नहीं। वास्तव में बाह्य ऊर्जा सिर्फ सहायक होती है उस पदार्थ के भीतर की ऊर्जा को एक दिशा में जागृत करके अवस्था परिवर्तन में।
गीता का चरम इस स्थूल आवरण के भीतर दो स्वरूप की व्याख्या कर रहा है। एक जो प्रत्यक्ष है और दूसरा आभासी। इस आभासी मानव को भी वही ऊर्जा गति दे रही है जो स्थूल शरीर का पालन कर रही है।
ये ऊर्जा वो है जो हमारे सामने से गुजरे किसी अंजान प्राणी के प्रति आकर्षण अथवा विकर्षण का मूल है। ये वो ऊर्जा है जो किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के स्पर्श को कंपकंपाते हाथों से महसूस करते करती है। ये ऊर्जा वो है जो मानव को प्रतिष्ठा, धन और मनोवांछित वस्तु प्राप्त करने की प्रेरणा देती है तथा जब मिल जाये तो उससे भी अधिक प्राप्त करने के प्रयत्न का शरीर को आदेश देती है।
आज तक जितने भी ईजाद हुये हैं उनके मूल में भी यही ऊर्जा है जो अपनी सकारात्मक या नकारात्मक संतुष्टि के लिए शरीर का इस्तेमाल कर रही है। आई॰एस॰आई॰एस॰ के लड़ाके, वज़ीरिस्तान के कबायली, जंगलो में घात लगाए नक्सली, या परमाणु बमों की कमान थामे राष्ट्रप्रमुख…. सब इसी मानसिक ऊर्जा को संतुष्ट करने के लिए ऐसे कर्म करने को लालायित हैं। लेकिन विडम्बना ही है की दूसरों के कटते गले से निकलते खून को देखकर मानसिक संतुष्टि प्राप्त करने वाले अपने तथा अपने परिवारों के साथ ऐसा हश्र नहीं चाहते। अपने बच्चे की उंगली से निकलता खून भी इनको द्रवित कर देता है…
बहुत कठिन है इस ऊर्जा की व्याख्या. क्योंकि जब ये या हुसैन-या हुसैन करके शरीर छीलते बदन, नवरात्र के दौरान भालों से बिंधे मुंह के साथ दौड़ते, अफ्रीका के जंगलों में नंगे पैर अंगारों पर नाचने के अनुष्ठान या हिमालय के पानी जमा देने वाले बर्फीले पहाड़ों पर हठयोग करते नंगे बदन साधुओं के शरीरों को बचा लेती है और कभी डाइबिटीज़ के रोगी के पैर की छोटी चोट से सड़ते शरीर को मरने के लिए छोड़ देती है…
यही ऊर्जा कभी सिकंदर को विश्व विजय के लिए उकसाती है और यही ऊर्जा पोरस के भीतर उफान मार कर सिंधु के तट पर विजय अभियान को रोक देती है। चन्द्रगुप्त मौर्य और हेलेन के मध्य यही ऊर्जा प्रेम में परिवर्तित होकर यूनान और भारत को एक कर देती है।
अरस्तू, अल्बेरूनी, हवेनसांग, फहयान जैसे नाना लेखक इसी ऊर्जा को कलमबद्ध करके भारत के ज्ञान से विश्व को साक्षात्कार कराते हैं।
कितना अद्भुत सत्य है गीता में कि ऊर्जा हर पदार्थ में है लेकिन यदि ये किसी कि हानि न करे तो वो सकारात्मक ऊर्जा है, इसकी कीर्ति पीढ़ियों, युगों तक रहेगी वहीं यदि ये ऊर्जा किसी का अहित करके सुख पा रही है तो वो नकारात्मक ऊर्जा है जो कुछ सालों तक ही जीवित रहेगी परंतु युगों तक अपयश से अभिशप्त भी रहेगी।
शायद यही वजह है कि राम से अधिक वैभव, विज्ञान और बल से परिपूर्ण नकारात्मक ऊर्जावान रावण हजारों सालों के बाद भी पुतले के रूप में फूंका जा रहा है जबकि कुछ वानरों, भालुओं और विभीषण जैसे लोगों की सहायता से जीते सकारात्मक ऊर्जा से मर्यादा, प्रेम और समानता का पैमाना स्थापित करने वाले राम भगवान के रूप में पूजे जा रहे हैं…
कृष्ण का अध्यात्म, रास और प्रेम आज तक मानवता का आदर्श है जबकि उनका सगा मामा राक्षस की श्रेणी में।
हज़रत के द्वारा इन्सानों की जालिम दासता से मुक्ति या ईसा की अपने दुश्मनों के लिए भी भगवान से भला करने की प्रार्थना। ये वो ऊर्जा है जो युगों युगों तक अमर रहेगी न की वो नकारात्मक ऊर्जा जो दस साल के छोटे बच्चे के हाथों से पिस्तौल चलवाकर इन्सानों का कत्ल करने का विडियो डाल रही है।
भारत भौतिक ऊर्जा के हर स्वरूप से रूबरू हो चुका है। आने वाली शताब्दियाँ अब भारत की आध्यात्मिक ऊर्जा के स्वरूप का अनुगमन करेंगी।
बड़ी सरल गहराई है मस्तिष्क के रूप में ब्रह्मांड के इकलौते जीव मनुष्य के भीतर। हम आंखे बंद करते हैं, किसी भी आस्था के प्रतीक के सामने- सिर झुकाते हैं, अपने अंदर झाँकते हैं फिर एक सवाल करते हैं की मै क्या अच्छा का रहा हूँ और क्या बुरा???
