पहाड़ों की कराहट और प्रकृति का ताण्डव-अरविंद कुमार संभव


हिमालय पर्वतमाला कुछ वर्षों से बेचैन है और आंदोलित है। लगातार चल रहे भूस्खलन तथा अनियंत्रित बाढ़ ने वहां कहर मचा रखा है। पहली ही नज़र में वहां पारिस्थितिकी असंतुलन के चिन्ह दिखाई देते हैं जो प्रकृति प्रदत न होकर मानव द्वारा स्थापित किये गये हैं।

पिछले अनेक दशकों से हिमालयी क्षेत्र में बड़ी संख्या में अवैज्ञानिक तरीके से निर्माण एवं खनन कार्य हुये हैं। इस क्रम में भारी मात्रा में वृक्षों की कटाई हुई है तथा बारूदी विस्फोटकों से सड़क, बांध निर्माण हेतु पहाड़ों को काटा गया है। इन दो प्रमुख कारणों से पत्थर, जल, मिट्टी का आपसी प्राकृतिक जुड़ाव लगातार कमज़ोर होता गया और उसी अनुपात में पहाड़ों में धंसाव होता गया। जोशीमठ क्षेत्र में पड़ी दरारें इसी पारिस्थितिकीय तंत्र की विफलता की कहानी है। इस विषय में चिंतन करते समय हमें भारतीय उपमहाद्वीप के सतत् जीवन प्रवाह को इन आठ बिंदुओं से समझने की आवश्यकता है।

1. उत्तर भारत की तराई और मैदान जिस रेत से बने हैं वह रेत हिमालय के ग्लेशियरों से निकली नदियों से बने हैं.

2. हमारे समस्त खेत और पेय जल स्त्रोत इन्हीं नदियों के जल पर आश्रित है.

3. हमारी झीलें, भूगर्भ जल, तालाब, वृक्ष, झाड़ी वृहद मानसून चक्र के बादलों पर आधारित हैं जो ग्रेट हिमालय की चारदीवारी के कारण उत्तरी एशिया में न जाकर भारत में ही बरस जाते हैं.

4. यहां उगने वाली वनस्पति हमें आयुर्वेदिक प्राणरक्षक जड़ी बूटियां उपलब्ध कराती हैं और विशाल वृक्ष हमें निर्माण एवं अन्य कार्यों के लिये लकड़ी, ईंधन प्रदान करते हैं.

5. यहां से चलने वाली हवा और शीत आंधी हमारे आकाशीय पर्यावरण को संतुलित करती है.

6. यह हजारों वर्षों से भारत वर्ष की उत्तरी प्राकृतिक सीमा हैं जिस कारण विदेशी आक्रांताओं व लुटेरों से भारत इस दिशा से बचा हुआ है.

7. महान हिंदु सनातनी सभ्यता के मूल अध्यात्म का केंद्र शताब्दियों से यही हिमालय ही रहा है. यहां की गुप्त कंदराओं में बैठकर ही तप और ध्यान द्वारा हमारे प्राचीन मनीषियों ने अद्भुत धर्म ग्रंथों की रचनाएं की और विश्व के लोगों को ज्ञानमय बनाया. इसी की गोद में भारत के प्रधान प्रधान अराध्य देवालयों का निर्माण हुआ जहां आज भी लाखों भारतीय प्रतिवर्ष अराधना के लिये पहुंचे हैं.

8. मध्य काल में जब पश्चिमी सीमा से विदेशी आक्रांता भारत में घुस कर यहां की सनातन संस्कृति को नष्ट भ्रष्ट कर रहे थे तब इस हिमालय की गोद में बसने वाले नागरिकों ने ही भारतीय संस्कृति को सुरक्षित एवं अक्षुण्ण रखा.

तो ऐसे महान ईश्वर समान हिमालय की हमने और हमारे लालची और अदूरदर्शी शासकों ने शन: शन: क्या दशा कर दी इसे भी आज समझ लें.

