अमृतसर- शैल अग्रवाल

इसबार हमारी भारत की खोज जोशीले ऐताहिसिक और रंग व स्वाद से भरपूर अमृतसर से शुरु हुई।

एयर-पोर्ट से ही पंजाब का रंग भरपूर चढ़ चुका था हम पर। स्वागत में भांगड़े की मुद्रा में खड़े पुतले और गांवों में मेहमानों का सत्कार करती खाट ने पहली नज़र में ही मन मोह लिया। बग़ल में खड़ी पंजाबिन काली तेरी चोटी और परांदा तेरा लाल री…गीत की याद दिला रही थी। साथ ही भारत की बढ़ती साख से अवगत कराता, आधुनिक प्रगतिशील भारत को दर्शाता, G 20 की तैयारी में कई देशों के राष्ट्र-ध्वजों का वह फहराता समूह मन को उल्लसित करने लगा। कदम खुद ही जोश से भर गए और मन आत्म-विश्वास व नए भारत के प्रति श्रद्धा से।

टैक्सी से होटल का सफ़र अधिक लम्बा नहीं था फिर भी कई यादों को समेटे खड़ा वह ऐतिहासिक और प्राचीन शहर हमें अपने ही अन्दाज़ में अपना परिचय दे रहा था, उन्ही छोटी-छोटी घुमावदार गलियों के साथ जिनमें आज भी शहर की आत्मा बसती है। इन्ही से तो परिचय मिलता है हमारे जैसे पर्यटकों को, फिर चाहे वह वैनिस हो, पैरिस हो या फिर अमृतसर या भारत का कोई भी अन्य प्राचीन व ऐतिहासिक शहर जैसे लखनऊ, आगरा, दिल्ली और मथुरा वाराणसी आदि।
अमृतसर शहर यादों में सदा से ही दो मुख्य वजहों से रहा है और उन्ही यादों को पुनः जीने वहाँ पहुँची भी थी। अब अगले चौबीस घटों में अनुभव करना चाहती थी वह सुना पढ़ा सब कुछ। समझने थे मुझे वे बार-बार बेहद दर्द के साथ कहे और सुने गए किस्से… किस्से हमारी बेबसी और कायरता के… साथ-साथ स्वार्थ रहित देश के प्रति उच्चतम बलिदान के। जिन्हें सुनकर मन कभी तो आक्रोश से भर जाता था, तो कभी अश्रु-पूरित आँखों के साथ श्रद्धा से नत-मस्तक।

विशेषतः वह जलियाँ वाला बाग…बचपन के पचास के दशक में मुझे सपनों में डराया करता था, अन्य उन सभी पेड़ों और कुँए-बावरियों की तरह जहाँ असंख्य भारतीयों को गोलियों से भूना गया था, फाँसी पर लटकाया और डुबोया गया था। उन दिनों हर परिवार के पास थे ऐसे क़िस्से…कहीं फिरंगियों द्वारा तो कहीं अपने ही देशवासियों द्वारा, जाति और धरम के नाम पर।

पसीने-पसीने हो जाती थी सोचकर ही कैसे सहा होगा देशवासियों ने वह अत्याचार…पूर्वजों का अपनी आजादी के लिए वह अभूतपूर्व सँघर्ष और आत्म बलिदान…रोंगटे खड़ी करने वाले किस्से थे सारे-के-सारे ही।

और वे दूसरे विभाजन के भी तो उतने ही कसैले. उतने ही कष्टप्रद, उतने ही बर्बर और खून सने थे। देश का विभाजन क्या हुआ, लोग भाईचारा ही भूल गए। मानवता की हद से नीचे उतर गए। और अब खोए उसी सौहाद्र को निभाते बागा बौर्डर पर हर शाम हमारे सैनिक पड़ोसियों से मिलकर , चन्द मिनटों को ही सही, उत्सव मनाते हैं…जोश के साथ शौर्य प्रदर्शन करते हैं…गीत संगीत के साथ कुछ पल रोज़ ही याद करते हैं कि हम पड़ोसी हैं।

दूर से ही सही, बिछड़े पड़ोसियों के बगल में जा बैठने का मिलने का आभास और अहसास मिला था बागा बौर्डर पर उस दिन हमें भी।

अंतर्राष्ट्रीय उड़ान की थकान थी पर हमारे पास बस चौबीस घंटे का ही वक्त था अमृसर में। होटल में तीन चार घंटे बिताकर हम तैयार थे अमृतसर को खोजने और समझने के लिए। पहला अवसर बागा बौर्डर पर जाने का ही मिला । यूँ तो बैठने की वी. आई. पी. जगह में सीट की बुकिंग के लिए हफ्ते भर का वक्त चाहिए। परन्तु जब उन्हें पता चला कि हम सिर्फ चौबीस घंटे हैं अमृतसर में तो होटल वालों ने कैसे भी तुरंत हमारी सातों सीटों का इन्तजाम कर ही दिया।

