उसने बहुत ही सहज शब्दों में पूछा था, तो तुम घर जा रही हो, और मन सोच में पड़ गया था। बाज़ारों में घूमते, सड़कों पर चलते एक पहचान स्वतः: ही मेरा परिचय देती है, कि मैं भारतीय हूँ, मुझे कुछ बताने या कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती। पर भारत जाने के पहले काग़ज़ी कार्यवाही से गुज़रना पड़ता है, अनुमति लेनी पड़ती है कि मैं भारत में कितने दिन तक रह सकती हूँ क्योंकि मैं अब भारतीय नहीं रही, दूसरे देश में जाकर बस गई हूँ। क्या है फिर मेरी पहचान, कौन सा है मेरा देश–या फिर अब कोई नहीं? जड़ से उखड़े पेड़ों की तरह बस अंत ही अंत है? कहीं यह सिर्फ़ वही असुरक्षित प्रवासी मानसिकता तो नहीं, पाने खोने और जुड़ने व टूटने का दर्द ही तो नहीं? पिछले तीन दशक से यहीं पर रह रही हूँ। वह किशोरी जो कभी भारत छोड़कर आई थी आज भारत की तरह ही, बस यादों में ही रहती है। भारत की तरह ही उसके पास भी पलट पलट कर लौटती हूँ और दूर नहीं हो पाती उससे, परंतु मैं अब वह नहीं। जैसे कि भारत में अब कोई मेरा अपना घर नहीं, बस पूरा भारत ही मेरा अपना है। कौन सा है फिर मेरा देश और मेरा घर? ब्रिटेन में बसा यह घर जिसमें बैठकर रोज़ ही सोचती हूँ कि एक दिन अपने घर अपने देश ज़रूर ही लौट पाऊँगी या फिर भारत जिसे शारीरिक रूप से पीछे छोड़ आई हूँ और जो मुझे अब अपना नहीं मानता या मानता भी है तो एक दूरी, एक ठंडेपन के साथ।…मेरा अपना देश, जो अब मेरी आस्था और पहचान पर सवाल जवाब करता रहेगा, मुझे पूरी तरह से अपना नहीं समझेगा, जैसे कि यह मेरा अपनाया हुआ देश भी एक फ़र्क़, एक दूरी के साथ ही मुझे अपना कह पाएगा? मन को बार बार ही टटोला है, पर हर बार ही उत्तर हाथ में आ-आकर फिसल जाते हैं। कभी एक का पलड़ा भारी हो जाता है तो कभी दूसरे का। और तब हारकर यही सोचना पड़ता है क्यों करनी पड़ती है हमें यह भावनात्मक और नैतिक काट छाँट—- क्यों हम आज भी, इस इक्कीसवीं सदी में आकर भी, शांति और सौहाद्र के साथ अपनी वेश भूषा और सांस्कृतिक विभिन्नता के साथ भी, हर तरह की भिन्नता और वैमनस्य को भुलाकर, इस धरती के वासी होकर नहीं रह सकते? भारत में तो पूरे भारतीय और इंग्लैंड में तो पूरे ब्रिटिश– दोनों देश ही पूरे अपने, बिना किसी प्रमाण या रोक टोक के–दो देश ही क्यों, पूरा विश्व हमारा अपना और हम उसके?
