परिदृश्यः बसंत ने कहा-मंजरी पांडे

आज सुबह से तेज़ हवाएं चल रही थी जैसे सोए वृक्षों को झिंझोड़ कर जगा रही हों । अलसाए फूलों को खिला रही हों । खिले फूलों को झाड़ कर बिखेर रही हैं । कहीं इनसे धरती सजा रही तो कहीं नवजीवन की आस जगा रही हैं | जमींदोज होती गुलाब की पंखुड़ियां उल्लास बिखेर रही हैं ।
तभी लगा मेरे कानों में कोई फुसफुसा गया हौले से कि मैं अवतरित हो गया हूं । बस तुम्हारे पास आ रहा हूं ….और सरसराता हुआ निकल गया । लगा वो मेरे पास से गुज़रते मेरे अन्तस तक समा गया। रोम-रोम खिल उठा । मन पुलकित हुआ । छत्त पर सजी बगिया गुलज़ार थी | तभी एक गमला धड़ाम से गिरा | लगा आगन्तुक ने अपनी उपस्थिति का अहसास कराया | सुसज्जित परिधानों में सुसज्जित सखियाँ , मित्र ,कवयित्री बहनें ,बंधु-बान्धव सभी आनन्दोत्सव के लिये एकत्र हुए थे | हँसी-ठिठोली चल रही थी | सभी मगन पर मै तो गौर कर रही थी मन ही मन वो गीत भी चल रहा था – “कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी ,दिल के सोए हुए तारों में खनक जाग उठी “ धीरे से सरगोशी हुई – मै तुम्हारा बसंत हूँ… | हाँ ..विश्वास करो.. | किस सोच मे डूब गई ..? मुझे स्मरण हो आया एक कवि अपनी कविता में सुना रहे थे – कि इस कलियुग में बसंत बहुत दुखी है | किसी ने उससे पूछा कि अब वो कम ही दिखाई देता है | गाँव में भी आना जाना लगभग न के बराबर हो गया है ,बात क्या है ? तो उसने जो दर्द बयाँ किया | सचमुच उसे सुनकर ह्रदय द्रवित हो गया |
बसंत ने कहा “–पहले मै पौष महीने से ही पृथ्वी पर आने को आतुर हो जाता था | इधर उधर मौसम के साथ ताक- झाँक करता रहता था | प्रकृति के पोर पोर पर निगाह होती थी | पर आने का समय निश्चित है ,उसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करता रहता था | कब चलूँ ,कब चलूँ .. | आते ही पहले शहरों में अंगड़ाइयां लेता और गावों में खुमारी उतारता था | मुझे लुभाने, बुलाने के लिये संसार के लोग भी उतने ही उत्सुक रहते और बुलाने का प्रबंध करते थे | | धरती सजी धजी रानी बनी मेरी प्रतीक्षा करती थी | अंचल में पुष्प भरे ,पीत शाटिका हरीति चुनर ओढ़े , लम्बे लम्बे केश, मन करता पकड़ कर झूल जाऊँ ,कभी घुंघराले अलकों में उलझ ही जाता था , कजरारे नयनों में लाल डोरे पर भौरों की तरह मेरी भी जैसे लार टपकती थी | वृक्ष नव पल्लव पुष्प लिये अगवानी के लिये कमर कस के खड़े होते थे | आम्रवृक्ष पर भीनी भीनी मादक गंध लिये सवार मंजरियाँ उचक उचक कर मेरी राह निहारा करतीं जैसे बरात आने पर दूल्हे को देखने के लिये सजी धजी सालियाँ इठलाती फिरती हैं | मुझे भी लुभाती थी | महुवा मदमस्त हो फूलता और जग को मदोन्मत्त करता था | आधी रात महुवा टपकता और मादक गंध चारों ओर छाने लगती | चम्पा चमेली खिलखिला उठतीं , सफ़ेद गंधराज दूधिया चांदनी संग होड़ लगाने लगता | सुन्दर गेंदा गुलाब मन को छूने लगते | नवयौवना सी शरमाई धरती फूलों की ओट से मुझे निहारती तो मै आपा ही खो देता, अपने को रोक नहीं पाता था | उसके आगोश में समा प्रकृति के साथ मै खूब अठखेलियाँ करता था | मान मनुहार करता .रूठता मनाता था | अहा ! कितना आनन्द आता था | कभी छिपता छिपाता धप्प से कामिनियो के ऊपर गिरता तो कभी गोपियों को छकाने का कृष्ण सा आनन्द लेता | दो महीने की अनुमति के साथ आता पर जाते जाते तीसरे महीने में भी किंचित लसरियाए रहता था | सब सुनाते हुए प्रफुल्लित हो उठा था | पर अगले ही क्षण चेहरा बुझा बुझा सा हो गया | आँखें डबडबा आई | भरभराए स्वर में बोला –