जवाब चाहे जो भी हो लेकिन अपनी नज़र में कोई भी गिरना नहीं चाहता, वो सारी मुमकिन दलीलें रखता है की जो भी गलत कदम उठाए उनकी वजह ये थीं। इस जवाब से उसकी अपनी आत्मा संतुष्ट नहीं होती तो वो गुनाहों की माफी मांगता है। अब वो मानव अपनी सोंच के अनुकूल लक्ष्य निर्धारित करता है फिर उसके आस पास के वातावरण में स्थित पदार्थों के आत्म “एटम” के साथ हमारे शरीर के आत्म “एटम” संयोजन करने चल देते हैं लक्ष्य को पूरा करने के लिए।
भूमिका बहुत बड़ी है और लेखनी बहुत छोटी। बहुत बड़ी है वो सूक्ष्म दुनिया जिसका आभास गीता ने दिया था। आने वाला भारत मानसिक शक्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा का बिन्दु बनेगा।
ये भारत धर्मों से दूर मानसिक ऊर्जा के दम पर हनुमान के शरीर फुलाने का राज बताएगा, परकाया प्रवेश की संभावना, प्रकट अथवा विलोप होने की विद्या आदि को सिद्ध करेगा, जिसे अंधविश्वासियों और तांत्रिकों के अधकचरे ज्ञान ने उपहास बनाया था।
जिस मोबाईल फ़ोन के मध्य दोलन करती तरंगो को बाह्य ऊर्जा व् माध्यम धातु की आवश्यकता है वो सिर्फ मानसिक ऊर्जा के जरिये दो व्यक्तियों के परस्पर संवाहित होगी।
सूक्ष्म संसार अनंत है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की दी हुयी गीता को पढ़कर अध्यात्म के संसार में उतरने वाले महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्षता का सिद्धांत का चरम शायद यही सूक्ष्म शरीर था। वो मानसिक ऊर्जा जब संगृहीत हो जायेगी तो शरीर को बाँधने वाले पदार्थ से आत्म का पृथक्करण हो सकेगा और वो अकल्पनीय घटनाएं सत्य हो जाएंगी जिनका वर्णन हमारी कहानियों में है।
लेकिन ये सूक्ष्मता इतनी आसान नहीं जिसे लिखा और पा लिया। सबसे पहले तो जिस भौतिकता ने हमें जकड़ लिया था कारों, जहाजों, घरों, जमीनों, एयर कंडीशनरों, शॉपिंग काम्प्लेक्सों के चमचमाते मकड़ जाल से खुद को अलग करना होगा। गीता के उस श्लोक को चरित्र में ढालना होगा की प्रकृति से हमें सिर्फ उतना ही लेना है जितने में हमारा शरीर जीवित रह सकें। जिन भौतिक वस्तुओं को हम विकास का मानक समझ रहे हैं वो वास्तविकता से बहुत परे हैं।
हम उस मानसिक संतुष्टि की चाह कर रहे हैं जिसके लिए हमें मध्यस्थ चाहिये और इस मध्यस्थता के लिए प्राकृतिक वस्तुओं का ऐसा दोहन जिसके परिणाम से इतिहास में लिखी लाखों सभ्यताएँ भी नहीं बच पाईं।
प्रकृति का अंध दोहन करने वाली एक भी सभ्यता जीवित नहीं बची है। रावण, महाभारत, बेबीलोन, इंका, माया, मिस्त्र, सिंधु जैसी सभ्यताएँ अपने समय में चरम पर थीं। आज की सभ्यता भौगोलिक सभ्यता है। एक सा मानव, एक सी अभिलाषा। अमेरिका से लेकर जापान तक एक सी जरूरत।
इस सभ्यता में भौतिकवादिता का विकास मानव का लक्ष्य है और इससे उपजी मानसिक शांति उसका चरम। डेटॉल-लाइफबाय जैसे साबुन बता रहे हैं की अगर इनसे हाथ न धोया तो किटाणु आ जाएँगे, बाल मन में ही छद्म हाइजीनिक की भावना भरी जा रही है। पच्चीस पैसे के कास्टिक से किटाणु मारने के नाम पर लाइजाल, हारपिक आदि फोम बेस्ड डिटेर्जेंट तथा तेज़ाब आदि द्रव्य कैसा सर्वनाश कर रहे हैं कोई उसे क्यों नहीं बता रहा?
ये किटाणुओं को मारने के नाम पर सीधे सीधे इकोसिस्टम पर आत्मघाती प्रहार कर रहे हैं, आत्मघाती – क्योंकि इसका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष दुष्परिणाम हमें ही झेलना है। हमारे घरों से निकला विरल pH वाला द्रव्य नालों तथा नदियों में स्थित मछलियों तथा नाना जलचरों को जीवित रखने वाली आक्सीजन एवं जीवन उपयोगी लवणों का ह्रास कर रहा है, फलस्वरूप जीवों के मरने के बाद उनके मृत शरीरों से निकल रहे घातक जहरीले रसायन गैसों, पानी के द्वारा सींचे गए अनाजों और जमीन के भीतरी तह में मौजूद पानी को रिस रिस कर जहर बना रहे हैं। मिथेन आदि कार्बन यौगिकों वाली गैसें जीव के लिए प्राणघाती हैं। यह सर्वविदित है की थलचर और नभचर से असीम गुना जीवन जल में पनपता है यदि जलीय इकोसिस्टम प्रभावित हुआ तो उसका कुप्रभाव कोई भी विकसित प्रणाली नहीं कम कर पाएगी।
जितनी भी इतिहास विदित सभ्यताएँ थी उनको नेस्तनाबूद करने के लिए जल ही सर्वप्रमुख कारण था। चाहे उसके द्वारा महामारियों का संक्रमण, चाहे बाढ़ या समुद्रों में दाब चक्र में परिवर्तन स्वरूप भूमि पर उठने वाले तूफान, सुनामी आदि। यहाँ तक की समुद्रों की अथाह गहराइयों में होने वाले टेक्टोनिक प्लेटों में विस्थापन को भी जल ही नियंत्रित करता है। आर्कटिक ध्रुवों में बर्फ रूपी जल भी जिस दिन मानव पिपासा को शांत नहीं कर पाया तो सृष्टि प्रलय का नजारा होगा। शैल जैसी कंपनियाँ अपनी भौतिक पैशाचिक लालच को शांत करने के लिए यहाँ भी मानव निर्मित मशीनों से ड्रिल कर रही हैं। जिस केदारनाथ घाटी में हजारों सालों से शंख बजाना भी निषिद्ध था उस हिमालय शृंखला में आज डाइनामाइट लगा कर विकास की परिभाषा गढ़ी जा रही है।