आज संचार की आधुनिकतम तकनीकों ने दुनिया को बहुत नज़दीक कर दिया है। एक जगह की ख़बर तुरंत ही दूसरी जगह पहुँचती है। मिनट भी नहीं लगते सब कुछ आँखों से तुरंत ही देखा जा सकता है, उसका हिस्सा बना जा सकता है, चाहे वह कोई महोत्सव हो या आपदा या फिर कोई ज़रूरी या सूचनात्मक सम्मेलन ही। ऐसे में छोटे से छोटे कोने में बैठे आदमी का भी खुद को विश्व से जुड़ा महसूस करना, उसका हिस्सा समझना स्वाभाविक ही है। आज वह सुदूर बसे देशों के भी कोने कोने से भली भाँति वाक़िफ़ हैं। फिर यह प्रवास की परंपरा तो पुरानी है, मानव ही नहीं, पक्षियों तक में नैसर्गिक है। मौसम अनुसार पक्षी ठंडी जगहों को छोड़ गर्म जगहों में जाते हैं, गर्म ज़्यादा हो तो ठंडी जगहों पर आवास बनाते हैं। वैसे ही लोग गाँव छोड़कर शहर और शहर छोड़कर दूसरे देश, इसका अर्थ यह नहीं कि जो पीछे छूटा उसे त्याग दिया या भूल गए। बारबार लौटना भी, पशु पक्षी हों या मानव, घर या अपनी पहचानी जगहों की तरफ़ स्वाभाविक है। यह आवागमन तो चलता ही रहेगा, जीवन की तरह। और हर नया वातावरण समझ और सामंजस्य माँगता है जैसे कि नया रिश्ता। बात बस इतनी है कि यदि हम इसे सफल और सुव्यवस्थित देखना चाहते हैं तो रास्ते की कठिनाइयों को कम कर पाएँ तो ही अच्छा—परिवर्तन जितना सहज और पीड़ा हीन होगा उतना ही आरामदेह व सफल। यदि अनावश्यक तकलीफ़ें कम या समाप्त नहीं कर सकते तो कम से कम बढ़ानी तो हर्गिज़ ही नहीं चाहिए, चाहे वो ब्यूरोक्रेसी हो या होस्ट कम्यूनिटी।
बात सन अस्सी की है—जुलाई का महीना और उत्तरी भारत की वह चिलचिलाती धूप। उस पर से हवाई अड्डे की एक लंबी औपचारिक जाँच पड़ताल। अजनबी और विदेशियों के साथ उस लंबी कतार में खड़ी, कभी गर्मी से परेशान रोते बच्चों के आँसू पोंछती, तो कभी माथे का पसीना। भारत में रहते हुए भी अक्सर प्रार्थना किया करते थे कि वे गर्मी की छुट्टियाँ अगस्त तक रहनी ही चाहिए जिससे कि जुलाई का यह चिपचिप महीना पहाड़ों पर ही बिताया जा सके—और आज यूँ परेशान होना—ख़ैर यह बात तो लाल फ़ीते और सरकारी काग़ज़ों की जाँच पड़ताल की है और हम जैसे साधारण व्यक्ति को तो इससे गुज़रना ही पड़ेगा और मजबूरी यह है कि इंग्लैंड में बच्चों की स्कूल से लंबी छुट्टी भी तो बस इन्हीं महीनों में होती है!
ले देकर यह जुलाई, अगस्त ही ऐसे दो महीने होते हैं जब भारत आया-ज़ाया जा सकता है, बेफ़िक्र होकर चार- छह हफ़्ते रहा जा सकता है। और तब मन में एक सवाल पहली बार उमड़ा-घुमड़ा था–क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम भारत से निकले या निकाले गए लोगों के पास एक ऐसा प्राविधान हो –एक कम्फर्ट ब्लैंकेट हो जिसके तहत हम दोनों देशों के नागरिक बनकर रह पाएँ, भारत लौटें तो विदेशियों की कतार में न खड़े हों –लगे कि घर लौट रहे हैं–जैसे कि ब्रिटेन के प्रवासी बिना किसी रोकटोक, इंतज़ार या परेशानी के इंग्लैंड से बाहर आते-जाते हैं । आख़िर अपने मूल या मातृ देश में और दुनिया के अन्य देशों में कुछ तो फ़र्क़ होना ही चाहिए ? काश हम भारत वंशी भी बिना किसी रोक-टोक के अपने देश आ-जा सकते ! क्यों हमें अपने ही घर आने के लिए अनुमति या बीसा चाहिए, क्यों हमें भी इन विदेशियों की तरह एक लंबी कतार में खड़े होकर इंतज़ार करना पड़ता है–हम मात्र पर्यटक तो नहीं, घर लौट रहे हैं फिर यह भेदभाव क्यों ? कुंडली मारे बैठे आक्रोश ने एक बार फिर अपने सारे शिकायत और दंश से भरे फ़न उठा लिए थे।
