मंथनः किस ओर-शैल अग्रवाल

नारी बदल रही है। धर से बाहर निकल आई है। प्रगति कर रही है। फिर भी नारी पर अत्याचार और व्यभिचार की खबरें ज्यो कि त्यों हैं। इतनी अधिक और आए दिन ही सुनने को मिलती हैं कि अब हिलाती तो हैं पर सन्न नहीं कर पातीं, शायद इन अपराधों की बहुलता और उनसे उत्पन्न आक्रोश संवेदनाओं को और भी कुंठित और पाषाणवत् करते जा रहे है। परन्तु जब भी ममतामयी ही दानवी रूप लेकर अबोध व असहाय और उसी पर पूरी तरह से आश्रित बच्चों से मुंह फेरती है, अत्याचार और आघात ही नहीं हत्या तक कर देती है, तो स्थिति असह्य हो जाती है। कुमाता शब्द पहले कल्पनातीत था, परन्तु आज विभिन्न दबाबों और स्पर्धाओं के रहते समाज और नारी के मानसिक रूप से वीभत्स और रुग्ण रूप बारबार खबरों में आ रहे हैं। कहीं वह बेटी को घूरे पर फेंक रही है तो कहीं अपने ही घर के अंदर पूर्ण उपेक्षा के साथ अबोधों को मार रही है।
नारी की दशा और दिशा पर कुछ भी सोचने या लिखने से पहले चन्द खबरें, कविताएँ और विचार बांटना चाहूगी, जिन्होंने विषय पर थमने के लिए प्रेरित, विचलित व मजबूर किया है।

ब्रिटेन की हाल की दो खबरें-

1.

साल भर के जुड़वा बच्चों में से एक को तीन साल तक मां ने घर के सेलर में बन्द रखा। मां अनब्याही थी और अकेली ही रहती थी। आम-सी बात है यहाँ यह। पड़ोसियों ने अक्सर अकेले रोते उदास बच्चे को खिड़की से झांकते भी देखा था। फिर सब बन्द हो गया। हाल ही में पड़ोसियों द्वारा असह्य बदबू की शिकायत पर पुलिस ने क्षत्-विक्षत् बच्चे के अवशेष बरामद किए। मां मृत्यु के तीन साल बाद भी उसके हिस्से के भत्ते के पैसे लगातार वसूल रही थी।

2.

रोती-चिल्लाती चार साल की बच्ची को मां ने झुंझलाकर इतनी बेरहमी से पीटा कि वह मूर्छित हो गई। डरी घबराई मां ने मदद के लिए एम्बुलेंस को फोन किया तो आने पर डॉ. ने बच्ची को संज्ञाशून्य नहीं, मृत पाया।

दोनों ही घटनाएँ मैनचेस्टर और आसपास यानी कि नौर्थ की हैं जहाँ आज गरीबी और बेकारी , साथ-साथ ही अशिक्षा भी सबसे ज्यादा है और मुफ्त की सोशल सीक्योरिटी पर जीना एक आदत-सी बनती जा रही है। कोई कई बीबियां रख रहा है तो कोई कई बच्चे। मातृ संवेदनाओं में इतना क्षरण और निष्ठुरता आजकी मां के बदलते स्वरूप पर कई-कई सवाल उठा रही है। जब जीते जागते , आंख के आगे घूमते बच्चों के साथ माँएं इतनी निष्ठुर हो सकती हैं तो भ्रूण-हत्या जैसे मुद्दों पर आक्रोश का तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यूँ तो नजदीकी रिश्तों में हर दुर्व्यवहार त्रासद होता है पर मां के पास बच्चा असुरक्षित, कल्पना तक अविश्वनीय वगा करती थी। रिश्तों के इस असह्य क्षरण में नारी और पुरुष बराबर के हिस्सेदार हैं। एक रात वाले रिश्तों में आज भी दुख, ताड़ना…तिरस्कार वजिम्मेदारी नारी के हिस्से में ही अधिक आती है और आए दिन विक्षिप्त मांओं द्वारा अपने ही बच्चों के साथ दुर्व्यवहार या क्रूर उपेक्षा की खबरें सुनने को मिल जाती हैं । सामाजिक व्यवस्था और नियम कानून आज भी पुरुष का ही अधिक साथ देते हैं और अपने स्वाभाविक मानवीय गुण दया, ममता और करुणा जैसी संवेदनाओं से दूर होती नारी भी आज उतनी ही क्रूर होती जा रही है।

हो सकता है इसमें सदियों से चले आ रहे नारी के साथ होते दुर्व्यवहार और सामाजिक भय का बड़ा हाथ हो। दहेजप्रथा और बहुपत्नी जैसी कुप्रथाओं का बड़ा हाथ हो। पुरुष की नारी पर सामंती सत्ता वाली मानसिक प्रवृत्ति का बड़ा हाथ हो। ढोर की तरह उसे रखने और हांकने का… उसके प्रति आज भी समाज की पूर्ण उदासीनता का बड़ा हाथ हो,

बात को और स्पष्ट करने के लिए चन्द कविताएं- ये चारो भिन्न तेवर और भिन्न दृष्टिकोण से लिखी गई हैं पर चारो ही स्पष्ट रूप से कुछ कहना चाहती हैं,

1.

“देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा।

आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा –
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह संधिपत्र लिखना होगा।”

-जयशंकर प्रसाद

2.

मात देना नहीं जानती

घर की फुटन में पड़ी औरतें
ज़िन्दगी काटती हैं
मर्द की मौह्ब्बत में मिला
काल का काला नमक चाटती हैं

जीती ज़रूर हैं
जीना नहीं जानतीं;
मात खातीं-
मात देना नहीं जानतीं

-केदार नाथ अग्रवाल

3.

नारी

प्रिये मैं तुम्हें कविता कहूँ
उन्माद या प्रेरणा
या फिर सोती आँखों का
सपना समझकर
छलनामयी, भूल जाऊँ?

नारी उसकी बात सुनकर
समझकर बस मुस्कुरायी-

पुकारते रहो, जिस नाम से
जी चाहे तुम्हारा…
हर संबोधन को मैं तो जी लूंगी
पर क्या तुम मुझे झेल पाओगे?

– शैल अग्रवाल

नारी के प्रति व्यवहार की नहीं, रवैये की बात हैं, जिसे बदलने और सुधारने की बेहद जरूरत है। नारी को कठपुतली या मनोरंजन की वस्तु समझने से आगे बढ़ना होगा। गंभीरता से लेना होगा। पुरुष वर्ग और समाज दोनों को ही। आपसी रिश्तों में प्यार, श्रद्धा और विश्वास जैसे भाव और शब्द वापस आने ही चाहिएँ।

नारी आज भी जीवित होकर पाषाणवत ही जीती है, अपनी संवेदनाओं और इच्छाओं से विमुख होकर क्योंकि वह जो भी चाहेगी , पूछेगी निरुत्तर ही रहेगा और पुरुष प्रधान समाज जैसे चलता आया है चलता रहेगा। हर कायदे कानून वही गढ़ेगा जिन्हे जीने और समझने की जिम्मेदारी नारी की है-

प्रश्न मत पूछ, उत्तर मत ढूँढ
यूँ ही चलती है दुनिया, यूँ ही चलेगी
जानते जो , सोचते जो, करते नहीं कुछ
सो गये हैं सभी मुंह को ढककर ..
-शैल अग्रवाल

विचार जब पद्धति बन जाएँ तो खतरनाक स्थिति है और नारी के साथ तो जाने कब से यही होता आया है….समाज के रवैये में भी और खुद उसकी अपनी नजर में भी । उगते सपनों की घास और झुकते चांद की परछांई बेहद नशीली होती है और पुरुष ने तो ऐसा रोपा है उसे अपनी सुविधानुसार दोनों के बीच कि आजतक धान-सी फल-फूल रही है वह, और खुश भी है इसी में।

अधिकार भी तो खुद ही लेना पड़ता है। जबतक नारी खुद शिक्षित और जागरूक नहीं होगी , अपनी जाति अपने समाज का, खुद का ही हनन और शोषण करना नहीं छोड़ेगी , नारी विकास और समानाधिकार की बातें निष्फल और बेमानी ही रहेंगी।

सदियों से चला आता समाज का दोयम दर्जें का रवैया न सिर्फ उसे हर क्षेत्र में बेड़ियां पहनाकर जकड़ रहा है, खुद वह भी तो नियति मानकर स्वीकार चुकी है इस स्थिति को। पुरुष की हर उच्छृंखलता को ममतामयी मां सी आंचल से पोंछने वाली नारी वाकई में लड़े तो किससे लड़े! नारी विमर्श तो वह साझा चूल्हा है जिसपर सबके लिए प्यार की खिचड़ी पकाना ही सीख और देख पाई है वह। अगर ऐसा न कर पाए तो दादी नानियों की कई-कई पीढ़ियों से दगाबाजी-करती आज भी तो महसूस करती है वह। उसका चूल्हा ठंडा तो रह सकता है पर जलेगा तो स्वादिष्ट पकवान ही उगलेगा।