भौतिकवादी अर्थव्यवस्था की भेड़चाल में सारे देश चल पड़े हैं कुछ महादेशों के पीछे जिन्हें वहाँ की व्यावसायिक कंपनियाँ चला रही हैं। समाजों और सभ्यताओं की अस्थिर करके ग्लोबलाइज़ेशन और विकास का अंधा चश्मा पहनाने हेतु इनकी अनुषंगी समाजसुधारक कंपनियाँ और मीडिया भी अपनी ताकत झोंक रही हैं…
कैसी विडम्बना है तीन सौ सालों का ये पुनर्जागरण अपने इतिहास से प्रेरणा नहीं ले रहा है।
लेकिन, भारत अलग है…
इसकी संतान के अंदर वो क्षमता है की एकांत में बैठकर अपने भीतर झांक सकता है। वो सारे दिन के काम के बाद शाम को अपना हिसाब लेता है, अनुपात खँगालता है अच्छाई और बुराई का।
भले ही निष्ठुरता और भौतिकता का छद्म जामा पहने घूम रहा हो ये भारतीय, लेकिन उसका चित्त नैतिकता, अहिंसा, प्रेम और प्रकृति की सन्निकटता का अभिलाषी है। वो गढ़ीमई संस्कृति को धिक्कार रहा है जहां हजारों जानवरों की बलि दी जाती है हिन्दू देवताओं को खुश करने के लिए और उस मुसलमान औरत की आंखो से आँसू के रूप में भी निकल रहा है जिसका पति विदेशी संस्कारों के वशीभूत होकर निर्दोष बकरे का गला रेत रहा है, उस बकरे के थरथराते जिस्म को देख कर उसके बच्चे दुख और विषाद से सहमे चीख रहे हैं।
आज इतने भौतिक युग में होने के बावजूद हम हरे भरे दृश्यों को देखना चाहते हैं, वो फिल्में असर कर रही हैं जिनमे समुद्र-पहाड़-झरने-जंगल हैं। वो उन गानों को गा रहा है जिनमें ठहराव, शब्दों और लयबद्ध ध्वनियों का मेल है न की हाई बिट्स वाली धुनों वाले गाने जिनके पीछे विकसित देशों के युवा नशे के अंधेरे में थिरक रहे हैं।
हमारी स्त्रियाँ आज भी उन संस्कृतियों से निष्कलंक हैं जिसमें कन्याओं का सूत्र है “यदि बलात्कार को रोका न जा सके तो उसका मजा लो” या वो मध्य देशों की स्त्रियों से भी ज्यादा भाग्यशाली हैं जिनका जन्म मृत्यु से ज्यादा दुखदाई है, अनगिनत हाथों में बिकती, अपने बच्चों, पतियों, पिताओं के कटते गले देखकर जड़ होती। अपने कोख पर हाथ रख कर महसूस करती हुई रोती हैं कि नौ महीने इसी के भीतर पला था ये सिर…
हा दैव … ये मानवता की कौन सी दिशा है?
गीता का वो श्लोक याद आता है कि स्त्रियों के दूषित होने से सम्पूर्ण सभ्यता दूषित हो जाती है और उस सभ्यता का विनाश होने से कोई भी नहीं बचा सकता।
पूँजीपतियों की सरकार है फिर भी संतोष है की ये भारतीय हैं, वो भारतीय जिनके मानस में संवेदनाएँ, नैतिकता, आँसू, अनुशासन और प्रकृति प्रेम वाले मूर्ख गुणों की प्रधानता आर्थिक लालसा से अधिक है।
सच में ये गुण दूसरे सभी देशों के लिए मूर्ख गुणों की श्रेणी में हैं क्योंकि ये विकास के सबसे बाधक गुण हैं।
इन मूर्ख गुणों को समझने के लिए एक ऐसी दृष्टि चाहिए जिसमे अध्यात्मिकता का अंश हो। गहन विश्लेषण, तर्क, स्थिरता और मानवता का मूल हो। जीवन के हर पहलू को उस स्तर से देखने का माद्दा हो जो तुम्हारे भीतर मौजूद परमात्मा दिखाना चाहता है।
उस सूक्ष्म शरीर को इतना समृद्ध करो कि प्रकृति के वास्तविक संचालन को देख सको जब स्त्री और पुरुष के मध्य सभी इंद्रियों का मिलाप होता है, उस घर्षण में एक ऐसी ऊर्जा दोनों के अंदर एकत्र होती है जो अपने मिलन के सारे यत्न कर देती है। लाखों शुक्राणुओं में से एक शुक्राणु को चुन कर स्त्री के ऊर्जावान अंडाणु से निषेचन कराती है।
अब इस ऊर्जा के दोनों ध्रुव मिलकर स्त्री गर्भ में जीवन की शुरुआत करते हैं, उस पुंज का निर्माण करते हैं जिसे नाभि अर्थात प्लैसेंटा कहते हैं या वो तत्व जो रावण के अमर होने का रहस्य था। इस पुंज के माध्यम से ये ऊर्जा हृदय के स्पंदन में तब्दील हो जाती है। ये ऊर्जा जब हृदय मे बैठ कर बिना किसी बाह्य सहारे के अपना कार्य प्रारम्भ कर देती है सृष्टि के सारे तत्वों से अपना हिस्सा मांग कर स्थूल और सूक्ष्म शरीर का निर्माण करती है या सृष्टि भी पंचतत्वों के रूप में असंख्य परमाणुओं को शरीर को स्वरूप देने लिए एकत्र कर देती है, कोई आँख बनाता है, कोई जीभ, कोई दाँत, मस्तिष्क, उदर, जननांग, पिंडलियाँ, अंगुलियाँ, फेफड़े, बाजू से लेकर पैर तक बनाने के लिए निर्जीव तत्वों के परमाणु और सजीव किटाणु अपना योगदान करते हैं उस घर को बनाने के लिए जिसमे कृष्ण कि गीता की आत्मा वास करती है।
सारे ब्रह्मांड की प्रत्येक संरचना को बनाने की जिम्मेदार वो ऊर्जा अपने कार्यों को निरंतर करती रहती है काल की सहायता से बिना रुके बिना थके।
