परिचर्चा- हिन्दी की बातें -शिबेन कृष्ण रैना

हमारे यहां भाषा का बवाल इसलिए है क्योंकि जितने प्रांत हैं,लगभग उतनी ही भाषाएं हैं।(हिंदी प्रदेशों को छोड़ कर।)अब सवाल यह है कि संपूर्ण देश की एक भाषा कौनसी हो? चूँकि हिंदी को देश के अधिकांश लोग समझ-बोल लेते हैं,इसलिए जब भी देश के लिए एक-भाषा का प्रश्न खड़ा होता है तो स्वाभाविक है कि राय हिंदी के पक्ष में जाती है।

अगर रूस में रूसी,फ्रांस में फ्रेंच,चीन में चाइनीज़,डेनमार्क में डेनिश,ईरान में फारसी,इराक़ में अरबी/कुर्दिश आदि इन देशों की ऑफिशियल भाषाएं हैं, तो क्या आप नहीं समझते कि हमारे देश की भी एक सर्वसम्मत भाषा
होनी चाहिए? मुझे लगता है भाषा के प्रश्न को लेकर हमारी सरकारें कभी भी कोई ठोस/कठोर कदम नहीं उठा पाई। राजनीतिक दबाव के सामने झुकना पड़ता है। यूएई में आठवीं कक्षा तक सभी विद्यार्थियों को उस देश की राष्ट्रभाषा अरबी अनिवार्य तौर पर पढ़नी पड़ती है। नहीं पढ़ेंगे तो जाइये अपने घर या वहां जहां से आप आये
हैं। प्रजातन्त्र की खूबियां कई हैं मगर एक दिक्कत इस शासन-प्रणाली में यह भी है कि मन मसोस कर कई सारी सही बातों को लागू नहीं करवा पाते। करेंगे तो तानाशाह कहलाएंगे।
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हिंदी ज़रूरत की भाषा बने
लगभग तीन दशक पूर्व केरल हिंदी-प्रचार सभा,तिरुअवन्तपुरम में दिए गए व्याख्यान का एक अंश। सुविख्यात हिंदी सेवी स्व०प्रो0 विश्वनाथ अय्यर तब सभा के प्रधान थे)
‘ हिन्दी को अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों,लेखकों,कवियों या अध्यापकों की जमात तैयार करना नहीं है। जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं, वे तो हिन्दी के अनुयायी
हैं ही। यह उनका कर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें और हिंदी के पक्ष में बात करें। मैं बात कर रहा हूं ऐसे हिन्दी वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री,अलग-अलग काम-धन्धों से जुडा आम जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे। टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले,मगर बोले तो सही। एक इंजीनियर,डॉक्टर,फौजी अफसर,बैंक कर्मी,कॉर्पोरेट जगत का अधिकारी आदि जहां तक उसके लिए संभव हो सके अपने दैनिक जीवन में न सिर्फ हिंदी बोले बल्कि
अपने कार्यकलाप और व्यवहार में भी उसका निष्ठापूर्वक अधिकाधिक प्रयोग करे। चीनी,रूसी,अमरीकी आदि को यदि अपनी भाषा बोलने में शर्म नहीं आती तो हमें क्यों आनी चाहिये? यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। कई वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सीरियल प्रसारित हुए तो समाचार पत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिण भारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बढे चाव से देखा
क्योंकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महाकाव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही उन्होंने हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया।
मित्रो, हम ऐसा ही एक सहज, सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक ज़रूरत बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव प्राप्त हो।“
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अहिन्दी-भाषी नवलेखक
हिंदीतर-भाषाभाषी नव-लेखकों को,जो पहले से ही अपनी-अपनी भाषाओँ में लिख रहे होते हैं, हिंदी में लिखने ओर प्रेरित करने के उद्देश्य से भारत सरकार के केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ने अपने ‘विस्तार विभाग’ के अंतर्गत कुछेक योजनायें पिछले अनेक वर्षों से चला रखी हैंI इन में से एक योजना के अनुसार ऐसे नवलेखकों का
शिविर किसी अहिन्दी-भाषी प्रदेश में लगता है जिसमें हिंदीतर प्रदेशों से लगभग पच्चीस नव-लेखक/लेखिकाओं का चयन किया जाता है और उन्हें हिंदी के विद्वान लेखकों/मार्गदर्शकों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता हैI सात-आठ दिनों तक चलने वाले ऐसे शिविरों में नव-लेखकों की उनकी हिंदी-लेखन से जुडी उन तमाम समस्याओं का निराकरण करने का प्रयास किया जाता है जिनसे प्रायः एक अहिन्दी-भाषी नवलेखक का वास्ता पड़ता हैI मुझे ऐसे कई शिविरों में मार्गदर्शक के रूप में सम्मिलित होने का सुअवसर मिला हैIमैं ने पाया है कि ज़यादातर इन नवलेखकों के भाव अथवा विचार या यों कहिये वर्ण्य-विषय सुंदर तो होते हैं, मगर ‘अभिव्यक्ति-पक्ष’ कमजोर होता हैI हिंदी से जुड़ी व्याकरण,उच्चारण,वर्तनी आदि की अशुद्धियाँ इन नव-लेखकों में यथेष्ट मात्रा में देखने को मिलती हैं, जो स्वाभाविक
