फूल फूल पर तितलीः कहानी-कैसे, कविता-क्यों-शैल अग्रवाल

कैसे
किताब से कीड़ा निकल आया था, पर यह कैसे संभव है, यह किताब में क्या कर रहा था, इसे तो निश्चय ही पढ़ना भी नहीं आता होगा? चुनमुन वाक़ई में परेशान थी। तभी उसने देखा कि कीड़े ने पन्ने का एक कोना भी कुतरने की कोशिश की थी और कहानी में खिला सुन्दर फूल अब उतना सुंदर नहीं दिख रहा था। एक दो नहीं, चुनमुन कई-कई पन्ने पलटती गई और सभी पन्ने कुतरे हुए थे, तस्बीरें तो कहीं अक्षर टूटे-फूटे थे। नन्हा वह कीड़ा अभी भी चुनमुन की हथेली पर ही था। पर यह कैसे एक नन्हा-सा कीड़ा और इसकी भूख ही न मिटे, इतने सारे पन्ने खाकर भी , चुनमुन अभ वाक़ई में परेशान थी और क्या सज़ा दे , कैसे रोके इसे, समझाए इसे कि किताबें बस पढ़ने के लिए ही होती हैं, पेट भरने के लिए नहीं, तभी उसका भाई वीरू आ गया,
‘ तुम अभी तक यहीं बैठी हो बस्ता भी नहीं लगाया, स्कूल बस आती ही होगी? दीनू काका कबसे खड़े इंतज़ार कर रहे हैं हमारा , बस स्टौप पर ले जाने को?’
चुनमुन रुँआसी थी । उसने भाई के आगे मुठ्ठी खोलकर अपनी हथेली फैला दी, जहाँ नन्हा कीड़ा कैसे मुक्ति पाए की उधेड़-बुन में अभी भी अधमरा-सा कुलबुला रहा था। पर यह क्या देखती ही भाई डरकर चार कदम पीछे खिसका और ज़ोर से चिल्लाया-

‘मम्मी, देखो चुनमुन ने मुझे डराने को हाथ में जाने क्या पकड़ रखा है, कितनी गन्दी बच्ची हो गई है यह। और मुझे डराने के लिए जाने क्या-क्या पकड़ लाती है बगीचे से ।’

सुबह-सुबह शोर सुनकर मम्मी तो नहीं, दीनू काका दौड़कर पहुँच गए तुरंत उनके पास और ‘क्या हुआ, क्या हुआ’ पूछते, दोनों बच्चों का बस्ता हाथ से लेकर अपने कन्धे पर लटका लिया। पर जैसे ही चुनमुन ने हाथ में पकड़ी किताब बस्ते में रखनी चाही और सारी बात उन्हें बताई, रोक दिया उन्होंने तुरंत ही चुनमुन को ऐसा करने से।

‘ ना, बिटिया ना। अब तो यह किताब नहीं रखनी चाहिए बस्ते में। दीमक लग चुकी है । नई दिला देंगे शाम को, वरना सारी किताबें ख़राब हो जाएँगी। बरसात का मौसम है। सीलन से लग जाती हैं दीमक काग़ज़-किताब में। इसीलिए कपड़ों की अलमारी की तरह ही किताब की अलमारी की भी साफ़-सफ़ाई उतनी ही जरूरी। स्कूल से लौटकर पूरी अल्मारी ठीक से साफ़ करनी होगी। देखना होगा कहीं और किताबों में भी तो नहीं। धूल झाड़कर महसूस करते रहना चाहिए गीली ठंडी तो नहीं अलमारी। फिर एक गंदी महक भी तो होती है सीलन की। किताबों की कौन कहे , दीवार तक खा सकती हैं ये तो, लकड़ी, काग़ज़ सभी कुछ।’

इतना ख़तरनाक कीड़ा! पर शायद इसका यही खाना हो? जीने का अधिकार तो सभी को है!

चुनमुन समझकर भी नहीं समझ पा रही थी।

‘रद्दी काग़ज़ कूड़े के ठेर पर खाता तो भी ठीक था, अपनी किताबें तो वह हरगिज़ ही नहीं खाने देगी। कितनी कहानियाँ, कितनी बातें सुनाती -समझाती हैं ये उसे, बिल्कुल टीचर की तरह ही।’

गुमसुम-सी भाई और दीनू काका के पीछे चलती चुनमुन मन-ही-मन दृढ़ निश्चय ले चुकी थी- अपनी चीजों की रखवाली ख़ुद ही तो करनी पड़ती है, वह भी करेगी।…

क्यों

अधिकार और हक़ यूँ ही तो नहीं
अधिकार सभी का जीने का
पर हक़ नही अत्याचार का
लूटने का, गलत व्यवहार का
इन्सान हो या चाहे कीड़ा
हिलमिल जिएँ तभी चलेगी दुनिया
आओ बच्चों उठाएँ यह बीड़ा
हम जो सोच-समझ सकते हैं
महसूस कर सकते हैं
श्रेष्ठ कहलाते, मानते ख़ुद को
दें ना दूसरों को पीड़ा।

शैल अग्रवाल

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