हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक एकता की सबसे मजबूत कड़ी ये देवता ही हैं। इन्होंने घर को गांव से जोड़ा, गांव को दूसरे गांव या परगने से, परगने के देवता ने दूसरी रियासत से, दूसरे जिले से और उन्होंने समूचे पर्वतीय क्षेत्र से ही नहीं, देश के अन्य भागों से भी जोड़ा है।…
हिमाचल के देवताओं को विश्लेषण की सुविधा के लिए हम सात वर्गों में बांट सकते हैः (1) घर अथवा गरिहा (2) घर का देवता अथवा गृह देवता (3) ग्राम देवता (4) खुंद व अन्न देवता (5) क्षेत्र देवता (6) पौराणिक देवी देवता, तथा (7) महादेउ या देऊ नाग।
घौरे गरिहा
घौरे गरिहा वस्तुतः गृहलक्ष्मी का पर्याय-सा दिखता है। यह देवता अमूर्त है, केवल एक भाव मात्र है, अनुभूति है। घर में कोई अनुचित व्यवहार न हो, अनैतिक कार्य न हो, यह निश्चित करने के लिए ही शायद इस दैवी शक्ति की कल्पना की गई हो। यदि कोई अनुचित कार्य या बात घर में की जाए तो तुरंत कहा जाता है “ ऐसा मत कहो, घर की गरिहा कांप जाएगी।“ इस प्रकार की शक्ति स्वयं घर बन जाता है, उसी के कमरे को कोनों और दरवाजों को धूप दीप ‘ धूप पाची ’ दिया जाता है। यह शक्ति केवल परिवार के लिए ही है। उस घऱ में रहने वाले लोगों को ही इस गरिहा की अनुभूति होती है।
गृह देवता
दूसरा गृह देवता है। यह देवता सामान्यतः कोई पूर्वज पितर सा रहता है। या परिवार का कोई ’सती ’ हुई स्त्री होता है। ’सती के बुटड़े’ इसी श्रेणी में आते हैं। उसे कहीं कहीं ’तया’ कहा जाता है, यह मंगल एवं अमंगलकारी दोनों गुणों वाला है और नई फसल आने पर इसकी पूजा की जाती है। इसकी कोई प्रतिमा भी होती है, कहीं नहीं भी होती है। इसी गृह देवता का एक विशुद्ध मंगलकारी स्वरूप भी है, वह घर की रक्षा करता है, कुटुम्ब का त्राणदाता है और बरीन्द के अर्ध्य का अधिकारी है। कहीं-कहीं यह कुल देवता या कुलजा का रूप भी ले लेता है। इसकी मान्यता के पीछे घर की रक्षा, सुख-समृद्धि की प्राप्ति का विशेष उद्देश्य रहता प्रतीत होता है। यह कामना है भी स्वाभाविक, विशेषकर जब हम देखते हैं कि हिमालय में बहुधा घर दूर-दूर, बस्ती से बाहर होते हैं। कहीं धार पर, चोटी पर, कहीं पर्वत के ढलान पर, कहीं तेज बहती नदी के किनारे। जहाँ भी कमाने योग्य थोड़ी बहुत जमीन मिले, वहीं पर डाल दिया जाता है। घर का इन्हसार व्यक्ति की अपनी इच्छा या अपनी छांट पर नहीं होता है, उसका एकमात्र आधार केवल भूमि का सुलभ होना है, जिससे अन्न पैदा किया जा सके, पशुओं के लिए चारा मिल पाए। यदि निकट में कहीं झरना हो, चश्मा हो तो बहुत अच्छा, किन्तुन भी हो, तब भी काम चल जाता है। मील दो मील ऊपर-नीचे से पीने के लिए पानी लाया जा सकता है। इस प्रकार के घर के लिए कोई रक्षक शक्ति नितांत अनिवार्य है। कई बार सारे-सारे दिन यह घर खाली निर्जन रहता है। परिवार के सभी लोग बाहर खेतों में, घासनियों में, जंगल में, काम करने गए होते हैं, घर अरक्षित रहता है। तब यही गृह देवता उसकी रखवाली करता है।
ग्राम देवता
ग्राम देवता सारे गांव का देऊ है, अतः हिमाचल में जितने गांव हैं प्रायः उतने ही देवता हैं। इसलिए उनका पृथक-पृथक उल्लेख असंभव है। यही वह देवता है जिसके इर्द-गिर्द वहाँ का सम्पूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक जीवन घूमता दीख पड़ता है। ऐसा लगता है कि इसी देवता की धुरी पर हिमाचली मानव का अस्तित्व है, या यों कहें कि यही देवता है जिसके हाथ की वह कठपुतली है। जब जैसे चाहे नचा ले।
