अविस्मरणीय यात्रा अंडमान-निकोबार की-गोवर्धन यादव

घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर प्रकृति के अनूठे, अनछूये सौंदर्य के दर्शन करना, खिलखिलाते समय के कंधे पर हाथ रखकर उसके साथ खिलखिलाना- मुस्कुराना- बातें करना, उछलती-कूदती, बल- खाती झूमती नदियों का पहाड़ी गीत-संगीत सुनना, पहाड़ों के एकांत में खो जाना, घने जंगलों में सरसरा -कर बहती अल्हड़ हवा के झोंकों के संग झूमना-इठलाना, चिड़ियों का शोर सुनना और आकाश में चहचहाते, उड़ान भरते विहंगो को निहारना, पहाड़ों की चोटियों से उछल-कूद मचाते, गीत गाते झरनों को धरती पर उतरते हुए देखना और भी न जाने कितने ही रंग-रूप बदलते नीलाकाश के नीचे स्वछंदता के साथ विचरना, दहाड़ते-उफ़नते सागर से बातें करना ही तो यात्रा के पर्याय है.
जीवन में एक समय ऐसा भी आता है, जब जीवन एकाकीपन के घिरने लगता है. जीवन से ऊब होने लगती है. मन छटपटाने लगता है, एक अज्ञात भय मन के आंगन में घेरा डालकर बैठ जाता है. ऐसे विकट और कठिन समय में जीवन नीरस जान पड़ने लगता है. जीवन अपना अर्थ खोने लगता है. जैसे ही आप अपने परिधि (रेडियस) से बाहर निकलते हैं यात्रा पर, अपने आपको एक नई दुनिया में पाते हैं. वहाँ का नयापन आपको अपने सम्मोहन के जाल में बांधने लगता है. घर से बाहर निकलते ही आप स्वयं भी बदलने लगते है. एक नया परिवर्तन अपने आप आने लगता है. नीरस जीवन अपने आप रंगीन होने लगता है. अतः ऐसे नीरस जीवन को रसमय बनाने के लिए बहुत जरुरी है “यात्रा” में निकल पड़ना.
यात्रा एक छोर से निकलकर दूसरे छोर तक जाना नहीं है, बल्कि नित नूतन होते संसार में प्रवेश करना भी होता है. यात्रा का तात्पर्य केवल समय नष्ट करना नहीं होता, बल्कि एक अपरिचित-अनचिन्हे संसार को जानना-पहचाना भी होता है. यात्राएं केवल भौतिक ही नहीं होती, बल्कि बाहर से अन्दर की ओर भी होती है. अंतरयात्रा से व्यक्ति अपनी आत्मा के बेहद करीब पहुँच जाता है. मन की अतल गहराइयों के भीतर उतरकर, वह जीवन का वास्तविक अर्थ खोजने लगता है. अपने आपको पहचाने लगता है और एक दिव्य प्रकाश से नहा उठता है.
यात्रा एक मनोवैज्ञानिक, व्यवहारिक और अध्यात्म से जुड़ने का एक शक्तिशाली माध्यम भी है. जैसे ही हमारा आधिपत्य, मूल प्रकृति पर होने लगता है, उसी क्षण से एक विलक्षण सृजनात्मकता का उदय भी हमारे भीतर होने लगता है.
थके मन और शिथिल देह के साथ उलझन से घिरे जीवन में यकायक “यात्रा” करने का उत्साह जब झंकृत होने लगे तो समझिए- “उत्सव का अवसर” आ गया है. नैराश्य पर मनुष्य की विजय का सबसे बड़ा प्रमाण है-” उत्सव यात्रा”. और यही जीत हासिल करने का उद्घोष भी है. पुनर्नव के लिए किए गए अद्भुत प्रयास की बानगी भी है और उल्लास-अभिव्यक्ति की सुंदर छवि भी.
बदलते समय के साथ हम, मौसम से बिंधे मन लिए फ़िरते है “यात्रा” में. हमारी आँखें निहारने लगती हैं ऋतुओं को और मन उसके मुताबिक शब्दों के मोती चुन-चुनकर हार गूंथने लगता है. जैसे ऋतु- वैसा मन- वैसे वचन. प्रख्यात साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा इसी मौसम से बंधकर कह उठते हैं- मस्ती से भरके जबकि हवा / सौरभ से बरबस उलझ पड़ी / तब उलझ पड़ा मेरा सपना / कुछ नए-नए अरमानों से / गेंदा फ़ूला जब बागों में / सरसों फ़ूली जब खेतों में / तब फ़ूल उठी सहस उमंग / मेरे मुरझाए प्राणों में.// मुरझाए प्राणों को प्राणवान बनाने का सबसे सरल और कारगर उपाय है-यात्रा पर निकल पड़ना.
पिछली बार की यात्रा में हम एक ऐसे भू-भाग में जा पहुँचे थे, जहाँ धरती के एक छोर पर वसंत की लालिमा छिटकी हुई थी, तो वहीं दूसरे अन्तिम छोर पर रूखे-सूखे नंगे पहाड़ों का संजाल था. जहाँ हरियाली नाम मात्र को भी नहीं थी. जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ- “शिमला टू काजा ( दि हिमालयन कोल्ड डेजर्ट) व्हाया चंडीगढ़ की. अब की बार हमारी यात्रा थी-“हावड़ा से अंडमान-निकोबार व्हाया नागपुर”.हावड़ा में जहाँ भीड़-ही-भीड़ है, इन्सानों का समुद्र जहाँ ठाठे मार रहा होता है, वहीं अंडमान चारों ओर से लहलहाते, मिलों लंबे समुद्र से घिरे हुए तथा नारीयल और सुपाड़ी के घने जंगलओं के बीच मुस्कुराता है. बतलाते हैं कि केवल 32 द्वीपों पर ही आवक-जावक है, बाकी के द्वीप सरकार की निगरानी में उनकी देखरेख होती है. पर्यटक को केवल तीन द्वीपों पर सैर करने की अनुमति है. तीनों ही द्वीप अपनी नैसर्गिक छटा से पर्यटकों का मन मोह लेते हैं.
अंडमान द्वीप समूह में छोटे-बड़े 572 द्वीप समाहित हैं. अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह का संपूर्ण क्षेत्रफ़ल 8249 (sqr) किलोनीटर है, यह द्वीप सैंडल पीक (532 मीटर), माउंट हैरियेट (365.मीटर), माउंट थूओलियर (642 मीटर) जैसी ऊँची-ऊँची पहाड़ियां से घिरा हुआ है. तथा इसकी चेन्नई से (पोर्टब्लेयर) की दूरी 1190 किमी, कोलकाता से 1255 किमी. विशाखापट्टम से 1200 किमी.दूर है. एक अकेले अण्डमान क्षेत्र की लंबाई 467 किलोमीटर तथा चौड़ाई 52 किलोमीटर है. निकोबार द्वीप समूह की लम्बाई 259 किलोमीटर तथा चौड़ाई 58 किलोमीटर है. ये सभी द्वीप, चारों ओर से भयंकर शोर मचाते, दहाड़ते समुद्र (बंगाल की खाड़ी) से घिरा हुआ है.
