पुस्तक समीक्षाः वन-गमन-लक्ष्मीकांत जवणे


वनगमन : एक पुनर्पाठ

लेखक-गोवर्धन यादव
विधा- उपन्यास. प्रकाशन वर्ष-2022

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श्री गोवर्धन यादव 78 वर्षीय ऐसे कलमधर्मी हैं, जो अपनी ताजगी के जरिये हमेशा अपने पाठकों को तरोताजा बनाए रखने के लिए अपनी रचनाओं के “चयवनप्राश” का प्राशान करवाते रहते हैं.
हम-आप भली भांति जानते हैं, च्यवनप्राश की शक्तिवर्द्धता पुरानी जड़ी-बुटियों से ही मिलती है, इसीलिए इस बार यह ऊर्जा और शक्ति-प्रदाता औषधी “उपन्यास” के कलेवर में हमें परोसी गयी है. कथानक हमारी चिरंजीव नित्य-प्रेरक “रामकथा” है. पर रामकथा ही क्यों?
सदियों से कही जा रही इस “रामकथा” में चरित्र वे ही होते हैं, परन्तु तत्कालीन समय की अस्त-व्यस्तताओं की मांग मार्गदर्शी पैमानों के लिए गुजरी सदियों से नितांत भिन्न हुआ करती है. बाबा तुलसी का अभिप्रेत यानी इरादा या नीयत, उस समय के बिखराव को समेटने के लिए “रामराज्य” था, एक न्यायपूर्ण सुसंगत “सुशासन”. ज्यादा दूर क्यों देखें?, पिछली बीसवीं शताब्दी में मैथिली शरण गुप्त के महाकाव्य के केन्द्रीय चरित्र उर्मिला और कैकेई थे. इन चरित्रों ने तत्कालीन नारी-विमर्श को नयी दृष्टि दी. आचार्य चतुरसेन के “वयं रक्षामः” ने रावण के माध्यम से प्रतिभा का खलनायक में रुपांतरण, तो नरेन्द्र कोहली साहब ने रामकथा की श्रृंखला से राम को तत्कालीन सन्दर्भ में जन-नायक बनाकर सामान्य-जन की आवश्यकताओं के अनुरूप खड़ा किया.
इक्कीसवीं सदी में राम के माध्यम से तीन औपन्यासिक-सृजन विमर्श में उपस्थित हुए हैं. तीनों के प्रस्थान बिंदु क्रमशः परंपरा के “अतीत, वर्तमान और संभावना” हैं.
मैं “संभावना” से शुरु करता हूँ. संभावना से मेरा तात्पर्य भविष्य-भाव से भी एक हद तक है. बहुत-चर्चित, बहु-पठनीय अमीश त्रिवेदी की कलम से अंग्रेजी और हिंदी में रामकथा के पात्रों पर उपन्यासों की ऐसी श्रृंखला हैं, जिसमे कथा लेखन की अद्भुत लेखकीय स्वतंत्रता से परिचय होता है. कथानक में विश्वामित्र एक पात्र और विदुर एक पूर्वकालिक विचारक की तरह प्रस्तुत हैं. आशय यही है कि वेद-उपनिषद-पुराण के चरित्र उसी समय के नहीं हैं, जैसा हम मान बैठे हैं, बल्कि पूर्व स्थापित विचार-पीठों के उत्तराधिकारी हैं, जो सार्वकालिक होने का आभास रोचक और ठोस ढंग से पाठकों में पैदा करते हैं. वर्तमान की दृष्टि से ख्यात फ़िल्म अभिनेता, कवि, लेखक आशुतोष राना के हिंदी उपन्यास के विमर्श में शीर्ष पर “रामराज्य” है. रामराज्य में हमारे वर्तमान की मांग के अनुकूल पात्रों की गरिमा का विस्तार है. जैसे शूर्पणखा की लक्ष्मण द्वारा नाक काटे जाने की घटना को उसका अपना “प्रपंच” करार दिया गया है, क्योंकि लक्ष्मण जैसे सुसंस्कृत व्यक्ति द्वारा किसी दुष्ट स्त्री का वध तो संभव है, परन्तु नासिका जैसा असभ्य भीरुतापूर्ण बिलकुल संभव नहीं है. राम लक्ष्मण को सर्वकालिक गरिमा देने में लेखक सफ़ल हुए हैं. अतीत को अपने अंदाज, अपनी भाव-भंगिमा में लेकर अतीत की अर्थपूर्ण तारतम्यता की ताकतवर मौजूदगी “वनगमन” में दर्ज करवा रहे हैं- ” गोवर्धन यादव”.