इस देवता का मतलब है हर दूसरे-तीसरे महीने नियमित भोज, नाचना-गाना। इस देऊ का अर्थ है समय-समय पर छोटे-मोटे उत्सव। इनमें कई स्थानों पर नर-नारी सामूहिक रूप से उपस्थित होते हैं। यहां मनोविनोद के अन्य साधन नहीं हैं, अतः ये देव ही मनोविनोद के अवसर प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, यदि मांस खाना हो तो देवता को अर्पित कर खा लो, अच्छा भोजन चाहिए, तो देवता के देउरे में भोज का आयोजन कर लो या उसका कोई पर्व मना लो। जब भी खाने का मन करे, देवता को चढ़ा दो, और ले लो। नाचना-गाना हो, कहीं मिलना-जुलना हो, वर्तमानभविष्य के मुतल्लिक जानना हो, तो देवता को पूछ लो। गर्ज कि यह देवता हर मर्ज की दवा है।
इन ग्राम देवताओं के प्रति लोगों के मन में अद्भुव भाव हैं। यदि एक ओर ये देवता लोगों के सर्वस्व हैं, जिनकी जरूरत कदम-कदम पर, प्रातः उठते ही पड़ती है, तो दूसरी ओर उन्हें कोटेश्वर महादेव और गोली नाग की तरह नदी में भी फेंका जा सकता है। उनका सत ( सद् प्रकृति) क्षीण हो जाने पर तूबी या घड़े में बन्द कर कूड़े-करकट के बीच भी डाला जा सकता है। कहीं-कहीं ऐसे उदाहरण भी मिले हैं जब किसी देवता को दंडित किया गया और जेल में बंद कर दिया गया। कैद से मुक्ति तभी मिली जब उसने भविष्य में सद्व्यवहार, सद्आचरण का आस्वासन दिया। यों भी यदि देवता अर्ज मारुज न माने, या कष्टों के निराकरण के लिए कोई प्रभावशाली कदम न उठाए, तो उसे सजा मिल सकती है और उसका ’ डांट बांध ’ का अधिकार उसी पर प्रयुक्त हो सकता है। एक ओर इतना डर कि ग्राम देवता के प्रति मन में लेशमात्र भी अश्रद्धा का भाव न आने पाए और उसके इशारे पर खेत में जुते बैलों को छोड़कर दो-चार दिन उसे नचाया घुमाया जाता है, तो दूसरी ओर उसके साथ बराबरी का व्यवहार भी किया जाता है। उसे निमित्त बनाकर सामाजिक दायित्व निभाए जाते हैं , पुन (पुण्य) प्राप्त किया जा सकता है। वह नाचने-गाने, मेला-त्योहार में लोगों का साथी होता है। यहां तक कि उसके जिम्मे प्रेमी या प्रेमिका को ढूँढ लाने का काम भी सौंपा जाता है, या उस काम में उसकी सहायता ली जाती है। वह कर न पाए तो निराशा का ठिकाना नहीं रहता, असमर्थता की पराकाष्ठा हो जाती है, उस रमणी की तरह जो “ देउआ-देवी न पूछिया थौकी, थौकी देशा-देशी न भाली। फिरी बी लोभी नी मिलू आपणा, बोह मैं विपता घाली। “ अपने ’लोभी ’ को देश-विदेश में खोज आई और सभी देवी-देऊओँ को पूछ कर हार गई, लेकिन प्रेमी को पा न सकी और फलस्वरूप अत्यंत विपत्ति में फंस गई।
हिमाचल में देवता के चार उपकरण जरूर होने चाहिए, एक रथ या जमाण,दूसरा मुखोट, तीसरा गूर, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे और चौथा कोठी। कहीं हर रोज पूजा के लिए कोई मन्दिर भले ही न हो, लेकिन कोठी अवश्य चाहिए, जहां जमाण, मुखोट आदि रखे जा सकें। सामान्यतः ग्राम देवता का देऊरा होता ही है, जहां कोई पिंडी या मुखोट मूर्ति का काम देता है। बड़ा देऊरा हो, तो देवता का रथ (जमाण) भी होगा। इस तरह यहदेवता मूर्त है, साकार ही नहीं, बृहदाकार है। इस परिवेश में वह नाचने गाने, मेला त्योहार में लोगों का साथी है। बिना देवता के मेला हो नहीं सकता और बिना रथ के देवता। रथ के बिना न देवता और न नाच! हां. जब देवता रथ पर आरूढ़ होकर मेलास्थल पर न आना चाहे तो उसके मन्दिर में ही नाटी लग सकती है।
खूंद देवता