अण्डमान एवं निकोबार द्वीपसमूह की एक प्रमुख जनजाति है “जारवा”. वर्तमान समय में इनकी संख्या 250 से लेकर 400 तक अनुमानित है जो कि अत्यन्त कम है. जारवा लोगों की त्वचा का रंग एकदम काला होता है और कद छोटा होता है. करीब 1990 तक जारवा जनजाति किसी की नज़रों में नहीं आई थी और एक अलग तरह का जीवन जी रही थी. अगर कोई बाहरी आदमी इनके दायरे में प्रवेश करता था, तो ये लोग उसे देखते ही मार देते थे. जारवा जनजाति अब भी तीर-धनुष से अपने लिए शिकार करती है. इनकी आबादी प्रतिवर्ष घटती देखी गई है, एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में इनकी आबादी 250 से 400 के बीच है.
15-09-2022.
हावड़ा टू पोर्टब्लेयर व्हाया नागपुर.
15 सितम्बर 2022 की अलसुबह हम जा पहुँचे कोलकाता के ” नेताजी सुभाषचंद्र बोस इंटरनेश्नल एअरपोर्ट” पर. टाटा की एअरलाईन सर्विस ” विस्तारा- 747″ ने 09.00 पर उड़ान भरी और लंबी उड़ान भरते हुए हम दिन के 11.20 बजे जा पहुँचे “पोर्ट्ब्लेयर”. वहाँ पहुँचकर हमने होटेल में भोजन किया और कुछ समय विश्राम किया.
“पोर्ट्ब्लेयर”
“अंडमान-निकोबार की राजधानी ” पोर्टब्लेयर” है. यहाँ आपको ऐतिहासिल सेलुलर जेल, कोरबाइन्स कोव बीच, रोज आईलैण्ड, वाईपर आईलैण्ड, ब्रिटिश कालोनी आदि देखने को मिलती हैं.. इस शहर को स्मार्ट सीटी के तौर पर विकसित किया गया है. उतार-चढ़ाव वाली सड़कों पर फ़र्राटे भरते वाहन, जब सुपाड़ी और पाम के सघन वृक्षों की हरियाली के बीच से होकर गुजरते है, तो यात्री यहाँ के नजारे देखकर मंत्रमुग्ध हो जाता है.-
सबसे पहले हमने “सेलुलर जेल” जाकर उन ज्ञात-अज्ञात स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को, जिन्होंने भारत माता की आजादी के लिए शारीरिक और मानसिक आघातों / यातनाओं को सहकर हंसते-हंसते फ़ांसी के फ़ंदे पर झूल गए लेकिन अंग्रेजी दासता को कभी स्वीकार नहीं की. हम सर्व प्रथम इस ऐतिहासिक स्थल पर जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करना चाहते थे.
सेलुलर जेल अर्थात कालापानी-
कालापानी- ( आतंकित होने के लिए नाम ही काफ़ी है.

( सेलुलर जेल के समक्ष बाएं से दाएं- श्री राजेश्वर आनदेव, हरीश खंडेलवाल, सत्यनारायण अग्रवाल,गोवर्धन यादव, ( इस लेख के लेखक.) विनोद शर्मा,सुनील श्रीवास्तव, दीपक बुते, सुधीर शेकदार, विजय कुर्रे ,कन्हैयाराम रघुवंशी, हर्षद घाटोले, श्याम हुद्दार, प्रकाश इंगले, सतीष सिंगोर)
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प्रायः सभी द्वीप, चारों ओर से भयंकर शोर मचाते, दहाड़ते समुद्र (बंगाल की खाड़ी) से घिरा हुए है, ऐसे दुर्गम स्थान पर “सेलुलर जेल” का निर्माण किया जाना और उसमें सैकड़ों वीर सेनानियों को….. उन क्रांतिकारियों को, जिन्हें ब्रितानिया सरकार अपने लिए बड़ा खतरा मानकर चलती थी, यहाँ लाकर कैद में रखा जाता था. यदि कोई कैदी, सैनिकों की क्रूर निगाहों से बचकर यहाँ से भागना भी चाहे, तो मीलों फ़ैले समुद्र को तैर कर पार कर पाना उसके लिए लगभग असंभव ही था. “कालापानी” के नाम से कुख्यात इस द्वीप समूह को “कालापानी ” के नाम से जाना गया. इसके पीछे दो तथ्य उभरकर सामने आते हैं, पहला तो यह कि अण्डमान समुद्र का नीला गहरा पानी, जो देखने पर काला प्रतीत होता है, इस कारण इसका नाम “कालापानी” पड़ा और दूसरा यह कि अंग्रेजों द्वारा जो खुँखार कैदियों और क्रन्तिकारियों को सजा सुनाई जाती थी, सजा के रूप में इसे “कालापानी” से सम्बोधित किया गया.
जब हम अपने देश के स्वतंत्रता सेनानियों को याद करते हैं, तो हमें उस “कालापानी” की याद हो आती है, जो अंग्रेजों की बर्बरता को बतलाने के लिए काफ़ी है. कालापानी की सजा का ख्याल आते ही शरीर के रॊंगटे खड़े हो जाते हैं. हालांकि अब देश में “सजा-ए-कालापानी” का कोई अस्तित्व नहीं रह गया है, फ़िर भी लोगों को उसके बारे में जानने की दिलचस्पी लगातार बनी हुई है. कालापानी शब्द अंडमान के बंदी उपनिवेश के लिए देश निकाला देने का पर्याय है.कालापानी का सांस्कृतिक भाव काल से बना है जिसका अर्थ होता है- मृत्यु जल या मृत्यु के स्थान से है, जहाँ से कोई वापस नहीं आ पाता. देश निकालों के लिए कालापानी का अर्थ तो यह भी है कि बचे जीवन के लिए कठोर और अमानवीय यातनाएं सहना.एक अन्य अर्थ में कालापानी यानि स्वतंत्रता सेनानियों को अनकही यातनाओ और तकलीफ़ों का सामना करने के लिए जीवित नरक में भेजना, जो मौत की सजा से भी बदतर था. कालापानी की सजा माने बंदी को अपनों से दूर भेजना, एक ऐसा अदृष्य लोक, जिसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता.
