मंथन अकथ कहानी प्रेम की-शैल अग्रवाल

कबीर ने कभी लिखा था – ‘अकथ कहानी प्रेम की ,कहत कहि न जाय , गूंगे केरी सरकरा, खाय और मुसकाय’ तो फिर मैं कैसे इस प्रेम को शब्दों में समेटूँ !
प्रेम दीवानी मीरा कहती हैं- ‘मेरो दर्द न जाने कोय’। यहाँ एक प्रेम के आनंद में डूब चुका है तो दूसरा इसकी पीड़ा से बेचैन है। और यही खूबसूरती है इस छप्पन भोग से भरे थाल की-, खट्टा, मीठा, कड़वा, कसैला सारे स्वाद एक साथ परोस देता है यह।
सभी के अपने-अपने और अलग-अलग अनुभव हैं प्रेम के। परन्तु एक बात निश्चित है- प्रेम में भी साहस और संतुलन की उतनी ही जरूरत है जितनी कि जीवन में। किस-किस का नाम लें इस संदर्भ में-उस दीवानी सोहनी का जो कच्चे घड़े के सहारे दरिया पार करने चल पड़ी थी या फिर उस पागल मजनू का, जो अपनी अस्त-व्यस्त और बेहाल जिन्दगी की वजह से आज भी असफल आशिकों की मिसाल बना हुआ है। पर यह शह ही ऐसी है कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे। कई-कई रूप और रंग हैं जीवन में इस प्यार के। कहीं यह भक्ति बनकर अराध्य के आगे सिर झुकाए खड़ा दिखता है तो कहीं संगीन ताने मातृभूमि की रक्षा करता सीमा पर खड़ा दिखता है। कहीं यह माँ का सहारा देता आंचल है तो कहीं मित्र या बालक की निश्छल मुस्कान। आश्चर्य नहीं प्रेम में दीवानगी के किस्सों से साहित्य और जिन्दगी दोनों ही भरी पड़ी हैं। कोई इष्ट में समष्टि के दर्शन कर समस्त से जुड़ जाता है, हरेक के सुख दुख को जानने व समझने लग जाता है, क्योंकि वह खुद उससे गुजर चुका है। तो कइयों को प्रेम दीवाना मजनू बनाकर छोड़ देता है, क्योंकि उन्हें अपने प्रिय के अलावा कुछ दिखता ही नहीं। होश ही नहीं रहता किसी और चीज का, खुद तक का नहीं।
प्रेम भालता भी है और कइयों को बिखेरता भी है। क्योंकि इसका वेग या प्रावह, इसकी उर्जा तीव्र है-अग्नि की तरह, वायु की तरह जिन्हें बांधो और साधो नहीं तो सब ध्वस्त तक कर सकते हैं ये। एक उन्मुक्त उड़ान भी है प्रेम और एक बंधन भी। कहीं इसका असर मेहँदी जैसा होता हैृ मन की हथेली पर, कब रची और कब उड भी गयी, पता ही नहीं चल पाता, परन्तु जब तक रची रही, पूर्णतः सम्मोहित करती रही, तो कहीं पूजा में प्रार्थना की तरह भी। उस महकते चंदन की तरह भी है यह, जो इंद्रियों से ऊपर उठाकर आत्मा तक में जा रिसता है। पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के भाव से जोड़े रखता है ईश और उसके साधक को।
पर जितना प्यार ऊपर उठाता है, उतना ही गिरा भी सकता है, इसमें भी शक नहीं। निराश प्यार में हैवान प्रेमी द्वारा प्रेमिका को तन्दूर में भूनने के किस्से भी पढ़ने को मिले हैं और प्यार में अपना सर्वस्व कुर्बान कर देने के भी। अज़ब ही कहानी है इस गज़ब प्रेम की, इसके कड़वे-मीठे,सच्चे-झूठे एहसासों कीृ, प्रकृति दत्त इस अनुपम इन्द्रधनुषी छटा के विविध रंगों की।
एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा था – ‘कितना प्यार करते हो मुझसे?’
