मंथनः ऋग्वैदिक समाज और सारस्वत संस्कृति-सुनील श्रीवास्तव

भारत की सभ्यता और संस्कृति को अनेक आधुनिक इतिहास ग्रंथों में सिंधु नदी घाटी की सभ्यता का विकास माना जाता रहा है। हमारी संस्कृति के मूल उद्गम ऋग्वेद पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो देखते हैं कि ऋग्वेद के सूक्तों और ऋचाओं का गान करने वाला समाज सरस्वती नदी घाटी के मैदानों में ग्राम्य संस्कृति, सामूहिक कृषि, सामूहिक सोमपान, यज्ञ और नैसर्गिक सत्ताओं की उपासना में लगा समाज है, और सिंधु घाटी की नागर, पुरी या दुर्ग आधारित वणिक संस्कृति से किंचित भिन्न समाज है। यह भारत की मूल सारस्वत सभ्यता है।यद्यपि इस संस्कृति के अनेक पड़ावों और चरणों में सिंधु घाटी की सभ्यता का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है।

सारस्वत संस्कृति पर कुछ कहने से पूर्व आवश्यक है कि पहले उसकी पृष्ठभूमि पर एक नज़र डालें। तो पर्दा उठता है, और रोशनी पड़ती है अरब प्रायद्वीप और ईरान के बीच फ़ारस की खाड़ी (पर्शियन गल्फ) के पश्चिमी तटवर्ती मैदानों पर। यह फ़ारस की खाड़ी पश्चिमी एशिया का भूमध्यसागरी क्षेत्र है और इसकी जलराशि हिंद महासागर का ही विस्तार है।आज यहाँ 36 मीटर की जल दाबोच्चता है, किंतु लगभग 15000 BC में यह एक नदी घाटी के स्वरूप में है। मनुष्य की यादों में इतिहास की सुबह होने से भी पहले, अफ्रीका की मरुभूमि से निकल कर हमारे आदिम होमोइरेक्ट्स नर खुशगवार बाद-ए-सबा की तलाश में धुर पूरब की ओर चलते हुए लाल सागर को पार कर अरब प्रायद्वीप के अतिशुष्क मैदानों और वर्षावनों से होते हुए, यहां पहुँचते रहे हैं, और उत्तर यूरोप से शीतयुग के संत्रास से निकल कर दूसरे आदिम निएंडरथल नर आंच में सिंकते मैदानों की तलाश में धुर दक्षिण की ओर के बर्फीले पहाड़ों को फाड़ कर यहाँ आते रहे हैं, और यह उन दोनों के बीच संघर्ष, सम्मिलन और सहजीवन का समय है, और उनसे एक सभ्यता जन्म ले रही है, नर से मनुष्य या मानव बनने की सभ्यता। यह नरसमूह सहस्त्राब्दियों के बाद पहली मानवीय सभ्यता की ओर विकसित हो रहा है। इस संदर्भ में बर्मिंघम के आर्कियोलॉज़िस्ट जैफ़री रोज़ के विचार जानना उपयुक्त होगा- “The shallow basin that now underlies the Persian Gulf, the venue of the 1980–1988 Iran–Iraq War, the 1991 Gulf War, was an extensive region of river valley and wetlands during the transition between the end of the Last Glacial Maximum and the start of the Holocene, the age of man which, according to University of Birmingham archaeologist Jeffrey Rose, served as an environmental refuge for early humans during periodic hyperarid climate oscillations, laying the foundations for the legend of Dilmun.”

यह समय है कोई 15000 BC से पूर्व कोई समय, हिम युग या Ice Age का आखिरी चरण। मानवीय सभ्यता का उषाकाल। अभी वहां मानव नहीं, सिर्फ नर थे। नर शब्द नृ धातु से बनता है और यह एक बायोलॉजिकल एंटिटी है स्त्री-पुरुष दोनों के लिए। अब यह सभ्यता का लिबास पहन कर बायोलॉजिकल एंटिटी से सोशल एंटिटी बन रहा है।

