परिचर्चाः विषपायी शंकर का जनकल्याण कारी स्वरूपः सुरेन्द्र वर्मा


‘‘विनय पत्रिका‘‘ में शिव-स्तुति करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है:-
को जांचिये संभु तजि आन।
दीनदयालु भगत आरति हर, सब प्रकार समरथ भगवान।
कालकूट जुर जरत सुरासरु, निजपन लागि किये विषपान।
समुद्र मंथन के समय जब कालकूट विष की ज्वाला से सुर एवं असुर जलने लगे तब षिवजी ने सबके कल्याण के लिए उस विष को पी गए।
दूसरों के लिए विष जैसे घातक पेय को पी लेना कल्याण भावना की पराकाष्ठा है। इस कथा प्रसंग को हम अनेकों रूपों में ले सकते है। एक भक्त की भावना से देखें तो अपने पुत्रवत् भक्तों को विष हानि न पहुंचाये, पुत्र उस विष का दुरूपयोग न करें अतः जगत्पिता ने उसे अपने कंठ में छिपा लिया।
कहते है विषपान करते समय विष की कुछ बूंदे षिवजी की हथेली से ढलक गई थी जिसे सर्प, बिच्छू, बर्र आदि प्राणियों ने ग्रहण किया और वे प्राणी आज भी विषैले है। यदि षिवजी ने समस्त विष धारण न किया होता तो आज जगत विषमय होता।
ऐतिहासिक समुद्र मंथन जब भी हुआ हो किंतु मानसिक समुद्र का मंथन तथा वैचारिक समुद्र का मंथन दिन-रात चल रहा है। समाज रूपी समुद्र को जो लोग मथ रहे हैं उससे जो विष निकल रहा है- अषांति का विष, असामाजिकता का विष, साम्प्रदायिकता का विष, असमानता और मर्यादाहीनता का विष उससे सम्पूर्ण समाज जल रहा है। आज तो हर क्षण षिव की आवष्यकता अनुभव हो रही है जो इस गरल को धारण कर लें। आज हर विवेकषील व्यक्ति को षिव रूप धारण करना पडे़गा जिससे सामाजिक, पारिवारिक परिवेष शांतिमय बन सके, ज्ञान-विज्ञान के अमृत का लाभ ले सके। संसार में भटकते जीव के लिए कल्याणकारी विषपायी षिव के स्वरूप का ध्यान ही आज श्रेयस्कर है। तुलसी कहते है-
‘‘ ज्ञान वैराग्य, धन धर्म, कैवल्य सुख, सुभग सौभाग्य षिव! सानुकूलं।
तदपि नर मूढ़, आरूढ़ संसार पथ, भ्रमत भव, विमुख तव पादमूलं।।
भगवान षिव ने न केवल भौतिक विष पिया अपितु उन्हें सामाजिक अवहेलना का विष भी पीना पड़ा। उनके श्वसुर दक्ष का उन्हें यज्ञ में आमंत्रित न करना, उनके हिस्से का यज्ञ में अधिकार न मिलना ये सब विष शंभू को पीने पड़े किंतु उन्होंने प्रतिकार में जो किया अंततः सबके लिए कल्याणकारी ही सिद्ध हुआ। जनकल्याण हेतु व्यक्तिगत अपमान का विष पीना ही पड़ता है।
विषपायी शंकर के परिवार को देखें तो वहां हमें विसंगति एवं विपरीत परिस्थितियों के दर्षन होंगे। गणेषजी के वाहन चूहे पर षिवजी के सर्प की दृष्टि है, देवी के वाहन सिंह की नजर षिवजी के नन्दी पर है, कार्तिकेय के मयूर की दृष्टि षिवजी के सर्प पर है। आर्थिक स्थिति ऐसी कि खाट का एक ही पाया हाथ में है। इसलिए षिव का एक नाम खटवांग भी है। खेती करने में 2 बैल लगते है पर षिवजी के पास केवल एक ही बैल है। परिवार में खाने वाले मुंह अनेक है। पंचमुखी षिव स्वयं, गजमुखी गणेष, फिर सिंह, चूहा, नन्दी, सर्प, मयूर और कार्तिकेय तथा पार्वती। किंतु विषपायी षिव के परिवार में असंतोष नहीं, अतृप्ति नहीं। असाम्य दुर्घष विकट परिस्थिति में भी वेद पुराण शंकर परिवार को सुखी परिवार मानते है क्योंकि शंकर जी ने असंतोष रूपी विष का शमन कर लिया है वे आषुतोष है इसीलिए विषपायी-कल्याणकारी है। पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों में नित्य ही असंतोष का विष उत्पन्न होता रहता है- सफल व्यक्तित्व उसी का बन पाता है जो विपरीत परिस्थितियों में भी मानसिक रूप से अप्रभावित रह सके।
षिव की प्रत्येक लीला कल्याणकारी है। अपने पुत्र का सिर काट लेने वाले व्यक्ति को क्या कहेंगे। षिवजी ने गणेष का मानव सिर काट कर हाथी का सिर लगा दिया। इस आलंकारिक दृष्टांत के पीछे धारणा यह है कि छोटा सिर संकीर्णता (छंततवू डपदक) को द्योतक है। बड़ा सिर विस्तीर्णता (ठतवंक डपदक) का द्योतक है। आज यदि समाज में से संकीर्ण बौद्धिकता व संकीर्ण मानसिकता निकल जावें तो जन धन हानि होना समाप्त हो जाएगा- युद्ध की ज्वाला नहीं दिखेगी। अमृतमय शांति ही शांति होगी।