भारतीय कैदी जेलों से भाग निकलते थे, बावजूद इसके ब्रिटिश सरकार ने कालापानी के बनाई गई जेल की चार दीवारी बहुत छोटी बनवाई थी, क्योंकि इस जेल का निर्माण जिस जगह हुआ था, वह स्थान चारों ओर से समुद्र के गहरे पानी में घिरा हुआ था. ऐसे में किसी भी कैदी का भाग पाना नामुमकिन था. 238 कैदियों ने एक साथ अंग्रेजों को चकमा देकर वहां से भाग निकलने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुए और पकड़ लिए गए. फ़िर होना क्या था?. उन्हें अंग्रेजों के कहर का सामना करना पड़ा. यातना सहन नहीं कर सकने की दशा में एक कैदी ने आत्महत्या तक कर ली थी, जिससे नाराज होकर जेल अधीक्षक वाकर ने 87 लोगों को फ़ांसी पर लटकाने का आदेश दे दिया. निर्ममता से जुल्म सहने के बावजूद हमारे स्वतंत्रता वीर सेनानियों ने “भारत माता की जय” बोलने से कभी पीछे नहीं हटे.
सेसुलर जेल के निर्माण के मुख्य कारक जानने के लिए हमें सन 1857 की ओर लौटना होगा. 10 मई 1857 को भारतीयों ने अंग्रेज शासन के खिलाफ़ विद्रोह किया था. इस विद्रोह के 200 क्रांतिकारियों को पिनल सेटलमेंट के तहत कालापानी अर्थात अण्डमान लाया गया था. अंग्रेज सरकार ने 20 नवम्बर 1857 को अण्डमान कमेटी का निर्माण किया, जिसमें डा. फ़्रेडरिक जान मोट सर्जन बंगाल आर्मी की अध्यक्षता में समिति ने कार्य करना शुरु किया. जिसमें स्पष्टरूप से कहा गया कि खाड़ी द्वीपों के तटॊं का बारिकी से निरीक्षण करे एवं उपयुक्त स्थान का चुनाव करते हुए वहाँ जेल का निर्माण किया जा सके. समिति के निर्णय के ठीक पन्द्रह दिन पश्चात अण्डमान में पिनल सेटलमेंट शुरु किया गया.
कैपटन हेनरी मान को शासन की ओर से यह आदेश दिया गया कि वह इस बड़े भूभाग पर ब्रिटिश यूनियन जैक फ़हराए और उसे अपने अधीन कर ले. इस तरह 22 जनवरी 1858 ई.को यूनियन जैक पताका को फ़हराया गया और इसी के साथ वह अंग्रेजों का शासन शुरू हो गया. रास द्वीप के जंगलों को साफ़ करके उसे राजधानी के रूप में विकसित किया गया. पिनल सेटलमेंट के तहत 1857 के सैनिक, पंजाब के गदर और बहावी विद्रोहियों, मणीपुर के विद्रोही और अन्य प्रांत से लाए गए भारतीय देश भक्तों ने कठिन परिश्रम के बल पर जंगल साफ़ करके, रासद्वीप को अंग्रेज शासन की राजधानी का रूप दिया गया. उस समय इन लाए गए देश भक्तों को “कालापानी” सजा के रूप में अण्डमान में भयंकर कष्टपूर्ण दर्दनाक सजा काटनी पड़ती थी. अण्डमान से भारत की मुख्य भूमि की ओर लौटना लगभग असंभव था. उन स्वातंत्रवीरों को मिलने वाले कष्टों को यदि एक पल भर के लिए भी याद किया जाए, तो शरीर में सिहरन होने लगती है. मन में एक अज्ञात भय समाने लगता है.
1858 को कालापानी सजा के रूप में पहला जत्था 200 सिपाहियों और उसके पश्चात लगातार सैकड़ों भारतीय क्रांतिकारियों को यहाँ लाया गया, जिनका लेखे-जोखे का आज तक कोई अता-पता नहीं मिलता. वे सैकड़ों क्रांतिकारी, अपने देश की आजादी के लिए इस “कालापानी” धरती में सदा-सदा के लिए समा गए. भारतीय प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात अंग्रेज सरकार ने क्रांतिकारियों को कालापानी याने अण्डमान भेजना शुरु किया कि उन्हें खतरनाक क्रांतिकारियों से सदा-सदा के लिए मुक्ति मिल सके.
सेलुलर जेल-के नाम से कुख्यात इस जेल का निर्माण अटलांटा पाईंट की ऊँचाइयों पर स्थित है. इसका निर्माण 1896-1906 ईसवीं के बीच हुआ. सनुद्री किनारे पर एक पहरेदार के समान यह आज भी खड़ा है. जेल शहर के उत्तरीय पूर्व दिशा में है. इस जेल की एक-एक ईंट में क्रांतिकारियों के खून-पसीने का इतिहास छिपा हुआ है. यह जेल सात कतार में खड़ा है. हर कतार में तीन मंजिलें और सात ही कतार मंजिले, एक टावर से जुड़ी हुई है. दूर से देखने पर यह “स्टार फ़िश” की तरह या साइकिल के चक्के से जुड़े स्पोक्स की तरह नजर आता है. जेल के मध्य भाग में स्थित टावर से इस जेल की सात भुजाओं को एक साथ देखा जा सकता है. जेल का निर्माण कार्य 1896 में शुरु हुआ था और 1910 में संपन्न हुआ. यह इमारत एक गहरे भूरे लाल रंग की ईंटॊं से बनी हुई है.
सेलुलर जेल में बनी 698 एकांत कोठरियां 13.5 फ़ीट लंबी तथा सात फ़ीट चौडी तथा दस फ़ीट ऊँची है. कोठरी का लोहे का दरवाजा तीन फ़ीट की लोहे की राड के साथ बंद होता है. अंधकारमय इन कोठरियों का दरवाजा खोलना इतना आसान नहीं होता कि कोई भी जब चाहे दरवाजा खोल ले. प्रत्येक कोठरी में 3(x)1 का वेंटिलेटर बनाया गया है. इन कोठरियों की बनावट इस प्रकार से की गई है कि कोई भी क्रांतिकारी न तो अपने साथी का चेहरा ही देख पाता था और न ही कोई गुप्त विचार प्रकट कर सकता था. सारी की सारी कोठरियां एक कतार में बनी है. दालान चार फ़ीट चौड़ा है, जो कठोर लोहे से घिरा है. ये सभी दालान मध्य टावर से मिलते हैं. जेल में प्रवेश पाना और बाहर निकलने के लिए एक ही रास्ता है. सभी तीनों गलियारे, मध्य टावर सभी गलियारे से जुड़े हुए हैं.