सत्य युग (Holocene -Age of Man)
सभ्यता के विकास का पहला चरण
समय है, लगभग 15000 से 11000 BC ।
यहाँ मनुष्य की असत् से सत् की ओर की यात्रा (असतो मा सद्गमय) में प्रारंभिक सभ्य समाज-व्यवस्था बन रही है। यह समय है नर से आर्य और हरि बनती हुई सभ्यता का। आर्य बनता है ऋ धातु से, जैसे ऋतु से आर्तव, ऋषि से आर्ष, उसी तरह ऋ से आर्य, और आर्य उच्चारण भेद से बनता है अरिय होते हुए हरि, जैसे आर्याणाम से हरियाणा। ऋ से ही ऋषि भी बनता है। ऋ का अर्थ है, स्थापित करना, निर्देश देना, अत: आर्य और ऋषि दोनों ही निर्देष्टा या संस्थापक हैं, एक सामाजिक जीवन में, दूसरा शैक्षणिक जीवन में। यह सभ्यता का मूल युग, या सत्य युग है। सत्य वही है जिसके पहले का कुछ ज्ञात नहीं है। यही हिमयुग के अंतिम दौर में मनु का युग है, जिसे क़ुरान में नूह, जेनेसिस में नोहा, और सुमेरियन सभ्यता में दिलमन कहा गया।

त्रेता युग- सभ्यता के विकास का दूसरा चरण
11000 से 5000 BC लगभग
हिमयुग खत्म होने के बाद जब ग्लेशियर्स तेजी से पिघले तो फारस की खाड़ी में महाजलप्लावन (The Great Flood) हुआ। और मनु के साथ कुछ लोग नावों में पार लग कर ईरान और सप्तसिंधु में तथा सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के मैदानी भाग, ब्रह्मावर्त, में आकर बसे। भारतीय परंपरा में मनु के नौकांतरण, जेनेसिस में नोवाज़ आर्क, क़ुरान में सफ़ीना नूह, सुमेरियन सभ्यता में लिजेंड ऑफ दिलमन इन सभी में सत्ययुग के नायक मनु के उस समाज की स्मृतियाँ हैं जो इस महा जलप्लावन को पार कर मृत्यु से अमृत की ओर, अंधकार से ज्योति की दिशा में बढ़े थे। हमारी स्मृतियों में वैतरणी, तारणहार, त्राण (परित्राणाय) की संकल्पना का स्रोत यही महाजलप्लावन है। त्रेता अर्थात् त्रय या तरण के बाद बचे लोग। यह प्रथम मानव या मनुष्य (मनु के वंशजों) का समाज है। वैदिक समाज की स्थापना, ऋग्वेद की रचना का आरंभ, स्वर्गोपम समाज-व्यवस्था इसी कालखंड की देन हैं। इस समय फ़ारस की खाड़ी के पश्चिमी अंचल में दिलमन और मागन में सुमेरियन सभ्यता विकसित हुई। यह मागन ही पुराणों में शाकद्वीप के नाम से उल्लिखित है और मग या मागध ब्राह्मणों या शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की मूलभूमि समझी गई है। खाड़ी के पूर्वी अंचल में मेलूहा क्षेत्र में सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हुई। पर्शियन गल्फ से सिंधु नदी तक के पूर्वी लैंड मास में त्रिकोण-पुरियाँ विकसित हुईं, सुतकागेंडोर (पश्चिमी कोण में), हड़प्पा (पूर्व में उत्तरी कोण में), लोथल (पूर्व में दक्षिणी कोण में) पुरियाँ विकसित हुईं।