शहर में बड़ी बड़ी कई मंजिली इमारतें जैसे मुझे रोकती हैं | घने वृक्ष और वन जिस पर मै उतरता और मखमली धरती पर कुलाचें मारता था ,वो समाप्त हो रहे हैं | पक्की सड़कें मुझे झुलसाती सी हैं | एक लम्बी गहरी सांस खींचकर बोला –अब गाँव गाँव कहाँ रहा …? विकास की आंधी मेरे ठिकानों को उड़ा ले चलीं | शहरों में मशीने बढ़ीं तो गाँवों में खेत खलिहान सिमट गए | टेढ़ी मेढी पगडंडी एक ना रही जिस पर मै दौड़ता था | हरियाली वाले और घने नीम,बरगद,पीपल,पाकड़ जो दुआर दुआर होते थे अब ताल पोखरे पर कुछ दिख जाते हैं | ताल पोखर भी कौन से बचे सबको पाट कर भवन पर भवन बन रहे हैं | युक्लिप्टस के बाग़ लगा रहे हैं लोग ,जो अकड़े तने से खड़े रहते हैं | मुझे एकदम नहीं भाते | माना लकडीयाँ देते हैं ,पत्तियों से औषधि तैयार होती है पर मेरी धरती को ठग रहा है ये वृक्ष | उनकी उर्वरता को ख़तम कर उन्हें बंजर बना रहा है | भला मुझे कैसे भा सकता है ? वृक्ष नहीं तो चिड़ियाँ चुग्गा भी ख़तम | अब उनके घोंसले भी नहीं | घर घर होने वाली गौ माताएं भी विदा हो लीं | दूध का धंधा करने वाले कुछ ग्वालों के ही पास अब वो है ,जो दूध के लिये उन्हें रखे हुए हैं |
मति मारी गयी है लोगों की | दुआर ,बखरी ख़तम कर बड़े बड़े नक्काशीदार भवन बन गए है | यही नहीं अब वो कामिनियाँ और कामिनी विलास भी जैसे उड़नछू हो गए | वो भोली भाली भामिनियाँ अब रही नहीं | चतुर बालिकाएं हो गयी है ,उनकी वेश भूषा भी शहरी हो गई है, इनके अधकटे केश मुझे बिलकुल अच्छे नहीं लगते जिस पर मै रीझता था | जब से गाँव शहर हो गया मेरा तो जैसे ठिकाना ही लुट गया है | खून के घूँट पीकर रह् जाता हूँ ,पर कर ही क्या सकता हूँ …. | तो समझो मुझे लुभाने,आकर्षित करने वाले सब साजो सामान ही नहीं रहे तो मेरा कहाँ ठिकाना ..? दबे पाँव उमंग लिये आता हूँ और बैरंग दबे पाँव ही लौट भी जाता हूँ “ |
मेरी तंद्रा भंग हुई कि बसंत फिर मगन हुआ है | मेरा हाथ पकड़ पकड़कर नाचने गाने लगा – आया बसंत सखि मन मे उमंग सखि , मन में उमंग सखि फिर से है छाई बहार ……” गावों में बगीचे न सही छत्त की बगियों में फिर उसका मन डोला है | हौले से ये भी बोला – मुझे यूँ ही बुलाते रहना ….कभी अलविदा ना कहना |
हमने भी वादा किया हम अब प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं करेंगे | जीवन राग-रंग से भर लेंगें | गमलों में जड़ चैतन्य करेंगे। वन लगायेंगे । वन महोत्सव मनाएंगे । हर वर्ष पहले सा अभिनन्दन करेंगे तुम्हारा ।कभी छूटे ना साथ हमारा तुम्हारा ।
बसंत का नाम लेते ही जैसे प्रकृति का सुरम्य ,सजीला स्वरूप सामने आता है । धरती दुल्हन बनी , सुगंधित पुष्प पल्लवों से गदराई । शस्य श्यामला , हर ओर नवीनता का प्रस्फुटन , नवाचार से आच्छादित दिखाई देती हैं। सर्वविध प्रफुल्लित मन मदोन्मत्त सा गुनगुनाने लग जाता है –

