पुस्तक — एस फॉर सिद्धि (उपन्यास)
लेखक – संदीप तोमर
प्रकाशन वर्ष -2021
मूल्य -150 रूपये
प्रकाशक- डायमंड बुक्स, नई दिल्ली
हिन्दी उपन्यास के विकास के क्रम में एस फॉर सिद्धि की समीक्षा
आधुनिक काल में विकसित गद्य विधाओं में उपन्यास का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी उपन्यास के विकास का श्रेय अंग्रेजी एवं बांग्ला उपन्यासों को दिया जाता है क्योंकि हिन्दी में इस विद्या का आरम्भ अंग्रेजी व बांग्ला उपन्यासों की लोकप्रियता से हुआ। स्वयं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ में प्रकाशित निबन्ध ‘उपन्यास रहस्य’ में इस बात को स्वीकार करते हैं। रामस्वरूप चतुर्वेदी ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ में उपन्यास को विदेशी प्रभाव से जनित बताते हैं- ‘‘हिन्दी में उपन्यास का आगम स्वयं विदेशी प्रभाव के रूप में देखा गया। उपन्यास विधा के आरम्भ होने तथा उसकी ग्राहता को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में जो विवाद चले, उनमें विवाद का एक रूप ‘देवकी नन्दन खत्री के तिलिस्मी-ऐयारी परक उपन्यासों को लेकर था, दूसरे स्तर पर उपन्यास की उपयोगिता को लेकर था। इसे अगर इन शब्दों में कहें तो आरम्भिक उपन्यास तिलिस्मी ऐयारी और जासूसी प्रधान थे। इन्होंने अपनी रोचकता के द्वारा एक मध्यमवर्गीय पाठक वर्ग तैयार किया, बहुतों को हिन्दी सीखाने का श्रेय इन उपन्यासों को दिया जाता है। यद्यपि इन्हें हिन्दी उपन्यास के आरम्भ का श्रेय नहीं दिया जाता है।’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लाला श्री निवास दास के उपन्यास ‘परीक्षा गुरू’ (1882) को पहले उपन्यास होने का श्रेय देते हैं, जिसे उन्होंने प्रथम मौलिक रचना भी माना है। लेकिन इसके ऊपर भी विवाद रहा। जबकि ‘हिन्दी उपन्यास कोष’ के संपादक गोपाल राय पंडित गौरीदत्त द्वारा लिखित ‘देवरानी-जिठानी की कहानी’ (1870) को प्रथम उपन्यास मानते हैं। जबकि कतिपय विद्वान आलोचकों की राय में श्रृद्धाराम फल्लौरी कृत ‘भाग्यवती’(1877) को प्रथम मौलिक उपन्यास मानते हैं। यदि कालक्रम की दृष्टि से ‘भाग्यवती’ हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास ठहरता है लेकिन इसमें औपन्यासिक तत्व, पूर्णतः विद्यमान नहीं है। डा0 गुलाब राय उपन्यास के तत्वों में कथावस्तु, पात्र, कथोपकथन, देशकाल, उद्देश्य, शैली, भाव’ को माना है। जबकि ‘परीक्षागुरू’ (1882) में औपन्यासिक तत्व हैं। अतः इसे हिन्दी का प्रथम मौलिक उपन्यास माना जा सकता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इसे प्रथम मौलिक उपन्यास का दर्जा देते हैं।
हिन्दी उपन्यास से ही उपन्यास की नई विधा “लघु उपन्यास” का जन्म हुआ। लघु उपन्यास के विषय में इसकी आधारगत संरचना को देखकर इसे लम्बी कहानी से जोड़ा जाता है। जबकि लघु उपन्यास, उपन्यास और कहानी से नितान्त भिन्न है। यह भिन्नता न केवल उसके आकार में है अपितु वह उसके प्रकार में भी है। उपन्यास या लम्बी कहानी तथा लघु उपन्यास में कथानक, पात्र और कथ्य की दृष्टि से स्थूल रूप में कोई भेद नहीं किया जा सकता और न ही इनके बीच कोई स्पष्ट रेखा खींची जा सकती, परन्तु लघु उपन्यास जो संवेदनशीलता, सांकेतिकता एवं गठन में अपना निजी और स्वतंत्र रूप लेकर चलता है। वह उसे उपन्यास और लम्बी कहानी से भिन्न रूप प्रदान करता है।