ब्रह्मावर्त – सारस्वत संस्कृति का केंद्र
सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच विशाल मैदानों में फैले ‘ब्रह्मावर्त’ के इस विशाल मानव-समाज में सारस्वत सभ्यता और संस्कृति विकसित हुई। यह ग्राम्य संस्कृति, सामूहिक कृषि, यज्ञ के रूप में उपज के सामूहिक विभाजन, सामूहिक सोमपान और रागरंग से जीवंत समाज है। ऋग्वेद की ऋचाओं का गान यहीं आरंभ हुआ। इस समाज में गंधार (आज के अफ़ग़ानिस्तान) के नृत्य-गान प्रवीण गंधर्व, चीन और तिब्बत के लघुकाय वणिक यक्ष, नेपाल-भूटान की दुर्गम घाटियों के शारीरिक कौशल-संपन्न किन्नर, उत्तर-पूर्वी नगों-पर्वतों के निवासी नाग और सुदूर दक्षिण के वनों मे निवास करने वाले वानर का भी आदरपूर्ण स्थान है।अनेक विविधताओं के बावजूद एक गान-एक पान की जीवनशैली की ख़ुशबू दूर दूर तक फैली। सोम, उशस, सविता और नदियों के गान जन जीवन में छाए रहे। दक्षिण के द्वीपीय अंचलों से होते हुए यह विस्तार सुदूर ताम्रपर्णी (वर्त्तमान श्रीलंका), स्वर्णद्वीप (वर्त्तमान सुमात्रा), यवद्वीप (वर्त्तमान जावा), चंपा द्वीप (वर्त्तमान वियतनाम), आदि में और इस प्रकार पूरे कंबोज द्वीप (वर्त्तमान कंबोडिया) में और उत्तर के पूर्वी-यूरोपीय अंचलों में सघन रूप से फ़ैल गया।

द्वापर युग – सभ्यता के विकास का तीसरा चरण
5000 से 1500 BC
लगभग 4000 BC के आसपास पश्चिम-मध्य भारत में अरावली पर्वत शृंखला की उठानों के कारण सरस्वती नदी दो प्रवाहों में बँट कर पश्चिम में सतलुज में और पूर्व में यमुना में मिल गई और इसके विलीन हो जाने के बाद ब्रह्मावर्त के समाज ने पूरब में “दो अन्य (द्वा-अपर) नदियों” गंगा और यमुना के मैदानों में आर्यावर्त को संस्कृति के मूल केंद्र के रूप में विकसित किया। वैदिक समाज फला-फूला, वेदों की रचना पूर्ण हुई। गंगा-यमुना-सरयू के मैदानों में आर्यावर्त में सामूहिक खेती, और समाज में उपज के समान बँटवारे के रूप में होने वाले यज्ञ में कई प्रतीकात्मक विधियाँ शामिल हुईं।

सिंधु घाटी सभ्यता और सारस्वत सभ्यता – संस्कृतियों का टकराव
नवीनतम (2013) अनुसंधानों में इस बात को बल मिला है कि सिंधुघाटी सभ्यता सुमेरियन सभ्यता से प्रभावित है। लगभग छह हज़ार से चार हज़ार वर्ष ईसापूर्व के वेदों में दो प्रमुख समाजों का उल्लेख है- इंद्र के नेतृत्व में देवों का समाज और पुलोमा के नेतृत्व में दानवों या दैत्यों का समाज। एक असुरों की नागर और पुरी केंद्रित सभ्यता और दूसरी देवों की ग्राम प्रधान, यज्ञ प्रधान संस्कृति। सारस्वत संस्कृति के देव इंद्र को पुरहन्ता, वृत्तहन्ता कहा गया है। शिव को तीन त्रिकोण पुरियों का ध्वंसक त्रिपुरारि या त्रिपुर-आराती कहा गया है। यह वृहत्तर भारत भूमि पर संस्कृतियों के टकराव को दिखाता है।

सारस्वत संस्कृति के प्रमुख तत्व
आज से लगभग सात हज़ार वर्ष पूर्व के भारतवर्ष पर नज़र डालें तो उसके अत्यंत विशाल और दैवी स्वरूप के दर्शन होते हैं।