पतित पावनी गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय भी भगवान षिव को ही है। विषपान करने में जिस अदम्य साहस की आवष्यकता होती है उससे अधिक साहस की आवष्यकता एक बड़े बोझ को सिर पर झेलने में होती है। षिव ने अपनी जटाओं में गंगा को झेला- इस कार्य के पीछे न केवल भागीरथ अपितु चर अचर स्थावर जंगम, जड़ चेतन सभी के लिए कल्याणकारी भावना षिवजी की थी गंगा के निकट बसे छोटे-बड़े जनपद उसके निकट पनपी संस्कृति सभ्यता आज भी षिव की कल्याणकारी गाथा गाती है।
षिव ने कल्याणकारी रूप को एक धर्म, एक जाति, एक देष बांधकर नहीं रख सकता। भगवान राम षिव के आराधक हैं तो राक्षसराज रावण भी षिव का पुजारी है। पर थोड़ा अंतर है। राम ने षिव की आराधना निःस्वार्थ निष्काम परम कल्याण के लिए की थी दूसरी ओर रावण की तपस्या सकाम थी युद्ध विजय की कामना युक्त अहंकार सिद्धि के लिए।
‘‘यो यथा मां प्रपद्यन्ते तां स्तथैव भजाम्यहम्‘‘।
रावण ने अपने सिर को काटकर षिवजी को अर्पित किया था। युद्ध भूमि में षिवजी भी उसे सिर काटने पर नया सिर दे देते किंतु अंततः राम के हाथों मृत्यु दिलाकर षिवजी ने अपने भक्त रावण को मोक्ष दिला ही दिया।
षिव के स्वरूप को देखें तो उनके गले में संतापित करने वाला हलाहल है तो र्मिस्तष्क पर शीतलता प्रदान करने वाला चंद्रमा है। विषपायी षिव चंद्रमौलि कहे गए है। विषपान से न तो मस्तिष्क विकृत हुआ न हृदय। मस्तिष्क शांत शुद्ध गंगा की शीतलता लिए और हृदय में राम का निवास। जीवन तभी निन्दनीय होता है जब हृदय और मस्तिष्क मन और बुद्धि विषयुक्त होते है। यदि मन और बुद्धि निर्मल हो तो वाणी की कटुता भी कल्याणमयी होती है।
प्रकृति की सुरम्यता के बीच निवास करने वाले मनोरम छबि निहारते हुए षिव वन्य प्राणियों को संरक्षण प्रदान करते हैं। नंदी, मोर, सिंह, चूहा, सर्प आदि सभी के वे संरक्षक हैं। वन एवं वन्य प्राणी संरक्षण जगत के लिए कल्याणकारी है। इसके लिए प्रणेता विषपायी भगवान षिव ही है।
आज चिकित्सा विज्ञान भी विभिन्न प्रकार के विषों से दवाइ्र्रयां बनाकर अनेक रोगियों को सुधार रहा हैं। तरह-तरह के सर्प पाले जा रहे है। नई-नई तकनीक से उनका विष निकाला जा रहा है। इस विष चिकित्सा के आदि प्रणेता भी विषपायी शंकर हैं। विज्ञान भी आज स्वीकारता है कि जो वस्तु एक के लिए स्वास्थ्य लाभ देने वाली है, वहीं दूसरे के लिए विष तुल्य हो सकती हैं। मधुमेह के रोगी के लिए शक्कर विष है मन्दाग्नि पीड़ित के लिए घी विष तुल्य है- अर्थात् यह भेद करना कि क्या विष है क्या नहीं कठिन है। कड़वी नीम अमृत तुल्य है। अनेकों रोगों में धतूरा, गांजा, अफीम आदि मादक कहे जाने वाले पदार्थ जीवन प्रदान करने वाले हो सकते है। वस्तु के विवेकशील सदुपयोग पर निर्भर करता है उसका विष या अमृत होना। विषपायी शंकर ने विष की महत्ता को स्वीकारा, आवष्यकता पड़ने पर विष की उपयोगिता अमृत तुल्य होती है।
गीता में कृष्ण कहते है- ‘‘शुभाशुभ परित्यागी भक्तिमान्यः समे प्रियः।‘‘ शुभ और अशुभ दोनों का त्याग करने वाला मुझे प्रिय है। शुभ को तो सभी चाहते है- दरवाजों पर, तिजोरियों पर, निमंत्रण पत्रों पर, बही खातों पर शुभ-लाभ लिखा मिल जाता है पर अशुभ अमंगल से सभी दूर रहना चाहते है। शिवजी उन्हीं परित्यक्तों दलितों को आश्रय देते है। राम-विवाह में सभी आमंत्रित थे पर भूत-पिशाच अमंगल अपशगुन अशुभ को दूर भगा दिया गया था वे सभी करुण क्रंदन कर रहे थे कि हमें राम का विवाह देखने को नहीं मिल रहा है। शिवजी को उन पर दया आई। शिवजी ने उन्हें स्वयं की बारात में आमंत्रित किया। सर्वविदित है कि वे दलित वर्ग सभी लोग शिवजी की बारात में बाराती बने। उन्हें विषपायी शिव ही कंठ लगा सके।
कामवासना का विष मनुष्य में संचरित होता है तब मान-मर्यादा, सामाजिक परम्परायें, सभ्यता संस्कृति की सीमाएं टूट जाती है। इस काम-विष की प्रकृति को समझ शिवजी ने कामदेव को दग्ध किया फिर उस पर दया कर उसे अनंग रूप दिया। मर्यादित काम से ही शिव आराधना संभव है।