हिन्दी साहित्य में लघु उपन्यास के विकास में अनेक कारण व परिस्थितियां रही हैं। प्रेमचन्द के आगमन से हिन्दी उपन्यास साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। तत्व और शिल्प की दृष्टि से पहली बार हिन्दी उपन्यास इतने विकसित रूप में दिखाई दिये। प्रेमचंद ने उपन्यासो के विषय परियों की कहानी से हटाकर मानव जीवन और समाज की ओर मोड दिये। अब उपन्यास फंटेसी से यथार्थ की तरफ बढ़ गए। कार्ल मार्क्स के द्वान्द्वात्मक भौतिकवाद, फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद ने व्यक्ति और समाज को समझने की नयी दृष्टि दी। जिसने उपन्यास विधा से लघु उपन्यास विधा को जन्म दिया-‘‘इस युग की यह नव संचेतना मनोविश्लेषण का आधार लेकर चली। इसी के परिणामस्वरूप उपन्यास साहित्य में नवीन भाव बोध का जन्म हुआ, जिससे सम्पूर्ण उपन्यास को नई व मौलिक दिशाएं मिली।“
यह सारी स्थितियाँ और वातावरण लघु उपन्यास विधा के लिए हिन्दी उपन्यास के विकास के क्रम में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। लघु उपन्यास की एक विशेषता ये रही कि अब उपन्यासों के विषयों में विविधता का समावेश हुआ। मजदूर, किसान, अपवंचित वर्ग, दलित चेतना उपन्यास के माध्यम से समाज में नवचेतना का संचार कर रही थी। इसी के साथ नारी-विमर्श को नया आयाम भी लघु-उपन्यास ने दिया। मित्रो मरजानी, विराज बहू, चितकोबरा, जैसी रचनाओं ने समाज को, मानव मन को अलग तरीके से सोचने के लिए उद्वेलित किया, इस प्रकार लघु उपन्यास, उपन्यास से ही विकसित पर उससे भिन्न एक मौलिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।’’
हिन्दी उपन्यासों में कुछ उपन्यासों को बेहद चर्चित और पठनीय उपन्यास कहा जा सकता है जिनमे गुनाहो का देवता, अंधा युग, सूरज का सातवाँ घोड़ा (धर्मवीर भारती) मैला आंचल ( फणीश्वर नाथ रेणु) गबन (प्रेमचंद) नदी के द्वीप, शेखर एक जीवनी (अज्ञेय) तमस ( भीष्म साहनी) कितने पाकिस्तान (कमलेश्वर) नगरवधु वैशाली (आचार्य चतुरसेन) मुझे चाँद चाहिए (सुरेन्द्र वर्मा) आधा गाँव (डॉ राही मासूम रजा) कसप (मनोहर श्याम जोशी) झूठा सच (यशपाल) इन्हीं के साथ ‘बया का घोंसला और सांप’(लक्ष्मीनारायण लाल) ‘चन्द हसीनों के खतूत’(पाण्डे बेचन शर्मा ‘उग्र’) ‘त्यागपत्र’ ‘परख’, ‘सुनीता’ (जैनेन्द्र) ‘रानी नागफनी की कहानी’(हरिशंकर परसाई ) ‘मरीचिका’ (गंगाप्रसाद विमल) ‘डार से बिुछुड़ी’, मित्रो मरजानी’, ‘सूरजमुखी अन्धेरे के’(कृष्णा सोबती) ‘आसंक’ (नरेन्द्र कोहली) ‘वायदा माफ गवाह’ (अशोक अग्रवाल) उल्लेखनीय भी है।
हिन्दी साहित्य के कुछ लघु उपन्यासों के चरित्र बोल्ड भी मिलते हैं जैसे कृष्णा सोबती की मित्रों मरजानी’ की मित्रों एक ‘बोल्ड’ चरित्र है। हिन्दी साहित्य जगत में नारी प्रधान उपन्यासों की नायिकाएं देह की बात नहीं करतीं यद्यपि देह को भोगने की कामना उनमें जरूर है, इस रूप में उषा प्रियवदा ‘रूकोगी नहीं राधिका’ की राधिका को नारी अस्तित्व के प्रति सचेत स्वरूप में देखा जा सकता है या फिर शिवानी की ‘कृष्णकली’ की कृष्णकली भी हो, राधिका या कृष्णकली दोनों ही मित्रों के मुकाबले नहीं ठहरती। यदि पुरूष लेखकों की बात की जाए तो- ऐसा माना जाता है कि “पुरूष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परन्तु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुंच सकता है, परन्तु यथार्थ के अधिक निकट नहीं। पुरूष के लिए नारीत्व अनुमान है, परन्तु नारी के लिए अनुभव।’’ परंतु संदीप तोमर का उपन्यास “एस फॉर सिद्धि” इस सिद्धांत को सिरे से झूठला देता है।