i. भारतवर्ष की कल्पना एक जीवंत सत्व (living entity) की तरह
उस समय के भारतीय वाङ्‌मय का वैदिक समाज पर्वत को पिता और नदी को पयस्विनी (दूध पिलाने वाली) माँ कह कर संबोधित करता है। भारतवर्ष की उत्तरी सीमा में कैलाश शिखर के रूप में बर्फ़ की सफ़ेद भस्म रमाए अचल योगी की तरह परम-पिता शिव विराजमान हैं। भारत के ग्राम-गीतों में इसे “सोहे महादेव की पगिया गौरा देई के आँचर” के रूप में प्रतीकबद्ध किया गया है। भगवान शिव के हृदय-सिंधु से लिपटी माँ पार्वती (पर्वत से प्रवाहित जलराशि, मानसरोवर) का जीवनदायी विस्तार नीचे के पश्चिमी और पूर्वी सागर पर्यन्त सारे अंचल में है। यही गौरा देई के आँचर है। पार्वती की दो बाँहों में पांच-पांच उँगलियों की तरह दो पंचनद प्रदेश हैं। पश्चिमी पंचनद प्रदेश में सिंधु (सिन्ध), वितस्ता (झेलम), असिक्नी (चंद्रभागा या चिनाव), परुष्णी (ऐरावती या रावी) और विपाशा-शतद्रु (व्यास-सतलज) दक्षिण-पश्चिमी अंचल को सिक्त करते हुए एक साथ पश्चिमी सागर (अरब सागर) में मिलती हैं। पूर्वी पंचनद प्रदेश में यमुना, गंगा, गोमती, शर्यु (सरयू या घाघरा) और सदानीरा (गंडक) नदियाँ हैं जो दक्षिण-पूर्वी अंचल को अपनी ममता से सींचते हुए एक साथ पूर्वी सागर (हिंद महासागर) में मिलती हैं। भगवान शिव के चरणों में कैलाश की घाटियों से होते हुए पर्वत-खंडों से टकराती उग्र श्यामला काली का विस्तार है जो आगे दक्षिणी मैदानों में शांत सुरम्य शारदा में विलीन हो जाती है। शारदा अपने पूर्वी विस्तार में मैदानों में उतर कर शर्यु से जा मिलती है। इन दोनों पंचनद बाँहों के मध्य में माँ पार्वती के हृदय भाग में सरस्वती और दृषद्वती दो दूध की पयस्विनी धाराएँ प्रवाहित हैं। इन दोनों के बीच का सुपोषित अंचल है ब्रह्मावर्त, जिसे वैवस्वत मनु ने समृद्ध किया। उत्तर काल में पूर्वी पंचनद प्रदेश में आर्यावर्त का विस्तार हुआ।

i i. सरस्वती – सारस्वत संस्कृति की प्रमुख देवी
सरस्वती भारतवर्ष का हृदय-हार है। वसंत आते-आते जब जल-धारा की काटने वाली ठंडी धार नर्म हो जाती है, इसके तटों पर हंसों की पाँत का अद्भुत संगीतमय कलरव सुनाई देता है, इसलिए यह हंसवाहिनी है। इसका कल-कल निनाद वीणा के स्वर की तरह आनंद-प्रद है, इसके तटों पर ही संगीत, गीत, नाट्य का विकास हुआ, वीणा का अविष्कार हुआ। इसलिए यह वीणावादिनी है। इसके तटों पर सैकड़ों वर्षों से आर्ष मनीषियों के नानाविध ज्ञान-अनुसंधान के अनेकानेक केंद्र विकसित हो रहे हैं, इसलिए यह ज्ञान, कला और संगीत की देवी है।शीत ऋतु के बाद वसंत के आगमन पर ब्रह्मावर्त के तटीय निवासी स्त्री-पुरुष पीले उत्तरीय धारण कर इसके जल में पुष्पराशि अर्पित करते हैं, और प्रार्थना के स्वर में गा उठते हैं-
“अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति । अप्रशस्ताइव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि ॥”
(ऋग्वेद 2.41.16)
ओ माँ सरस्वती ! तुम माताओं में सर्वश्रेष्ठ, नदियों में सर्वश्रेष्ठ, देवियों में सर्वश्रेष्ठ हो। यद्यपि हम तुम्हारे योग्य नहीं, फिर भी हे कृपालु माँ, तुम हमें श्रेष्ठता प्रदान करो।
कालांतर में, इस अंचल के बीच की उन्नत भूमि (अरावली शृंखला की उठानों) के दोनों ओर बँट कर सरस्वती की पावन जलराशि पश्चिम में शतद्रु और पूर्व में यमुना और गंगा की धाराओं में मिल कर विलीन हो गई और इस प्रकार यह आज भी इन जलराशियों में घुल-मिल कर पूरे भारतवर्ष के कण-कण को जीवन से सींच रही है।