वनगमन की प्रस्तुति में कैकेयी प्रसंग कई बातों को उजागर करता है- सच्चा अभिजात्य, ज्ञानमय शालीनता, स्त्री-पुरुष का समभाव. घटना है- राम सीता का एक साथ जाकर मां कैकेई को “वनगमन” के लिए अनुनय-विनय से पिता दशरथ से राजाज्ञा हासिल करना. इस प्रसंग के सारे पात्र अभिजात्य के वे कुलीन पात्र नहीं हैं, जो शासन की सत्ता में, उस मुठ्ठीभर श्रेष्ठिवर्ग के हितपोषण को सत्ता का अभीष्ट बनाते हैं, बल्कि जन-साधारण को, हर तरह के अन्याय, तिरस्कार और उत्पीड़न से मुक्ति के लिए सत्ता से बाहर रहकर भी सार्थक कर्म करना जानते हैं. इन पात्रों की शालीनता, भद्रता के रुढ़िवाचक कायदों से बंधी हुई नहीं है. स्त्री-पुरुष का समभाव ओठों का विलास नहीं है.
पुस्तक में वर्तमान एक अनोखे ढंग से प्रवेश करता है. कैकेई को वनगमन की आज्ञा का प्रभावी माध्यम बनाने का निर्णय अकेले राम का नहीं , बल्कि सीता उसमें बराबरी से भागीदार है. यह नारी विमर्श की मुँहतोड़ जवाब इसलिए है कि नारी का बराबरी का दर्जा सिर्फ़ सुविधा केन्द्रीत नहीं होता, वरन असुविधाओं, चुनौतियों और लोक-कल्याण की चिंताओं व समाधानों में भी बराबरी का हक अपेक्षित है. सीता के साथ राम द्वारा माँ कैकेई से मंत्रणा लेखक की नवोन्मेषी समीचीन आधुनिक मनोभूमि का प्रमाण है और जो अन्य लेखकों से इन्हें अलग रखता है. राजाज्ञा के लिए कैकेई के चरित्र के स्त्री-हठ का सामाजिक मानसिकता का संकुचन मिथक तोड़ना, लेखक का साहसी प्रयास है, ऐसा प्रयत्न आशुतोष राना का भी है, पर गोवर्धन यादव का यह यत्न इसे अधिक विश्वसनीय इसलिए बना देता है कि ‍किष्किन्धा नरेश बालि और दशरथ के युद्ध में पराजित दशरथ का मान-मर्दन हुआ था. इस क्षेपक में बालि ने दो शर्तें रखीं थीं.-या तो कैकेई को उसके सुपुर्द किया जाए या राजसी मुकुट उसके हवाले किया जाए. दशरथ ने राजमुकुट कैकेई पर न्योछावर कर दिया. इस अपमानजनक पीड़ा में राम को भागीदार बनाना कैकेई की वनगमन सहमति को नारी सुलभ व्यवहारिकता प्रदान करता है, यह सह-कथा पाठकों का भरोसा जीतती है.