इन तीनों गलियारों में एक वार्डर, उप-गलियारा में दूसरा वार्डर और मध्य गालियारे में तीसरा वार्डर, इस प्रकार 21 वार्डर्स गस्त ड्यूटी में तैनात होते थे और क्रांतिकारियों की सभी गतिविधियों पर नजर रखते थे. 12 घंटे के रात्रि काल में कैदियों को पेशाब के लिए एक मिट्टी का पात्र दिया जाता था, जो कि एक समय के पेशाब के लिए काफ़ी था. अगर टट्टी करने की बात आती तो उसके लिए अपने आप को काबू में रखना होता था. जमादार की इजाजत के बगैर कोई भी कैदी को छॊड़ा नहीं जाता था. यदि कोई कैदी बीमार पड़ जाता तो उसकी डाक्टरी जांच नहीं होती थी. उसे जेल के खुंखार जेलर बैरी के सामने हाजिर होना पड़ता था. उसे अस्पताल भेजना या न भेजना, जेलर की मर्जी पर निर्भर होता था. या फ़िर उसे भगवान के सहारे पर जिंदा रहना होता था.
जेल के कठोर नियमों में एक नियम यह भी था कि प्रत्येक कैदी को एक निश्चित मात्रा में नारियल का तेल या फ़िर सरसों का तेल निकालना होता था. यदि किसी कारणवश कोटा पूरा नहीं होता था, तो क्रोधी जेलर पीट-पीट कर उसके शरीर की चमढ़ी तक उधेड़ देता था. कैदियों को बचे हुए नारीयल को छीलकर ( जटा-जूट ) रस्सी बनवाई जाती थी. उन्हें तेल निकालने की घानी में बैलों की तरह कोल्हू खींचना पड़ता था. खाना भी पर्याप्त मात्रा में नहीं दिया जाता था. खाना अपने आपमें इतना दुषित और विषैला होता थी कि एक अच्छे हृष्ट-पुष्ट इन्सान को बीमार बना दे. जली-अधजली, कच्ची-पक्की रोटियां, दाल ( जिसमें पानी की भरमार ज्यादा होती थी) और सब्जी परोसी जाती थी, जिनमें कीड़े-मकौड़ों का पाया जाना आम बात थी. भोजन में नमक तो केवल नाम मात्र को ही होता था.
सेलुलर जेल के निर्माण होने के पहले यह वाइपर द्वीप की जेल थी, जिसे ब्रिटिश शासन द्वारा देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वालों को प्रताड़ित किया जाता था. इस कुख्यात जेल को नाम दिया गया था-” वाइपर चेन गईंग जेल” ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वालों के पैरों को जंजीर से जकड़ दिया जाता था.

सेलुलर जेल की वास्तुकला ” पैसेव्लेनिया” प्रणाली या एकांत प्रणाली के सिद्धांत पर आधारित थी, जिसमें अन्य कैदियों से पूरी तरह अलग रखने के लिए प्रत्येक कैदी को अलग-अलग रखने के लिए अलग-अलग कारावास देने का नियम था. एक ही विंग या अलग विंगो में कैदियों के बीच किसी भी प्रकार का संचार संभव नहीं था. पिसाई करने वाली चक्की पर , बागवानी करने, गरी सुखाने, रस्सी बनाने, नारियल की जटा तैयार करने, कालीन बनाने, तौलिया बुनने आदि का काम करते समय कैदियों के हाथों में हथकड़ी जकड़ी हुई रहती थी.. एकांत कोठरी में कैद रहने, कई-कई दिनों तक भूखा रखने की सजा इतनी भयावह और असहनीय होती थी जिसकी कल्पना मात्र से शरीर में सिहरन होने लगती है.
देश का यह सेलुलर जेल क्रांतिकारियों के लिए आजादी का स्त्रोत रहा है, क्योंकि ब्रिटिश शासन खतरनाक क्रांतिकारियों को इस जेल में भेजते थे. अत्याचारों के विरुद्ध जब वे भूख हड़ताल करने को मजबूर हो जाते तो उन पर बेरहमी से लाठियां भांजी जाती थी. कैदियों को पत्र लिखने या पत्रिकाएं पढ़ने की सख्त मनाही थी. साल में कैदियों को एक बार अपने घर पत्र लिखने की इजाजत थी. उनकी लिखी चिठ्ठियों की बारिकी से जांच-पड़ताल होती थी. अंग्रेजों के जुल्म और अत्याचार का मुकाबला कुछ ही कैदी कर पाते थे. बहुतेरों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी थी. कुछ तो पागलपन का शिकार होकर काल-कवलित हो गए.
सन 1908 में बने अण्डमान तथा निकोबार गजेटीयर के अनुसार जिन कैदियों को छः साल की सजा होती थी, उन्हें जेल के कड़े अनुशासन में रहना पड़ता था. जिन्हें देढ़ साल की सजा दी जाती, उन्हें कठिन काम दिया जाता था. जिस कैदियों को तीन वर्ष की सजा होती थी, उन्हें बैरेक्स में रहना पड़ता था और जेल के अधिकारियों के कठोर देखरेख में काम करना पड़ता था. काम के बदले कुछ पैसा भी उन्हें मिलता था. आगे चलकर कैदी अगले पांच साल के लिए मजदूर कैदी के रूप में अपना जीवनयापन करता था. उसे छोटी जिम्मेदारी दी जाती थी. जिनकी सजा की अवधि दस साल की हो जाती थी, उसे खुली आजादी का टिकिट मिल जाता था, वह अपनी शेष जिन्दगी किसी गांव में खेती और जानवर पालकर बिताता था. उसे शादी करने का अधिकार प्राप्त होता था. अपनी आय का कुछ हिस्सा परिवार को भेज सकता था,लेकिन कैदी अपने आप में स्वतंत्र नहीं होता था. वह सेटलमेंट के बाहर नहीं माना जाता था,लेकिन जो कैदी बीस-पच्चीस वर्ष सेटलमेंट जीवन पूरा कर लेता था, उसे सेटलमेंट से छुट्टी दे दी जाती थी.