गीत – सुत काम के जन्मे हैआज
आनन्द धरती पर आज । ।

रंग बिरंगे फूल खिले हैं
उन पर तितली भौंरे झुके हैं।
बना फूलों का पलना है आज
झूल रहे रसराज ।
सुत………

२- कोकिल गीत सुनाय रही है ।
पंचम सुर मे लुभाय रही है ।।
नाचे मयूर वनराज।
आनंद…….

३- राग रंग की धूम मची है ।
धरती दुल्हन जैसी सजी है।
हर ओर काम का राज ।
आनंद…….
सुत काम के जन्मे है आज ।
आनन्द धरती पर आज ।

पौराणिक कथाओं में बसंत को कामदेव का पुत्र बताया गया है । कवि देव ने वसंत का वर्णन करते हुए कहा है – सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्र उत्पत्ति का समाचार पाते ही धरती और समस्त प्राणी झूम उठे।
माघ महीने की शुक्ल पंचमी को बसंत का आविर्भाव होता है । फाल्गुन और चैत्र इसके माह हैं । ऋतुओं की यह संधिवेला है । अद्भुत संयोग भी है कि फाल्गुन वर्ष का अंतिम और चैत्र वर्ष का प्रथम महीना । यानी अंत और आदि इसका स्वरूप है। ये केवल महीनों का मिलन और संधिवेला नहीं वरन सृष्टि का संदेशा है ।आदि और अंत को समाहित किये ये सम्पुट सदृश है । तभी तो योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमदभगवत् गीता के दसवें अध्याय में कहते हैं – मैं ऋतुओं मे कुसुमाकर बसंत हूं । श्लोक आता है –
” वृहत् साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोsहमृतूनां कुसुमाकर: ।”

अपनी गौरवमयी सनातन संस्कृति के भी स्वरूप का दर्शन होता है ।
हिन्दू पंचांग के वर्ष का अंत और आरम्भ बसंत से ही होता है । रंग रागमय सृष्टि का समापन और आरम्भ एक नयी आशा और उमंग के साथ होता है । झूम के मन कह उठता है –
गीत – आया बसंत सखी मन मे उमंग ,सखी मन में उमंग
सखि बन बन में छायी बहार ।
रे सखि बन बन में छाई बहार।
अं- अमवा बउर लागै,
महुआ फुलन लागै ।
बरसेला रसवा क धार
हे सखि बरसेला रसवा क धार।
आया ……

– ये बसंत का वैभव और उल्लास खेतों का उत्सव बन जाता है । सरसों की बालियां स्वर्णिम परिधान, आभूषण प्रदान करती हैं। तीसी नीले पुष्प के साथ सरसों की सखी बन ,आन- मान ,ढाल बन नीला आकाश धारे खड़ी रहती है । कहीं फसलों की दंवाई,कटाई चल रही होती है । छोटे बच्चों गदेलों का हाथ थामे और नन्हें को गोदी दाबे साथ में भोजन लिये स्त्रियां जल्दी जल्दी खेतों की ओर चली जा रही हैं। आम्र वृक्ष मञ्जरियों के भार से लदे जा रहे हैं । भीनी भीनी तीक्ष्ण मादक गंध मन मस्तिष्क पर छाकर मदान्ध सा कर देती हैं। बाग बगीचे , क्यारियों में फूलों की कालीन सी बिछ जाती है । रंग बिरंगे मनमोहक पुष्प मधु,सुगंध लुटाने लगते हैं। तितलियों,भौरों की टोली रंगबाज सी फिरने लगती है । सृजन का शुभारंभ हो जाता है । सभी के मन ऱगरागमय होने लग जाते हैं ।