कहा गया है-
‘‘चरितानि विचित्राणि गुहîानि गहनानि च।
ब्रह्मनादीनांच सर्वेषां दुर्विज्ञयोंस्ति शंकर।।‘‘

‘‘ब्रम्हा आदि के चरित्र भी गुहî तथा गहन है परंतु शंकर के चरित्र तो अत्यंत दुर्विज्ञेय है।‘‘ शमशानवासी शंकर संहारकर्ता मृत्यु के देवता कहे गये है। नूतनता के लिए प्राचीनता का लोप होना अनिवार्य है। निर्माण ही निर्माण, सृजन ही सृजन- जीवन में नीरसता भर देंगे। नवीनता का आभास ही समाप्त हो जाएगा, अतः विध्वंस या संहार भी आवश्यक है। शरीर में नई कोशिकाएं बनती है पुरानी मरती है। वृक्ष में नई कोपलें आती है पुरानी पत्तियां झड़ती है। नया दिन निकलता है पुराना दिन रात्रि में खो जाता है। उसी प्रकार शिव थके हुए जीवन को मृत्युरूपी प्रगाढ़ निद्रा में सुलाकर अपने में लीन कर लेते है ताकि वह फिर नये जीवन का प्रारंभ नये उत्साह और उमंग से कर सके। जीवन भर जीता हुआ जीव अपने मानस में जो विष एकत्र कर लेता है। मृत्यु बाद उसका विष शामित करके विषपायी शिव उसे निर्मलता प्रदान करते हैं।
नृत्य, साहित्य और संगीत ये ऐसे विधाएं है जो मानव मन की कोमलता, निर्मलता और उद्दात्तता की अभिव्यक्ति करते है। शमशानवासी शिव नृत्य के आदि प्रणेता है। शिव को नटराज कहते है। नृत्य के माध्यम से आज भी नृत्यकार अपनी भाव-भंगिमाओं से मानव हृदय की कोमल संवेदनाओं को जगाकर बर्बरता के विष का शमन कर जनकल्याण का परिपथ दिखाते है। डमरूधारी शिव, शिव का संगीत प्रेमी का रूप है। संकीर्णता जनकल्याण में बाधक होती है और संगीत मन की संकीर्णता के विष को समाप्त करता है। इससे बढ़कर और जन कल्याण क्या होगा कि लोगों के मन से संकीर्णता का भाव निकाल दिया जावे।
‘‘नृत्यावसाने नटराजराजौ निनादढक्काम नव पंचवारम्‘‘।
नृत्य के बाद शिव ने डमरू बजाया जिससे व्याकरण के 14 सूत्र निकले। व्याकरण किसी भी साहित्य की रीढ़ होती है। जनकल्याण के लिए भाव संप्रेक्षण के लिए भाषा जरूरी है। भाषा को परिमार्जित रूप व्याकरण देती है। आज जिस परिमार्जित भाषा के आधार पर विश्व चल रहा है। वह भाषा भी विषपयी शिव की ही देन है।

सुरेन्द्र वर्मा (पूर्व प्राचार्य)
साबले बाड़ी, बरारीपुरा छिंदवाड़ा
मो.- 919926347997

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