मुद्दाः बेशक़ीमती बनारसी साड़ी और बेचारे बुनकर- डॉ दीप्ति अग्रवाल

विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक काशी शिव की नगरी है। वैभव की नगरी है। मोक्ष, आनंद की नगरी है। काशी शब्द ‘काश’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है चमकना :
‘काशयां हि काश्यते काशी काशी सर्वप्रकाशिका’
अर्थात काश चमकने से बना है, जो ज्ञान की आभा से चमकती है वह है काशी। काशी ज्ञान का प्रकाश प्रदान करती है और सब कुछ आलोकित कर देती है। काशी को संत तुलसीदास कबीर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र शुक्ल प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि साहित्यकारों ने अपने ज्ञान की चमक से आलोकित किया है। इसके अलावा बनारस एक और नायाब वस्तु से आलोकित है वह है बेशकीमती बनारसी साड़ी की चमक दमक। उत्तर भारत के विवाह में बनारसी साड़ी बनवाने का सपना हर नवविवाहिता देखती है और बनारसी साड़ी एक परंपरा की तरह बहु के लिए खरीदी जाती है। मेरी शादी में मुझे उपहार में मिली बनारसी साड़ी आज 34 वर्ष बाद भी बहुत ही शौक से पहनती हूँ। ये एक बेशकीमती नगीना है।
इतिहास
अगर हम बनारस की साड़ी के इतिहास की बात करें तो इस साड़ी का इतिहास 2000 वर्ष पुराना है । कहने को कहते हैं कि रेशम सबसे पहले चीन में ईजाद हुआ और लंबे समय तक इसे चीन ने गुप्त रखा लेकिन भगवान श्रीराम के जन्म और विवाह में, 300 ईसा पूर्व जातक कथाओं में बुद्ध के जन्म और मृत्यु काल में गंगा किनारे काशी के बने वस्त्रों की खरीद फरोख्त का जिक्र है और रेशम और जरी की साड़ियों का वर्णन है जिसे बनारसी साड़ी से जोड़ा जाता है।
ऋग्वेद में हिरण्य का जिक्र है जिसका अर्थ है रेशम पर हुए जरी का काम। इतिहासकार देवताओं के इस कपड़े को बनारसी साड़ी से जोड़ते हैं क्योंकि भारी जरी के काम के लिए रेशम सबसे उचित होता है। रालफ पिच ने भी बनारस को सम्पन्न सूती वस्त्र उद्योग केंद्र के रूप में वर्णित किया है ।
लेकिन बनारसी वस्त्रों का प्रचुर मात्रा में उल्लेख 14 वीं सदी में मुगल काल में मिलता है जिसमें रेशम के कपड़े पर सोने चांदी का काम होता था। अकबर के शासन काल में इस वस्त्रकला को खूब तरक्की मिली। प्रमुख रूप से इस वस्त्रकला का विकास मुगल बादशाहों के समय में हुआ। ईरान, इराक, बुखारा शरीफ से आए हथकरघा के कारीगरों ने इस कला में विभिन्न डिजाइन बनाए। काशी के पुराने मंदिरों की दीवारों एवं खंबों पर बने मोटीफ और पैटर्न भी इन साड़ियों पर बिने जाते हैं। आजकल हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें भी इन साड़ियों में देखने को मिलती है।
क्षेत्र
ज्यादातर बनारसी साड़ी उत्तर प्रदेश के बनारस, चंदौली, आजमगढ़, मिर्जापुर, संत रविदास नगर में बनती है। कुछ मात्रा में मुबारकपुर मऊ, खैराबाद में भी काम होता है। कच्चा माल बनारस से आता है।
प्रक्रिया