जीने के दो ही मार्ग छोड़े गए हैं उसके लिए , या तो किसी सशक्त पुरुष की छतनारी छाया में जा बैठे या फिर किसीकी न होकर सबका ही मनोरंजन और कौतुक बन जाए। उसे भी तो कहीं न कहीं शायद आदत पड़ चुकी है इस सबकी, तभी तो सदैव ललायित रहती है, प्रशंसा की मात्र एक दृष्टि के लिए। बढती सौंदर्य प्रसाधनों की बिक्री गवाह है इस बात की कि उसे भी सजी-धजी गुड़िया बनकर रहना पसंद है। अपने शरीर…रूप के औजार की ताकत जानती है वह। क्या क्या नहीं करती या कर गुजरती प्रसन्न करने को … खुद को भूलकर, अपने अस्तित्व को भुलाकर। भांति भांति के श्रंगार, पकवान, तरह-तरह के आयोजन…सभी कुछ। और बदले में अधिकाशतः प्रताडना व लांछन या फिर वही अग्नि-परीक्षा। अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि कहा जाए कि बढ़ती भौतिकवादिता के साथ आज नारी मनोरंजन और विज्ञापन का साधन मात्र बनकर ही तो रह गई है, तस्बीरों सी या तो घरों की दीवारों पर लटक गई है या फिर पब्लिक हाउसेज और दफ्तरों में सेन्टर पीस बनी फिरकनी सी नाच रही है। किसी दूसरे के हाथ में रखे रिमोट से संचालित होकर स्वाधीनता की खुशफहमी का शिकार है। गलती से कुछ कर गुजरे, कोई मुकाम हासिल कर ले तो प्रसंशा की जगह परिहास ही ज्यादा आता है उसके हिस्से में। ‘औरत होकर इतना कर गई’- यही सुनने को मिलेगा। क्या उदास, बेबस और अबला जैसे शब्दों से अलंकृत यह नारी घर से बाहर वाकई में निकल पाई है ? कोई-न-कोई छतरी अवश्य तनी रहती है सिर पर वरना भांति भांति की नजरों की धूप ही पर्याप्त है सुखाने और गिराने के लिए उसे । शायद यही वजह है कि समानाधिकार जैसे मुद्दे इसके पक्ष में उछाले तो आए दिन ही जाते हैं पर मात्र एक गरम तवे पर छन्नाती बूंद से पलभर में तुरंत ही सूख भी जाते हैं। आजभी ऐसे देश मिल जाएँगे जहां बच्चियां आजीवन ड्योढ़ी नहीं लांघती। जिस घर में पैदा हुईं, उसी में बच्चे संभालती अर्थी पर चढ़कर ही बाहर निकल पाती हैं।

कहीं लोहे की चोली पहने नारी तो कहीं चोलियों को जलाती नारी आज भी समाज के इस पुरुष प्रधान ताने बाने में फंसी मकड़ी सी अपने अस्तित्व के लिए झटपटा रही है । चंद अपवादों की बात छोड़ें तो कभी देवी तो कभी कुलटा का प्रमाण पत्र सजाए और लटकाए आज भी अपने सही और संतोषजनक मूल्यांकन और प्रस्थापन के लिए बेचैन है वह।

आज भी शायद जान नहीं पाई है कि उसकी असली स्वतंत्रता या मुक्ति तो छोड़ो , सही स्थान और कर्तव्य तक क्या हैं, कौनसी जिम्मेदारी और वफादारी ज्यादा संतोषजनक है , खुद के प्रति या परिवार और समाज के प्रति? वर्षों से त्याग की मूर्ति में ही गौरवान्वित नारी जानती ही नहीं कि आज भी उसका रिमोट पुरुषों और समाज के हाथ में ही रहना चाहिए या नियंत्रण उसे अब स्वयं खुद ले लेना चाहिए? त्याग कहीं आरक्षण के कानून का आश्वासन तो कहीं उसकी बढ़ती ताकत का आइना दिखाकर आज भी उसे पूर्ववत् ही बहलाया –फुसलाया जा रहा है और आज भी वह पुरुष-प्रधान समाज के रिमोट पर कठपुतली सी ही चलती , उपलब्धियों के नाम पर सहर्ष मनोरंजन और भोग की वस्तु ही बनी हुई है। हाल ही में माननीय विभूति नरायण सिंह जी के वक्तव्य ने जितना नारी चेतना को आलोड़ित किया उसने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया है– गलत को गलत कहना और समझना सही है परन्तु भयों के भूतों के पीछे अपना संयम और संतुलन खोना कहां तक सही है, यह भी एक सोच व समझ का विषय है।…कहीं पुरुषों के इस गलत और गैर-जिम्मेदाराना रवैये में खुद इस आधुनिक नारी का भी तो भरपूर हाथ नहीं? कहीं माँ, बहन और पत्नी व प्रेयसी की भूमिका में वह अपने नारी सुलभ गुण ( संचय और पोषण ) को भूल, आगे बढ़ने की दौड़ में एक अराजक और अतृप्त पुरुष वर्ग ही नहीं पूरा-का पूरा समाज ( जिसमें नारी खुद भी शामिल है) को तो नहीं तैयार करती जा रही और खुद अपने ही दुर्भाग्य का कारण बनती जा रही है।