महाकवि कालिदास ने तो ऋतु वर्णन पर पूरी काव्यरचना ही कर डाली है । ऋतुसंहार महाकवि की प्रथम काव्यकृति है जिसमें छ: सर्गों में ग्रीष्म से आरंभ कर वसंत तक की छ: ऋतुओं का सुंदर प्रकृति चित्रण प्रस्तुत किया है । वसंत आगमन का सजीव चित्रण करते हुए कहते हैं –

” द्रुमा: सुपुष्पा: सलिलं सपद्मम्स्त्रीय: पवन: सूगंधि: ।
सुखा प्रदोषा: दिवासश्च रम्या: सर्वप्रियं चारुतरेवतन्ते ।।

अर्थात् वृक्ष फूलों से भर जाते हैं।सर,तडाग में कमल खिल उठे हैं।स्त्रियां सकाम हो उठी हैं , पवन सुगंधिमय हो गई है, रातें सुखद
और दिन मनोरम हो गए हैं । क्या क्या कहें ओ प्रिये ! बसंत में सब कुछ पहले से और सुखद हो उठता है , सर्वत्र सुन्दरता का ही प्रसार हो जाता है।
यही नहीं कालिदास तो बसंत को श्रृंगार दीक्षा गुरु की संज्ञा भी दे देते हैं।
अनेक भाषाओं में कवियों, लेखकों ने हर युग में बसंत की अनुभूतियों पर खूब लिखा है अब भी लिखा ही जा रहा है। पर बसंत तो परिधि में समाने का नाम ही नहीं लेता। प्रतिवर्ष आना और नयी अनुभूतियों से रससिक्त कर जाना इसकी शाश्वत नियति है ।

हां बसंत की झोली राग रंग से भरी है । इसीलिये होली ,धुरड्डी
रंगपंचमी ,बसंत पंचमी, नवरात्रि, रामनवमी,नव संवत्सर, हनुमान जयंती और गुरू पूर्णिमा जैसे उत्सव मनाए जाते हैं ।
इनमें भी रहस्य भरा है । जहां रंगपंचमी और बसंत पंचमी मौसम परिवर्तन की सूचना देते हैं वहीं नव संवत्सर से नव वर्ष का आरम्भ होता है ।
होली ,धुलड्डी जहां भक्त प्रह्लाद की याद में मनायी जाती है वहीं नवरात्रि मां दुर्गा का उत्सव है ।” यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ” की संस्कृति ,नारी शक्ति की मान्यता दर्शाता है ।
रामनवमी,हनुमान जयंती आदि महापुरुषों, विभूतियों की गौरवगाथा का स्मरण कराता है ।
इस तरह बसंत ऋतु का आगमन प्रकृति का भारत भूमि को उपहार है । यही विविधता, सरसता इसका वास्तविक स्वरूप है ।
देश के भौगोलिक स्वरूप का चिन्तन करें तो जहां राजस्थान की मरूभूमि जल की बूंदों के लिये तरसती है वहीं पूर्वोत्तर के चेरापूंजी में वर्षा की झड़ी रुकने का नाम नही लेती । जब भारत का दक्षिण भाग गर्म रहता है तो उत्तरी भाग शीत से ठिठुर जाता है । कई भूभाग प्रचंड लू में तपने लगते हैं तो दूसरी जगह पानी को बर्फ़ बना देने वाली ठंड पड़ती है ।
ये एक ही ऋतु की विविधता एक ही प्रकार की अनुभूति से बचाती है और बेचैनी के क्षणों को पुन: राग रंग में परिवर्तित कर रस घोल देती है ।
कुछ फागुन की अपनी पंक्तियां स्मरण हो आती हैं ।
गीत – फागुन लगै गुलजार ,
कुहू कुहू बोले कोइलिया
हियरा में बजत सितार
कुहू कुहू बोले कोइलिया।

१- हूक उठै हियरा में जब जब कूकै
धुन बंसुरी के अस संसिया मे फूंकै
बहै बसंती बयार कुहू कुहू बोले कोइलिया

सगरो सिवनवा में सरसों फुलाइल
अमवा बउरलैं कि मनवा हुबाइल
धरती रचावै सिंगार कुहू कुहू बोले कोइलिया।

झुरकै पवन केहू बेनिया डोलावै
जइसे सनेहिया सपनवा सजावै
बरसैला सुखवा अपार कुहू कुहू बोले कोइलिया।