इस साड़ी के निर्माण की प्रक्रिया सरल नहीं है। मुख्यत: बनारसी साड़ी दो तरह की होती है कढुआ और फेकुआ। इसके ताने में कतान और बाने में पात बाना प्रयोग किया जाता है जिससे वस्त्र मुलायम और गफदार बनता है। बजरडीहा में कढुआ बनारसी साड़ी बडे पैमाने पर बनती है। ये सिल्क, कोराऔर जार्जेट पर बनती है।
इसका डिजाइन बनाना आसान नहीं है । इसको बनाना एक सधा हुआ ज्ञान है और इसके लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है। पहले डिजाइन को ग्राफ पेपर पर बनाया जाता है फिर नक्शा पत्रा पर इसे उभारा जाता है और इसे ब्रेल लिपि में लिखा जाता है। एक बनारसी साड़ी को बनाने में काम से काम 1000 पत्रों का प्रयोग होता है और कम से कम 2 महीने का समय लगता है। हाथ की बनी साड़ी में मेहनत और खर्च ज्यादा होता है अत: इनकी कीमत ज्यादा होती है। पहले नक्शा जाल से साड़ी बनती थी अब परंपरा से हटकर डाबी और जेकार्ड का प्रयोग होता है और यह कला अब पावरलूम में विकसित हो गई है।
पहले इसको बनाने में शुद्ध सोने चांदी की जरी का उपयोग होता था। आजकल शुद्ध जरी के स्थान पर टेस्टिड जरी, पाउडर जरी, प्लास्टिक जरी उपयोग में लाई जा रही हैं। सच्ची सिल्वर जरी को जलाए तो यह पूर्णतया पिघल कर चांदी बन जाएगा और टेस्टिड जरी जलाने पर chewing gum जैसा हो जाएगा। मैंने बचपन में दादी को पुराने लहंगों को जलाकर चांदी बनाने की प्रक्रिया को खूब देखा है। इसमें अनेक प्रकार के नमूने जैसे बूटा, बूटी, कोणीय, बेल, जाल, जांगला झालर आदि डाले जाते हैं। बूटी अलग अलग छोटे पैटर्न को कहते हैं। बड़ी बूटी को बूटा कहते हैं। बूटी दो या तीन रंगों से बनी होती हैं। पाँच रंगों से बनी को पंचरंगा कहते हैं। पहला रंग हुनर का रंग कहलाता है जो ज्यादातर गोल्ड या सिल्वर धागे की एक्स्ट्रा भरणी से बना होता है। रेशमी धागे से हुए काम को मीनाकारी कहा जाता है।
कोने में बने को कोनीय प्राय आम के आकार का होता है। साड़ी की बेल एक ज्यामितीय, क्षितिज, आड़े टेढ़े पट्टी के रूप में साड़ी के किनारे पर लगती है। बेल चार अंगुल में मापी जाती है जिससे घूँघट का नाप तय होता है। जाल में भीतर बूटी, शिकारगाह बने होते हैं। झालर की शुरुआत बॉर्डर के बाद होती है जिसमें तोता, मोर, पान, कैरी, तीन पत्ती, पाँच पत्ती आदि बने होते हैं।
आइए अब बात करें इस वैभवशाली साड़ी को बनाने वाले बुनकरों की। ज्यादातर बनारसी साड़ी के बुनकर अंसारी घराने के होते हैं और खरीदार मारवाड़ी, गुजराती और अमीर घरानों के लोग होते हैं।
बुनकर
बुनकरों के हुनर को दर्शाता भारतीय हथकरघा प्रोद्योगिकी संस्थान, चौका घाट का एक विज्ञापन देखें :
एक कुशल कारीगर पच्चीस विभिन्न प्रकार की उभारदार डिजाइनों को रेशम के एक ही धागे से पैदा कर सकता है।
एक कुशल बुनकर करघे पर अपनी कारीगरी से बालूचर को पंखड़ी जैसी कोमलता, तन्तु को लावन्यता, किनख्वाब की भव्यता, तंचोई की ऐंद्रिक अनुभूति , कांचीपुरम की आकर्षक सज्जा, पटोला की गहन नक्काशी और जरी को सुन्दर स्वरूप प्रदान कर सकता है ।