iii. समाजवादी गणतन्त्रीय व्यवस्था
असुर संस्कृति में पुरी केंद्रित, व्यवसाय-केंद्रित एकाधिकारी राजतंत्रों का उल्लेख है, जैसे रावण का शासन-
त्रिभुवन बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मणि रावण राज करई निज मन्त्र।। (रामचरितमानस)
किंतु सुर या दिव कृषि संस्कृति, देव यज्ञप्रधान कृषिपालक सामाजिक गणतंत्रीय राजव्यवस्था है जिसमें ऋषियों और सचिवों की दो अष्टप्रधान समितियाँ हैं और राजा एक ट्रस्टी एक्ज़ीक्यूटिव की तरह कार्य करता है। प्रमुख निर्णयों के लिए ऋषि-समिति के आठ में से पाँच सदस्यों का अनुमोदन आवश्यक है। जैसे दशरथ की शासन-व्यवस्था है। दशरथ की प्रथम अष्टप्रधान समिति में वशिष्ठ, वामदेव, सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, मार्कण्डेय, कात्यायन हैं। द्वितीय अष्टप्रधान समिति में सुमंत्र, धृष्टि, जयंत, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल हैं (बा०रा० ७/३-५)। दशरथ अपने पुत्र राम को युवराज पद पर अभिषिक्त करने के लिए समिति के पाँच सदस्यों के अनुमोदन की बात करते हैं।
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥(रामचरितमानस)

iv . सनातन संस्कृति – सारस्वत प्रतीकों की निरंतरता
हम यह देखते हैं कि परंपरा से प्रचलित आज के अनेक ग्रामगीतों का यथाविध रूप ऋग्वेद की ऋचाओं में मिलता है। देवीपूजा के अनेक गीतों में “सातों बहिनी” का उल्लेख मिलता है जो ऋग्वेद की ऋचाओं में उसी तरह “सप्तस्वसा” के रूप में है। छठ पूजा के गीतों में अद्भुत साम्य है। एक परंपरा से प्राप्त छठ गीत है जो सुव्रती स्त्री नदी के जल में सूप या डाला में अर्ध्य ले कर खड़ी हो कर गाती है-
उगा हो सुरुज देव भोरे भिनुसरवाँ अरघ के रे बेरवा, पूजन के रे बेरवा हो…
अर्थात् उगो हे सूर्य देव, कि भोर भिनुसार हो गई है, यह आपके अर्ध्य की और पूजन की बेला है।
ऋग्वेद में ठीक इसी रूप और आशय की कई ऋचाएँ हैं। एक ऋचा है-
उदु ष्य देव: सविता दमूना हिरण्यपाणि: प्रतिदोषमस्थात्
अयोहनुर्यजतो मन्द्रजिह्व आ दाशुषे सुवति भूरि वामम् ।।
(ऋग्वेद ६.७१.४)
उगो हे (उदु ष्य) सूर्य देव (सविता देव:), अभावग्रस्त (ऊना) को स्वर्णमय हाथों (हिरण्य पाणि) (किरणों) से देने वाले (दं ऊना), भोर की वेला हो गई है (प्रतिदोषम् स्थात्)। (जैसे संध्या वेला को प्रदोष कहते हैं, वैसे ही भोर वेला को प्रतिदोष कहते हैं)। हनु (ठुड्डी) के आकार वाले (हनु) स्वर्णपात्र (अयस्) (अर्थात् सूप) से यजन (पूजा) करने वाली (अयस् हनु: यजतो), मधुर स्वर में गाती हुई (मन्द्र जिह्व) सुव्रती या पूजा का व्रत करने वाली (सुवति) को बहुतायत से (भूरि) धन (वामम्) प्रदान करो (दाशुषे)।