छोटे एटम बड़े से चिपकने के लिए, बड़े उससे बड़े के पास, उससे बड़े उससे भी बड़े एटम के पास जाने का प्रयत्न करते हुये सदैव सृष्टि को गतिमान रखते हैं। आखिर ऊर्जा के विखंडन और उसके संयोजन का उद्देश्य क्या है इसी को समझने के लिए चौरासी लाख योनियों में घूमकर ये ऊर्जा मानव शरीर प्राप्त करती है, उस अद्भुत मानव शरीर को जिसकी मानसिक क्षमता अपीरिमित है। वो सोंचता है तो हवाई जहाज़ बना लेता है, वो सोंचता है तो मोबाइल बना लेता है, वो सोचता है तो टीवी कम्प्यूटर, इंटरनेट बना लेता है, वो जानता है की तारों के माध्यम से ऊर्जा संचारित होती है। थोड़े से मानसिक परिश्रम से वो ये भी जान लेता है की वातावरण के अणु भी ऊर्जा का स्थानांतरण करते है, रिमोट, वायरलेस, उपग्रह आदि वो उदाहरण हैं जो मानव की उच्च मानसिक क्षमता को सिद्ध करते हैं।
परंतु विज्ञान ये भी कहता है की मानव अपने पूरे जीवनकाल में मस्तिष्क का हज़ारवां हिस्सा भी नहीं इस्तेमाल कर पाता और जो मानसिक स्तर प्रयोग हो भी रहा है वो सिर्फ भौतिक वस्तुओं को ऊर्जा संवहन का माध्यम समझ रहा है. इस ऊर्जा को स्थानांतरित करने के लिए बाह्य ऊर्जा का सहारा ले रहा है उस नकारात्मक ऊर्जा का जिसको सृष्टि मानव पहुँच से दूर रखना चाहती है. ये नकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने वाले पदार्थ अपनी स्थिति में दूसरे कार्यों को सम्पन्न कर रहे थे अगर ये ऊपरी परत में आएंगे तो सृष्टि को जीवन अनुकूल बनाने में बाधा उत्पन्न करेंगे। खनिजों का अंध उपभोग और उन पर जीवन निर्भरता का सिद्धान्त वृहद विनाश को जन्म दे रहा है।
रसायनिक क्रियाओं में मनमुताबिक फेरबदल कर हम एंटी बायोटिक, पेस्टिसाइडों आदि के जरिये जीवों को मार कर मानव को जीवित रखने की नाकाम कोशिश करना चाहते हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में जीवन के सबसे मूल सिद्धान्त को भूल रहे हैं कि ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु सम्पूर्ण जीवन चक्र में एक दूसरे की पूरक है। आँख, कान, नाक, उदर अगर इंद्रियों की भांति शरीर के लिए उपयोगी हैं तो उदर में ही मौजूद लेक्टो बैसिलस जैसे बैक्टेरिया पाचन तंत्र के लिये बेहद उपयोगी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। शिव के दर्शाये विकास और विनाश के सिद्धान्त के साथ अगर छेड़छाड़ की गयी तो ऊतको का विनाश करने वाले जीवों को मारकर, सिर्फ ऊतकों के विकास का सिद्धान्त का अगला पड़ाव कैंसर होगा, जिसके इलाज के लिए कीमोथिरेपी से झड़े बाल और भयंकर शारीरिक पीड़ाओं का अनुभव करते मनुष्य का नरकमय जीवन घिसट घिसट कर पार होगा।
भारतीय सभ्यता में बुद्ध का सम्यक ज्ञान का मध्यम मार्ग विलास के विकास की अवधारणा को स्थिर करता है. मानव स्थूल आवरण से जो भी महसूस करता है उसको सूक्ष्म आवरण में परिणित करने के लिए अध्यात्म के अलौकिक स्तर को छूना पड़ेगा जो कि साधारण ज्ञान प्राप्त अरबों मानवों के लिए दुर्लभ है। ऐसे मनुष्यों की तादाद बहुत बड़ी है जो आंखे मूँदे भेड़ की मानिंद चल रहे हैं आगे चलने वाली भेड़ अगर पहाड़ से गिर रही है तो उससे क्या फर्क पड़ता है, मुंह में जुगाली करते हुये, आंखे नीचे किए ये समूह भविष्य विहीन है।
ये समूह कभी भारतीय बन कर गांधी के पीछे चलता है तो कभी अंग्रेजों की कुटिल चाल का मोहरा बने जिन्ना के पीछे मुसलमान और जवाहर के पीछे हिन्दू बन कर चलने लगता है. ये समूह अब गांधी की जान भी लेना चाहता है और यही समूह नाथरम गोडसे का भी मंदिर बनाने को तत्पर हो जाता है। ये वर्ग कभी खुद को नहीं पहचान पाता, वो तो बिजली, मंदिर, मस्जिद, सड़कों, नालों, क्रिकेट, सिनेमा, हिंदुस्तान, पाकिस्तान, पेट्रोल, डीजल, कोयला, जमीन, एयरपोर्ट, बुलेट ट्रेन, मेट्रो सिटी आदि में ही अपना जीवन ढूंढ रहा है।
उसके लिए ये सोचना नामुमकिन है की मात्र पाँच साल में बिजली के उपकरणों के दम पर अत्यधिक जलदोहन की क्षमता हासिल कर लेने के कारण हम लोग कई हिस्सों से छप्पन फीसदी से अधिक भूजल को खो चुके हैं। ये अल्प बुद्धि मानव कैसे सोंच पाएगा की जिस जमीन से पेड़ काट कर मकान, खेत, हाइवे और फ़ैक्टरियाँ बना रहा है उस जमीन के टुकड़े में मात्र पाँच फुट गहराई तक पानी को धकेलने के लिए सैकड़ों सालों की बरसात ने काम किया था। कल तक एक बाल्टी पानी से नहा कर जांघिया धो लेने वाला नादान आज सबमर्सिबल, ट्यूबवेल सप्लाई से पानी उगलती अनगिनत लीटर वाली धार से नहा कर तरोताजा हो रहा है।
