जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोइ कछु गावै।।
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोको कान्ह बुलावै।।
कबहुं पलक हरि मूंद लेत हैं कबहुँ अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि सैन बतावै।।
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरै गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनी पावै।।
काहू जोगी की नजर लागी है मेरो कुंवर, कन्हैया रोवै।।
घर घर हात दिखावे जसोदा, दूध पीवे नहीं सोवै।।
चारो डंडी सरल सुन्दर, पालने भेजु झुलावै।।
मेरी गली तुम छिन मति आवो, अलख अलख मुख बोलै।।
राई लवण उतारै यसोदा सुरप्रभु को सुलावै।
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो।
भोर भई गइयन के पाछै, मधुवन मोहि पठायो।
चार पहर बंसीबट भटक्यो, सांझ परे घर आयो।।
मैं बालक बहिंयन को छोटो,छींको केहि विधि पायो।
ग्वाल बाल सब बैरि पड़े हैं, बरबस मुंह लपिटायो।।
यहि लै अपनी लकुटि कंमरिया, बहुतहि नाच नचायो।
सूरदास तब बिंहसि जसोदा,लै उर कंठ लगायो।।
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?
कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात?
गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात ?
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हँसत-सबै मुसकात।
तू मोहीं को मारन सीखी, दाउहिं कबहुँ न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत॥
मैया मोरी कबहुं बढ़ैगी चोटी।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों, ह्वै है लांबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥
ग्वाली तैं मेरी गेंद चुराई, ग्वाली तैं मेरी गेंद चुराई।
खेलत गेंद परी तेरे अंगना, अंगिया बीच छिपाई।।
काहे की गेंद काहे का धागा कौन हाथ बनाई।
फूलन की गेंद रेशम का धागा जसुमति हाथ बनाई।।
झूटे लाल झूट मति बोलो अंगिया तकत पराई।
जो मेरी अंगिया में गेंद जो निकसे भूल जावो ठकुराई।।
हंस हंस बात करत ग्वालिन सों उतते जसोदा आई।
सूरदास प्रभु चतुर कन्हैया एक गये दो पाई।।
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति, काकी है बेटी, देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं, खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा, करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
-सूरदास
(1478-1579 )
जन्मः फरीदाबाद, म़त्युः ब्रज क्षेत्र में
भक्ति काल के तीन प्रमुख कवियों में तुलसी और मीरा के साथ सूरदास का नाम बहुत ही आदर से लिया जाता है। वात्सल्य और श्रंगार रस के सम्राट सूरदास को भारतीय काव्याकाश का सूरज कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है । ‘सूर सूर तुलसी शशी, उद्गन् केशवदास, अन्य कवि खद्गोत सम जंह तंह करत प्रकास ‘। उनका प्रमुख ग्रन्थ सूरसागर हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। सूरदास की आयु “सूरसारावली’ के अनुसार उस समय ६७ वर्ष थी। ‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। गुरु बल्लभाचार्य से भी इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। “भावप्रकाश’ में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। मदन मोहन, और सूरज दास आदि कई इनके नाम बताए गए हैं और कहा जाता है कि इनकी आयु 105 वर्ष थी।
“आइने अकबरी’ में (संवत् १६५३ वि०) तथा “मुतखबुत-तवारीख’ के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।
सूरदास श्रीनाथ की “संस्कृतवार्ता मणिपाला’, श्री हरिराय कृत “भाव-प्रकाश”, श्री गोकुलनाथ की “निजवार्ता’ आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।
श्यामसुन्दरदास ने इस सम्बन्ध में लिखा है – “”सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।” डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है – “”सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।
प्रमुख कृतियाँः सुरसागर, सुर सारावली, साहित्य-लहरी, ब्याहलो, सुर पचीसी, गोवर्धन-लीला, सुरसागर-सार, नल दमयंती
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