v. स्त्री का विशेष स्थान
सारस्वत संस्कृति में पारिवारिक बंधन का आधार सिर्फ प्रेम है। वैदिक समाज में स्त्री पत्नी नहीं, सहधर्मिणी के रूप में पुरुष के हर कार्य में उसकी अनिवार्य और बराबर की हिस्सेदार है। पुरुष उसका संगी या सहगामी है। हर सामाजिक कर्म में, यज्ञ में, स्त्री उसकी सहगामिनी या सहधर्मिणी है। वैदिक समाज में कहीं पति-पत्नी शब्द नहीं, वहाँ है सहधर्मी-सहधर्मिणी, गृहस्वामी-गृहस्वामिनी, गृहस्थ-गृहिणी। पति और पत्नी जैसे नाम बहुत बाद में पुरुष के वर्चस्व वाले समाजों में प्रचलित हुए। ये मूल वैदिक समाज के और भारतीय परंपरा के नाम नहीं हैं। बेटी, माँ की सहायिका -दुहितृ है।वैदिक समाज में जब स्त्री बेटी बन कर आती है तो उसकी मासूम आंखों में पुरुष को अपने कठोर जीवन का मृदुल प्रतिरूप जीवन का पूरक बन कर दिखाई देता है। वह घर में, पिता की संगिनी या गृहिणी, अर्थात अपनी माँ, का प्रतिरूप बन कर उसका घर-आंगन संवारती है। घर के सहायक कार्य, अतिथि की सेवा, पालतू पशु-पक्षियों का पालन, गायों का दूध दुहना उसके सहायक कार्य हैं जिनसे वह दुहिता या दुहितृ बनती है। अंग्रेज़ी के doughter में इस दुहितृ की ही छाया है।

vi. शुचिता-पूर्ण जीवनशैली
सारस्वत संस्कृति में व्यक्तिगत शुचिता और सामाजिक शुचिता का बहुत महत्व है।प्राचीन काल में जब भारत-भूमि पर सभ्यता और संस्कृति बस रही थी और आर्यजन यायावरी वृत्ति से मुक्त हो कर अपने सुरक्षित समाज की स्थापना कर रहे थे, जब बार बार संक्रामक रोगों से पूरी-पूरी बस्तियाँ नष्ट हो-हो कर फिर से बस रही थीं, तब ऐसी अनेक वर्जनाएँ उन प्रवृत्तियों और प्रभावों को रोकने के लिए अपनाई जाने लगीं जो समाज के लिए हानिकर और संक्रामक हो सकती थीं। छूत-अछूत का विचार, मंदिरों और सामाजिक भवनों में प्रवेश की पात्रता-अपात्रता के मानदंड आदि ऐसे ही कुछ मानक थे जो स्थापित किए जाने लगे। इनके अतिरिक्त युगों के अनुसंधानों और प्रयोगों के आधार पर उपयोगी पाए गए कुछ सकारात्मक क़दम भी सामाजिक स्तर पर स्वीकृत किए गए। औषधीय वनस्पतियों से अग्निहोत्र हवन, विषाणुओं को निष्प्रभावित करने वाले शंखनाद और घंटानाद, अनुलोम-विलोम प्राणायाम वाली त्रिकाल संध्या, प्रतिदिन प्रतिरक्षा शक्ति को संवर्धित करने वाले पंचगव्य का पान और तुलसी युक्त प्रसाद का आहार और पीपल आदि अधिक प्राणवायु देने वाले वृक्षों का पोषण नियमित रूप से जल आदि दे कर, ये कुछ ऐसी ही स्वीकृतियाँ अपनाई जाने लगीं। इन वर्जनाओं और स्वीकृतियों का लंबा इतिहास है। यह उल्लेखनीय है कि आज के संदर्भ में यह जीवनशैली पूरे विश्व में उपयोगी पाई जा रही है और अपनाई जा रही है।