इस नाच-गाने और अन्य सामाजिक दायित्व को निभाने में परगने या खूंद व अल्ल का देवता भी सहायक होता है। यह देवता आरंभ में शायद ग्राम देवता ही था, लेकिन अपनी परजा (प्रजा) के अन्यत्र आ बसने के कारण उनके साथ हो लिया। जहां-जहां इसकी प्रजा आ बसी, यह देवता उन-उन स्थानों, गावों का देवता भी बन गया। इस पद की प्राप्ति उसे सहज रूप से नहीं हुई। उस गांव में पहले से माने जाने वाले देवता के साथ उसका काफी संघर्ष रहा, और उस संघर्ष में अधिक बल दिखाने के बाद और अपने प्रतिद्वन्द्वी को हर बात में निर्बल, हीन सिद्ध करने के उपरान्त ही उसकी मान्यता बनी। इस तरह के संघर्षों की कथाएं अनेक आख्यानों में हैं, और देवता का गूर आत्म-परिचय देते हुए उनका उल्लेख करता है। इस प्रकार सेये देवता ग्राम देवता से परगना या खूंद देवता बन जाते हैं, क्योंकि आम तौर पर किसी गांव से बाहर जाकर बसने वाले लोग दूर न जाकर आसपास के ही गांव या इलाके में जाते हैं, जिससे अपने भाई-बन्धों से कट न जाएं और सामाजिक मेलजोल भी बना रहे।
क्षेत्रीय देवता
एक और देवता है जिसका प्रभाव-क्षेत्र काफी बड़ा है और अनेक परगनों, पुरानी रियासतों और आधुनिक जिलों तक फैला है। इस प्रकार का देवता सामान्यतः स्वयंभू है। देवता संबंधी लोक गाथाएं इस तरह के देवता से भरी पड़ी हैं। इस श्रेणी के प्रायः सभी देवताओं ने या तो लोगों को स्वप्न से आकर अपने लिए देउरा बनाने को कहा, या गवालों ने आकर गृहस्थों को बताया कि उनकी दुधारु गाएं किसी पिंडी पर दूध देती हैं। वहीं पर उनकी पूजा का प्रबंध किया गया। कुछ एक ऐसे देवता भी हैं जिन्हें दूसरी जगह से बुला कर लाया गया है जिससे वे किसी अन्यायी, क्रूर देवता, राक्स, राजा या राणा से मुक्ति दिला सकें।
महासु इन देवताओं के प्रतिनिधि के तौर पर लिया जा सकता है। किरमत दानू के अत्याचारों से उसकी प्रजा पीड़ित थी। विशेष कर उसकी नरमांस भक्षण की आदत से। लगभग सभी परिवार उसकी इस भूख का शिकार हो चुके थे। एक ब्राह्मण की चार कन्याओं को दानू पहले ही खा चुका था। अब अन्तिम कन्या की बारी थी। तभी उसकी पत्नी को स्वप्न में काश्मीर के किसी देवता ने सुझाया कि वह उसकी कन्या की रक्षा कर सकता है। पव्बर और टोंस नदी के क्षेत्र में रहने वाला यह गरीब ऊणा भाट जेहलम के किनारे रहने वाले स्वप्न में देखे देवता से एकदम अपरिचित था। उसने न कभी उसका नाम सुना न ही उसे देखा था। पता करते-कराते वह हाटकोटी पहुंचा और वहां नाग पंडित से जानकारी प्राप्त की और काश्मीर का मार्ग पूछा। देवता की कृपा से मार्ग में उसके मानों पंख लग गए, पलक झपकते ही वह काश्मीर जा पहुंचा। वहां उसे चेकरिया वजीर मिला। यह वजीर उसे देवता राजा के पास ले गया। देवता राजा सोने की मूर्ति के रूप में था। उसका नाम था महासु। एक सप्ताह के अनंतर महासु अपने दलबल, तीन भाई, चार वजीरों के साथ ऊणा भाट के खेत में प्रकट हो गया। भीषण युद्ध में उसने किरमत दानू और उसकी सेना को परास्त किया। यह साधारण युद्ध नहीं था। इसमें दोनों ओर का काफी नुकसान हुआ। किरमत ने अपनी जान गंवाई। महासु और उसके भाई भी क्षत-विक्षत हो गए। एक की टांग टूट गई, दूसरे का बाजू और तीसरे ने आंखें ही खो दी। अक्षत रहा तो केवल चाल़डू महासु।
यह गाथा महासु की कथा तो बताती ही है इसका प्रतीकात्मक और ऐतिहासिक महत्व भी है। इसकी मान्यता सिरमौर, सोलन, शिमला, मंडी और कुल्लू जिलों में काफी है। कई परिवार तो महासु देवता के मंदिर में जाकर चूड़ाकर्म संस्कार तक करवाते हैं। वैसे यह कार्य पौराणिक देवी-देवताओं, विशेषकर अम्बिका के मन्दिर में किया जाता है।