नारी के प्रति दुर्व्यवहार और अत्याचार की श्रृंखला में दहेज और बलात्कार के साथ-साथ अब भ्रूणहत्या और औनर किलिंग जैसे नए–नए और घिनौने अपराधों में भी वृद्धि होती दिख रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि अक्सर घर की बड़ी-बूढ़ियों यानी कि जिम्मेदार और परिपक्व नारियों की इसमें स्वीकृति रहती है। जब खुद नारी ही नारी की सबसे बड़ी दुश्मन है तो फिर पुरुष वर्ग से किस संयम और सद् व्यवहार की अपेक्षा की जाए। व्यक्तिगत सोच पर अंकुश लगाया जा सकता है। एक आदमी का मुंह भी बन्द किया जा सकता है , परन्तु पूरे समाज को सुधारने के लिए सभी की सोच और संस्कार बदलने पड़ेंगे। खुद नारी को अपना नजरिया भी बदलना पड़ेगा। बचपन से ही बेटे-बेटी के साथ किए अपने बर्ताव को संयमित और संतुलित करना होगा। आज भी बहुत शर्म और दुख के साथ याद आती है यहीं पश्चिम के पड़ोस में रहती वह पढ़ी-लिखी और संपन्न माँ जो बेटे को मक्खन और बेटी को मार्जरीन खिलाकर बड़ा कर रही थी, बिना किसी ग्लानि या पश्चाताप के। शायद बेटी मोटी न हो यह सोच हो सकती है इसके पीछे परन्तु अक्सर आज भी अच्छा और पौष्टिक भोजन मां पहले बेटों को परोसती है और बचा-कुचा ही बेटियों को मिल पाता है। अब जब मां ही ऐसा दोयम दर्जे का व्यवहार करेगी तो बड़ा होता बेटा कैसे जानेगा कि उसका नारी के प्रति हेय रवैया गलत भी है । वास्तव में वह क्या चाहती है जीवन और समाज से, समझना होगा खुद नारी को भी।

नारी हो या पुरुष एक दूसरे के बिना दोनों ही अपूर्ण हैं और आधिपत्य की लड़ाई में भटके आधे-अधूरे सुख, तृप्त कम क्षुब्ध ही अधिक करते हैं।

साहित्य सिर्फ रेखांकित करता है। समझ और सोच व्यक्तिगत् है। रास्ते में बिखरे कंकड़ों को झाड़कर एक ओर करने का प्रयास है यह अंक, आगे क्या करना चाहिए या होना चाहिए सभी को सोचना होगा…सभी यानी स्त्री पुरुष दोनों को। बस, पाठकों से विशेषतः बहनों से इतना निवेदन अवश्य है कि यदि हममें गुत्थियाँ सुलझाने का , झाड़ने –बुहारने का माद्दा नहीं, तो इक्के-दुक्के वक्तव्यों पर आक्रोश, चाय के प्याले में उठते तूफान से ज्यादा कुछ नहीं। गलतियाँ और किरकियाँ बहुत हैं और सर्वत्र हैं परन्तु नारी स्वतंत्रता और नारी सुख आज भी दोनों के ही सुख को ध्यान में रखकर ही मिल पाएंगे।

सब कुछ देख और जानकर भी अनदेखा करते जाना आज की इक्कीसवीं सदी की पहचान बनती जा रही है। नर हो या नारी, पहाण के कगार पर खड़े होकर खाई में कूदने वाला व्यक्ति भी यह मेरा अपना जीवन है, इसीकी दुहाई देता है। न किसी को किसी की दखलंदाजी पसंद और ना ही भागती दौड़ती मशीनरी जिन्दगी में किसी के पास फुरसत है कि दूसरे के बारे में सोचे और कुछ करे। विद्रोह और आक्रोश के बुदबुदे खदकते हैं और फिर तुरंत ही वक्त की धार में विलुप्त भी हो जाते हैं। जबतक सामूहिक जागृति नहीं, समाज वहीं –का- वहीं ही खड़ा रहेगा। यूँ ही निरर्थक और नए-नए शोर और प्रयासों की चुटपुट आवाजें होती रहेंगां…यूँ ही सब काजल-सा आँखों में खुलकर रमेगा और बह भी जाएगा। एक आध धब्बों को इधर उधर उम्मीद के रूमाल से पोछते हम यूं ही अपाहिज से देखते भी रहेंगे। खोए सुख -सा कहूं या आंख की किरकिरी सा, लेखनी में भी यह मुद्दा घूम-फिरकर बारबार ही उठा है। विवादास्पद मुद्दों से उत्तेजित करना उद्देश्य नहीं, मुद्दा तभी सार्थक है जब उसका कल्याणकारी और विवेकपूर्ण समाधान हो।