कलियुग या उत्तर युग
लगभग 1500 BC से निरंतर
सारस्वत संस्कृति में बहुदेववाद व कर्मकांड का मिश्रण
महाभारत काल के बाद से सारस्वत संस्कृति की मान्यताओं में कुछ रूढियाँ और वर्जनाएँ शामिल होने लगीं और अनेक देवों, कर्मकांड, अनुष्ठानों आदि का समावेश होने लगा जो गुप्त और पल्लव काल में चरम पर पहुँचा। अनेक परंपराएँ बौद्धमत के बढ़ते प्रभाव की प्रतिक्रियावश शुरू हुईं। लेकिन इसी काल में वेदों, उपनिषदों, पुराणों का डॉक्युमेंटेशन हुआ और वैदिक सनातन संस्कृति पर पौराणिक समाज-व्यवस्था का प्रभाव पड़ा। जाति-व्यवस्था रूढ़ होने लगी और सामूहिक श्रम की उपेक्षा करते हुए अलग-अलग सामाजिक कर्तव्यों और भूमिकाओं का रूढ़ होना शुरू हुआ और कर्मणा जाति से जन्मना जाति में अंतरण हो गया। सामूहिक श्रम की उपेक्षा करते हुए अलग अलग पारिवारिक कर्तव्यों और भूमिकाओं का रूढ़ होना इसी कालखंड में हुआ। बाहरी आक्रमणों और समाज में भारी उथल-पुथल के कारण स्त्री को अधीन और सुरक्षित रखने का शास्त्रसम्मत तरीका अपनाया जाने लगा। पतिदेव जैसे शब्द का प्रवर्तन हुआ। तात्विक दृष्टि से देखें तो समानता-आधारित वैदिक समाज के विपरीत पति-पत्नी नामों के शाब्दिक अर्थ में ही असमानता के दो छोर हैं। पति अर्थात स्वामी, पालक, जैसे भूपति, धनपति आदि, और पत्नी वह जो इससे पालित, इसके स्वामित्व में। ये अंग्रेज़ी के हसबैंड और वाइफ के समानार्थक हैं। पति या हसबैंड का शाब्दिक अर्थ है उसका मालिक, स्वामी या पालन करने वाला, जो भारतीय सहधर्मिणी की संकल्पना से बहुत अलग है। एनिमल-हसबैंड्री जैसे शब्द में यही हसबैंड है। उसी तरह पति- जो भूपति, धनपति जैसे शब्दों में दिखता है, अर्थात स्वामी या पालक। इसी तरह पत्नी अर्थात भोग्या, दासी या पालित। अंग्रेज़ी का वाइफ तो शरीर के स्तर पर निकला शब्द है। मिडवाइफरी जैसे शब्द में इसका मौलिक रूप है। आज जब व्यक्ति की गरिमा और समता पर आधारित भारत का संविधान स्थापित है, यह आवश्यकता है कि इस समता-आधारित सिविल समाज में समता-आधारित गृहिणी गृहस्वामिनी जैसे शब्दप्रयोगों की ओर लौटना चाहिए। इस काल में स्त्री और पुरुष के अलग-अलग शिष्टाचारों का प्रवर्तन भी हुआ। अनेक संस्कारों के स्थान पर रूढ़ियों की स्थापना होने लगी। दहेज, पत्नीधर्म आम प्रचलन में आया।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल में आठवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच विदेशी आक्रांताओं और शासनों के दौर में भारत के समाज में पहली बार स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक बनी, और स्त्री के प्रति इन्हीं अपराधों और भेदभाव की प्रतिक्रिया के रूप में भारत के व्यापक समाज में बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा व सती-प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों का जन्म हुआ।
आधुनिक भारत में 17वीं शताब्दी के प्रारंभ से लेकर 1947 तक ब्रिटिश शासनकाल में आम जनता के दमन के अनेक उदाहरण हैं लेकिन इसके विपरीत स्त्री के नागरिक अधिकारों और सम्मान की पुनरस्थापना के प्रयास भी हैं, जिनके फलस्वरूप बाल-विवाह, सती-प्रथा जैसी कुरीतियों का अंत हुआ।

अब स्वतंत्र आधुनिक भारत में मानव-अधिकारों के नवजागरण का काल है। संविधान में समता और व्यक्ति की गरिमा की विधि द्वारा स्थापना की जा चुकी है। सामाजिक गणतंत्र, पंथ-निरपेक्षता, सर्व-समावेशीकरण, सबका साथ-सबका विकास, आदि सभी सारस्वत संस्कृति की व्यवस्थाएँ अपनाई जा रही हैं और भारत विश्व में सुदृढ़ हो कर एक बार फिर सुनहरे भविष्य की ओर बढ़ रहा है।

सुनील श्रीवास्तव
लेखक, कवि गीतकार;
स्क्रीनराइटर्स एसोसिएशन मुंबई के सदस्य।
पूर्व में, संघ लोक सेवा आयोग में प्रधान अनुसंधान अधिकारी तथा भारत सरकार के विदेश-मंत्रालय में उपसचिव (भाषा एवं संस्कृति)।

error: Content is protected !!