“देवी नागरानी” एक ऐसा नाम, जिसे सुनते ही जेहन में एक सौम्य और शांत चेहरा उभरता है, जिन्हे कविता पाठ करते हुए, गज़ल गाते हुए हम देखा करते थे॰ बहुत अधिक निकटता नहीं थी, मगर जितनी उनसे पहचान हुई, उनके स्नेहमई व्यक्तित्व से अपनापन सा महसूस हुआ, फिर उनकी रचनाओं को जितना सुनते गए दिल में एक जगह बन गयी उनकी॰
मुझे खुशी है कि, उनके चौथे गज़ल संग्रह ‘सहन-ए-दिल’ की सारी गज़लें एक साथ पढ़ने और उस पर अपनी राय लिखने का काम मुझे सौंपा है॰ आभारी हूँ॰ मैं पूरी कोशिश करूंगी कि, उनके विश्वास पर खरी उतर सकूँ॰
गजल लेखन में देवी जी का नाम एक परिचित और पसंदीदा हस्ताक्षर है, जिसे किसी परिचय की दरकार नहीं॰ उनकी इंद्रधनुष की मानिंद विविध विषयों, भावों, और शालीनता के साथ बेबाकी से लिखी गयी सभी गज़लें, बेहद सधी हुई, सुलझी और सुंदर बन पड़ी हैं॰ चाहे वह मन के निजी भाव हों, समाज के प्रति आक्रोश हो, देश प्रेम हो या अन्य कोई सामयिक विषय पर लिखी गयी रचना हो, उनकी गज़लें, शब्द चित्रों की तरह हमारे समक्ष ऐसा एक फ़लक खड़ा कर देती हैं, जहां हम अपने खयालों को साकार होता हुआ देख पाते हैं॰
“चढ़ा है इतना गहरा रंग कुछ उसकी मोहब्बत का,
हुए गुलजार जैसे हम वतन कि याद आती है॰”
अमरीका में रहते हुए भी वे अपने देश की मिट्टी से सदा जुड़ी रहीं, उनकी पहली गजल में ही ये बात बहुत सुंदरता से कही गयी है॰ उनके शेरों में उनके अनुभवों का सार और उनकी विपरीत हालातों से लड़ी गयी लड़ाई की शिद्दत भी झलकती है॰
यूं तो आदरणीय प्राण शर्मा जी द्वारा कही गयी पूरी गज़ल ही उनकी रचनाओं की सही बयानी करती है, पर गज़ल का आखरी शेर बहुत सही बैठता है कि,
“शेर आपका हर एक ‘देवी’ अजूबा होता है,
गढ़ना ऐसा सुनहरा गहना आपसे कोई सीखे जी॰”
इसी तरह उनके संग्रह ‘चरागे दिल’ के विमोचन समारोह में आदरणीय महर्षि जी ने कही गज़ल का ये शेर मैं अपनी तरफ से भी कहना चाहूंगी कि,
“इक खजाना मिल गया जज़्बातों-एहसासात का,
हम को ये सौगात गज़लों की मिली अच्छा लगा॰”
मेरी सखी मरहूम मरियम गजाला जी, उन्हे कर्मठ और जांबाज़ महिला कहती थीं, और उन्हे भारतीय महिला की गरिमा और महिमा का जीवंत उदाहरण मानती थीं॰ कई बार देवी जी का जिक्र करते हुए उनकी आँखों में स्नेह और गौरव झलकते हुए मैंने देखे हैं॰
आदमीयत, इंसानियत के जज़्बे को उन्होने बहुत महत्वपूर्ण जाना है, और आजकल उसके कम दिखाई देने पर वे खेद भी व्यक्त करती हैं॰ इंसान होकर भी लोगों का इंसानियत से परे बर्ताव करना उन्हे व्यथित करता है॰
देवी जी ने हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं का बेहद सुंदर गंगा जमनी उपयोग कर उनके कहन को और भी खूबसूरत बना दिया है॰
“शायर ने जो चुनी है शेरो-सुख़न कि भाषा,
आती मिली जुली सी उसके बयां की खुशबू॰”
गज़ल संग्रह का शीर्षक ‘सहन-ए-दिल’ (दिल का आँगन) ही मन में बहुत सारे तसव्वूरातों को जगा देता है, और हम उनकी गज़लों में खुद के विचारों को ढलता हुआ देख आनंद और सुकून महसूस करते हैं॰
यू तो उनकी सारी गज़लें अपने आप में अलग अलग खूबीयां लिए हुए हैं, मगर मैं यहाँ चंद शेर प्रस्तुत कर रही हूँ, जो मुझे अपने लगे :
“उस तरह मैं कभी न जी पायी, ज़िंदगी ने मुझे जिया जैसे….
“जो बेखुदी में कहीं गहरे डूब जाते हम,
तो हसरतों से भी अपनी निजात पाते हम॰”
“बचपन गया जो छोडकर आया न लौटकर,
शायद वो लौटने कि डगर जानता न था॰”
“अजनबी सी अपनी सूरत क्यों नज़र आती मुझे,
आईना देगा फरेब ऐसा कभी सोचा न था॰”
“जब ख़लिश बेपनाह होती है,
लब पे इक सर्द आह होती है॰”
“दिल कि जब दर्द से दोस्ती हो गयी,
एक दूजे का सहारा हुए हम॰”
उनका एक शेर आज के हालत पर भी सटीक लगता है, जो मौजूदा परिस्थिति पर लिखा गया ताज़ा शेर लगता है.
“बेखबर थे मौत से दुनिया के लोग, एक भी ऐसा नहीं जो बच गया,
इन बलाओं से हमें महफूज रख, मांगती रहती है ‘देवी’ ये दुआ॰”
अंत में इतना ही कहूँगी कि, “देवी जी सेहतमंद और सलामत रहें हमारे संग,
कभी न फीका पड़े उनकी रचनाओं का इंद्रधनुषी रंग॰”
और उनका
समीक्षक : शिल्पा सोनटक्के
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