संझाले धीरे धीरे सिहरे किरिनिया
भोरहरिया मारैले कांचे कइनिया
कांपै कली कचनार कुहू कुहू बोले कोइलिया।

धरती कभी तपने लगती है तो कभी वर्षा की झड़ी में नहाने लगती है ,कभी बर्फ की श्वेत चादर ओढ़ लेती है तो वहीं पीतवसना भी दिखाई देती है । कभी मादक,मोहक रंगों से सजी धजी नवयौवना बनकर खिलखिलाती है । तरह तरह की कल्पनाओं,ख्यालों में रचनाकार का मन नवसृजन करने लग जाता है । ये भाव किसी भी जाति मजहब के नहीं वरन सभी प्राणिमात्र मे उद्भूत होते हैं । तमाम भाषा भाषी , देशी विदेशी सभी लेखकों,कवियों ने खूब लिखा है बसंत पर । यहीं एक शेर अर्ज़ करना चाहूंगी ।

साक़ी कुछ आज तुझ को ख़बर है बसंत की ।
हर सू बहार पेश- ए- नज़र है बसंत की ।
उफ़ुक लखनवी

शास्त्रों,ग्रंथ, पुराणों आदि मे तो अटा पड़ा है बसंत ।
रघुवंश में कालिदास ने बसंत के आगमन का चित्र खींचा है –
” वसंत आता है और उद्यान गतिविधियों से गुलजार हो जाता है । मधुमक्खियों का निरंतर चक्रमण, पक्षियों का चहचहाना, कोयल का कूकना,पत्तियों की सरसराहट । सुखद गर्म धूप और हवा ये सब अत्यधिक प्रेम के रोमांटिक वातावरण का सृजन करते हैं ।
इसीलिये इसे मधुमास भी कहा जाता है ।

” कुसुमजन्म ततो नवपल्लवस्तदनु षट्पदकोकिलकुजितम् ।
इति यथाक्रममाविरभुन्मधुरद्रुमवतीर्य
वनस्थलीम्।
इस प्रकार फूलों का खिलना और कोमल पत्तों का प्रकट होना और उसके बाद मधुमक्खियों और कोकिलों का गुनगुनाना और कूकना , इस यथाक्रम में बसंत का अवतरण घने जंगलों में हुआ है ।

बसंत को प्राय: पीले वस्त्र में,आम के बौरों के आभूषणों से अलंकृत किया जाता है ।
” कुमारसम्भव ” में कालिदास ने बड़े वैचारिक मंथन के बाद निष्कर्ष रक्खा है कि –
ऋतुएं वस्तुत: वर्ष का छोटा कालखण्ड हैं ,जिसमें मौसम की दशाएं एक खास प्रकार की होती हैं । यह कालखण्ड एक वर्ष को कई भागों में विभाजित करता है । जिसके दौरान पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के परिणामस्वरूप दिन की अवधि ,तापमान, वर्षा,आर्द्रता इत्यादि मौसमी दशाएं एक चक्रीय रूप में बदलती है ।
ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार चार ऋतुएं मानी जाती हैं – वसंत,ग्रीष्म, शरद और शिशिर । लेकिन भारत में छ: ऋतुओं का वर्णन है । प्रत्येक ऋतु का चक्र दो- दो महीने का होता है । इस तरह फाल्गुन और चैत्र दो महीने वसंत का आधिपत्य रहता है । तभी इसे ऋतुराज की संज्ञा दी गई है । कुछ और भी विशेषताएं हैं जैसे –
खेतों में फ़सलें तैयार हो जाती है। धन‌ धान्य से घर परिवार भरा होता है । तो स्वत: खुशी, ऊर्जा, उत्साह का वातावरण रहता है । कार्य करने की क्षमता,उत्पत्ति में वृद्धि होती है। मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते हैं ।
अनुकूल मौसम,कोयल की कूक,हरा भरा अद्भुत समां बंध जाता है ।
मनुष्य क्या पशु पक्षी भी राग,मस्ती में डूब जाते हैं ।
इन समवेत विशेषताओं के ही कारण श्रीकृष्ण ने स्वयं को बसंत कहा है ।
उत्पत्ति की एक पौराणिक कथा भी है कि सती के आत्मदाह के बाद महादेव अत्यंत दुखी होकर ध्यानमग्न हो बैठ गए थे।‌ उसी समय तारकासुर ने ब्रह्मा जी की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु शिव के पुत्र के ही हाथों हो। क्योंकि वो जानता था शिव जी वियोग में ध्यानावस्थित हो गए हैं। उनका ध्यान भंग करना इतना आसान नहीं। तब दूसरा विवाह और पुत्र कहां संभव है ।अब वह और ताकतवर हो देवताओं को तंंग करने लगा। सब त्रस्त देवतागण भगवान् विष्णु के पास गए।तब विष्णु जी ने ही कहा कि महादेव का तप भंग करने के लिये कामदेव की मदद लें।
तब कामदेव ने शिवजी का तप भंग करने के लिये बसंत ऋतु को उत्पन्न किया। कामबाणों की वर्षा की जिससे शिवजी का ध्यान भंग हो गया । पर क्रोध में तीसरा नेत्र खुल गया जिससे कामदेव भस्म हो गए । ये भी प्रकृति और सृजन के लिये अनर्थ हुआ । देवगण भी चिन्तित हुए । पर कुछ समय बाद जब उनका क्रोध शांत हुआ तब उन्हें बताया गया कि ऐसा क्यों करना पड़ा ।
कुछ समय पश्चात माता पार्वती के साथ उनका विवाह होने पर पुत्र रूप में जन्मे कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर देवताओं को मुक्ति दिलाई ।