कहते हैं भगवान यानी गौड ने सृष्टि को संपूर्ण और रुचिकर बनाने के लिए पुरुष की पसली से नारी की रचना की थी, ताकी वे सदा ही एक दूसरे के हृदय के पास रहें, एक दूसरे को समझ सकें। अपने यहां भी तो कुछ ऐसी ही कहानी है-जब बृह्मा ने सृष्टि की रचना पूरी कर ली तो निरंतर चलाने के लिए वे शिव के पास गए और तब शिव ने खुद ही आधे स्त्री और आधे पुरुष का रूप लिया और इस तरह से सृष्टि आगे बढ़ी। पर वह दिन है और आजका दिन है पुरुष ने सदा नारी को कमजोर और अपने से हीन ही समझा है।
आधी दुनिया अर्थात् नारी जगत् को पुरुष-प्रधान समाज में पुरुष की बराबरी पर लाने के लिए दुनिया भर में जद्दोजहद लगातार जारी है। पर नारी है कि सारी दुनिया में वहीं की वहीं खड़ी नजर आती है। एक सवाल …एक मुद्दा, जिससे हर जागरूक साहित्य प्रेमी भलीभांति परिचित है और जिसने हाल ही में काफी आक्रोश भी पैदा किया है विशेषतः नारी चेतना में; पर क्या सिर्फ मुद्दे उझाल भर देने से समस्याएं खतम हो जाती हैं…मेरी समझ से तो चंद कीचड़ के धब्बों के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा। रोकना है तो हमें यह दलदल ही रोकनी होगी। क्या हैं इन गैर-जिम्मेदाराना , “नारी के प्रति तुच्छ व उपेक्षित रवैये की वजह, पुरुष प्रधान समाज या खुद प्रगति और उपलब्धि की दौड़ में आज की भ्रमित सामाजिक व्यवस्था और कुछ हद तक खुद नारी भी…जो थम कर रुकना , सोचना तक भूलती जा रही है? क्या नाक की सीध में दौड़ने वालों को ठोकर लगने पर उफ् करने का अधिकार होना चाहिए? क्या भारतीय समाज में ( इक्के -दुक्के अपवादों को छोड़कर) सामंतशाही पुरुष नारी को वास्तव में बराबर का हिस्सा और इज्जत देने के लिए तैयार है, और यदि हाँ तो क्या हैं इन सवालों के भद्र और सुसंस्कृत जवाब? कैसे और कहाँ से शुरु हो यह बदलाव…शिक्षा से, घर से या फिर व्यक्तिगत दैनिक आचरण से ? क्या हम रोक सकते हैं एक शांत और संयत जागरूक आन्दोलन के साथ इस फिसलन को ! अनगिनत उपलब्धियों और स्नेह व त्याग के साथ साथ बुद्धि और श्रम में भी अद्वितीय नारी आज भी क्यों पशु वत् ही शोषित और पोषित हैं?। भोग और मनोरंजन की वस्तु है? व्यापार की वस्तु है? नवरात्रि शुरु होने वाली हैं। मातृ-संस्कृति में पले-बढ़े हमारे समाज में भी क्यों नारियों की यही दशा है? क्यों इसे एक तरफ सर्व सुखदायिनी तो दूसरी तरफ नागिन और डायन जैसी संज्ञा दी जाती हैं? आप के क्या विचार हैं नारी के इस उलझे भाग्य और कुंठित चरित्र पर?”
निष्पक्ष होकर देखा और समझा जाए तो गोदी से चिता तक, रिश्तों के सुख और शान्ति से निर्वहन व पारिवारिक सोच और प्रणाली के केन्द्र में सदा से नारी ही रही है। मानव परिवार हो या प्रकृति नारी की ही तो गाथा है यह। उसी के आंसू और मुस्कान से सिंचती और खिलती है जिन्दगी और इन्ही की कहानी है।
‘ या देवी सर्व भूतेषु सर्व रूपेण संस्थिता। ‘ यानी कि भगवती या नारी शक्ति जो कण -कण में व्याप्त और विभिन्न रूपों में हमारे चारो तरफ विद्यमान है …जगत जननी …लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती…हमारी पूज्यनीय, पोषक, सहचरी , दुहिता, वैभवदायनिनी, ज्ञानदायिनी और जरूरत पड़े तो विनाशिनी भी। सीता -जिसके लिए राम वन-वन भटके और द्रोपदी- जिसके एक उपहास से पूरा महाभारत मच गया….ऐसी ही तो है यह नारी शक्ति; समर्थ और बहु वर्णित। चारो तरफ चित्रित व अंकित, बहु अभिलाषित भी, फिर भी आज तक पूरे विश्व में सर्वाधिक तिरस्कृत , उपेक्षित और अपने फायदे के लिए इस्तेमाल की गई …चाहे हेलन औफ ट्रौय हो या क्लिओपाट्रा… अंग्रेजी में कहूँ तो सबसे ज्यादा ‘यूज्ड एन्ड एब्यूज्ड आज भी मानव समाज में नारी ही है।’