हैI हिंदी इनकी स्वभाषा नहीं है,अतः सोचते ये अपनी भाषा में हैं और सृजन हिंदी में करते हैंI इस प्रक्रिया में इनकी अपनी भाषा का व्याकरण और व्याकरणिक विधान यथा लिंग,वचन,क्रिया आदि इनके जेहन पर हावी रहते हैं और फिर लिखते भी उसी के अनुसार हैंI कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी भाषा में लिखने लायक पारंगतता उस भाषा के माहौल में रहने,रचने-पचने या फिर उस भाषाक्षेत्र में लसने-बसने से ही होती हैIमेरे ऐसे कई राजस्थानी मित्र हैं जो असरदार गुजराती,बंगाली या फिर मराठी बोलते-लिखते हैं क्योंकि वे वर्षों से इन भाषा-क्षेत्रों
में रहे हैं और इन्हीं क्षेत्रों में पले-बड़े हुए हैंIकुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्ञात होगा कि हिंदी के ख्यातनामा लेखक कभी-न-कभी,थोड़े-बहुत समय के लिए ही सही, हिंदी अंचलों में रहे हैं या फिर इन अंचलों से उनका अच्छा-ख़ासा जुड़ाव रहा हैI
यों,प्रशिक्षण द्वारा शिविरार्थियों को लाभ अवश्य होता है क्योंकि उन्हें साहित्यशास्त्र सम्बन्धी ध्यातव्य बातों के अलावा हिंदी व्याकरण, हिंदी साहित्य की परम्परा, विकास आदि की जानकारी से अवगत कराने के साथ-साथ उनकी स्वरचित रचनाओं पर चर्चा और उनका परिशोधन भी किया जाता हैIएक शिविर की बात आज तक याद हैI हमारे एक मार्गदर्शक बन्धु प्रशिक्षणर्थियों को हिंदी में लिंग- निर्धारण के नियमों को समझा रहे थेI बातचीत/चर्चा के दौरान जब उन्होंने यह समझाया कि प्रायः हिंदी के ‘ईकारांत’ शब्द स्त्रीलिंगी होते हैं तो एक शिविरार्थी, जो
संभवतः दक्षिण भारत में किसी स्कूल में हिंदी के अध्यापक थे, ने विनम्रतापूर्वक
निवेदन किया:”सर,इस नियम में एक अपवाद भी हैI पूरे हिंदी शब्दकोश में पांच शब्द: मोती,घी,पानी,हाथी और दही ऐसे शब्द हैं जो ईकारांत होते हुए भी पुलिंगी हैंI.”
अध्यापकजी की बात में दम थाI सभी शिविरार्थियों के साथ-साथ हम मार्गदर्शकों के ज्ञान में भी बढ़ोतरी हुयीI हिंदीतर भाषी होते हुए भी किसी-किसी शिविर में तो प्रशिक्षणर्थी पूरी तैयारी के साथ आते हैंI
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भाषा से भावात्मक एकता
हिंदी प्रचार-प्रसार सम्बन्धी कई राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे सम्मिलित होने का सुअवसर मिला है।इन संगोष्ठयों में अक्सर यह सवाल अहिन्दी-भाषी हिंदी विद्वान करते हैं कि हम तो हिंदी सीखते हैं या फिर हमें हिंदी सीखने की सलाह दी जाती है, मगर आप लोग यानी हिंदी भाषी क्षेत्रों के लोग हमारे दक्षिण भारत की एक भी भाषा सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। यह रटा-रटाया जुमला मैं कई बार सुन चुका हूँ। और आखिर एक सेमिनार में मैं ने कह ही दिया कि दक्षिण की कौनसी भाषाआप लोग हम को सीखने के लिए कह रहे हैं? तमिल/मलयालम/कन्नड़/या
तेलुगु?और फिर उससे होगा क्या? आपके अहम् की संतुष्टि? पंजाबी-भाषी डोगरी सीखे तो बात समझ में आती है। राजस्थानी-भाषी गुजराती सीख ले तो ठीक है। इन प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं आपस में मिलती हैं, अतः व्यापार या परस्पर व्यवहार आदि के स्तर पर इससे भाषा सीखने वालों को लाभ ही होगा।अब आप कश्मीरी-
भाषी से कहें कि वह तमिल या उडिया सीख ले या फिर पंजाबी-भाषी से कहें कि वह बँगला या असमिया सीख ले (क्योंकि इस से भावात्मक एकता बढेगी) तो आप ही बताएं यह बेहूदा तर्क नहीं है तो क्या है ? इस तर्क से अच्छा तर्क यह है कि अलग-अलग भाषाएँ सीखने के बजाय सभी लोग हिंदी सीख लें ताकि सभी एक दूसरे से सीधे-सीधे जुड़ जाएँ।वह भी इसलिए क्योंकि हिंदी देश की अधिकाँश जनता समझती-बोलती है।
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शिवेन कृष्ण रैना
२/५३७ अरावली विहार,

अलवर

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