इधर कामदेव की पत्नी रति के निवेदन पर वरदान दिया कि द्वापर युग में उसके पति कामदेव श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेंगे । इस तरह बसंत की पुनः उत्पत्ति हुई।
सरस्वती पूजा से भी बसंत का अभिन्न संबंध है । उसका एक कारण है कि ब्रह्मा जी ने शक्ति की स्तुति कर सरस्वती जी को प्रकट किया । ब्रह्मा और सरस्वती ने सृष्टि सृजन किया ।सृजन के इस क्रम में तब कामदेव और बसंत का आविर्भाव होता है। नये-नये फूल,पत्ते प्रकृति सब कुछ नया नया ।
कालिका पुराण में वसंत का मानवीकरण बड़े सुन्दर ढंग से किया गया ।
बताया गया कि ये सुन्दर, अति आकर्षक, सन्तुलित शरीर वाला,आकर्षक नैन नक्श वाला ,अनेक फूलों से सजा,आम की मञ्जरी को हाथ में पकड़े ,मतवाले हाथी जैसी चाल वाला ,गुणों से भरपूर बताया गया है ।

रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने बसंत का अत्यंत मनोहारी चित्रण किया है ।
पश्चिमी देशों में जैसे ” क्यूपिड ” और यूनानी देशों में ” इरोस ” को प्रेम का प्रतीक माना जाता है उसी प्रकार हमारे धर्मग्रंथों में कामदेव को प्रेम और आकर्षण का देवता कहा जाता है। रुचिकर बात ये भी जानने योग्य है कि कि बसंत ऋतु में कहां रहता है कामदेव ? इस संदर्भ में
” मुद्गल पुराण ” में कामदेव वशीकरण मंत्र का उल्लेख है –

” यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते: ।
गानं मधुरश्चैव मृदुलाण्डजशब्दक: ।।
उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादय: ।
सड़्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम् ।।
वायुर्मद: सुवासश्च वस्त्राण्यपि नवानि वै ।
भूषणादिकामेवं ते देहा नाना कृता मया ।।

इसके अनुसार यौवन,
स्त्री,( आनन,ललाट,भौंह और होंठ )
सुगंधित सुन्दर पुष्प,
मधुर गान , फूलों का रस,
सद्य:जात पक्षियों के मधुर शब्दों,
उद्यानों में ,सुवासित चन्दनादि ,विषयासक्त मनुष्यों , सुगंधित मदमत्त कर देने वाली वायु ,
नवीन वस्त्र तथा आभूषणादि में कामदेव का वास रहता हैं ।