यह एकदम जरूरी नहीं कि लेखन के लिए स्वानुभूति ही मुख्य हो। व्यक्ति जो भी देखता है उसे अनुभव करके लिखता है तो वह भी सत्य के करीब ही प्रतीत होता है। लेखकों के बारे में परकाया प्रवेश (दूसरे के अनुभव को महसूस करना) की बात भी कही जाती है। देखा जाए तो स़्त्री-पुरूष लेखन कोई अलग बात नहीं, यह अनुभवजनित मसला अधिक है-‘‘लेखन-लेखन होता है इसमें नर-मादा जैसा कुछ नहीं होता।
संदीप तोमर की प्रकाशित कृतियों में सच के आसपास, टुकड़ा टुकड़ा परछाई, यंगर्स लव, थ्री गर्लफ़्रेंड्स, एक अपाहिज की डायरी, समय पर दस्तक और एस फॉर सिद्धि आदि हैं। थ्री गर्लफ़्रेंड्स पर उन्हें अभिमंच द्वारा प्रेमचंद सम्मान भी प्रदान किया गया है। उनके पाठक और जानकार उन्हें हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं यथा, कविता, नज्म, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, यात्रा वृतांत और उपन्यास इत्यादि में सक्रिय पाते हैं, उनकी प्रकाशित दर्जनाधिक कृतियों में दो भाग आत्मकथा के नाम भी दर्ज हैं।
उनका उपन्यास “एस फॉर सिद्धि” 2021 ई0 में डायमंड बुक्स से प्रकाशित हुआ। उसने इस उपन्यास पर सबसे बड़ा आरोप अश्लीलता का लगाया गया। इससे पहले भी उनकी कहानियों और लघुकथाओं पर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं, किसी नवोदित लेखिका ने उनकी लघुकथा की पुस्तक “समय पर दस्तक” की समीक्षा के बहाने सोशल मीडिया पर उन्हें बदनाम करने की गरज से खूब बवाल किया था, हालाकि ये आरोप समय के साथ खारिज भी होते रहे हैं। ईमानदारी से कहा जाये तो उपन्यास एस फॉर सिद्धि को अश्लील कदापि नहीं कहा जा सकता। कृष्णा सोबती कृत ‘मित्रो मरजानी’ बोल्ड उपन्यास है साथ ही महेन्द्र भल्ला कृत एक ‘पति के नोट्स’ में सिर्फ कोरा भोग है जिसके ब्यौरे काफी दिलचस्प ढंग से पेश किये गये हैं। राजकमल चौधरी का ‘मछली मरी हुई’ तो खुल्लमखुल्ला सेक्स गाथा ही है, मृदुला गर्ग का ‘चितकोबरा’ तथा मनोहर श्याम जोशी का ‘कुरू-कुरू स्वाहा’ को भी अश्लीलता की श्रेणियों में रखा जाता रहा है। दरअसल साहित्य में श्लील-अश्लील का प्रश्न ही नाजायज हैं। साहित्य कला है और उसे कला की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए।
संदीप तोमर ने पुरुष होकर स्त्री को उद्घाटित करने का तथा पहचानने का प्रयास किया है, पुरुष होकर स्त्री की गाथा, व्यथा, उसकी बोल्डनेस को आत्मकथ्यात्मक तरीके से लिखना अवश्य ही एक दुरूह कार्य है, जिसे उन्होने अंजाम तक पहुंचाने का काम किया है।’’ ऐसा प्रतीत होता है मानो कथाकार स्वयं सिद्धि की कहानी सिद्धि में प्रविष्ट होकर लिख रहा हो। ऐसा चित्रण पाठक को उपन्यास से आत्मसात होने को विवश कर देता है। संदीप तोमर की कहानी कहने की यह विशिष्ट शैली है कि वे चित्रात्मक खाका खींचते हैं। सिद्धि एक सशक्त पात्र है, जिसके माध्यम से कथाकार ने आधुनिक संस्कृति का जो चित्र खींचा है, यह इतना सघन और ठोस है मानो इस संस्कृति के सबल और दुर्बल पक्ष हमारे सामने चाक्षुष-प्रत्यक्ष हो गये हो। कथाकार ने भाषा के जिस रूप से कथा को बांधा है, यह बहुत कुछ किस्सा कहने की शैली है। जिसमें विवरण और कथाक्रम के साथ बीच-बीच में बोल-चाल के शब्द, अँग्रेजीनिष्ठ संस्कृति का समावेश है। कथाकार किस्सागोई में महारथ रखता प्रतीत होता है।