हथकरघा वस्त्रों की बुनाई ने सूती, रेशमी और ऊनी कपड़ों को उन्नति प्रदान की है तथा इसके धागों की मुलायमियत ने शरीर पर सुनहरे मौसम की अनुभूति दी है। कपड़ों की कलात्मकता में हथकरघे की धुरी की कुशलता भी झलकती है। लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व से ही हथकरघा के बुनकरों की कुशलता, रंगों के गहन अध्ययन, खूबसूरत डिजाइनों तथा तकनीकी दक्षता के चलते भारत ने समूची दुनिया को प्रभावित किया है।
अब सवाल यह है कि बुनकरों ने अपने हुनर से देश का नाम विश्व में रोशन किया लेकिन भारत ने एक मामूली बुनकर को क्या दिया? बनारसी कपड़े में एक कीमती कपड़ा बिना जाता है जिसका नाम है किनखाब ‘किन’ का अर्थ है सुनहरा और ‘ख्वाब’ का अर्थ है सपना अर्थात बहुत मुश्किल से दिखने वाला सपना । आज बनारसी साड़ी के बुनकर के लिए एक अच्छी जिंदगी जीना ‘किनख्वाब’ ही बन गया है।
हुनरमंद हाथों में अब हथकरघे का हत्था नहीं भीख का कटोरा है। इस बेशकीमती साड़ी को बनाने वाले बुनकर गिरस्ता, कोठीवाल, भृष्ट राजनीतिक हथकंडों, सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाओं, अपने समाज की अस्वस्थ परंपराओं, जड़वाद, समय के साथ ना बदल पाने की जिद के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं और आर्थिक बदहाली झेल रहे हैं। बुनकर शाहिद अंसारी से बातचीत करने पर उन्होंने बताया कि बुनकरों की हालत बहुत खराब है । काम नहीं है। बाजार में पड़ा माल वापस आ रहा है। छोटे व्यापारी और कारीगरों को बहुत घाटा हो रहा है और गरीबी के चलते कारीगर आत्महत्या और पलायन को मजबूर हो रहे है।
कारण
आइए जाने बुनकरों की हालत खराब होने के क्या कारण है ?
बुनकरों का मानना है कि उनकी बदहाली का मुख्य कारण सरकार की निर्यात नीतियाँ और पावरलूम हैं। पावरलूम के आने से बुनकरों की मांग कम हो गई है । लघु उद्योग भारती संघटन काशी के अध्यक्ष राजेश कुमार सिंह का कहना है कि हमारे पूर्वजों की विरासत इस हथकरघा उद्योग को पावरलूम ने नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सरकार की योजना का लाभ भी पावर लूम को ही मिलता है क्योंकि पावरलूम खरीदने के लिए सरकार अनुदान देती है और सरकारी बिजली में भी इनको छूट मिलती है। पावरलूम के नाम पर बिजली के दूसरे यंत्र चलाने जैसी धोखाधड़ी भी लोग करते हैं ।
हथकरघा चलाने वाले अधिकतर बुनकर गरीब हैं और साड़ी बनाने का सामान बहुत बार उधार पर उठाते है। अपना खुद का हथकरघा होना भी एक बड़ी बात है। बिना हथकरघे के वह दिहाड़ी पर मजदूरी करता है। अगर उसकी साड़ी नहीं बिकी तो उसका कर्जा चुकाना मुश्किल है। बुनकर साड़ी बनाने के बाद बाजार और ग्राहक तक पहुँचने से पहले गद्दीदार के पास जाता है। बनारस की गद्दी कोई ‘शाही गद्दी’ नहीं है। गद्दी का मालिक कमीशन पर मोल-तौल कर माल की कीमत तय करते हैं और कम दामों पर साड़ी खरीद लेते हैं। बुनकरों को गाड़ी के मालिक को काम दाम पर सदी बेचना मजबूरी है। बुनकर का इनके बिना गुजारा नहीं है क्योंकि अगर ये बीच से हट जाएं तो कारीगर अपना माल कहाँ बेचेगा?