तब कृष्ण ने कहा -‘बहुत-बहुत। खुद से भी ज्यादा।’
‘तो क्या तुम मुझे सिर पर भी बिठा लोगे?’ राधा ने आतुर होकर पूछा।
‘तुम ही तुम तो हो मेरी रग-रग में।’ कृष्ण ने फिर पुलककर जबाव दिया था। परन्तु जैसे ही बहकी राधा ने सिर पर बैठने के लिए पैर उठाया, कृष्ण तुरंत अंतर्ध्यान हो गए। तब प्रेम-विह्वल राधा की समझ में आया-कि कितना भी प्यार हो, प्रेम की भी कुछ अपनी मर्यादा हैं। जिनका उल्लंघन संभव नहीं। दो शरीर एक आत्मा जैसे प्रेमियों के बीच भी नहीं। पर यह भी तो एक रूप है ही प्रेम का- अल्हड़, नादान और मादक। नदी-सा उमड़ता और उफनता, सारे बंधन और किनारे तोड़ता, अपने ही आवेग में बहता चला जाता- इक आग के दरिया जैसा जहाँ डूबकर जाना है।
प्रेम बंधन है तो मुक्ति भी तो- जैसे माँ की गोदी में शिशु, जैसे प्रिय की बांहों में प्रियतमा। जैसे पानी पात्र के अनुसार ही आकार ले लेता है, प्रेम भी तो। प्रेम आजाद कर देता है स्व से और जोड़ देता है दूसरों से,-उनके छोटे-बड़े हर सुख-दुख से। प्रेम कई रूप और कई रिश्तों में आकर मिलता है हमसे इस एक ही जीवन में। कई बार तो किसी रिश्ते, किसी पहचान तक की जरूरत नहीं- जैसे अचानक ही एक तितली हाथ पर आ बैठे। बिना बताए जैसे आया उड़ भी सकता है यह। फिर बस डूबे रहो उस पल की यादों में उम्र भर। पर याद रखना, याद करना भी तो प्रेम या इस राग-अनुराग का ही एक हिस्सा है।
आज के फास्ट फूड समाज में फास्ट प्रेम भी देखने को मिलता है हमें। चपल इस आकर्षण या भटकन में सच्चे समर्पण और समझ की कमी पाई जाती है। उँगली पकड़कर संग तो ले चलता है यह, पर जैसे ही रस आने लगे या तृप्ति हो जाए, उंगली छोड़कर आगे भी निकल जाता है-बिल्कुल तू नहीं तो और सही, और नहीं तो और सही -वाले अन्दाज में। जबकि स्थाई प्रेम ‘मैं’ रहित समर्पण मांगता है, ठहराव मांगता है। एक बार फिर कबीर याद आ रहे हैं-‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाय/ प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाय।’ और यही वजह है कि आज प्रेम प्रायः एक था राजा और एक थी रानी- वाली कहानियों की तरह किताबों में ही बन्द रह गया है और चाहकर भी उस खोए तिलिस्म को महसूस नहीं कर पाते लोग, जैसे कोई अतीत में लौटे तो पर लौट न पाये, डूबे तो, पर जी भरके डूब न पाए। कुशल से कुशल गोताखोर को भी कठोर यथार्थ की जमीन पर वापस लौटना ही पड़ता है। जीवन है यह। कहानी-किस्सों वाला प्रेम नहीं- यथार्थ की धरती पर क्रमबद्ध और मशीनी-जरूरत और सहूलियत के मुताबिक। जैसे सप्ताह के अंत में एक बार मां-बाप से मिल आना-मोहब्बत के अलावा और भी दर्द हैं। संस्था में संस्थापित जिन्दगी जरूरतों की लय पर ही नृत्य करती है और चाहकर भी अधिकांश के वश में प्रेम है ही नहीं। प्रायः प्रेम को भी एक पिल की तरह ही लेकर संतुष्ट हैं लोग। हवा के झोंके की तरह आया और गया प्रेम पर्याप्त है इनके जीवन में। जिसकी कोई विशेष पहचान नहीं। कभी-कभी तो कोई चेहरा तक नहीं। मानव का कोमल सहृदय मन तो वही है आज भी आदि मानव का, परन्तु निर्मम यथार्थ की दौड़ में दबा-ढका, पीछे छूटा और पूर्णतः कठोर हो चुका।