1. हिमालय को तथाकथित विकास के नाम पर लूट का अड्डा बना दिया और चौड़ी चौड़ी आल वेदर सड़के बनाकर सम्पूर्ण मध्य हिमालय को डायनामाइट के विस्फोटों से चीर चीर कर दिया जिसके फलस्वरूप ढ़ीले होते पहाड़ खिसकने लगे और विनाश होने लगा.

2. अवैज्ञानिक तरीके से हिमालय में बहने वाली सदानीरा नदियों के प्राकृतिक प्रवाहों को रोक कर बांध बना दिये गये जिसके कारण बाढ़ और बादल फटने के गंभीर मामले रोज सामने आने लगे. टिहरी बांध का निर्माण सबसे खतरनाक कार्य था जो नहीं होना चाहिए था. भागीरथी, काली और इनकी सहायक नदियों पर बनाये गये छोटे बड़े बांधों ने पहाड़ के भूगर्भीय संतुलन को बिगाड़ दिया है।

3. अवैध खनन और अवैध वनकटाई के राजनेताओं के समर्थन से बढ़ते मामले हिमालय की दुर्दशा पर शासन प्रशासन और लोगों का अंतिम क्रूर प्रहार है. वृक्ष कटने से पहाड पर जमी मिट्टी की पकड़ कमजोर हो गयी और पहाड़ गिरने के मामले बढ़ने लगे.

4. पलायन- रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल इन चार अत्यावश्यक जरूरतों के अभाव में हिमालय के गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं और वहां की जमीन बंजर होती जा रही है. उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड के 16000 गांवों में से 3000 गाँव इसी पलायन संकट के कारण या तो पूर्ण रूपेण या आंशिक रूप से खाली हो चुके हैं और यह सिलसिला तेजी से जारी है.

5. हरे घास के मैदानों ( बुग्याल) की समाप्ति- पहाड़ की जान यहां ऊंचाई पर स्थित हरे घास के मैदान होते हैं जहां उनके पशु चराई करते हैं और उन पशुओं से उन्हें दूध, घी, ऊन, मांस व चर्म मिलता है. सूखते सुकड़ते ग्लेशियरों और भूस्खलन के कारण ये एक के बाद एक समाप्त होते जा रहे हैं. इस वजह से न केवल पर्यावरण क्षतिग्रस्त हो रहा है बल्कि पशुपालक भी अपने परंपरागत स्थान छोड़ कर जा रहे हैं.

6. ग्लोबल वार्मिंग के कारण जिन ग्लेशियरों से उत्तरी पश्चिमी भारत में बारहों मास बहने वाली नदियां निकलती हैं वे ग्लेशियर लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं जिसके कारण नदियों में पानी की कमी आ गयी है. गंगा को पानी देने वाला भागीरथी ग्लेशियर ही इन 50 वर्षों में 5 किलोमीटर पीछे खिसक गया है.

7. हिमालय को अध्यात्म पर्यटन की जगह पैसे कमाने के लालच में बाहर के पर्यटकों के लिये आमोद प्रमोद की जगह बना दिया गया है. यह मनोरंजन पर्यटन हिमालय के पर्यावरण और यहां की संस्कृति को दूषित कर रहा है. धार्मिक स्थलों पर पर्यटकों के आवास के लिये अनगिनत बहुमंजिला होटल आदि बनने से भी हिमालयी तंत्र को नुक्सान पहुंचता है। इन्हीं पर्यटकों द्वारा लाये तथा छोड़े गये प्लास्टिक कचरे के कारण पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंच रही है। रही सही कसर ऊपरी मध्य हिमालयी पर पर्यटक हेलीकॉप्टर उड़ा कर पूरी की जा रही है जिसके कंपन से पहाड़ की चट्टाने और ग्लेशियर की बर्फ़ ढ़ीली होकर खिसक रही हैं। *हिमालय क्षेत्र में बढ़ते धार्मिक पर्यटन से पारिस्थितिकी असंतुलन का भी खतरा बना हुआ है