वो समझ ही नहीं पा रहा फ्लैटों, प्लाटों, ज़मीनों के व्यवसाय से मुद्रा सँजोने वाला मनुष्य सिर्फ दस सालों बाद पानी की सबसे प्राणघातक समस्या से रूबरू होने वाला है। भूजल स्तर गिरने से जमीन बंजर होती जा रही है, फसलों को रसायनिक खादों की जरूरत अधिक होती जा रही है. हमारे घरों से जो रसायनिक पानी नालों में जा रहा है उसका वास्तव में पीने योग्य पानी के रूप में कभी भी शोधन नहीं हो सकता चाहे जितने भी नवीनतम विदेशी पेटेंटेड वॉटर प्यूरिफायर लगा दिये जाएँ। जल की गुणवत्ता को मापने के मानक बहुत ही कम हैं इन मूर्ख भौतिक व्यावसायिक वैज्ञानिकों के पास। आर॰ओ॰ और ओज़ोन ट्रीटेड वॉटर हो या बिल गेट्स की भाप के जरिये शुद्ध पानी बनाने की तकनीकी कभी भी गंगा की ऊपरी सतह और बरसते पानी का मुक़ाबला नहीं कर सकती. मिनेरल्स, बी॰ओ॰डी॰, सी॰ओ॰डी॰, pH, गंध, पारदर्शिता से कहीं अधिक मानक होते हैं जीवन देने वाले वास्तविक जल में जो कैंसर देने वाले अथवा जेनेटिक म्यूटेशन करने वाले पानी में कभी नहीं मिल पाएंगे।
खनिज रसायनो के जरिये जीवों को मारकर या उनसे दूर जाकर जीवन जीने का सिद्धान्त बताने वाले व्यावसायिक वैज्ञानिक तब चेतते हैं जब इनके अपने इनकी कलुषित आविष्कारों का निशाना बनते हैं।
लेकिन भारत तो है न
भारत की संतान का वो हृदय तो है न
जहां अनेक धर्मों में बंटा
शिव का प्रकृति विज्ञान और कृष्ण का अध्यात्म
हर सीने में चिंगारी की तरह मौजूद है
वक़्त आने पर निश्चित ही जागेगा वो भारत
उसकी अंतरात्मा हुंकार भरेगी
प्रकृति की सामीप्यता के लिए प्रेरित करेगी
गर्व से चूर, स्थूल शरीर वाले
विलासी
अभिलाषी
कुटिल व्यवसायी
थकेंगे, रुकेंगे, खतम होंगे
अध्यात्म के यौवन से भरा वो भारत
उठेगा जीवों और मनुष्यता को बचाने के लिये
निश्चित ही जागेगा वो भारत ।
हे भारत के विधाताओं जिस भूमि अधिग्रहण कानून को पारित कर रहे हो उसमें फ़ैक्टरियाँ न बना कर तालाब, झीलें और सरोवर बनवा देना जो न केवल भीतर से जमीन को पोषित करेंगी वरन आने वाली पीढ़ियों को अन्न और पानी दे रहे होंगे। फ़ैक्टरियाँ बनाने के लिए “मल्टीस्टोरी फैक्टरी हब” का कांसेप्ट लाओ जो की पुरानी बंद पड़ी फैक्टरियों के स्थान पर या कम जमीन का उपयोग किए बनाई जा सकती हैं।
जमीन का ऑडिट सख्ती से किया जाये और सुनिश्चित किया जाये की एक परिवार के पास एक से अधिक घर न हो। शायद मेरे इस सुझाव का सबसे अधिक विरोध किया जाये क्योंकि आज मैं हर मनुष्य के मुंह से सुन रहा हूँ कि जमीन में पैसा लगा दो तो बैंक के ब्याज की तुलना में कई गुना वृद्धि होगी।
किस मुंह से इन धन लोलुपों को समझाऊँ? पानी-हवा और अन्न को दांव पर रख कर आखिर कैसा पैसा बनाना चाह रहे हो तुम लोग?
अरे सिर्फ बीस सालों तक ही सीमित है ये खेल क्योंकि इस गति से पर्यावरण दोहन चाहे वो ऊर्जा के भंडार हों या जल और स्वच्छ वायु की उपलब्धता सिर्फ बीस सालों तक ही सीमित है।
मेक इन इंडिया जैसी परियोजनाएं यदि मूर्ख आकांक्षाओं की भेंट चढ़ी तो एक और ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन भारत का इतिहास तैयार होगा, विकसित देशों की धन पिपासा, भारतीय संसाधनों व श्रम का दोहन होगा। हम अपनी जमीन देंगे, अपना श्रम देंगे और प्राकृतिक संसाधन देंगे बदले में हम रोजगार व आधुनिक तकनीकी की सिद्धहस्तता चाहेंगे। सोंचना बहुत आसान है, भावना अति सुंदर है और लक्ष्य तो बेहद सुखी प्रतीत हो रहा है।
विश्व के सम्मुख बेहद समृद्ध राष्ट्र का स्वप्न पूरा होगा ।
परंतु हे महात्मा, जिन छोटी छोटी कंपनियों के दस रूपये के कोका कोला में से डेढ़ रुपये एडवरटाइजमेंट और एक रुपया लाबिंग (नेताओं, मीडिया, जांच एजेंसियों तथा एन॰जी॰ओज को प्रसन्न करके अपने पक्ष में रखने हेतु प्रोग्रामों और उपहारों) में खर्च किया जाता है। वालमार्ट आदि की जांच से ये साबित भी हो गया था लेकिन कोई बदलाव नहीं आया बस नाम बदला। माल और ई॰ कामर्स के द्वारा धन दोहन की योजना ने गरीबों की अर्थव्यवस्था पर आघात कर ही लिया। मानव मस्तिष्क का एक लालची पहलू उसे विभीषण बनने पर मजबूर कर ही देता है। आखिर क्या गारंटी है की जिस मेक इन इंडिया के द्वारा विकास और समृद्धता का निश्छल लक्ष्य लेकर तुम सबसे आगे खड़े हो वहाँ तुमसे कम आध्यात्मिक स्तर के कितने लोग तुम्हारे पीछे खड़े होंगे जो लाबिंग के लोभ से बच पाएँ।
विदेशी अर्थशास्त्र कहता है की अगर एक रुपया नौकर को चाहिए तो कम से कम दस रूपये मालिक को कमा कर दे।
लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था ये कहती है की सिर्फ उतना ही कमाने की इच्छा रखो जितने में परिवार को खिला सको, अपना पेट भर सको और अतिथि को भी भूखा न जाने दो। यह भारतीय दर्शन से जुड़ा अर्थशास्त्र हजारों सालों से हमें जीवित रखे हुये है। इसी के मूल में अध्यात्म है, इसी के मूल में प्राकृतिक संसाधनों का अत्यावश्यक भोग है, इसी से निर्मित पर्यावरण है और इसी से निर्मित हमारे सामाजिक संस्कार हैं.