पर आज भी कइयों को यह छूता है और ऐसे छूता है कि मन की गहन स्मृति कंदराओं में जा छुपता है-जैसे पानी रिसता है चट्टानों में। और वहाँ से आजीवन झांकता व पुकारता रहता है। भूलने नहीं देता। हर पल प्रेम में, करुणा ममत्व और मदद से भरी, प्रकृति, पशु-पक्षी, फूल-पत्ती सब ही तो प्रेम करते हैं एक दूसरे से, एक दूसरे के सहारे ही फलते-फूलते हैं। यह तो बस आदमी ही है जो रो-रोकर अपनी प्रेम-गाथा लिखते हैं और हंस-हंसकर पढ़ते और दूसरों को पढ़वाते हैं।
चाहें न चाहें प्रायः, यादों से महकता-गमकता वह गूंगे का गुड़, वह याद, सजग, निडर, और निरासक्त, आजीवन साथ तो रहती है, परन्तु उस जादू को वापस ला पाना, दोबारा महसूस करना संभव नहीं। क्योंकि यदें अतीत का हिस्सा हैं। कोमल परतों को धूप में खिलती कली की तरह पंखुरी-दर-पंखुरी आंखों के आगे खोलती भले ही चली जाएँ तो भी अतीत ही हैं-जैसे शाख पर टूटे पत्ते वापस नहीं जोड़े जा सकते। फिर सब कुछ बस एक अहसास ही तो है जीवन में। क्षणिक और नश्वर, प्रेम हो या खुद हम।
फिर भी व्यस्त जीवन-यात्रा का विश्राम है प्रेम। यादों का मासूम वह आंगन है प्रेम जहाँ हम आजीवन रम सकते हैं। उर्जा लेते हैं। हृदय का विस्तार है प्रेम। हमें सशक्त करता है,परिपक्व करता है। प्यार करना सिखलाता है, सहना और धैर्य रखना सिखलाता है।
जिगर मुरादाबादी ने लिखा है एक शेर मेंः ‘इक लब्जे मोहब्बत का अदना ये फसाना है/ सिमटे तो दिल-ए-आशिक फैले तो जमाना है।’ पर यूं सारे जमाने तक फैलने का, पूरे जमाने को ( वसुधैव कुटुम्बकम) अपना बनाने का हौसला और यह सौभाग्य कम को ही आता या मिल पाता है। प्रायः बस एक लम्बी चुप्पी पसरी पड़ी रह जाती है मन के आंगन में। क्वयोंकि वह नेहभीगा कोना, जो मन की तरह ही कभी बेहद परिचित था, अपना था पीछे छूट जाता है। उम्र के साथ तरक्की के पीछे भाग रहा होता है इन्सान या फिर तरक्की कर चुका होता है। और वह अपनत्व की रौनक, वह ममत्व की नमी, जीवन की आपाधापी की कड़क धूप में भाप बनकर उड़ जाती है।
वैसे भी जो है वह कभी संतुष्ट नहीं करता। यही आधे-अधूरे की तलाश ही तो मानव की आदि प्रवत्ति भी है और अनंत भूख भी-संदर्भ चाहे ज्ञान का हो, भौतिक सुख-सुविधा या सामाजिक स्पर्धा का हो या फिर प्रेम का ही क्यों न हो! जैसे आधी धरती ढूंढती रह जाती है अपने ही अंधेरों में कैद अपने हिस्से के आधे उस सूरज को,जो छुप गया है। यह भटकन भी तो प्रेम का ही एक और रूप हैं। प्रेम एक छल या मृगतृष्णा भी तो है जब हम यादों को, चीजों तक को इतना प्यार करने लग जाते हैं कि उनके बिना चैन ही न पड़े और वह सुख के बजाय दुःख का कारण बन जाएँ ! हमारे शास्त्रों में इसे मोह कहा गया है, जो प्रेम का ही विकृत रूप है। नारद ऋषि की मोह-कथा याद आ रही है, जिसमें रूप की जगह उन्हें बन्दर का मुंह मिला मोह भंग करने को। प्रेम तो देता है-देकर ही खुश होता है।
अति सर्वत्र वर्जयते, न जीवन से इतना चिपकें न चीजो से – परिग्रह और संथारा जैसे संकल्प इन्ही सिद्धान्तों पर ही तो अपनाए गए। पर खुद को समझ और पहचान पाना इतना आसान भी तो नही! हर व्यक्ति तो महाबीर या बुद्ध नहीं। कब प्रेम में त्याग चाहिए कब जुड़ाव , यदि सचमें प्रेम है तो समझ में आ ही जाना चाहिए और आ भी जाता है। प्रकृति में मातृ-प्रेम इसका सर्वोच्च उदाहरण है। कोई नहीं सिखलाता पर छोटा-बड़ा हर प्राणी समर्थ होने तक अपने शिशु का पूरा ध्यान रख लेता है। एक रहस्य एक अनबूझ गुत्थी है प्रेम-अपनी ही एक कविता की दो पंक्तियां याद आ रही है,
लहरें उठती हैं मुझमें और मुझ को ही डूबो जाती हैं
पता नहीं कि लहर हूं मैं या फिर ठहरा शांत समंदर!