उपर्युक्त लेखक-त्रय की भावमयता की टंकार पाठकों में अलग-अलग ध्वनि आंदोलित करती है. एक रुपक से अपनी बात कहूं तो एक बाल्टी में पेंदी से ऊपर एक चौथाई से काफ़ी कम जमा पानी की कल्पना कीजिए. अब उसमें नल की मध्यम तीव्रता की स्थित गति पर धार छोड़िए. पानी को हल्का हिला कर आवाज सुनिए. यह दोनों पानी की टकराहट वाली आवाज मधुर है, जो चित्त को शांत करेगी. यह गोवर्धन यादव का चितचन्दन है. बाल्टी के पानी को जोर से हिलाइए, सुनिए- यह अमीश त्रिवेदी का मनखंजन है यानी मन का उत्खननन. कहने का मतलब बाल्टी में हिलता पानी समाज की मनोदशा है. तीनों लेखकों ने वर्तमान समाज की अपनी भांपी हुई बेचैनी को अपनी-अपनी बुनावट दी है.
अमीश त्रिवेदी और आशुरोष राना की भारतीय बुनावट से गोवर्धन यादव का तानाबाना इसलिए भी अलग है कि इनका राम भारतीय उपमहाद्विपीय राम है. थाईलैंड, मारिशस, इंडोनेशिया, मलेशिया, भूटान और नेपाल की यात्राओं में वहाँ के जनमानस में बैठे राम से भी उतनी ही घनिष्ठता है, जितनी जन्मभूमि के राम में आत्मीयता है. यह उपमहाद्विपीय राम उन देशों की परंपरा और स्थानीय पारंपरिक राम का “फ़्यूजन” है. मारिशस कवि अभिमन्यु “अनत” की कविता है- ” खून की बूंदे गिरीं / पानी में / पानी खून न हुआ / खून पानी हो गया”. वैसे ही मैं कहूँगा- “स्याही के छीटें गिरे / राम में / राम स्याही न हुए / स्याही राम हो गयी”.
इस पुस्तक के विन्यास में एक विलक्षण उल्लेखनीय बात पाता हूँ कि इसको पढ़ते हुए सरकती, गुजरती दृष्यावली में पाठक एक सफ़र में है, जहाँ उसका हमसफ़र लेखक है. ऐसा इसलिए होता है कि पृष्ठभूमि का नामजद उल्लेख इसे कभी यात्रा-वृत्तांत, तो कभी पात्रों की मनोदशा के भावेगमय वर्णन को पाठकों की अमिट स्मृतियों में बदलकर उसे “यात्रा-संस्मरण” के तौर पर कीलित करता है. यह व्याकरण के ” वृत्तांत” और “संस्मरण” के शास्त्रीय अंतर का भाषायी मिश्रण नहीं, रोचक यौगिक है. यह निश्चित ही लेखक की घुमक्कड़ी का सार्थक परिणाम है.
पात्रों के अंतर्द्वंद्व पाठको को वर्तमान में अपनी पारिवारिक विनमता यानि मनमुटाव सरीखे लगते है, जो कलेवर को प्रासंगिक बनाते हैं. लेखक की बिनाई (विजन) को उस आक्षेप से भी बचा ले जाते हैं कि पौराणिक कथ्य से समीचीनता के विग्रह (संघर्ष) की प्रस्तुति में सदा अतीत का मूल्य-बोध ही पैमाना बनता है.
यह उपन्यास सादी भाषा में तमाम पौराणिक प्रतीकों की दुर्गमताओं को समतल करते हुए “रामकथा ” के मार्मिक अध्याय “वनगमन” की हृदयस्पर्शिता को हमारे भीतर जगा पाने में शत-प्रतिशत सफ़ल होता है. अर्थात अपना आखर-आखर संप्रेषित करता है, प्रकारांतर में पाठक का पुनीत कथा-स्नान हो जाता है.
इसी श्रृंखला में शेष रामकथा के पटन का लालच भी सर उठा रहा है. गोवर्धन यादव जी से विनम्र आग्रह है कि हमारे चटोरेपन को शांत करने का उद्यम जारी रखेंगे.

भोपाल- 17-08-2022

लक्ष्मीकांत जवणे
पी.टी.5, फ़ार्च्यून एन्क्लेव, कोलार रोड, भोपाल (462042)
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ईमेल- laxmikantjawney@gmail.com

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