कोट ईश्वर और खेगसू की खसुम्भा तथा मरेच्छ देवता भी इसी श्रेणी में आते हैं। भेद केवल इतना है, कि इन देवताओंको बुलाया नहीं गया था, वे खुद आए और अपने तेज से लोगों को मजबूर किया कि इनकी पूजा की जाए। कोट ईश्वर और मरेच्छ कुछ-कुछ अमांगलिक स्वरूप लिए भी दीखते हैं। हाटकोटी का रहने वाला कोट ईश्वर एक समय राक्षसी वृत्ति का हो गया था और अपने ही लोगोंपर अत्यार करने लग पड़ा था। उसके जुल्मों से बचने के लिए उसकी प्रजा ने य उपाय निकाला कि देवता को दूर जाकर सतलुज नदी में बहा दिया जाए। उसे तूंबी में बंद कर दिया गया, लेकिन मार्ग में वह बच निकला और भाग कर उसने अन्यत्र प्राण बचाए। किंतु आदत तो आदत ही रहती है। यहां भी उसने लोगों को सताना शुरु किया और नाग बनकर गायों का दूध पीने लग पड़ा। उसने अपने लिए मंदिर की मांग की, जब बन गया तो उसे जगह पसंद नहीं आई। लोगों को दूसरी जगह, कोटी में, नया मंदिर बनाना पड़ा। अब कोट ईश्वर ने आसुरी वृत्तियों को त्याग दिया और एक बार फिर मंगलकारी देवता बन गया और महादेव के तौर पर उसकी मान्यता अनेक गांवों में होने लगी। खेगसू की खसुम्भा कोटेश्वर महादेव की बहन है जो हाइकोटी से उसके साथ आई थी और खेगसू के दायें किनारे खेगसू में स्थापित हो गई थी। इस देवी का प्रभाव कुल्लू औरशिमला जिले में है।
मरेच्छ देवता कोटेश्वर महादेव का बजीर है। उसका पुराना नाम क्या रहा होगा, कहा नहीं जा सकता। मरेच्छ शब्द तो स्पष्टतः म्लेच्छ ही है। इसे तिब्बत से आया हुआ माना जाता है। बेचारा कोई बौद्ध भिक्षु रहा होगा जिसका नाम दिथू था। वह आठवीं-नवी शताब्दी में यहां आया होगा। तब बज्रयान-मन्त्रयान का बोलबाला था। लेकिन बाद में वैष्णवों के जोर पकड़ने पर दिथू के मांसाहार के कारण उसे म्लेच्छ समझा जाने लगा। उस पर यह आरोप भी लगा कि वह नरमांस-भक्षी है। कोट ईश्वर ने इस लांछन पर उसे कैद कर दिया। उसे मुक्ति तब प्राप्त हुई, जब उसने मांस का पूरी तरह त्याग कर विशुद्ध वैष्णव रीति अपनाने का वचन दिया।
डूम एक और देवता है जिसका केन्द्रीय स्थान तो फागू का कटियाणा गांव माना जाता है, लेकिन यात्रा कुठाड़, महलोग, बुशैहर, कोटखाई, जुब्बल, बाघल, कोटी आदि पुरानी रियासतों की किया करता है। यह मंगल अमंगल दोनों का कर्ता है। एक लोक गाथा के मुताबिक डूम कांगड़ा नगरकोट से आकर यहां बसा, तो दूसरी गाथा इसे हाटकोटी देवी की कृपा से उत्पन्न खलनिध कनैत का पुत्र मानती है। जो भी हो, यह देवता घी-दूध पसंद करता है और यदि कोई गृहस्थ इसे घी-दूध देने में हील-हुज्जत करे, तो उसकी गाएं-भैंसें सुखा देता है।
कांगड़ा से आकर जुनगा, क्योंथल में निवास स्थापित करने वाला एक और देवता है, जिसे उचित नाम न होने के कारण जुनगा देवता ही कहा जाता है। यह नादौनसे आया माना जाता है। वस्तुतः यह कोई राजकुमार था, जिसने इस इलाके में आकर अपने आपको देवता घोषित करवा दिया। इस तरह के स्वयं घोषित देवताओं का दसवीं-बारहवीं शताब्दियों में इस प्रदेश में बड़ा जोर रहा। इस काल में इन राजकुमारों ने अपने लिए राज्य भी हथिया लिए और लोगों की धार्मिक भावना का अपना प्रभुत्व मजबूत बनाने के लिए इस्तेमाल भी किया और अपने को देवता बना डाला। सिरमौर से आए मुड़ पड़ोई देवता ने कोटी में अपना राज्य भी बनाया और देवत्व भी प्राप्त किया। इसमें राजकुमार की सहायता उसके कुलदेवता नरोलिया ने की थी। नरोलिया और राजकुमार समय बीतने पर एकाकार हो गए और कौन मनुष्य रहा, कौन देवता था अब यह कहना कठिन है, क्योंकि मूर्ति एक ही है।
लेखक की पुष्तक (हिमाचली संस्कृति का इतिहास) से