गीता में उल्लेखित संतोष का गुणबोध ही हमारी चित्त शांति का आधार है और अध्यात्म का पर्याय भी।
ये उस शांति के विलोम में है जो यदि यूनियन कार्बाइड कंपनी की उच्च गुणवत्ता, तकनीकी और रोजगार की ललक से समझौता न करती तो भोपाल की लाखों गरीब-अमीर-बच्चे-बड़े-औरतों की लाशें रेल पटरियों, घरों, छतों और सड़कों में पड़ी न मिलतीं।
कितने उदाहरण हैं गीता की मानसिक शांति के विपरीत, विकसित देशों के लक्ष्य जो भारत को भौतिकता की अंधी चादर में लपेटकर इस को लहूलुहान करना चाहते हैं। ये विकसित देश पर्ल हार्बर की घटना के प्रतिशोध में जापान पर अणु बम गिराते हैं, कुछ लोगो की मौत के लिये लाखों लोगों की मौत को सही ठहराते हैं, ये देश अपने वर्चस्व को साबित करने करने के लिए तालिबान को खड़ा करके अफगानिस्तान को मटियामेट कर देते हैं, हथियारों और व्यावसायिक उत्पादों का बाज़ार खड़ा करने के लिए भारत के टुकड़े करके पाकिस्तान और हिंदुस्तान बनाते हैं, इन लोगो को सद्दाम का शांत सौम्य और सभ्य इराक मानवाधिकार हनन और जुल्मों से भरा राष्ट्र लगता था उसको मारने के बाद भी नकारा दिवालिया इराक़ी सरकार से ज्यादा हथियार खरीदने की सामर्थ्य रखने वाले आई॰एस॰आई॰एस॰ जैसे आतंकी समूह को प्रोत्साहन देते हैं।
सीरिया, लीबिया, विएतनाम, इराक, अफगानिस्तान, कोरिया, भारत, पाकिस्तान जैसे कितने देश हैं जिन्हें हर साल अरबों-खरबों के हथियार खरीदने हैं। वो हथियार जो यहाँ लोगों को मार रहे हैं और दूसरी ओर विकसित देशों के निवासियों को प्राकृतिक संसाधनों पर गुलछर्रे उड़वा रहे हैं।
वाह रे अर्थशास्त्र…
क्या हम भारतीय, मात्र चार सौ साल पहले शुरू हुई भौतिक विनाशता की अर्थव्यवस्था के सामने अपनी आध्यात्मिक विशुद्ध प्राकृतिक अर्थव्यवस्था के सिद्धान्त को दुनिया के अनुकरण योग्य नहीं बना सकते?
शायद ये हमारे उप महाद्वीप से बाहर की दुनिया न समझे क्योंकि उनके मानसिक स्तर के सामने ऐसी मजबूरियाँ हैं, जिनको भौतिक पदार्थों के दम पर ही जीवन जीने में अपनी ऊर्जा खपानी है अरब के पचास डिग्री सेल्सियस तापमान पर उनको एयर कंडीशनर चाहिए ही, उनको अपनी पूजा के मध्य ऊंट से प्राप्त आहार पर ध्यान लगाना है क्योंकि अन्न नहीं है। इसी प्रकार अफ्रीका के घने जंगलों में हिंसक जानवरों और नरभक्षी पेड़ों वाले विषुवतीय वनों में हाथ में भाला लेकर जीवन को कट्टर बनाना ही पड़ेगा, अमेरिका से लेकर जापान और रूस से लेकर आस्ट्रेलिया तक कहीं भी वैसी जलवायु नहीं मिलेगी जैसी भारत को पाल रही है। विषम जलवायु में रहने वालों को भौतिकता का दास बनना ही पड़ेगा क्योंकि वो अभागे मानव योनि में तो हैं परंतु उनके उपक्रम में जिंदा रहने की जद्दोजहद ज्यादा है।
भारतीय उपमहाद्वीप सम जलवायु की सुखद छाया है जहां जीवन जीना सबसे सरल है. ये अध्यात्म की पावन भूमि है जिसमें जीवन जीने का उपक्रम नहीं है वरन मातृत्व स्वरूप से जीवन पालन है. मानव के सूक्ष्म शरीर का आभास और पूर्ण आयाम केवल इसी धरा में पाया जा सकता है. बेहिचक, बेफिक्र।
भारत बुद्ध के सम्यक ज्ञान से आगे बढ़ेगा जिसमे विकास का पैमाना प्राकृतिक संसाधनों के अल्प उपयोग वाली नैनो टेक्नोलोजी पर निर्भर होगा।
हम जिन खनिजों को दबी जमीन से निकाल चुके हैं अब हमें उनका उस हद तक कृपण इस्तेमाल करना होगा जहां तक इनके अणुओं में स्थिरता रहेगी।
उदाहरणतः प्लास्टिक, पालिथीन, पाउच, धातुओं, काँच के अनुपयोगी टुकड़े, पेंट के अवशिष्ट इत्यादि जब फेंकने योग्य हो जाएँगे तो देश में कई प्लास्टिक बैंक बना कर उनका संग्रहण किया जाएगा। अब इन टुकड़ों को विशेष प्रकार की फैक्टरियों में बिना गर्मी से पिघलाए अत्यंत उच्च दाब और कृशर के जरिये लुगदी बनाया जाएगा, इस लुगदी को फिर अत्यंत उच्च दाब और विशेष रेजीन्स के जरिये धातुओं की छड़ों के साथ जोड़कर बीच से खाली बड़े बड़े चौड़े प्लास्टिक पैलेट्स बनाए जाएँगे।
ये प्लास्टिक पैलेट्स बहुत बड़ी भूमिका निभाने वाले हैं भविष्य के भारत में ये न केवल प्लास्टिक तथा अन्य चिरकालिक कचरे का समाधान होगा वरन ये पहाड़ों, मरुस्थलों, ज़मीनों पर बनने वाले सस्ते, टिकाऊ घरों की कमी भी पूरी करेंगे।
ये मकान पहाड़ों की ठंडी रातों का सामना कर लेंगे क्योंकि इनके पैलेट्स की बीच वाली जगह पर उष्मरोधी बालू भरी होगी, ये बेहद मजबूत भी होंगे इनके भीतर कास्ट आइरन का जाल होगा, और काफी हल्के होने की वजह से ये आसानी से शिफ्ट किए जा सकेंगे।