हर साल का यही सिलसिला था। हर जुलाई किसी औफिसर या अधिकारी से भारत के हवाई अड्डे पर परेशान होकर पूछती, कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हमारे पास दोनों देशों के पासपोर्ट हों? क्यों नहीं, आप जैसे लोग कोशिश करेंगे तो ज़रूर हो जाएगा– एक औफिसर ने यूँ गर्मी से परेशान उबले टमाटर जैसे चेहरे को देखकर आधे मज़ाक और आधी सच्चाई के साथ जवाब दे ही दिया था, आखिर।
बात चाहे कैसे भी कही गई हो और कितनी भी अविश्वनीय हो परंतु एक राहत और आस का बीज उसी पल मन के उत्साही कोने में रोपित हो चुका था। निश्चय ही ऐसा दिन ज़रूर आएगा जब हम भटके प्रवासियों को अपने अपनाए देशों के अलावा, पीछे छूटी भारत की भी नागरिकता, यानी कि दोहरी नागरिकता का गौरव मिल पाएगा–ऐसे ही कितने संभव असंभव सपने और आश्वासनों से मन बार बार खुद को आज भी सांत्वना दे ही लेता है।
विवश हूँ पर अक्सर ही सोचने पर कि आज के इस असुरक्षित और अराजक समाज में यह कैसे संभव हो पाएगा–सात जुलाई को लंदन में हुए धमाकों की गूँज गई नहीं है और वह तहस-नहस आज भी असुरक्षा का भाव मन में जगाती है । 11 सितंबर की वह तारीख़ पूरी अमेरिका ही क्या, विश्व को भी सावधान करती है कि इतना आसान नहीं यह सब? फिर भारत के पास तो विकसित देशों जैसी सुविधाएँ भी नहीं—सोच को सावधान करना चाहता है मन। मुँह पर ठंडे पानी के छींटे दे शांत होने की कोशिश करती हूँ, जब तक हम समझदार नहीं होंगे, हिंसा और अराजकता है, छुपी साज़िशें और स्वार्थ है, ऐसे प्रावधानों में सुख-सुविधा के साथ-साथ हज़ार ख़तरे भी हैं।
क्या है परंतु यह दुहरी नागरिकता– मात्र एक जुड़े रहने का भावात्मक कवच या फिर वाक़ई में वापस की, अपने
देश, अपनी मिट्टी में पुनः: स्थापन की एक सुखद प्रक्रिया? शायद दोनों ही–परंतु बस भावात्मक और रागात्मक स्तर पर ही। शायद और भी दर्द और चुभन हो, जब हम भारत जाएँ और हमें भारतीयों से भिन्न समझा जाए– क्या बर्दाश्त कर पाएँगे हम अपनों का ही यह भेदभाव—क्योंकि यथार्थ कभी भी सपनों की रूपरेखा में तो नहीं ही सिमट पाता है– हम तो उसे अपना समझें परंतु वे हम पर पूरी तरह से विश्वास न कर पाए–अपना न पाएँ? बाहर वालों की तरह उसके हित में लिए गए किसी भी निर्णय में हमारी कोई राय नहीं होगी, आज भारत सरकार ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है यह, बोट का अधिकार हमें न देकर। एक मेहमान की तरह आओ और चुपचाप सारा दर्द, सारी अराजकता देखते-सहते, मन और आँखों में समेटे वापस लौट जाओ–पर यह तो हम पहले भी करते आए हैं या कर सकते थे? तो क्या बस यह दोहरी नागरिकता हमें हवाई अड्डों की उन लंबी कतारों से बचाने के लिए, मात्र वीसा के आवेदन पत्र से मुक्ति देने के लिए ही है?
