पुस्तक समीक्षाः परछांइय़ों के जंगल- देवी नागरानी

देवी नागरानी की कहानियां… उड़ते बादलों की छांव पकड़ने की कोशिश..
यह संग्रह “परछाइयों का जंगल” उनके मनोभावों के द्वंद्व का वह जंगल है जहाँ लफ्ज़ उगते हैं। जेहन के बाग से इन्हें चुन कर, अहसास का ज़रा सा इत्र छिड़क कर इन्हें तोहफ़े के तौर पर कहीं भी भेजा जा सकता है… लिफ़ाफे में बंद कर कोरियर की उड़ान से, काग़ज़ की नाव पर बैठाकर दिल दरिया की लहरों से, या फ़िर अनुवाद के ज़रिए किसी दूसरे भाषा संसार में।
देवी जी की इन कहानियों से एक अहम बात और भी वाबस्ता है। इन्हें उन्होंने ही पहले सिंधी में लिखा है और फ़िर स्वयं ही हिन्दी में अनूदित भी किया है। उस खाने की लज़्जत ही कुछ और होती है जिसे बनाने और परोसने वाला शख़्स एक ही हो।
इन कहानियों को पढ़ते हुए मेरे मन में एक बात बराबर छलकती रही – देवी नागरानी के यहां जीवन के कठिन दिनों में कहानी का बीज पड़ जाता है। फ़िर ज़िन्दगी की जिजीविषा उसे सींचती है, और तब कहानियां पकती हैं।

While reading these stories, one thing kept spilling in my mind – the seed of the story falls in the difficult days of life here. Then Jijivisha of life irrigates him, and then the stories take hold.
वे अपनी गतिशील दिनचर्या के दौरान अपने मानस पात्र में अपने किसी ख़ास अनुभव को मिट्टी के पात्र में जमाए गए दही के सदृश जमा देती हैं। बाद में इन कहानियों को पढ़ते हुए पाठक इन्हें स्वादिष्ट व पौष्टिक आहार की तरह ग्रहण करता है।
उनका कर्म क्षेत्र, अनुभव और संवेदना संसार व्यापक है। वहां जो कुछ है, वो अच्छी कहानियां लिखने में उनकी मदद करता है। जब कर्मठता और संवेदना सहचरी होती हैं तो दुर्गम रास्ते भी रेलयात्रा के दौरान खिड़की से गुजरते हुए दृश्यों की तरह अनिर्वचनीय बोधगम्यता से पार हो जाते हैं।
मेरा व्यक्तिगत मत ये है कि कहानी की कोई भूमिका नहीं होती। कहानी के इर्द-गिर्द केवल दो लोग चाहिएं – लेखक और पाठक। किसी तीसरे की दरकार नहीं होती।
काल को जीतना, शिल्प की कसौटियों पर जूझना, खरा या खोटा उतरना, कथ्य और प्रवाह के किनारों पर सिर पटकना…ये कथा कहानियों का काम नहीं है।
कहानी के पास सजने संवरने का न वक़्त होना चाहिए और न शौक़।
कहानी को प्रस्तुत या पार्श्व नहीं होना। कहानी को रोचक या रंजक भी नहीं होना।
कहानी को तो समय के जर्जर खंडहरों में हाड़ पेलते मजदूर की तरह जुटकर मलबे साफ़ करने होते हैं।
मेरा मन नहीं करता कि देवी जी की इन कहानियों के बाबत आपको वो सब कह कर बेवजह पूर्वाग्रही बना दूं जो मैंने इन्हें पढ़ते वक़्त पाया है। ये आपके अधिकार का अतिक्रमण होगा।
आपको इन कहानियों की फुलवारी में इनकी अनछुई, मौलिक गंध मिले, इसके लिए ये ज़रूरी है कि एक रचनाकार के रूप में मैं आपके और उनके बीच न आऊं।
लीजिए, मैं बीच से हटता हूं। लेकिन अपना ये कहने का अधिकार मैं नहीं छोडूंगा कि इन कहानियों से निकली बात दूर तलक जायेगी। इस संग्रह का साहित्य जगत में व्यापक स्वागत होगा

पुस्तकः परछाइयों का जंगल, लेखिका: देवी नागरानी, वर्ष: 2019 मूल्यः 350, पन्नेः160, प्रकाशकः भारत श्री प्रकाशन, पटेल गली, विश्वास नगर, शहादरा, दिल्ली, 110032. shilalekhbooks@rediffmail.com

समीक्षक: प्रबोध कुमार गोविल, बी 301, मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी
447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर- 302004 (राजस्थान), मो 9414028938

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