दूसरे महायुद्ध के दौरान अण्डमान तथा निकोबार में जापानी हमला हुआ, इस तरह इसका प्रशासन जापान सरकार के अधीन हो गया. इस जापानी प्रशासन के दौरान इन द्वीपवासियों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. जैसे खद्यान्न की भारी कमी, आम चीजों का अभाव आदि. जापानी सैनिक स्थानीय लोगों के घरों में जबरन घुस कर कोई भी चीज उठा लेते थे. इसका विरोध करने का साहस करना कठिन था. आए दिन जापानी महत्वपूर्ण ठिकानों पर ब्रिटिश हवाई हमले होते थे. इससे खाद्यान्न भंडार, अस्त्र-शस्त्र का भारी नुकसान होता था. जापानियों को शक था कि यहां के स्थानीय लोग अंग्रेजों से मिलकर जासूसी का काम करते हैं. इसलिए जापानी सेना ने पढ़े-लिखे भारतीयों की धरपकड़ शुरु कर उन्हें जेल में डाल दिया. कुछ लोगों को जासूस होने का करार देकर उन्हें जबरदस्ती नाव में बिठाकर हैवलाक के समुद्र में झोंक देते थे. इतना ही नहीं उनके ऊपर बोट तक घुमा दी जाती थी, ताकि वे जीवित न बच पाए. स्थानीय लोगों को मार-मारकर उनसे सड़कें बनवाना, सरकारी मकान आदि बनवाने के काम पर लगाया जाता था.
26 दिसंबर सन 2004 को ग्रेट निकोबार और लिटिल अण्डमान में 8.9 की तीव्रता वाला भूकंप आया, जिसमें समुद्र की लहरें बेकाबू हो गई और देखते ही देखते उस क्षेत्र के समुद्री किनारे पानी से भर गए और जनजीवन तहस-नहस हो गया.आदमी, औरतें, बच्चे पागलों की तरह ऊँचाई वाली जगहों पर भागने लगे, हजारों जानवर जहाँ की तहाँ अपनी जान गवां बैठे. नारीयल और सुपाड़ी और मसालों के बागीचे पूरी तरह तहस-नहस और बरबाद हो गए. इस सुनामी की शुरुआत इंडोनेशिया देश के सुमात्रा द्वीप से हुई. इस विनाशकारी सुनामी ने सुमात्रा, श्रीलंका, थाईलैण्ड और भारत के तामिलाडु और निकोबार एवं अण्डमान द्वीपों को बुरी तरह से प्रभावित किया. इतना ही नहीं सुनामी के पश्चात यहाँ का प्रमुख ज्वालामुखी द्वीप “बैरन” प्रज्जवलित हो उठा. इस सुनामी के प्रकोप से सेलुलर जेल भी बुरी तरह से प्रभावित हुआ. उसके कई हिस्से सुनामी की भेंट चढ़ गए.
अंग्रेजों ने बहुत सारे लोगों को कालापानी की सजा सुनाई थी, जिसमें अधिकांश स्वतंत्रता सेनानी थे. विनायक दामोदर सावरकर, सावरकर के भाई बाबूराम सावरकर, डा दीवान सिंह, योगेन्द्र शुक्ला, होतीलाल वर्मा, बाबा भानसिंह, वारिन्द्र कुमार घोष, क्रांतिवीर बटुकेश्वर दत्त, फ़िल्ड मार्शल संपादक लद्दाराम, मौलाना अहमदौल्ला, मौलवी अब्दुल रहीम सादिकपुरी, भाई परमानंद, मौलाना फ़जल-ए-हक खैराबादी, शदलचंद्र चटर्जी, सोहन सिंह, बबन जोशी, नंद गोपाल, महावीर सिंह आदि को कालापानी का दंश झेलना पड़ा था. अंग्रेजों की क्रूरता इतनी बढ़ चुकी थी कि अब वह सहनशक्ति के बाहर ही बात थी.
भगतसिंह के दोस्त महावीर सिंह जेल में भूख हड़ताल पर बैठ गए. जब अंग्रेजों को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने और जुल्म ढाना शुरु कर दिया, लेकिन वे उनकी भूख हड़ताल को रोक नहीं आए. अंत में उन्हें दूध में जहर मिलाकर जबरन पिलाया गया, जिससे उनकी मौत हो गई. उनका दाह-संस्कार न करते हुए क्रूर अंग्रेजों ने उसके शव को पत्थर में बांधकर समुद्र में फ़ेंक दिया, ताकि किसी को उसके बारे में कोई खबर न लगे, लेकिन खबर ही कुछ इस प्रकार की थी, जिसके फ़ैलते ही जेल के सारे कैदी भूख हड़ताल पर चले गए. बाद में महात्मा गांधी जी के हस्तक्षेप के चलते 1937-38 में कैदियों को वापिस भारत भेज दिया गया.
1932 से लेकर 1937 के दौरान विशेष रूप से सामूहिक भूख हड़ताल का सहारा लिया गया. अंतिम भूख हड़ताल जो जुलाई 1937 से शुरु हुई थी, यह 45 दिनों तक जारी रही थी. अंततः सरकार को दंडात्मक उपनिवेश को बंद करने का फ़ैसला लेना पड़ा और सेलुलर जेल के सभी राजनीतिक कैदियों को जनवरी 1938 तक भारत की मूख्य भूमि पर अपने-अपने राज्यों में वापिस भेज दिया गया.
सन 1941 में सुभाषचंद्र बोस मौलवी बनकर पेशावर, काबुल होते हुए बर्लिन जा पहुँचे थे. वहाँ वे हिटलर से मिले और अंत में सिंगापुर आकर क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस की सहायता से भारतीय सिपाहियों को एकजुट करके “आजाद हिंद फ़ौज” की स्थापना की. जापान सरकार ने नेताजी को पूरा समर्थन दिया. उनकी सेना में डा.कैप्टन लक्ष्मी सहगल महिला बटालियन की प्रमुख थीं.
29 दिसंबर 1943 को सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद सरकार द्वारा द्वीपों पर राजनीतिक नियंत्रण करने का मसौदा तैयार किया. उसे पारित किया और भारतीय राष्ट्रीय सेना का तिरंगा फ़हराने के लिए पोर्टब्लेयर का दौरा किया. और 30 दिसंबर 1943 को तिरंगा फ़हराकर भारत की आजादी का शंखनाद किया था.
आज न तो उन कालकोठरियों में कोई कैदी है और न ही कोई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी है, लेकिन वे सभी कालकोठरियां उन तमाम स्वतंत्रतावीरों की दास्तान कह सुनाती है, जिसे सुनने और अनुभव करने के लिए उन दिनों को याद करना होगा. सेलुलर जेल की एक -एक ईंट आज उन तमाम महान देशभक्तों और स्वतंत्रता सेनानियों के आमानवीय कष्टॊं को और पीड़ाओं को देखने-समझने वाला मूक दर्शक के रुप में खड़ा है. यहाँ की एक-एक ईंट, बल्कि यहाँ का जर्रा-जर्रा उस दर्दनाक कहानी को सुना रहा है अपनी मूक वाणी में. उन सभी क्रांतिवीरों को हमारा शत-शत नमन.
भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री मान.श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 30 दिसंबर 2018 दिन रविवार को अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पहुँचे और उन्होंने तीनों द्वीपों को नया नाम दिया. अपने कार्यकाल में पहली बार यहाँ पहुँचे मोदीजी ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के यहाँ तिरंगा फहराने की 75वीं सालगिरह पर रोस आइलैंड का नामकरण उनके नाम पर करने की घोषणा की-“अब इसे “नेताजी सुभाषचंद्र बोस द्वीप” के नाम से जाना जाता है. इसके अलावा नील आइलैंड को “शहीद द्वीप” और हेवलॉक आइलैंड को ” स्वराज द्वीप” के नाम से पहचान मिली. ज्ञात हो कि द्वितीय विश्व युद्ध में अंडमान-निकोबार पर जापानी सेना के कब्जे के बाद 30 दिसंबर, 1943 को यहाँ पहुंचे नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने ही अंडमान-निकोबार का नाम बदलकर शहीद और स्वराज द्वीप करने की सलाह दी थी.
अपना संबोधन शुरू करने से पहले प्रधानमंत्री ने उपस्थित जनता से अपने मोबाइल की फ्लैश लाइट जलाकर नेताजी और आजाद हिंद फौज के शहीदों को श्रद्धांजलि देने का आग्रह किया. इस पर हजारों मोबाइलों की लाइट से स्टेडियम तत्काल ही जगमगा गया. इससे पहले प्रधानमंत्री मरीना पार्क पहुंचे और यहाँ 150 फुट ऊंचे राष्ट्रीय ध्वज को फहराया. साथ ही नेता जी की प्रतिमा पर पुष्प चढ़ाकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की.
प्रधानमंत्री ने इस विशेष दिन पर नेताजी के यहां तिरंगा फहराने की स्मृति में स्मारक डाक टिकट और 75 रुपये का सिक्का भी जारी किया. प्रधानमंत्री ने सेल्युलर जेल का भी दौरान किया और उन शहीदों व स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धांजलि दी, जिन्हें अंग्रेज शासित भारत से यहाँ राजनीतिक बंदी के तौर पर “सजा-ए-काला” पानी देकर निवार्सित किया जाता था या फांसी पर लटका दिया जाता था. वर्ष 1896 में शुरू होकर 1906 में पूरी हुई इस जेल में बहुत सारे नामी स्वतंत्रता सेनानियों को बंद रखकर यंत्रणाएं दी गई थीं.
प्रधानमंत्री जेल परिसर में उस बैरक में भी पहुंचे, जिसमें हिंदुत्व विचारक वीर सावरकर को रखा गया था. बैरक में पहुँचने पर सावरकर के फोटो के सामने मोदी फर्श पर बैठ गए और कुछ समय के लिए अपनी आंखें बंद करते हुए हाथ जोड़कर ध्यान जैसी मुद्रा बना ली. बैरक से निकलकर वह केंद्रीय टॉवर में गए, जहां उन्होंने संगमरमर पर लिखे गए यहां कैद रहे लोगों के नाम पढ़े. उन्होंने कहा-” वीर सावरकर, बाबा भान सिंह, इंदुभूषण राय जैसे शहीदों की बैरक किसी मंदिर से कम नहीं मानी जा सकती. उन्होंने फांसीघर भी देखा, जहां एकसाथ तीन लोगों को फांसी देने की व्यवस्था थी और फिर म्यूजियम में जाकर विजिटर- बुक में हस्ताक्षर भी किए.
आज यह कुख्यात सेलुलर जेल निःशब्द खड़ा है. उसके पास अपनी दांसता सुनाने के लिए बहुत कुछ है. लेकिन मन में इतना दर्द छुपाए हुए है कि बतलाना भी चाहे, तो बतला नहीं पाएगा. किस-किस का दर्द सुनाएगा वह?, किस-किस की करूण कहानी सुना पाएगा वह?. विक्षिप्त अवस्था में रहते हुए कुछ भी नहीं सुना पाने का दर्द मन में समाए हुए उसने मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा. केवल बावरी हवा उन कक्षों के चक्कर लगाकर लौट आती है गुमसुम-गुमसुम- सी…बिना कुछ बोले चुपचाप लौट जाती है. अगर इसकी बेजान दीवारें कुछ बोलना भी चाहे, तो कुछ नहीं बोल-बता पाएगी, क्योंकि उनमें मन में ब्रितानिया हुकुमत का खौफ़ भीतर गहराई तक घर कर गया है. ठीक है. आज उसके भीतर न तो कोई क्रांतिकारी है और न ही कोई राजनीतिक कैदी. सारे कक्ष सूने पड़े हैं, जो अपना दर्द बयां करते नजर आते हैं.
किसी तरह साहस बटोरकर हम जा पहुँचे उस ऐतिहासिक कक्ष में, जिसमें वीर सावरकरजी को कैद करके रखा गया था. सावरलरजी को इसी कक्ष में दस साल तक कैद करके रखा गया था.

इस कक्ष में प्रवेश करने से पूर्व दाईं ओर एक बंद कमरा सा दिखाई देता है. उससे सटा एक दरवाजा भी है जो कि बाहर समुद्र की तरफ़ खुलता है. यह फ़ांसी सेल है, यह दो हिस्सों में बंटा हुआ है. ऊपर के हिस्से में तीन फ़ंदे है और नीचले हिस्से में साफ़ फ़र्श.ऊपरी हिस्से में फ़ांसी दिए जाने के बाद फ़ट्टॆ हटते ही शव नीचे चला जाता था. फ़िर वहां से शवों को निकालकार किस्ती के जरिए समुद्र के बीच में बहा दिया जाता था. फ़ांसी दिए जाने का कारूणिक दृष्य सावरकरजी की कोठी से साफ़-साफ़ देखा जा सकता है. ब्रितानियां हुकुमत चाहती थी कि सावरकर इसे अपनी आंखों से देखे और मानसिक रूप से टूटकर अंग्रेजी हुकूमत के सामने झुक जाए. बावजूद इसके वे नहीं टूटे और न ही झुके. आज आपका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है.
उस कक्ष में हमने प्रवेश किया और नम आंखों से उन्हें अपनी भाव-सुमन अर्पित किए और एक गहरी चुप्पी और उदासी लिए लौट आए.
यहाँ से लौटकर हमने “कोरबाइन्स कोव बीच” पर आकर वहाँ के नैसर्गिक दृश्यावलियों को जी भर निहारा.