ब्रिटेन में अपनी एक भारतीय मूल की सहेली से उत्साहित होकर पूछ ही डाला – क्या तुम अब दोहरी नागरिकता लोगी? नही जी, क्या करना है ? अपना काम तो पंद्रह साल वाले इस कार्ड से आराम से चल रहा है। वह
सभी सुविधाएँ हैं जो दोहरी नागरिकता की हैं, हमारे पास हैं, बस बंधन नहीं हैं। बंधन—? मुँह आश्चर्य से खुला रह गया—-कैसा बंधन– जिज्ञासा खुद को रोक नहीं पाई?
जी हाँ, अगर आप दो देशों के नागरिक बनते हो ब्रिटिश नागरिकता की कुछ सुरक्षा और सुविधाएँ छोड़नी भी तो पड़ेंगी, क्योंकि वह ज़िम्मेदारी आप जहाँ हो उस देश की हो जाती हैं। दुनिया के हर अन्य देश में ब्रिटेन आपको अपनी सुविधा देगा सिवाय भारत के। अब उदास होने की मेरी बारी थी–फिर दोहरी नागरिकता का क्या मतलब—मैने तो सोचा था कि आपको हर वक्त दोनों देशों की सभी सुविधाएँ मिलेंगी, क्योंकि आप दोनों देशों के नागरिक की गौरान्वित स्थिति में हो ?
अमेरिका में बसे श्री वीरेन्द्र गुप्ता जी ने यह बात कुछ और स्पष्ट शब्दों में कही—मान लो कि आप किसी दंगे फ़साद या लफ़ड़े में भारत में फँस जाओ तो अमरीकी सरकार आपके बचाव के लिए कोई हस्तक्षेप नहीं दे पाएगी जो अभी तक तुरंत ही देती है और यह एक बड़ा सुरक्षा कवच है।
पर क्या भारत की सरकार कोई मदद नहीं करेगी–सवाल मुँह में ही अटका रह जाता है और मस्तिष्क यादों की कैबिनेट से पुनः एक धूल भरी फ़ाइल झाड़ लाता है। सन 86-87 की बात है। 11 साल के बेटे की परीक्षा होने वाली है। बग़ल में बैठी एक एशियन अभिभाविका आवेदन पत्र को भरने में मदद चाहती है। मदद उपरांत बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए पूछ बैठती है— ” तुस्सी पंजाब के तो नहीं लगते—कहीं होर से हो—गुजराती हो (इन्हीं दो प्रांतों के लोगों का बाहुल्य है यहाँ इस शहर में।) ?” ” नहीं, उत्तर प्रदेश, से।” हांलाकि उसकी वेशभूषा, भाषा, लहज़ा सब स्पष्ट बता रहे थे फिर भी स्वभावतः सहज होकर बात को आगे बढ़ाने के लिए मैं भी पूछ ही बैठती हूँ ” और आप पंजाब से? ”
” नहीं, उत्तर प्रदेश, से।”
“नहीं जी, देहली से। …उसके पहले लाहौर से थे पर अब बस यहीं से हैं…बरमिंघम से। पिछले दंगों में सब कुछ पीछे छोड़ आए। हमारा वीरा घर के दरवाज़े पर मारा गया और किसी ने कुछ नहीं किया–सरकार ने भी नहीं। बस पच्चीस हज़ार रुपये दे दिए। आप ही बताओ बहन, पच्चीस हज़ार रुपयों में कहाँ वीरा मिलता है?”
