फिरदौस से गुमशुदा-डॉ. नगमा जावेद अख्तर

पता नहीं कब और कैसे बहुत बचपन में ही कुदरती मनाज़िर में मेरी दिलचस्पी पैदा हो गई थी. रेल में सफर करती तो अम्मी से कहकर सोती कि मुझे सुबह सूरज निकलने से पहले जगा देना, मैं उगते हुए सूरज को देखूँगी। आसमान में बादल घिर आते तो अनजानी -सी खुशी महसूस करती, जी चाहता था कि बादलों में घुल जाऊँ। शाम के वख्त आँगन में चारपाई पर लेटकर नीले आकाश में उड़ते हुए परिंदों और रंग-बिरंगी पतंगों को देखना मेरा पसंदीदा मशग़ला था। रात को तारों भरे आसमान और चाँद तक सीढ़ी लगाकर उन्हें छूने की इच्छा होती थी। बचपन में बेहद खिलंदडी थी,वालिद साहब डराते थे,जो लड़कियां नहीं पढ़तीं, उनके दाढ़ी निकल आती है। मेरे वालिद को साहित्य से गहरा लगाओ था,जब पढ़ने का चस्का लगा तो छोटी-सी उम्र में ही सज्जाद हैदर यल्द्रम, कुरतुल -एन- हैदर,नदीम अहमद क़ासमी, हाजरा मसरूर, खतीजा मस्तूर, इस्मत चुगताई मजहरुल हक़,राजेंद्र सिंह बेदी, टेगोर, शरत चंद्र, गोर्की, दोस्तोवस्की,चेखव आदि से मेरा परिचय हो गया था। एक ज़माने में मेरे वलिद साहब के सियासी मज़ामीन “अलजमियत” और “क़ौमी आवाज़” में छपते थे। शौकिया लिखते थे वैसे ताजिर थे। लिखने की प्रेरणा वालिद साहब से ही मिली। चौराहा गली मुरादाबाद में मेरे दादा की तीन मंजिला कोठी थी इसी में मेरा जन्म हुआ। मेरे दादा शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। हिन्दू -मुस्लिम सभी उनको मियांजी कहते थे। माँ से भी पढ़ने का शौक़ विरासत में मिला था। छोटी थी तो अपनी गुड़िया को बेहद प्यार करती थी। रात को तकिए के पास रखकर ही सोती थी। चीटियों को शक्कर खिलाना मेरा महबूब मशग़ला था। “अब्बू खां की बकरी” पढ़ी तो बहुत रोई थी। कल्पनाशील और संवेदनशील बचपन से ही थी। हाईस्कूल के बाद छुट्टीयों में मुरादाबाद की टाउनहाल पब्लिक लाइब्रेरी की सदस्य बनी तो पहली किताब अबुलकलाम आज़ाद की “गुबारे खातिर” इशु करवाई। जबानों बयां की लताफत,कल्पना की नुदरत, ख्यालात की गहराई ने तिलिस्म-सा कर दिया था। उसी जमाने में “नकूश” के आपबीती नंबर और शख्सियात नंबर पढ़े। शौक़ जागा, घर वालों से छिपकर उर्दू में ४०० पन्नों का एक नाविल उर्दू में लिख डाला, जिसके पन्नें बहुत पीले हो गए हैं। सोचती हूँ कि पढ़कर देखूं कि क्या लिखा था मोहलत नहीं मिल पाई है पढ़ने की। पहली कहानी उर्दू अखबार “इन्कलाब” में छपी। तीस- पैतीस कहानियां उसी दौरान “खातून मशरिक” “इन्किलाब” उर्दू टाइम्स में छपीं, लेकिन बदकिस्मती से से आज मेरे पास एक भी कहानी नहीं है। एम.फिल. में हमारी क्लास फैलो अज़रा मरयम ने पढ़ने के लिए ली थीं, पांच महीनों बाद बताया कि “मेरी गैर हाज़री में मेरी बेटी ने पूरा पुलिंदा रद्दी समझकर रद्दीवाले को उठाकर दे दिया, बहुत शर्मिंदा हूँ मैं” —–आज भी वह ज़ख्म हरा है।
शुरू से हिंदी माध्यम से पढ़ा, ऍम.ए. करते हुए पहली समीक्षा लिखी, जो नवभारत टाईम्स में छपी। उसके बाद तो आलेख और समीक्षाओं का सिलसिला शुरू हो गया। कहानियां खोने का ग़म इतना था कि लगभग दस बारह सालों तक कहानियां नहीं लिख पाई। एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय, मुंबई के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग से जुड़ी हुई हूँ(1995) से।

रीडर के बाद अब ऐसोसिएट प्रोफ़ेसर हूँ.पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ‘निर्मल वर्मा के साहित्य में आधुनिकता बोध,’ कुसुम अंसल का कथा साहित्य :एक और पंचवटी के विशेष संदर्भ में’, हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद’,समीक्षा के वातायन से’, साहित्य के आईनाखाने में’, कुछ किताबें प्रेस में हैं. कई पुरस्कार भी मिले हैं।

8 मार्च 2007 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुम्बई द्वारा सम्मानित किया गया. डॉ आंबेडकर राष्ट्रीय अस्मितादर्शी हिंदी साहित्य अकादमी, ( उज्जैन, म.प्र.) द्वारा “कवि-संत रैदास-कविरत्न”(1995), नगरी लिपि परिषद (2003)उर्वशी जयंतीलाल सूरती एवार्ड(1994) राष्ट्रीय उर्दू निबंध प्रतियोगिता में एवार्ड (1981).आजकल कविताएँ भी उर्दू-हिंदी दोनों में छप रही हैं.हिंदी लेखिकाओं में मन्नू भण्डारी,कृष्णा सोबती,नासिरा शर्मा,उषा प्रियम्वदा,प्रभा खेतान, सुधा अरोड़ा, सूर्यबाला के लेखन ने मुझे गहरे प्रभावित किया है.मेरा ख्याल है कि साहित्य वही सार्थक और मूल्यवान है जिसे पढ़कर रूह में निखार आता है जो हमें उदात्तता की ओर ले जाता है. जिस साहित्य में यह क्षमता नहीं है, उसे साहित्य की संज्ञा क्यों कर दी जा सकती है ?

डॉ. नगमा जावेद अख़्तर

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