ये घर मरुस्थल की गर्मी में ठंडे रहेंगे, भूकंपरोधी भी होंगे और पहाड़ों की जैव शृंखला को बिना हानि पहुंचाये मानव विकास के साक्षी होंगे। ये सामान्य घरों से अधिक आयु के होंगे और इनकी गुणवत्ता को बढ़ाकर फौज के बंकर बनाये जा सकेंगे।
हमें अपनी फैक्टरियों में “निल वेस्ट” सिद्धान्त का प्रयोग करना होगा जो कि बिलकुल संभव है क्योंकि हम उस संस्कृति को जानते हैं जहां हर वस्तु का अंत तक प्रयोग होता है। हमारी जितनी भी फ़ैक्टरियाँ हैं उनसे वही अवशिष्ट निकलता है जो पानी में मिश्रित होता है क्योंकि पानी से रसायन या अवशिष्ट को अलग करना बहुत खर्चीला और अस्थिर उपाय है। यदि हम तकनीक में सुधार कर पानी का इस्तेमाल ही खत्म कर दें तो हमारी फैक्टरियों से कोई भी ऐसा अवशिष्ट नहीं निकलेगा जिसका पृथककरण न किया जा सके।
भारतीय उपमहाद्वीप पर लगभग ढाई अरब मानव संख्या का दबाव है, भिन्न भिन्न धर्मों और देशों में बंटे ये लोग भी अन्य जीवों की भांति सृष्टि के लिए चुनौती हैं। आने वाले समय में खाध्यान्न उप्लब्धता एक भयंकर कारण होगा राजनीतिज्ञों के सामने। हरित क्रान्ति के नाम पर अन्न उपजाने हेतु अंधाधुंध यूरिया, रसायन, कीटनाशकों तथा जल का प्रचुर प्रयोग किया जा रहा है। जमीन बंजर हो रही है, भूजल स्तर कम हो रहा है और अनाज के पौष्टिक गुणों की जगह रसायन पेट में पहुँच रहे जो अल्प आयु का कारण बन रहे हैं।
वक्त आ रहा है की हमें खाध्यान्नों के दूसरे विकल्प जंगलों से खोजने होंगे. छोटे पौधों के स्टार्च भरे दानों की बजाय उन वृक्षों पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ेगा जिनके पत्ते, तने व जड़ों को पालतू पशु खाना पसंद करते हैं और प्रोटीन तथा मिनेरल्स की जरूरत पूरी कर रह हैं। छोटे पौधे अल्पकालिक होते हैं जिस वजह से फ़सलचक्र की बारंबारता और पाश्चात्य वैज्ञानिकता के प्रयोग अत्यंत आत्मघाती हैं। ये पौधे जमीन को भीतर तक सींच भी नही पाते क्योंकि इनकी जड़ें सिर्फ कुछ फीट की गहराई तक पहुँच सकती हैं, जबकि इसके विपरीत लाखों एकड़ जमीन से जंगल काट कर खेती करने का जुनून दीर्घकालिक भारत के लिये खतरा है।
इतनी बड़ी जनसंख्या के मस्तिष्क को स्थिर रखने के लिए रोजगार, विकास, समान जनसंख्या नीति तथा राजनीति का नया भारतीय आयाम बनाना होगा। रोजगार को भारतीयता के साथ परिभाषित करना होगा. कर्म-परिवार-समाज और संस्कार के साथ भारतीय परिवारों को एक सूत्र में पिरोना होगा। विकास का भारतीय पहलू प्राकृतिक है जो मांग और पूर्ति के सिद्धान्त के बाद भी चलता है। प्रतीक मुद्रा के संचयन और खर्च करने की क्षमता का आंकलन करने वाली विदेशी अर्थव्यवस्था विनाश की अर्थव्यवस्था है, इसमें उदार उत्पादन है, असीमित उपभोग है किन्तु कृपण पुनरचक्रण नहीं है। ये अर्थव्यवस्था सिर्फ कुछ ही समय तक मानव का पोषण कर पाएगी. ये एक ऐसी आदत में मानव को ढाल देगी कि एक निश्चित समय पर इसके अभाव के कारण कमजोर हो चुके इंसान को बड़ी तेज़ी से खत्म करेगी।
पर्यावरण और सामाजिक दुष्परिणामों का भविष्य लिए खड़ी गरीबी और अमीरी की खाई वाली अर्थव्यवस्था के विरुद्ध “समान पूंजी भागिता वाली अर्थव्यवस्था“ भविष्य के समाज की जरूरत है. इस अर्थव्यवस्था में उत्पादन की सीमा निर्धारित है, संसाधनों का निश्चित इस्तेमाल होगा. प्रोडक्शन लाइन के सात कर्मियों के बाद डिस्पोजल लाइन में भी तीन कर्मी ईमानदारी से अपना कार्य निर्वहन कर रहे होंगे।
समान वेतन और समान टैक्स की नीति लागू की जाये. प्राइवेट नौकरी, स्वरोजगार, सरकारी नौकरी, व्यवसाय तथा कृषि आदि पर सीधा सरकारी नियंत्रण रखा जाये। मूल्य नियंत्रण और आय निर्ध्रारण का स्वतंत्र कोष्ठ बनाया जाये जिसका काम प्रत्येक शहर, गाँव के आय और व्यय की बारीकी से पड़ताल करके सूचनाएँ एकत्रित करना होगा। इन सूचनाओं का आंकलन करके आर्थिक विषमता को आघात करके भविष्य को बांटने वाली नीतियों का उन्मूलन होगा और समान भारत जन नीतियाँ बनाई जाएंगी।
भारत को वैश्विक आर्थिक उग्रवाद से भी बचाना होगा. युवा भारत अदम्य ऊर्जावान है इसलिए इसके मन को स्थिर रखना बेहद कठिन है, इतनी बड़ी जनसंख्या विश्व भर के व्यवसायियों को आकर्षित कर रही है. येन केन प्रकारेण हर तरह की कंपनियाँ भारत में अपना माल खपाने को लालायित हैं। ये कंपनियाँ युवा भारत को अफीम की पिनक में मदमस्त करके भीतर से खोखला कर देना चाहती हैं।
बहुत सावधानी से इनको अपने देश में आने देना है ऐसी शर्तों को प्रभावी बनाना होगा जिससे ये कड़े सरकारी नियंत्रण से इतर कुछ न कर सकें। ये सभी कंपनियाँ वो सारी शर्तें मानने को बाध्य होंगी क्योंकि भारत एक जीवित देश है जो इनके उत्पादों का इस्तेमाल करेगा।