अगले दिन शाम की दिल्ली की उड़ान पूर्व निर्धारित थी। तो मुख्यतः उस दिन के बारह से अगले दिन के बारह बजे तक का ही वक्त था हमारे पास।…घूमने को, खरीददारी करने को भी और सोने जगने को भी ।

सुना था बहुत लंबा पैदल चलना पड़ता है। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। लम्बी खुली ट्रेन जैसे कैरियर थे , जैसे कि यूरोप में जगह-जगह दिखते हैं जो हमें कार पार्क से घटना स्थल पर ले गए।

वहाँ मेरी सीट अंतिम थी जहाँ से पाकिस्तानी बौर्डर और उस तरफ क्या हो रहा है पूरा साफ-साफ दिख रहा था।और बग़ल में वे पहरा देते बन्दूक धारी सैनिक भी। डर की कोई बात नहीं थी, भारत पाकिस्तान में अचानक युद्ध शुरु हो जाने की, गोलीबारी की कोई संभावना नहीं थी, फिर भी जाने क्यों दिल धड़क रहा था। अच्छा तो लग रहा था और ख़ुद को सौभाग्यशाली भी मान रही थी कि वहाँ पर हूँ, भारत से जुड़ी पाकिस्तान की सीमा पर…भारत के अंतिम गाँव के अंतिम छोर पर। बहुत सुना था अपने देश के इस बिछुड़े, पीछे छूटे हिस्से के बारे में, अक्सर मन भी करता था देखने को, मिलने को। और आज वह सपना साकार हुआ था, अटारी गाँव के इस छोर पर।

मेरे और पाकिस्तान के बीच आठ-दस फुट से ज़्यादा दूरी नहीं थी। यकायक कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे और मन भय और रोमांच दोनों से ही भर गया। कभी कल्पना में ही सही, ख़ुद ही दौड़कर दूसरी तरफ़ पहुँच जाती और सबसे रूबरू होने लग जाती, तो अगले पल ही यह भी याद आने लग जाता कि हमारे इन्ही पड़ोसियों ने एक बार बौर्डर फोर्स को हमारे दो सैनिकों के कटे सिर थाली में मखमल के कपड़े से ढककर भेंट किए थे।
इतने क्रूर और असंतुलित पड़ोसियों का क्या भरोसा? क्या पता कब गोलियाँ चलनी शुरु हो जाएँ, कौन कह सकता है? पर उस दिन तो डरने की कोई बात नहीं थी क्योंकि हम अपने देश में थे और वीर सैनिकों की पूरी सुरक्षा में थे।

शाम शांत और बेहद सौहाद्रपूर्ण व जोशीली बीती। कई कलाकार, कई उच्चाधिकारी, और कई हमारे जैसे साधारण पर्यटक थे वहाँ पर। सैनिकों के संग बैठे। लगा वह भीड़ नहीं, भारतीयों के देश-प्रेम का सैलाब था हमारी आँखों के आगे। सभी ने देशबक्ति के गानों और विभिन्न सेना की टुकड़ियों के जोशीले जुलूस और करतबों के साथ एक देश प्रेम से ओतप्रोत और जोशीली शाम बिताई, जिसके अंत में पड़ोसी देश के सैनिक भी शामिल हुए। दोनों देशों के ध्वज रातभर के लिए उतारे गए, पुनः सुबह सूरज की पहली किरण के साथ वापस फहराने के लिए।

वहाँ से उठते ही अगली हमारी याद स्वर्ण मंदिर की है।

शाम के सात बज चुके थे और हमने सोच लिया था कि अब स्वर्ण मंदिर के बाद ही खाना वगैरह कुछ भी…वरना नींद आने लगेगी और घूम नहीं पायेंगे। ब्रिटेन का वक्त भारत से पीछे होना सहायक रहा, क्योंकि अभी तो हमारे दोपहर के ढाई-तीन ही बजे थे। असल में हम भारतीय और ब्रिटिश समय को अपनी सहूलियत अनुसार जी रहे थे उस दिन। रात के बारह तक तो जगना ही था क्योंकि अगले दिन यानी सात जुलाई को हमारे प्रिय जुड़वा पोते अनय और आयान का जन्मदिन भी तो था, जिसे हम पूरे उत्साह के साथ , एक पारिवारिक उत्सव की तरह अमृतसर में मनाना चाहते थे।