बुनकर सर्वेश श्रीवास्तव और गोपाल पटेल ने बताया कि असली बनारसी साड़ी हथकरघा की बनी होती है जिस पर जीआई मार्क भी लगा होता है। लेकिन उन साड़ियों की कीमत अधिक होने के कारण उनकी मांग काम होती जा रही है। बुनकर असंगठित और अशिक्षित हैं उन्हें जीएसटी के जंजाल में फंसा दिया गया और कलाकार बुनकर आज दूसरों के पावरलूम पर काम करने के लिए मजबूर हैं। फर्जी बुनकर कार्ड बनवाकर भी ईमानदार बुनकरों का हक लूटा जा रहा हैं।
बुनकरों के लिए अगर सरकारी नीतियों की बात करें तो पूर्वाञ्चल पावरलूम एसोसियशन के सचिव अनवारुल हक अंसारी का कहना है कि बदहाली की वजह पिछली सरकारों की आर्थिक नीतियाँ हैं। उन्होंने दक्षिण से आने वाले रेशम को बढ़ावा देने के लिए चीन से आने वाले रेशम की आमद में अड़चनें पैदा क । बनारसी साड़ी के निर्यात में भी सरकार ने बहुत अड़चने डाली।
कुछ और भी कारण है जिससे बुनकर इस व्यवसाय से विमुख हो रहे हैं। तीन साल कोरोना ने भी इस व्यापार को बहुत हानि पहुंचाई है। वैश्विक आर्थिक मंदी भी इसके हास के लिए जिम्मेदार है। बनारस पावरलूम वीवर्स एसोशिएशन के अतीक अंसारी का कहना है कि पूरे विश्व में मंदी का दौर है ऐसे में अगर बनारसी साड़ी का कारोबार भी मंदी की चपेट में है तो कोई आश्चर्य नहीं। बाढ़, सूखे के चलते ठंडे पड़े बाजार भी इसका कारण है। युवा पीढ़ी साड़ी के स्थान पर सुविधाजनक परिधान पहनना चाहती है इस कारण से भी बनारसी साड़ी की मांग कम होती जा रही हैं। इन्हीं कारणों से बदहाली की स्थिति में बुनकर पलायन कर रहे हैं। युवा पीढ़ी इस ओर आना नहीं चाह रही है। हथकरघे बंद हो रहे हैं पावरलूम बढ़ते जा रहे हैं और बुनकरों को सूरत जाना बेहतर लग रहा है।
वर्तमान सरकार के आने से काशी के पर्यटन कारोबार में बूम आने से 34 फीसदी रोजगार बढ़ा है और रेवेन्यू में भी 65%बढ़ोतरी हुई है। टेकनोपार्क की एक रिपोर्ट के अनुसार बनारसी साड़ी का कारोबार 3 से 5 हजार करोड़ के बीच का है। 10 लाख लोग इस रोजगार में लगे हुए हैं जिनमें 2.5 बुनकर शामिल है । अनुमान है कि 2025 तक उत्तर भारत की साड़ी कारोबार में 6 फीसदी तक बढ़ सकता है। बनारसी साड़ी के बारे में अशोक धवन बीजेपी के एम एल सी हैं बनारसी साड़ी वस्त्र उद्योग के संरक्षक भी हैं उनके अनुसार 2013 के बाद बनारसी साड़ी की मांग में बूम फिल्मों, टीवी सीरियल, बडे बडे उद्योग घरानों में इनकी माँग का बढ़ने के कारण आया। बुनकरों के कल्याण के लिए 2017 में बड़ा लालपुर स्थित दीनदयाल उपाध्याय हस्तकला संकुल जब आम लोगों को हैंडओवर किया तो लगा था कि इससे बुनकरों की तकदीर बदल जाएगी और वैश्विक बाजार के रास्ते खुल जाएंगे। 82 दुकानों के साथ 36 अस्थाई दुकानों की व्यवस्था के बीच सरकारी विभाग जिसमें गुजरात हैंडीक्राफ्ट, हैंडलूम विभाग, खाड़ी ग्रामोद्योग खोला गया। 11 दुकानें स्थाई तौर पर लीज पर दी गई, 17 दुकानें आवंटित की गई। इस केंद्र को खोलने का मकसद था कि हैंडलूम से जुड़े तमाम कारोबार को एक ही स्थान पर प्रमोट करना, कारीगरों और बुनकरों को उत्पादन के लिए कच्चा माल उपलब्ध करवाना तकनीकी प्रबंधन सुविधा सब एक ही छत के नीचे उपलब्ध करवाना था। लेकिन आम बुनकर को इसका फायदा कैसे मिले यह किसी को नहीं पता था जिसकी वजह से बुनकर यहाँ तक पहुँच नहीं पाए और इस योजना का समुचित लाभ उन्हें नहीं मिल पाया। भले ही बनारस के साड़ी कारोबार को साउन्ड्लैस करने के लिए हथकरघों की जगह लूम को हाइटेक करने का काम किया गया लेकिन इससे बुनकरों की जिंदगी में बहुत फरक नहीं आ पाया।