“कोरबाइन्स कोव बीच”-

पोर्टब्लेयर से लगभग छः किमी की दूरी पर यह बीच सघन नारियल वृक्षों और पाम वृक्षों से घिरा हुआ है, यह बीच सैलानियों के लिए वाटरस्पोर्ट्स के लिए प्रसिद्ध है. यहाँ होटेल, बार तथा रेस्टारेंट आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. बीच में प्रवेश करने से पूर्व आपको यहाँ जापानी बंकर भी देखने को मिलता है. ब्रितानिया सेना की बमबारी से बचने के लिए जापानियों से यहाँ बंकर बनाया था.
16-09-2022-
सुबह चाय-पानी के पश्चात हमारा अगला पड़ाव था-रोज आईलैंड और नोर्थ-बे (कोरल आईलैंड) की ओर.
रोस आईलैण्ड (Ross island) (नेताजी सुभा‍षचंद्र द्वीप)

रोज आइलैंडरोज द्वीप अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह का एक द्वीप है , जो पोर्टब्लेयर से 2 किमी. दूरी पर अवस्थित है. प्रशासनिक रुप से दक्षिण अण्डमान जिले के अंतर्गत आता है और यह पोर्टब्लेयर से 40 किमी.पूर्वोत्तर में स्थित है. इटालियन इंजीनियर जिआर्जिवों रोसा ने सन 1968 को इस द्वीप को बसाया था. यहाँ पर टिम्बर जैसी लकड़ियाँ प्रचूर मात्रा में पायी जाती है, यहाँ की हरियाली पर्यटकों का मन मोह लेती हैं. समुद्र का पानी देखने में नीला दीखता है. बंगाल की इस खाड़ी के जलक्षेत्र में अनंत लैगून, रंग बिरंगी मछलियां अठखेलियां करती मिलेगीं. यहाँ पर सेलुलर जेल मानव विकास के इतिहास को चित्रित करता संग्रहालय , समुद्र संग्रहालय. लघु उद्योग संग्रहालय आदि देखने को मिलते हैं. यह नील द्वीप के रूप में भी जाना जाता है.कभी यह प्रशासनिक मुख्यालय था, लेकिन वर्तमान में यह निर्जन द्वीप है. इसकी प्राकृतिक सुंदरता मन मोह लेती है. 1941 में आए भूकंप के पश्चात अंग्रेजों ने इस आईलैंड को छोड़ दिया था. घने जंगलों के बीच से गुजरते हुए आप एक चर्च, एक स्टोर रूम, एक टेनिस कोर्ट, अस्पताल. कब्रिस्तान, प्रिंटिंग प्रेस सहित सचिवालय भी देख सकते हैं. ये काफ़ी पुराने समय के हैं और आज खण्डहर के रूप में खड़े हुए हैं.
कोरल आईलैंड पोर्टब्लेयर-( north bay (coral iland).

इस द्वीप के दो मुख्य आकर्षण है. पहला-समुद्र के गहरे पानी में खूबसूरत कोरल देखने को मिलते हैं और दूसरा यहाँ का लाईटहाउस देखने लायक है. नोट-बीस रुपए के नोट के पृष्ठभाग पर छप इस लाईटहाउस की तस्वीर देखी जा सकती है. घने जंगल के बीच बनी करीब चार सौ सीढ़ियों से नीचे उतरकर आप इस “लाईटहाउस” तक पहुँच सकते हैं. यहाँ का नजारा देखकर पर्यटक मंत्रमुग्ध हो उठता है.
यहाँ से लौटकर हमने होटेल में रात्रि का भोजन और विश्राम किया.
17-09-2022
सुबह होटेल छोड़ने से पूर्व हमने हल्का जलपान किया और “हैवलाक द्वीप” ( स्वराज द्वीप) की ओर प्रस्थान किया
स्वराज द्वीप पहुंचने से पहले आपको “मैक लोजिस्टिक्स (प्रा.लिमि.) की जेट्टी जिसका किराया 1155.00 रुपया प्रति व्यक्ति है ,सवार होकर, गरजते-उफ़नते महासागर का सीना चीरते हुए आगे बढ़ते है.

स्वराज द्वीप (हैवलाक द्वीप) पोर्टब्लेयर से 41 किमी.पूर्वोत्तर में स्थित है.स्वराज द्वीप के कई निवासी बांग्लादेश स्वाधीनता युद्ध के दौरान आए शरनार्थी और उनके वंशज हैं, जिन्हें भारत सरकार ने यहां बसाया था. यहां पांच गांव हैं- गोविन्दनगर, विजयनगर, श्यामनगर ,कृष्णनगर और राधानगर. 55 किमी. की दूरी पर पश्चमी तट पर बसे राधानगर को एशिया का सर्वोत्तम तट घोषित किया गया है. इस बीच पर आप सफ़ेद रेत, समुद्र का नीला पानी देखने को मिलेगा. यहां आप लजीज सीफ़ूड का मजा ले सकते हैं. इसके अलावा यहाँ एलिफ़ैंट बीच, विजय बीच, नगर बीच और कालापत्थर बीच भी देखने को मिलते है.
सफ़ेद बालू वाला हैवलाक द्वीप (स्वराज द्वीप) आइलैंड मूंगों की चट्टानों और हरे-भरे जंगलों से घिरा हुआ है, जो इसकी सुन्दरता में चार चांद लगा देता है. यहां आप वाटर-स्पोर्ट्स का मजा ले सकते है. इसके अलावा आप स्कूबा डाईविंग, स्नोर्केलिंग, ट्रेकिंग, फ़िशिंग और सी ब्लाक जैसी वाटर एडवेंचर का आनंद ले सकते हैं.

हैवलाक द्वीप की रोमांचक सैर के बाद हमने होटेल में भोजन और विश्राम करने के बाद एलीफ़ईंटा बीच, राधानगर बीच की सैर की और रात्रि में यहीं विश्राम किया.
18-09-2022
हमारा अगला पड़ाव था- नील आइलैंड-( शहीद द्वीप)

नील द्वीप अंडमान द्वीपस्मूह के कई खूबसूरत द्वीपों में से एक है. यह द्वीप पोर्टब्लेयर से लगभग 37 किमी दूर स्थित है. ” मैक लोजिस्टिक प्रा.लि. के जहाज पर, जिसका किराया प्रति व्यक्ति 1155.00 रुपया है, सवार होकर इस खूबसूरत द्वीप पर उतरे. (भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदीजी ने 30 दिसंबर 2018 को इस द्वीप का नाम बदलकर “शहीद द्वीप” रखा था.) यहां के तटॊं पर गजब की शांति और दूर-दूर तक फ़ैले समुद्र में उठती लहरों को उठता देख, आपका आनंद द्विगुणित हो उठता है. अंडमान के दक्षिण में 37 स्क्वायर किमी. में फ़ैला छोटा लेकिन बहुत ही खूबसूरत द्वीप है यह. कोरल रीफ़ और बेहतरीन बायोडायवर्सिटी के लिए जाना जाता है.