उसके सवाल की गूँज आज भी विचलित करती है। अपने देश और उसकी व्यवस्था में, शांति और मानवता में आस्था भंग करती है। माना, गुज़रा तो किसी भी क़ीमत पर वापस नहीं आ सकता पर हाँ सरकार को कुछ और संवेदन शीलता के साथ वे आँसू पोंछने चाहिए थे। जब तक हम एक दूसरे की भावनाओं की क़द्र नहीं करेंगे, दूसरों के दुखदर्द को अपना सा महसूस नहीं करेंगे , कोई भी कानून या नागरिकता हमें एक दूसरे से नहीं जोड़ पाएगी।
जहाँ स्पेन के उस पांचतारा होटल में जब इंदिरा गांधी के आकस्मिक निधन पर हर देश का नागरिक भारतीय जानकर शोक संदेश दे रहा था, भारत की ज़मीन से जोड़ रहा था—दुख में भी एक गौरव और मान दे रहा था, तो विदेशी भूमि पर भी, अपनेपन का— मानवता का अहसास हुआ था मुझे। परंतु वहीं दूसरी तरफ ब्रिटेन की सड़कों पर माहौल विद्रूप और शर्मनाक था। कहीं पटाके छूट रहे थे, तो कहीं मिठाइयाँ बट रही थी। कहीं-कहीं तो शैम्पेन की बोतलें तक खोली जा रही थी। अब किसके दुख में रोया जाए और किसके साथ हँसा जाए–हर हालत में भारतीय होने के नाते एक कठिन और शर्मनाक स्थिति थी। अत्याचारी और दुखी दोनों ही, अपने थे, देशवासी थे। और तब पहली बार भारतीय होने पर शर्मिंदगी महसूस हुई थी। और एक बार फिर वही शर्मिंदगी उस शरणार्थी औरत से बात करके हुई। उसके सामने निरुत्तर सर झुकाए बैठी रह गई–किस मुँह से कहूँ —माफ़ कर दे वह इस अत्याचार को, इस लापरवाही को—अपनों के बीच तो ऐसी बातें होती ही रहती हैं… ?
आज के आधुनिक संदर्भ में यह वैश्विक सपना एक ज़रूरत सा बनता दिखलाई दे रहा है. परंतु यदि वाक़ई में हमें सौहाद्र और समझ के यूटोपिया–या रामराज्य को वापस लाना है तो समझ के साथ-साथ मन के भी रास्ते खोलने ही होंगे –अपने स्वार्थ और ज़रूरतों से ऊपर उठकर, ताक़त और अहं की सकरी गलियों से निकलकर।
बस काग़ज़ी नियमों या दस्तावेज़ों से ही नागरिकता नहीं मिलती। भाईचारा नहीं आता। यह बंधन तो मनके होते हैं। हर आहत के घावों का उपचार करना होगा। कम-से-कम कोशिश तो अवश्य करनी ही होगी कि ऐसी स्थितियाँ ही न आएँ कि हमारे देश या समाज में ये घाव किसी को मिल पाएँ और अगर कभी किसी भूलचूक या दुर्घटनावश लग भी जाएँ तो नासूर तो हर्गिज़ ही न बन पाएँ। यह एक ज़िम्मेदारी है जिसे निभाकर ही हम वास्तव में सुखी और समृद्ध भारत को पा सकते हैं।
दोहरी नागरिकता यानीकि ससुराल जाती बेटी की तरह दुहरी ज़िम्मेदारी का बोझ, जिसे दोनों कुल—मायके और ससुराल (दोनों देशों की) लाज निभानी है। क्या हमारे कंधे इतने चौड़े हैं कि हम यह बोझ बखूबी उठा सकें–क्या हममें इतनी समझ और उदारता है कि हम अपने स्नेह और वक्त को न सिर्फ़ बाँट सकें अपितु यह भी जान सकें कि ” प्रेम न बाड़ी उपजे प्रेम न हाट बिकाय/राजा प्रजा जेहि रुचे सीस देह ले जाय।” पर यह तो कोरी भावुकता की बातें हैं, जब पूरी दुनिया में आज कहीं भी यह संभव नहीं दिखता, सही शब्दों के ग़लत अर्थ और नेक इरादों के ग़लत परिणाम निकल आते हैं (अमेरिका का इराक में हस्तक्षेप एक उदाहरण है जहाँ ठीक होने के बजाय स्थिति पूरी तरह से अराजक होती जा रही है।) क्या संभव है इतनी सहजता से ऐसा कर पाना, या बन पाना?