मई से अक्टूबर तक का समय मध्य हिमालय क्षेत्र में चार धाम, अमरनाथ सहित अनेक धार्मिक स्थलों की यात्रा का समय होता है जिसमें धार्मिक और मनोरंजन पर्यटन के लिये यात्री एवं पर्यटक एक बड़ी संख्या में इन क्षेत्रों की यात्रा करते हैं। हाल के वर्षों में और विशेषकर गढ़वाल क्षेत्र के चार धामों हेतु यह प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ी है और यात्रा के साधन सहजता से सुलभ होने के कारण पूरे भारत और विदेश से भी सभी उम्र के स्त्री पुरुष यहां पर आने लगे हैं। यह एक तरह से तो स्थानीय लोगों के रोज़गार एवं आय का बेहतर समाधान है तथा सरकार को भी कर के रूप में भारी आमदनी होती है और साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण का रास्ता भी खुलता है।

किंतु इसका एक दूसरा एवं बहुत ही चिंताजनक पहलू भी है जिसकी तरफ़ ना तो सरकार का और ना ही नागरिकों का ध्यान जा रहा है। समूचा हिमालयी तंत्र बेहद नाज़ुक पारिस्थितिकी संयोजन से बना हुआ है और एक सीमा से बाहर इससे छेड़छाड़ करने पर बहुत ही पर्यावरणीय विनाश की परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है और इस नुकसान की भविष्य में कभी भी प्रतिपूर्ति नहीं होगा पाती है। पिछले दो दशकों में हम सब ने इस क्षरण को अपनी आंखों से देखा है और महसूस किया है। केदारनाथ आपदा, जोशीमठ धसान, भूकंप, अनपेक्षित रूप से बादलों का फटना , ग्लेशियरों का खिसकना और सिकुड़ना, बाढ़ आदि वो घटनाएं हैं जो हमें इशारा कर रही हैं कि हम अभी भी संभल जायें और अवैज्ञानिक तरीके से पहाड़ों से छेड़छाड़ नहीं करें।

प्राचीन समय से ही बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री की यात्राएं होती आई हैं और उन सब में एक अलिखित सा नियम रहता था कि अपने सभी पारिवारिक दायित्वों को पूर्ण करने के बाद ही कोई इन धामों की यात्रा करने का अधिकारी होता था। फलस्वरूप बहुत ही सीमित संख्या में यात्री यहां की यात्रा करते थे और चले जाते थे। आज हो यह रहा है कि बच्चे जवान वृद्ध सभी इन यात्राओं के लिये लालायित रहते हैं और मौके बेमौके इसके लिए निकल पड़ते हैं। यहां तक कोई एतराज़ की बात नहीं है। किंतु आपत्तिजनक बात यह है कि इनमें से अधिकांश विशेषकर युवा वर्ग ने इसे धार्मिक यात्रा से बदलकर मनोरंजन यात्रा या फिर कहें सेल्फी प्वाइंट में बदल दिया है और यही सोच इन स्थानों पर पड़ रही भीड़ का मुख्य कारण है। ये वो चार स्थान हैं जहां का पारिस्थितिकी तंत्र इतनी भीड़ को संभालने के लिए नहीं बना है और यह भीड़ भारी संख्या में दुकानों और होटलों के निर्माण का कारण बन जाती है जो हिमालयी पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचा रहे हैं। इस भीड़ को ढोहने के लिये बड़ी संख्या में वाहनों की आवश्यकता होती है जिनसे निकले अथाह धूंआ से हरियाली और आक्सीजन को क्षति पहुंचती है।