अगर आप बनारसी साड़ी के बुनकरों की दुर्दशा, शोषण अभावग्रस्त रोग-जर्जर दुनिया को जानना चाहते हैं तो हिंदी जगत के जाने-माने साहित्यकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बनारस के बुनकरों पर आधारित ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास अवश्य पढ़ें । इसको पढ़कर शोषण का पूरा तंत्र बेनकाब हो जाता है जिसमें एक छोर पर है गिरस्ता और कोठीवाल तो दूसरे छोर पर बरिष्ट राजनीतिक हथकंडे और सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाएँ । उपन्यासकार ने बुनकर बिरादरी में व्याप्त सामाजिक कुरीतियाँ, मजहबी जड़वाद, सांप्रदायिक नजरिया भी उनके हालात के लिए जिम्मेदार है, इस ओर भी इशारा किया गया है।
समाधान
इन बुनकरों की स्थिति में सुधार कैसे लाया जाए ? इसके लिए, बनारसी साड़ियों के कुशल कारीगरों के उत्थान के लिए जमीनी स्तर पर काम करना होगा ना कि लाल फ़ीताशाही की रिपोर्ट और चोंचलों से कुछ होगा। यथार्थ को समझते हुए सरकार बुनकरों के लिए कल्याणकारी नीतियाँ बनाएं और उन नीतियों का लाभ बुनकरों को मिले, इसके लिए बुनकरों को उनकी भाषा में इन योजनाओं के लाभों की पूरी जानकारी देनी होगी तभी वे इसका फायदा उठा पाएंगे ।
बुनकरों को भी समय के साथ अपने में बदलाव लाना होगा। शिक्षा, तकनीक, बाजारवाद की समझ लानी होगी। सरकारी नीतियों का लाभ कैसे उठाया जाए यह बुनकरों को समझाना होगा।
युवा पीढ़ी साड़ी के स्थान पर सुविधा जनक परिधान पहनना चाहती है। उन्हें भारतीय संस्कृति का परिचय देकर साड़ी पहनने के लिए प्रोत्साहित किया जाए साथ ही उनके लिए बनारसी कपड़ी के स्कार्फ और अन्य सुविधाजयनक परिधान उपलब्ध कराए जाएं।

ऐसा ना हो कि बनारसी साड़ी, संग्राहलयों और दादी-नानी के बक्से में बंद होकर रह जाए और ये हुनरमंद बुनकर अपनी विरासत का संरक्षण ना कर पाए और आने वाली पीढ़ी उनके हुनर को सीखने से वंचित रह जाए। हम और सरकार मिल कर प्रयत्न करें कि बुनकरों के घर आबाद हों और वे एक इज्जतदार जिंदगी जी सकें। बनारस आने वाले सभी यात्री प्रयास करें कि इन बुनकरों का उत्पाद अवश्य खरीद कर ले जाएं और इस कला को प्रोत्साहित करें। कबीर जी भी काशी के जुलाहे थे और जुलाहों, बुनकरों की यह अद्भुत कला दिन-दूनी रात तरक्की करें इसके लिए हम सब इस अद्भुत बनारसी रेशम, जरी को किसी भी रूप में धारण करने का प्रयास करें।

डॉ दीप्ति अग्रवाल
जन्मः नारनौल (हरियाणा) ।
शिक्षा-दीक्षा हरियाणा और दिल्ली में।
इंग्लिश, हिंदी, अनुवाद और समाज कार्य में स्नातकोत्तर की उपाधियां । दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्पन्न शोध प्रबंध का विषय ‘भारतीय डायस्पोरा:विभिन्न अनुबंधित श्रमिक देश भारतीय संस्कृति और हिंदी साहित्य लेखन ( मारीशस, गयाना, त्रिनिदाद-टोबेगो, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम, और फीजी, के सन्दर्भ में’)। गिरमिट साहित्य पर यूजीसी के शोध जर्नल में तीस से भी अधिक शोध पत्र प्रकाशित। गिरमिटियों और रामचरितमानस पर लिखी कविताओं और उन पर बनी पेंटिंग की IIC और ICCR, आगरा, लखनऊ, बनारस विश्वविद्यालय आदि की कला दीर्घा में प्रदर्शनी । संप्रति देहली विश्वविद्यालय में अथिति अध्यापक के तौर पर हिन्दी विषय का अध्यापन।
संपर्क सूत्र – ई -127, फेज-1,अशोक विहार, दिल्ली
दूरभाष; 9818521188, ई मेल deeptiaggarwalmail@gmail.com

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