सिवाय मां के इसके हर रूप का समाज ने पूरा फायदा उठाया है। मां का ममतामय रूप तक आज इतना बदल गया है , विकृत और जटिल हो गया है कि मातृत्व की इस बदलती परिभाषा और जिम्मेदारी को खुद नारी को भी फिरसे समझने की जरूरत है। भटकते और मां के आंचल से छांवहीन आधुनिक बचपन की चिलक को समझने की जरूरत है। आगे बढ़ने की दौड़ में ठोकर नहीं, बचपन और अंतस दोनों को ही संभालने की जरूरत है, तभी शायद महत्वाकांक्षा की कड़ी धूप में तड़कता आज के समाज का शुष्क मरु कुछ नम हो पाएगा।

देखा जाए तो, नारी को सदा से ही पाला-पोसा, खरीदा और बेचा गया है। छला व सराहा गया है। वस्तु की तरह ही त्यागा और अपनाया गया है। मां, बहन, बेटी, हर रूप में हमारे साथ तो है नारी , वंदनीय भी है, पर जरूरत और सहूलियत अनुसार ही, छाया-सी अनदेखी और अनसुनी। वक्त-बेवक्त खंगालता, सवाल करता समाज आज भी, घर बाहर की दुहरी जिम्मेदारी जीती पिसती नारी से भी वही सब सवाल-जबाव करता वही अपेक्षाएं रखता है, जो सदियों से करता आया है। कोई लचीलापन नहीं। सहचरी तो है ही वह, साथ में पोषिता और दुहिता भी।…जिसे आज तक संरक्षण और आरक्षण में ही रखा गया, उसे ही प्रतिद्वंदी रूप में पाकर न सिर्फ पुरुष वर्ग भ्रमित है, .स्वयं नारी भी। युगों बाद अस्मिता के लिए संघर्ष करती, पहचान ढूंढती नारी की आज आंतरिक संरचना और बाह्यरूप दोनों ही बदल रहे हैं। जरूरतें और मिज़ाज बदल रहा हैं पर समाज का उसके प्रति रवैया नहीं। बदला भी है तो बहुत ही नगण्य। ममत्व और नारीत्व के जिस बोझ या अलंकरण से दबी सहर्ष वह मंदिर और घरों में सजी और स्थापित थी, आज नहीं है। उसने अलंकरण उतार फेंके हैं या उतारने को बेताब है और आश्चर्य नहीं कि नारी-सुलभ गुण जो उसके रेशे-रेशे में व्याप्त थे, आज इन गुणों में क्षरण नज़र आने लगा है। गुण जो कभी शक्ति और औजार थे। संतोष बस इतना है कि हमारा समाज देवी-भक्त समाज है और आज भी देवी के हर रूप की ही पूजा करता है…कर सकता है या करने का दम भरता है।
सीताः आदर्श भारतीय नारी चेतना की साकार प्रतिमा- जिसके जीवन में हर त्याग और निष्ठा के बाद भी दुःख और विछोह ही था…पति द्वारा सतीत्व की सफल परीक्षाओं की श्रंखला के बाद भी परित्याग ही था; याद करते ही एक असह्य अवसाद से मन भर उठता है। सीता ही क्यों, राधा हो या मीरा , अहिल्या हो या द्रोपदी, जीवन को पूरी लगन और ईमानदारी से जीती, कर्तव्य की हर कसौटी पर खरी उतरती नारी की नियति यही तो है; राम और कृष्ण के युग में ही नहीं, आज भी।