इन सब कारकों में एक सबसे बड़ा कारक विचारहीन राज्य और केंद्र सरकारें भी हैं जो मात्र पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए त्वरित लाभ हेतु सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्रों में काट छांट करके फोर लेन, आल वेदर रोड़ और सुरंगें बनाये जा रही हैं ।

अब इन सब नकारात्मक कार्यों का दुष्प्रभाव हमें दिखाई दे रहा है। चारों धामों में आने के लिये यात्रियों की अनियंत्रित भीड़ ने सभी मार्गों को जाम करके रखा हुआ है। यात्री रास्ते में यहां वहां 6-8 घंटे तक फंसे पड़े रहते हैं। मंदिर में दर्शनों के लिए लंबी लंबी लाइनें लगी हुई हैं और कुछ ही सेकंड के लिये यात्री दर्शन कर पाते हैं। अब अगले साल इस भीड़ का अनुमान लगाकर रास्ते में और अधिक होटल बन जायेंगे। ऊंची ऊंची बहुमंजिला इमारतें जो अभी भी बन चुकी हैं, और ज्यादा तादाद में बनने लगेंगी। हेलीकॉप्टरों की संख्या में भी बढ़ोतरी होगी जिनके कंपन से ग्लेशियर और पहाड़ों की पकड़ ढ़ीली होने लगेगी।

ठीक ऐसी ही परिस्थिति अमरनाथ धाम की है। यहां भी अनियंत्रित तादाद में यात्रियों को आने की अनुमति देकर और ऊंचाई पर बालटाल की तरफ़ सड़कों का निर्माण करके आपदाओं को आमंत्रित किया जा रहा है।

यह सही है कि इस धार्मिक देश में किसी को भी अपने अराध्य के दर्शन हेतु आने से नहीं रोका जा सकता है। किंतु पर्यावरण, भौतिकी संरचना, और व्यवहारिकता का संयोजन करके एक सही नीति तो बनाई ही जा सकती है जिसके माध्यम से भीड अभियांत्रिकी तथा सड़क अभियांत्रिकी का समन्वय किया जा सके। यह बहुत जरूरी है कि मध्य हिमालयी और कराकोरम क्षेत्र में भौतिकी एवं पारिस्थितिकी अध्ययन करके यह सुनिश्चित किया जाये कि किसी स्थान विशेष पर किसी एक दिन में कितने लोगों को आने की और रहने की अनुमति देने से पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी संतुलन बना रह सकेगा। साथ ही हिमालयी क्षेत्र में फोरलेन सड़क, सुरंग तथा बांध निर्माण की एक वैज्ञानिक नीति बनायी जाये और उसके अनुसार ही भविष्य के निर्माणों की योजना बनायी जाये।

समुचा निम्न मध्य हिमालयी क्षेत्र नर्म एवं पोली सामग्री से निर्मित है और इसपर तीन मंजिल से अधिक के भवनों के निर्माण की मंजूरी किसी भी हालत में नहीं दी जानी चाहिए। इसके साथ ही चारों धामों में अब और किसी नये निर्माण की अनुमति नहीं दी जाये। यात्रियों के रात्रि विश्राम हेतु कम से कम आठ किलोमीटर नीचे की जगह सुनिश्चित की जाये और वहां पार्किंग सहित सभी सुविधाएं विकसित की जायें। प्रतिदिन के हिसाब से अनुमति प्राप्त यात्री संख्या के अलावा अन्य सभी को ऋषिकेश, देहरादून, नरेंद्र नगर में ही रोक कर रखा जाये। लंबी बसों पर आगे जाने को रोका जाये। इनसे समूचा रास्ता जाम हो जाता है।

अदूरदर्शी पर्यटन एवं पर्वतीय नीति बनाने से ना केवल हिमालय को अपितु यात्रियों को भी नुकसान पहुंचता है।


-अरविंद ‘कुमारसंभव’
लेखक, सम्पादक, स्वतंत्र टिप्पणीकार
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जयपुर

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