भारत के राजनीतिज्ञों को बहुत दूरदर्शी बनना होगा. उन पर भारत को वर्तमान आर्थिक साम्राज्यवाद के कहर से बचाकर सम्पूर्ण मानव जाति को भविष्य में ले जाने का भार है। उनको मध्य एशिया की अस्थिरता भी देखनी है और धर्मयुद्ध, विश्वयुद्ध या मानवता की आड़ लेकर फैलाये जा रहे उन्माद के परोक्ष “अर्थयुद्ध” पर भी नज़र रखनी है। इस अर्थयुद्ध की चपेट में सारे देश हैं इस लक्ष्य की पूर्ति में सामरिक शक्तियों का ध्रुवीकरण हो रहा है। इतिहास साक्षी है की प्रत्यक्ष युद्धों की मौतों से कई गुना अधिक मौतें रेडियशन, महामारियों, भुखमरी, घाव और इलाज की कमी, शरणार्थी शिविरों के प्रदूषण, जहरीले पानी से होती हैं। इन बेजुबान मौतों का कोई आंकड़ा नहीं होता।।
दोस्ती के नाम पर एक नया समीकरण तैयार हो रहा मध्यपूर्व एशिया में, पाकिस्तान-चीन तो भारत-अमेरिका. मोदी-ओबामा एक नया ही अध्याय लिख रहे हैं बेतकल्लुफ़ निष्छल दोस्ती का. ओबामा का दिल बिलकुल पाक साफ़ था, एक एक लफ्ज़ दिल से निकल रहा था युवाओं के लिए। भारत आज बहुत गर्वित है की अर्धशताब्दि से अधिक पाकिस्तान का सहयोगी आज भारत के साथ खड़ा होना चाह रहा है।
लेकिन हे अदम्य ऊर्जावान भारत, इन नए समीकरणों को जन्म देते वक़्त ये मत भूल जाना की यहाँ ओबामा का दिल नहीं अमेरिका का दिमाग भी है. सद्दाम, लादेन, पाकिस्तान, गद्दाफी जैसे लोग अमेरिका के बहुत ख़ास दोस्त थे कभी। साम्राज्यवादी शक्तियों का स्थान आज इंग्लैंड और पुर्तगाल की बजाये इन विकसित देशों ने ले लिया है। न्यूक्लियर ऊर्जा हो या सामरिक तकनिकी, भारत को इनकी सोंच से अलग और बहुत आगे चलना है। भारत के पास अथाह ऊर्जावान मस्तिष्क भंडार है जिसे सही तथा संतुलित तरीके से इस्तेमाल करके भारत को शांत परंतु सबसे मजबूत और अभेद्य स्वावलंबी राष्ट्र बना देंगे, रक्षात्मक अनुसंधानों की नवीनतम स्वदेशी स्वनिर्मित तकनिकी के बल पर।
बस चंद कदम उठाने हैं और कुछ सर्वे कराने पड़ेंगे, भारतीय युवाओं के मानसिक स्तर और उनकी रुचियों को लेकर। इसके बाद उनके रुचिनुकूल कार्यों में सिद्धस्त करके उनको रोज़गार में पारंगत करना होगा ताकि उनके सकारात्मक मस्तिष्क का नकारात्मक फायदा उठाने वालों के मनसूबे न सफल हो पाएं और ये पीढ़ी सच्ची भारतीय मूल्यों की रक्षा करके विश्व का भी कल्याण करे।
अपनी नीतियों को नैतिकता के मार्ग पर अक्षुण्ण रखना
जीवन मूल्यों को अर्थ से अधिक महत्व देना
हे भारत, लाशों की मानिंद जिंदगी जी रहे हिलते डुलते लोगों के बीच इन्सानों को बचा लेना।
मेरा एक और आग्रह है विश्व भर के सभी प्राणियों से जहां तक ये लेख पहुँच रहा है। कृपया इस लेख में उद्धत किसी भी अंश का सामाजिक अथवा आर्थिक फायदा उठाने के लिये प्रयोग न किया जाये। “वन क्रान्ति” से लेकर “माँ” तक सभी लेखों तथा कविताओं का सार्थक उपयोग हुआ है किन्तु “अधर्मी” कविता के जरिये जो विचार दुनिया के सामने जाना चाहिए था उसको कुछ लोगो ने गलत अर्थों में प्रयोग किया। कृपया भारत को धर्मों की परिधि में मत बांटो, भारत को हिन्दू बोलने वालों को देख लेना चाहिए की इस शब्द की उत्पत्ति से पहले यहाँ हजारों तरह के धर्म अथवा पंथ प्रचलित थे और मुसलमान बोलने वालों को भी धर्म के नाम पर टूटे पाकिस्तान का हश्र देख लेना चाहिए कि भारत को नृत्य-गान और फिल्मों का साम्राज्य देने वाले लाहौर और कराची आज गानों की धुनों की बजाय बम विस्फोटों से दहल रहे हैं। धर्म के नाम पर आजाद मुल्क में पेशावर की घटना से मन भटकाने के लिए भी हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच गोलीबारी करानी पड़ती है वरना अब तक उस घटना के फलस्वरूप जाने कितने राजनीतिज्ञ अपनी जान से हाथ धो बैठते। याद रखना मानवता को बंदूकों के दम नियंत्रित करने वाले, धर्म नहीं-मानव नहीं-अभिव्यक्ति नहीं बल्कि लाशों की राजनीति करते हैं। इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पढ़ाने वालों और उनकी नज़रों से पढ़ने वालों, अपने तत्व को पहचानो और अपने भारत को भी – जहां से जैन, बौद्ध, चार्वाक दर्शन, शैव, वैष्णव, सिक्ख, सूफियाना इस्लाम आदि भारत से उपजी वो सकारात्मक मानवीय संहिताएँ हैं जो सम्पूर्ण विश्व को सदियों से आलोकित कर रही हैं।
इन सब में एक ही मूल आत्मा है – प्रेम, अहिंसा, ममता और अदम्य मानसिक ऊर्जा से परिपूर्ण इस ब्रह्मांड में सिर्फ अपना भारत!
राम सिंह यादव
कानपुर, भारत
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