राम के दैवीय चरित्र के शिवत्व की बात तो छोड़ें, क्या मात्र सत्य के अनुचारी तक को असह्य दुख नहीं सहने पड़ते और नारी के लिए तो यह मार्ग दुगनी चुनौतियां, दुगने संघर्ष लेकर आता है। पल पल ही उसे न सिर्फ एक नटी जैसे संतुलन के साथ जीवन की कसी रस्सी पर चलना पड़ता है, अपने हर सुख दुख को भी छुपाती है वह, वजह बेवजह मान्यताओं और कसौटियों पर खरी उतरने के लिए परीक्षाएं देती है, देने को उत्सुक रहती है। अपने लिए नहीं प्रायः दूसरों के लिए ही जीने वाली यह नारी ( वजह प्यार या कर्तव्य कुछ भी हो) अपने आंसू और मुस्कानों तक को बचपन से ही पीने की अभ्यस्त हो जाती है । जानती है, भले ही हृदय माने या न माने पर परिवार और समाज के हित में यही है क्योंकि जीवन रथ का चालक कोई भी हो, धुरी तो वही है। अच्छी हो या बुरी , सुगढ़-अनगढ़, शिक्षित-अशिक्षित , नारी की ताकत आज भी किसी बृह्मास्त्र से कम नहीं । बारबार जाने क्यों नारी के संदर्भ में अग्नि का प्रतिमान ही मन में उठता है…सही रहे तो पुष्टि और पूर्ति करने वाली , गलत हाथों में पड़कर दाह दायिनी और सर्व विनाशनी। जीवन को हरा-भरा रखे या भस्मीभूतकरके दारुण निर्जन और बीहड़ में पहुंचाए , बड़ी हद तक उसी के हाथ में है।

सत्ता और अधिकार का ( पुरुष और नारी दोनों ही अब तो) भूखा व अंधा समाज न तो नारी की सहज स्वाभवगत् उष्मा और शक्ति को भली भांति समझ पाया है और ना ही उसके धैर्य और त्याग को। यही वजह है कि उसकी पूऱी क्षमता और शक्ति का लाभ और संतोष भी नहीं मिला है, ना तो पुरुष को और ना ही खुद नारी को ही। बारबार हाथ जलाकर, खून बहाकर भी नहीं। आरक्षण और संरक्षण के बीच ही अधिकांश नारियां आज भी अपनी जीवन लीला पूरी कर लेती हैं। भय और विष्तृणा इतनी अधिक है कि खुद नारी ही कोख में पलते नारी भ्रूण तक को नष्ट करने को कटिबद्ध है। दूसरों के लिए ही जीती, आज भी जीना सीख ही नहीं पाई है वह। नफे नुकसान के आधुनिक तराजू पर बैठी वह खुद अपने स्वभावजन्य गुण प्यार और ममता आदि से दूर जाती दिखती है। सचाई तो यह है कि नारी खुद नहीं जानती कि वह चाहती क्या है ? या तो मर्द की दुनिया में धान सी रुपकर ही खुश है, इस्तेमाल हो रही हैं, या फिर शोर-शराब में डूबी आइना तक देखने का वक्त नहीं निकाल पा रही। संतुलित और संतुष्ट जीवन का आज के उपभोक्तावादी समाज में नितांत अभाव-सा दिखता नजर आता है।

ऊपर से देखें तो बहुत खुश नजर आती है आज की ताकतवर अधिकार के गलियारों में घूमती आधुनिक नारी। परन्तु अंदर ही अदर कितने समझौते किए हैं उसने , कितने टूटे सपनों की किरच से लहूलुहान है वह; एक अलग ही मुद्दा और सवाल है। मनमाफिक सबकुछ तो किसी को भी नहीं मिलता, पर त्याग और प्रतिबंध आज भी, हर सफलता के बाद भी, नारी के हिस्से में ही अधिक आते जान पड़ते हैं। हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चालीस सर्वशक्तिशाली कंपनी संचालकों में अठ्ठारह नारियों को भी सम्मानित किया है। घरों और कंपनियों की ही नहीं, दुनिया के कई देशों की सफल बागडोर संभाल रखी है इन्होंने। शौर्य , बुद्धि और विवेक में नारी पुरुषों से कम नहीं, मौका मिले तो आगे ही दिखेंगी। इन सफलताओं पर नारी होने के नाते, गर्व है, परन्तु सफलता के रास्ते खोदती नारी को सावधान रहने की जरूरत है। सफलता का एकाकी रास्ता चुनती वह कहीं खाई तो नहीं खोद रही अपने लिए। चंद्रकांता जी के शब्दों में कहना चाहूंगी-