यह अहसास-कुछ खो जाने का, छूट जाने का, न समझ में आने का हर लौटने वाले को होता ही है, और रहेगा भी। क्पोंकि पलपल बदलती इस दुनिया में जैसा छोड़ा था वैसे में ही लौटना संभव ही नहीं…प्रेम में भी नहीं।
फिर जंगल सी भटकाती, नदिया -सी डुबकियाँ लगवाती, जिन्दगी वक्त के साथ मन को थोड़ा असहज और कठोर भी तो कर देती है और हम चाहते हैं सब कुछ सदा मनमाफिक ही रहे, जैसे छुआरे को पानी में भिगोकर फिरसे ताजा करने की कोशिश। ईमानदारी से देखा जाए तो हमारी नहीं, जस की तस रख दीनी चुनरिया है यह जीवन और इसमें व्याप्त प्रेम भी। डूबो, पर कमल की तरह, जल में रहकर भी जल से बाहर। इन्सान को तो जीना है जब तक कि जिन्दगी। और अक्सर वह जीता भी है हर हाल में। कभी-कभी तो बिना किसी उद्देश्य, किसी जरूरत के भी और प्रेम का भी यही स्वभाव है, सहज और सर्वव्यापी। नदी हवा पानी की तरह जैसे आती-जाती सांस। भूख और प्यास सी मानव मन की मूल जरूरत है प्रेम, वरना ममता, करुणा, रूप और सृजन सब कुछ दुनिया से गायब न हो जाता । प्रेम शाश्वत भी है और पोषक भी। इसमें तो विष भी अमृत है और साधारण मनुष्य भी शिव। प्रेम ही तो सिखलाता है हमें कि विष को कैसे अमृत में पलटा जाता है!
पर हर कोई तो इतना निस्वार्थ और उद्दात्त नहीं कि नीलकंठी हो पाए… आम आदमी के पास कोई बलिदान का लक्ष नहीं, आदर्शवाद या प्रेरणा नहीं। सब कुछ सहज और पानी की तरह बहता और अपने मोड़ खुद ही लेता रहता है उसके जीवन में। फिर अलग-अलग इन्सान का स्वभाव भी तो अलग-अलग। किसी को तैरना सहज है तो किसी को डूबना। कई किनारे के छिछले पानी में डुबकी लगाते हैं, हमेशा जल्दी में रहते हैं, तो कई के पास वक्त ही वक्त रहता है- ढूंढने को सहेजने को, जुड़े रहने को। पर दोनों ही जीवन में पूर्णत रचे-रमे, जीवन को समझते, उस पर विश्वास करने वाले व्यक्ति हैं। दोनों की ही जीवन के प्रति आस्था और विश्वास में कमी नहीं। दोनों ने ही अपनी-अपनी तरह से जीवन जिया है, मानो एक ही डाली के फूल और पत्ती , अलग-अलग रूप और रंग तो, पर अंदरूनी महक एक ही। प्रेम हो या जीवन, धैर्य ठहराव नहीं, संयम है साहस से भरा हुआ इसमें। प्रेम में प्रतीक्षा वही कर सकता है जिसे अपने प्रिय पर विश्वास हो, जिसकी आंख में प्रिय जैसा दूसरा कोई और न हो।
माना जीवन की दौड़ सब कुछ पीछे छोड़ती, दूर ले जाती है, मानो एक कभी न खतम होने वाली बेरहम उलझन या अंधी सुरंग में हों हम-एक रौशनी की लकीर की तलाश के सहारे दौड़ते। परन्तु भागना नहीं, तैरना और डूबना बेरहम लहरों में- प्रेम है। अतल गहराइयों से कभी पत्थर, तो कभी रेत तो कभी शायद कुछ ऐसा जिसे हम अनमोल मानते हैं, ले कर आना- प्रेम है। माना छिछले पानी में छपछप करने का भी एक आनंद, एक अनुभव है, जो अधिक अभ्यास और समर्पण नहीं मांगता शायद इसीलिए आधुनिक व्यस्त दौड़ते भागते जीवन में यही अधिक आकर्षक और सहज लगता है। यही विकास है, फास्ट फूड पर जीने वाली फास्ट लाइफ में यही तो हमारी आज की तटवर्ती या बीच सभ्यता है। किसी भी चीज को