माना कि दोहरी नागरिकता–हम प्रवासी भारतीयों का एक सपना आज सच होने जा रहा है परंतु डर लगता है कि क्या हम अपनी निष्ठा और प्रतिबद्धता की इस दोहरी ज़िम्मेदारी को ईमानदारी के साथ बाँट और निभा पाएँगे— क्या वाक़ई में हम दो देशों के पूरी तरह से होकर रह पाएँगे ? या फिर आज जब भारत एक आर्थिक ताक़त के रूप में उभर रहा है तो बस बहती गंगा में हाथ धोना चाहते हैं हम और आज जब हर एथिनिक वस्तु फ़ैशन में है तो हम भी भारतीय होकर बस “ट्रेन्डी” ही हो रहे हैं ? माना दो देशों की शक्ति और संस्कृति के मिलन से अनगिनित सुविधाओं और सुखद संभावनाओं का जन्म हो सकता है–सफलताएँ पनप सकती हैं परंतु इन सबके बावजूद भी हमें निश्चय ही अपने मन को भली-भाँती टटोलना चाहिए–क्योंकि ऐसे संबंधों के बंधन पूर्ण समर्पण और निष्ठा माँगते है–निश्चय ही व्यक्तिगत समय और स्वतंत्रता का अतिक्रमण भी करते ही हैं।
शायद जल्दी ही एक ऐसा वक्त भी आए जब हम सिर्फ़ विश्व के ही नागरिक हों— यह देश और समाज की सीमाएँ और भेदभाव वाकई में रह ही न जाएँ—और सोचने की बात यह है कि अगर वाक़ई में ऐसा हुआ तो वह वक्त बुरा नहीं होगा? सीमा से उपजे सारे झगड़े और विवाद ख़त्म हो जाएँगे, हम छोटे छोटे देश और समाज के दायरों से निकलकर विश्व कैनवस पर रहेंगे और इस तरह से बचाई संपदा और ऊर्जा मानव के हित के लिए इस्तेमाल की जाएगी, बजाय सब कुछ बारूद बनकर धुँआ-धुँआ होने के। कोई एक दूसरे को बस इसलिए नहीं मारेगा कि वह किसी और देश का वासी है—- इन सवालों का जबाव तो ख़ैर वक्त ही बतला पाएगा परंतु अगर हमने और हमारी सरकार ने हर ज़िम्मेदारी सोच और समझ के साथ सहृदयता से न निभाई तो, वाक़ई में सँभलने की बात है – अगर यह दोहरी नागरिकता, वाक़ई में दोहरी नागरिकता न बन पाई–दो पासपोर्ट, हमें दो देशों के ज़िम्मेदार और पूर्ण नागरिक न बना पाए, तो बस चंद काग़ज़ी समझौते और सुविधाएँ ले-देकर –एक ग्लोरिफाइड पी.आई.ओ कार्ड जेट-एज एन.आर.ई के लिए, जिसे ले और देकर ही सब ख़ुश हो गए तो कहीं ऐसा तो नहीं कि धोबी का कुत्ता, घर का, न घाट का- हम कहीं के न रह जाए — अवांछनीय तत्वों की अराजकता से त्रस्त पूरा विश्व ही त्राहि त्राहि कर उठे और जिसकी लाठी हो चारों तरफ़ बस उसी की भैंसें नज़र आएँ—-वैसे भी तो दो नावों पर पैर रखकर नदिया पार करना इतना आसान भी नहीं? नवंबर—2005
शैल अग्रवाल
आणविक संकेतः shailagrawal@hotmail.com
सर्वाधिकार सुरक्षित (Copyrights reserved)