“आज के इस भूमंडलीकरण और वीडियो व इंटरनेट के दौर में, जब उपभोक्तावादी रुझानों ने स्वतंत्रता के नाम पर स्त्री को एक वस्तु ही बना डाला है, मुझे लगता है हमें नए सिरे से स्त्री-अस्मिता के प्रश्नों पर विचार करने की जरूरत है। स्त्रियों को आत्ममंथन की जरूरत है कि वह कैसी स्त्री बनना चाहती हैं? दूसरी ओर यह भी विचारणीय स्थिति है कि प्रगति कई सोपान पार करने के बाद भी हम एक अँधेरे युग में जी रहे हैं, जहाँ आज भी पारिवारिक शोषण, बलात्कार, दहेज-दहन और स्त्री-उत्पीड़न की घटनाएँ आए दिन होती रहती हैं।“

सहयोग और समर्पण में बुराई नहीं है और ना ही विद्रोह में । परिस्थिति अनुसार विवेकपूर्ण आचरण नारी हो या पुरुष दोनों को ही सुख शान्ति देगा और विद्रोह के नाम पर विद्रोह आज भी अराजकता और विनाश ही लेकर आएगा। कगार से फिसलकर जिन्होंने विद्रोह किया है उनका हश्र किसी से छुपा नहीं, क्योंकि किसी भी भाषा में इसे दुर्घटना या आत्महत्या….जीवन का अपव्यय ही कहा और माना जाएगा। और इन दोनों का ही जीवन से तालमेल नहीं।

आदि शक्ति और मातृ शक्ति के पुजारी इस भारत देश में पाषाण प्रतिमाओं की तो पूजा होगी परन्तु अधिकांश घरों में मां, बहन और बेटियों…पत्नियों की दशा..कम-से-कम उनकी मानसिक स्थिति तो सोचनीय ही है। और यदि रिश्ता नहीं, तब तो वह एक मांस के लोथड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं। प्राप्ति और तृप्ति यही दो शब्द और यही दो लक्ष्य रह जाते हैं भूखे शिकारी भेड़िया आंखों में और नारी का यही भोग्या स्वरूप चमकाया और भुनाया भी जाता रहा है सदियों से. चाहे बिकने वाला सामान तेल साबुन हो या वह खुद। वजह शायद समाज के के साथ-साथ खुद नारी का अपना रवैया भी हो सकता है। उसकी भ्रमित, असुरक्षित, ढुलमुल सोच, जो सहज तुष्ट भी होती है और कुपित भी। उसे जानना और समझना होगा कि मात्र कोरी भावुकता जिन्दगी नहीं, ना ही अनियंत्रित आकांक्षा। इस मानसिकता से निकल कर ही वह समाज और परिवार में पुरुषों के बराबर के हक ले सकती है। वरना इक्के दुक्के अपवादों को छोड़कर ये आरक्षण और नारी-प्रगति की बातें आज ही नहीं भविष्य में भी उसका मज़ाक ही उड़ाती रहेंगी। व्यवस्थाएं ही परंपराओं की जननी हैं और व्यवस्थाएं सुविधा व जरूररत अनुसार होती हैं। सड़ी-गली टहनियां न काटो तो पेड़ तक फल -फूल देने लायक नहीं रह जाते। परंपरा और संस्कार जेवर की तरह हों तभी तक सुन्दर लगते या भाते हैं, वरना बेड़ियां बन जाते हैं। दुर्गा, सीता और मीरा की धाती लिए जिस नारी ने लक्ष्मीबाई और मदर टरेसा तक कई-कई प्रशंसनीय रूप धरे हैं, क्या वजह है कि यदि आंकड़ों को सही मानें तो आज भी सर्वाधिक उपेक्षित और तिरस्कृत हैं।
जब जब उसने धरती मांगी है , प्रायः उसे समाधि ही मिली है। आज जब वह आकाश मांग रही है, घर से बाहर निकल आई है, तो क्या उसे वाकई में पंख मिल पाएंगे। कोई सोचेगा और सहयोग दे पाएगा उसे ! गीत और कविताओं में , कला आदि में बहुत प्रशस्तिगान हो चुके , अपनी अस्मिता और गौरव की न सिर्फ तलाश है अब उसे, वह उसे स्थापित करना चाहती है। शब्द नहीं ठोस प्रमाण चाहती है वह। पर क्या नारी के देवीरूप की पूजा करने वाला समाज इतना उदार है , उसे यह अधिकार देने के लिए शिक्षित, संयमित और दत्तचित् है? एक-दूसरे को दोष देकर जिम्मेदारियों से झुटकारा पा लेना कितना आसान है हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं; फिर ढूंढने से तो भगवान तक मिल जाता है और फिर ये जबाव तो हमारे अपने अंदर और आसपास ही हैं।…

शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com

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