यहां दिसंबर के अंत और जनवरी महिने के प्रारंभ में ” बाबू सुभाषचन्द्र बोस जी” की पावन स्मृतियों को संजोने के लिए मेले का आयोजन दिया जाता है. यह मेला बोस जी की जयंती का प्रतीक है.
नील आईलैंड के आसपास लक्ष्मणपुर, भरतपुर, और सीतापुर बीच भी हैं, जो रामायण के पौराणिक किरदारों से प्रेरित है. बेहतरीन रिजार्ट्स आप यहाँ देख सकते हैं. अत्यन्त ही खूबसूरत इन द्वीपों का नैसर्गिक आनंद उठाने के बाद हमने नील द्वीप में रात्रि विश्राम किया.
19-09-2022

सुबह चाय-नाश्ता से निवृत्त होकर हम नील द्वीप से पी.एम.बी.जेट्टी पर सवार होकर पोर्टब्लेयर आए. पोर्टब्लेयर की होटल में भोजन आदि से निवृत्त होकर हमने नेवी का म्युजियम “समुद्रीका”, मानव विज्ञान म्युजियम, मछलीपालन म्युजियम देखा. और रात्रि में उसी होटेल में विश्राम किया.
20-09-2022
सुप्त ज्वालामुखी -“बैरन” एवं चुना पत्थर की गुफ़ाएं.
बिना चाय-पानी के बड़ी सुबह हमने होटेल से निकलकर जेट्टी पर सवार होकर “बाराटंग” की ओर प्रस्थान किया. इस स्थान पर “चुना पत्थर की गुफ़ाएं” और “सुप्त ज्वालामुखी- बैरन” को देखा जा सकता है. चुना पत्थर की गुफ़ाएं देखने के लिए एक नौका पर सवार होकर एक निश्चित स्थान तक (लगभग दो किमी.) पैदल चलना होता है. और सुप्त ज्वालामुखी देखने के लिए एक जीप पर सवार होकर कुछ दूर जाने के बाद आपको एक खास ऊँचाई पर जाकर इस ज्वालामुखी को देखा जा सकता है.
बैरन ज्वालामुखी-
(यह अंडमान निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर से लगभग 138 किलोमीटर उत्तर पूर्व में बंगाल की खाडी में स्थित है).
“बैरन ज्वालामुखी” द्वीप अंडमान द्वीपों में सबसे पूर्वी द्वीप है. यह भारत ही नहीं अपितु दक्षिण एशिया का एक मात्र सक्रिय ज्वालामुखी है. ज्वालामुखी हर किसी पहाड़ से नहीं निकलते हैं; यह ज्यादातर वहां पाये जाते है जहाँ टेकटोनिक प्लाटों में तनाव हो या फिर पृथ्वी का भीतरी भाग बहुत गर्म हो. यह द्वीप भारतीय व बर्मी टेकटोनिक प्लाटों के किनारे एक ज्वालामुखी श्रृंखला के मध्य स्थित है.
तीन किलोमीटर में फैले इस द्वीप का ज्वालामुखी का पहला रिकॉर्ड सन 1787 का है. तब से अब तक यहाँ दस बार ज्वालामुखी फ़ट चुके है. आज भी यहाँ धुआं निकलता देख जा सकता है. ‘बैरन’ शब्द का मतलब होता है – बंजर, जहाँ कोई रहता नहीं हो. यह द्वीप अपने नाम पर गया है, यहाँ कोई मनुष्य नहीं रहता. कुछ बकरियां, चूहे और पक्षी ही यहाँ दिखाई दे जाते हैं.
चुना पत्थर की गुफ़ाएं एवं बैरन सुप्त ज्वालामुखी देखने के बाद हम अपनी होटेल में लौट आए और 21-09-2022 की सुबह हमने अपनी यात्रा समाप्त कर पोर्टब्लेयर के वीर सावरकर हवाई अड्डॆ के लिए प्रस्थान किया, जहाँ हमारा टाटा ग्रुप का यान ” विस्तारा-UK778 कोलकाता के सुभाषचंद्र बोस अंतरराष्ट्रीय के लिए उडान भरने को तैयार खड़ा था. इस यान ने 11.55 पर उड़ान भरी और कोलकाता 14.20 बजे पहुँच गया.
चुंकि हमारी ट्रेन कोलकाता के शालीमार स्टेशन से रात्रि के साढ़े आठ बजे की थी,लेकिन किन्ही अपरिहार्य कारणॊं से सारी ट्रेने रद्द कर दी गईं थीं.. इस तरह हमें फ़िर से अन्य होटेल की तलाश कर रात्रि विश्राम करना पड़ा. चुंकि सभी ट्रेने परिचालन के लिए रद्द कर दी गई थीं अतः वे कब शुरु होगी, कब नहीं. कहा नहीं जा सकता था. अतः हमने कोलकाता से नागपुर के लिए इन्डिगो की फ़्लाइट 6E 291 बुक की जो दूसरे दिन रात्रि के 20.55 पर थी. इस तरह हम नागपुर रात्रि के लगभग 11.30 बजे पहुंचे और वहां से टैक्सी से रात्रि के दो बजे के लगभग हम अपने घर छिन्दवाड़ा लौट आए.
यात्रा से लौटकर आए हुए करीब दस दिन बीत चुके हैं, लेकिन स्मृतियों में अंडमान में बिताए रोमांचक क्षणों की यादें बरबस ही पलट-पलट कर याद आती हैं. याद आता है- गरजता- उफ़नता महासागर, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की अविरअल श्रृंखलाएं, कभी मंद तो कभी तेज गति से प्रवहमान होती समुद्री हवाएं, पाम और सुपाड़ी के मुस्कुराते घने जंगल, और सेलुलर जेल की भयावह स्मृतियां, उन ज्ञात और अज्ञात क्रांतिकारी वीरों की स्मृतियां जिन्होंने भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया. उनकी स्मृतियों को याद करते हुए सिर श्रद्धा से झुक जाता है और दोनों हाथ आपस में जुड़ जाते हैं. उन तमाम क्रांतिकारी वीरों को हमारा नमन.बारम्बार नमन जिनके क्रांतिकारी अभियान के चलते आजादी की अलख जगायी गयी थी.
भारत के स्वतंत्रतावीरों को हमारा नमन. बारम्बार नमन.

गोवर्धन यादव
103, -कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001
09424356400.
ईमेल-goverdhanyadav44@gmail.com

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