संदीप सिद्धि को नारी-संस्कार जन्य रूप से अलग देह को प्रमुखता देने वाली स्त्री के रूप में देखते हैं। एस फॉर सिद्धि की कथा पटना और धनबाद की अपनी शर्तो पर जीने वाली सशक्त पात्र सिद्धि की कहानी है। सिद्धि एक अधिकारी की बेटी है। जो सिविल सर्विस की तैयारी करती है। लेकिन हालात उसे मुंबई की माया नगरी का रुख करवा देते हैं, सेक्स की अनुभूति तक के सफर में सिद्धि मुखर हो जाती है लेकिन एक बात जो यहाँ गौरतलब है वह ये कि उसमें सैक्सुअल-फस्ट्रेशन नहीं है। यद्यपि वह अपने पुरुष मित्रों के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने में भी पीछे नहीं रहती। एक मित्र की सहायता के लिए वह अपने गहने तक बेच देती है, सिद्धि अपनी सहेली के साथ ज्यादती होने पर उसके साथ डटकर खड़ी है तो दिवाकर के साथ उसकी शर्तो पर लिव इन तक में रहना भी स्वीकार करती है। देखा जाए तो सिद्धि समर्पिता एवं ग्राहीत्वा दोनों है, परन्तु अन्त में आते-आते वह पूर्णरूप से अनिकेत के प्रति समर्पिता हो जाती है। यहाँ आकर सिद्धि एक प्रेमिका से भारतीय नारी की पत्नी की छवि में नजर आती है। इस प्रकार ‘‘सिद्धि मात्र देह है’’ यह कहना सरासर गलत होगा। सिद्धि माँस-मज्जा से बनी एक नारी है, जिसमें स्नेह भी है, ममता भी, माँ बनने की ललक भी और एक अविरल बहती कामेच्छा भी।’’
सिद्धि में आधुनिक संस्कृति के कारण खुलापन जरूर है, लेकिन ये इच्छागत न होकर परिस्थितिवश है। हालात उसे इतना बोल्ड बनाते हैं वह अनिकेत के साथ 15 हनीमून, पंद्रह शहर के प्रस्ताव को सहज स्वीकृति दे देती है। अपने शरीर की भूख का इजहार भी वह अनिकेत के सामने आसानी से कर सकती है।
दरअसल सामाजिक संरचना में आए बदलाव के कारण जो समाज निर्मित होता है, उसमें आधुनिकता का समावेश होता है। हर लेखक अपने युग संस्कृति तथा परिवेश से अछूता नहीं रह सकता। संदीप तोमर ने भी उसी प्रक्रिया के चलते कथानक का चयन किया, इस प्रकार सिद्धि सिर्फ समय तथा संस्कृति और लेखकीय व्यक्तित्व से निर्मित पात्र है जो समस्त स्त्री जाति की कहानी कहती है। उम्र के हर दौर की कहानी एक ओर जहाँ मासूम बचपन की परेशानियाँ हैं ,जब संकोचवश छेड़छाड़ के कारण उपजी मानसिक यंत्रणा से अकेले दम जूझना हो अथवा कच्ची उम्र के आकर्षक बंधन की छटपटाहट! वह बेलौस, बेबाक समाज के लम्पट वर्ग को कटघरे में खड़ा करती है।
सिद्धि को पढ़ते हुए अमूमन किसी न किसी मोड़ पर हर स्त्री को उसमें अपनी ही कहानी नज़र आएगी। कथानक को इतनी महीनता और सुंदरता के साथ बुनने के लिए लेखक निश्चित रुप से स्नेह और बधाई के पात्र हैं। साधुवाद के अधिकारी हैं।
यद्यपि कुछ संवाद बलात् एडजस्ट किये गये मालूम पड़ते हैं, जो यदि न भी होते तो पुस्तक की गुणवत्ता में कोई कमी न रहती। इसका एक कारण यह भी हो सकता है, कि इस तरह की पुस्तक पढ़ने का यह मेरा पहला अवसर था। इसी कारण पुस्तक के विषय में कुछ भी कहने से पहले इसी तरह की अन्य पुस्तकों को पढ़ना आवश्यक था जो संभव न हो सका तो उनकी समीक्षात्मक टिप्पणियों से ही काम चलाना पड़ा।
पुस्तक को पढ़ने की उत्कंठा जगने के पीछे भी एक रोचक किस्सा है। लेखक द्वारा एक विमोचन समारोह में मुख्य वक्ता के तौर पर अपने वक्तव्य में उसका ज़िक्र किये जाने पर जब पहली नज़र में मैंने उसे अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा… इत्यादि अष्ट सिद्धियों की सहोदरा समझ लिया। अगले ही पल जब लेखक ने उसकी विषयवस्तु पर प्रकाश डाला तो उत्कंठा कम होने की बजाय बढ़ ही गयी।
अस्तु यह कुशल शिल्पकार की एक उत्कृष्ट कृति है। सिद्धि केवल सिद्धि न होकर एक वैश्विक पात्र है जो आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हुए, जीवन को जीवटता से जीने की जद्दोजहद में हाशिये पर बिन लड़खडाए दृढ़ता से खड़ी है। कुल मिलाकर यह एक पठनीय पुस्तक है।
लेखक संदीप तोमर को आत्मीय बधाई एवं शुभकामनाएँ। स्याह अंधेरों में भी उनके उजास मन की प्रकृति सदैव रक्षा करे, इन्हीं शुभकामनाओं सहित।
सुमन युगल
मुज़फ्फरनगर