पर बसंत में पिया साथ हो तो हर पल राग रंग का वास होता है। पिया साथ नहीं तो विरह की आग दिन में भी जलाने सी लगती है । रातें नागिन सी डसने लगती हैं। कालिदास के ग्रंथ मेघदूत का नायक यक्ष शापित निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा होता है। वसंत आगमन पर विरह वेदना से पीड़ित होकर उससे रहा नहीं जाता तो मेघ को दूत बनाकर अपनी विरहिणी प्रियतमा को संदेश भेजता है । उधर प्रियतमा भी इतनी उत्तेजित हो जाती है कि उसके पादप्रहार से अशोक का वृक्ष फूल उठता है । ग्रंथों में आम्र पादप के भी ऐसे ही खिलने का प्रसंग आता है। यानी इतना उत्साह भर जाता है ।
सूरदास ने तो पत्र के रूप में बसंत की कल्पना की है –

” ऐसों पत्र पठायो ऋतु बसंत, तजहुं मान मानिन तुरंत ,
कागज नवदल अंबुज पात ,
देति कमल मसि भंवर सुगात ।

कमल की नयी नयी पंखुड़ियां कागज़ हैं तो जैसे भंवरा स्याही दे रहा है रसपान में तृप्त होकर इधर उधर मुख से बहते शहद से ।
प्रायः लोग बसंत को ही कामदेव भी कहते हैं । इसके पंच बाण हैं – ” मारण ,स्तंभन,जृम्भन ,शोषण,
उन्मादन । पञ्च पुष्पायुध हैं – नीलकमल, मल्लिका, आम्रमंजरी,चम्पक और शिरीष । कामदेव अपने पञ्च बाण चलाकर सहृदय व्यक्ति के हृदय को भी बींध कर आत्मवश कर लेते है कि उसे बसंत के सिवाय कुछ दिखता ही नहीं है।
रीतिकालीन कवियों ने भी खूब लिखा । कवि पद्माकर तो रस ही उड़ेल कर रख देते हैं । । गोपियों के माध्यम से बसंत को संदेशा भेंजते हैं । जब ऋतु वर्णन करते हैं तो पूरी तन्मयता से जैसे गाते हैं ।
कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत हैं
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में ।
पानन में पीक में पलासन पगंत हैं
द्वार में दिसान में दुनी में देस देसन में
देखो दीप दीपन में दीपत दिगंत हैं
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
बनन में बागन में बगरयो बसंत है ।

बसंत की महिमा तो ऐसी है कि कोई भी कवि इस पर अपनी लेखनी चलाए बिना रह ही नहीं सका ।आज भी लिखा जा रहा है ।

नज़ीर अकबराबादी की पंक्तियां देखें कि –
वह जोड़ा बसंती जो था ख़ुश अदा।
झमक अपने आलम की उसमें दिखा।।
उठा आंख औ नाज़ से मुस्करा कर
कहा लो मुबारक हो दिन आज का ।।
कि यां हमको लेकर है आई बसंत।।

पर बदलते समय के साथ अनुभव भी बदला है। अज्ञेय जी ने अपने घुमक्कड़ जीवन में बसंत को बहुत करीब से देखा और महसूस किया है तब ” बसंत आया ” शीर्षक कविता में कहते हैं-
बसंत आया तो है ,पर बहुत दबे पांव ,
यहां शहर में ,हमने बसंत की पहचान खो दी है , उसने बसंत की पहचान खो दी है,
उसने हमें चौंकाया नहीं
अब कहां गया बसंत ?

ये समसामयिक चिन्तन आज के परिप्रेक्ष्य में भी विचारणीय है।
अंत में गोपालदास नीरज जी की प्रणय गुहार की पंक्तियां गुनगुनाते,मन को गुदगुदाते विराम लेते हैं। –
आज बसंत की रात गमन की बात न करना।
धूप बिछाए फूल बिछौना बगिया पहने चांदी सोना ।
कलियां फेंके जादू टोना महक उठे सब पात ।
हवन की बात न करना।
आज बसंत की रात गमन की बात न करना ।


डॉ मञ्जरी पाण्डेय
( सेवानिवृत्त शिक्षिका,कवयित्री
लेखिका,रंगकर्मी )
सा 14/70 एम. ,बरईपुर,
सारनाथ, वाराणसी – 221007
सम्पर्क- 9973544350

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