गहराई से जानने व समझने का वक्त ही नहीं, चाहे बात हम रिश्तों की बात करें या जीवन की। आज प्रेम एक च्विंगम भी है, जिसे चूसा और तुरंत थूका जा सकता है। यह अतिशय विलासिता और सुविधा क्षणिक आनंद भले ही दे दे, भूख जिह्वा जिसकी बचपन से आदी हो और जिसे मां ने प्यार से खिलाया हो, प्रेमिका ने प्यार से पकाया हो उसी भोजन से मिट पाती है। जैसे आँख और जिह्वा दोनों का ही संबंध पेट से है, प्रेम का संबंध भी जीवन के जीवित रह पाने से है।
प्रेम गिराता नहीं, उठाता है। और सुख की तलाश कभी पूरी नहीं होती। इसीलिए शायद सफल-असफल हर प्रेम को अधूरा ही कहा जाता है- क्योंकि न तो ख्वाइशों की कोई हद है और ना ही प्रेम की ही। और शायद यही प्रेम व जिन्दगी का आकर्षण भी है- उस आधे-अधूरे की अथक तलाश- घटते-बढ़ते चंद्रमा की तरह। सदा ही इंतजार रहता है नीम की पत्तियों से कड़ुवे और जीवन से खोए प्रेम का हमें, उन यादों का, जिन्होंने हमें पाला-पोसा और सींचा संवारा था।
कुछ कड़ुवा भले ही रहा हो, पर गुणकारी था सब-यह भी याद रहता है हमें। क्योंकि प्रेम में तो कड़वा भी मीठा हो जाता है। इसीलिए इस जादू के न टूटने का सदा इंतजार रहता है हमें।
परन्तु कुछ के ही नसीब में आ पाता है प्रेम। अधिकांश चुपचाप ही आगे बढ़ जाते हैं, कोई पूछता तक नहीं खुदसे कि क्या वे भी कभी प्रेम में थे और अगर थे तो अब क्यों नहीं हैं? कोई संकेत, सांत्वना या सहारा नहीं उनके पास, मरु पर रिमझिम बरसती उन बरखा की बूंदों का जिसे हम प्रेम कहते हैं। यही अनकही फिर भी अति मुखर टीस, इसका अहसास ही तो प्राण वायु या सहारा है जीवन का…एक ठूँठ को भी लहलहा दे वह हरियाला बसंत है यह प्रेम।
…जिस भगवान के लिए हम भटकते हैं खुद वह भगवान है प्रेम। कृष्ण ने इसे जाना , राम ने इसे कर्तव्य की तरह निभाया। बुढ्ध और ईसा मसीह ने इसे समझा और खुद को समर्पित कर दिया इसकी राह में। माना दौड़ में रहने वालों के पास थमने का वक्त नहीं होता, सपनों की परछांइयों के पीछे भटकते बहुत दूर निकल जाते है वे। परन्तु कई अपनी ही ड्योढ़ी पर बैठे इन्तजार करते हैं और उनका मनमीत लौट भी आता है-नेह के कच्चे धागों से बंधा। कहीं जीत तो कहीं हार, घ़ड़े में जल या जल में घड़े की तरह प्रेम का सागर अथाह लहलहा रहा है। प्रेम सर्वत्र है, हम देखें या न देखें। जिन्दगी के अजब-गजब फ्रेम में मढ़ी यह मनोहारी तस्बीर, जिसकी तरफ हजार पेंच, हजार गणित के बाद भी हम बारबार पलटते हैं, छाड़ते पोंछते हैं, सजाते-संवारते हैं। सदा साथ ही तो हमारे…जैसे आँखों के आगे खुलती एक नाजुक सी कली या फिर माँ के आंचल में लिपटी बचपन की वह तृप्त मुस्कान या फिर बरसों बाद लौटे प्रिय का स्वागत करती आंखों में आई हीरे-सी वह चमक, या फिर भूखे के हाथ में आई एक रोटी-अकथ और अथक कहानी है इस प्रेम की।
सिर्फ आँख और मन का ही नहीं, आत्मा तक का श्रंगार है प्रेम।…

शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com

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