रात के अंधेरे में दपदप और झिलमिल करता स्वर्ण मंदिर…भव्य अमृतसर के गुरुद्वारे के दर्शन अभिभूत करने वाले थे। झिलमिल रौशनी में अपनी भव्यता के साथ खड़ा मंदिर जब सामने बहते पानी में झिलमिलाया तो मन खुद ही श्रद्धा से नत हो गया। तिसपर से वह हवा में व्याप्त घी और कपूर की महक, समवेत गुरुवाणी का पाठ, मन को उर्जा और शांति दोनों ही दे रहा थे। भीड़ इतनी की लम्बी कतारें और मेरा बारबार ठिठक कर एक कोने में खड़े हो जाना और तब किसी सहृदय श्रद्धालु का दर्शन के लिए मुझे हाथ पकड़ कर जगह दे देना …अनगिनत मीठी यादें हैं जो प्रसाद की तरह मीठी हैं और आज भी मुंह में घुली हुई हैं। अपने देश में अभी भी सभ्यता और संस्कार बचे हुए हैं, बताती हैं। वरना कई मंदिरों में तो कोहनी छीलकर, पैर कुचल कर भी श्रद्धालु आगे बढ़ जाते हैं। मंदिर के आगे वह पैर धोने का कुंड फिर ही प्रवेश, कई बातें थीं जो अच्छी लगीं।

स्वाद की कहूँ तो मंदिर का प्रसाद जो तन-मन में आशीर्वाद सा घुल गया और बाज़ार से ख़रीदी वह हींग और मसालों के संग चूरन की गोलियों की शक्ल में आम पापड़ तो आज भी तो साथ है, अमृतसर की यादों की तरह ही। बरसों पहले जब शिमला जाते हुए अमृतसर से गुजरे थे तो घूमे तो नहीं थे पर याद है खाना खाया था। पर मैंने तो वह भी नहीं, लस्सी का अमृतसरी गिलास ही इतना बड़ा था कि पीते-पीते ही थक गई थी, पर गुलाबजल से महकती और मलाई व पिस्तों से भरी वह लस्सी इतनी स्वादिष्ट थी कि छोड़ते ही नहीं बन रही थी। अंत में यह हाल था कि खाना तो दूर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। लस्सी तो इस बार भी हर खाने के साथ पी ली थी, पर अब न तो वह गिलास का जम्बो आकार ही था और न वह मलाई और पिस्ते का स्वाद ही। वजह शायद ये पाच-तारा होटल और रेस्टोरेंट भी हो सकते हैं, जो अधिक स्वास्थ के प्रति सजग हो गए हैं। परन्तु इनसे बाहर निकलते ही, वहीं छोले कुलचे थे, कचौड़ी और समोसे थे और लस्सी व क़ुल्फ़ी फ़ालूदा थे। फुलकारी के सूट और दुपट्टे थे अमृतसर की याद के लिए। एक बेहद लजीज बनारसी पान भी खाया और फिर तारीफ पर उस बनारसी भाई का पुलक कर भोजपुरी में बोलने लग जाना, पूरी तरह से आत्मीयता से भर गया … उन चौबीस घंटों में कितना कुछ समेटा और कितना कुछ छूटा याद करूँ तो शायद पन्ने ही कम पड़ जाएं।

होटल ताज स्वर्ण खुद एक खूबसूरत पर्यटन स्थल और संग्रहालय की तरह लगा । सैकड़ों खूबसूरत आधुनिक चित्र और पुराने महाराजा रणजीत सिंह के महल और उनके खूबसूरत फोटो और रेखा-चित्रों को अपनी भव्य दीवारों पर संजोए हुए।

अगली सुबह दस बजे के करीब निकले तो हम जलियाँ वाले बाग के लिए ही थे, परन्तु टैक्सी ड्राइवर ने बताया वहाँ कोई प्रदर्शन चल रहा है। पहुँच पाना मुश्किल है, पता नहीं छटने में कितना वक्त लगेगा, फिर आपके पास वक्त भी तो नहीं है? कहो तो बड़ा बजार ले चलूं, घंटे दो घंटे वहीं खरीददारी कर लेना…वैसे भी वहाँ जलिया वाले बाग में पुराने खड़हर , एक टूटे-फूटे कुँए के अलावा और कुछ भी नहीं !…

समझ में नहीं आया क्या कहूँ, कैसे बताऊँ कि खंडहरों में ही तो यादें होती हैं, इतिहास होता है, जो खींचता है, बांधता है। फिर इसमें तो हजारों की आहें और आंसू दफन हैं। पर सभी ने समवेत स्वर में निर्णय ले लिया था, जलियाँ वाला बाग़ अगली बार, वक़्त नहीं है अपने पास। मन मसोस कर उसकी बात माननी पड़ी, घड़ी टिकटिक बिना किसी रहम के आगे ही दौड़ी जा रही थी। इसीलिए तो कहते हैं किसी भी ख्वाइश को ज्यादा हसरतों का पानी नहीं देना चाहिए, लम्बे नहीं पालते-पोसते रहना चाहिए… खैर…उस अतृप्त सपने को वहीं वैसे ही छोड़कर, हम चूरन, चटनी और चुन्नियों की खरीददारी में लग गए। मन उदास तो था पर पुनः लौटने की आस और भरोसे के साथ।…

शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

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