पढ़ते-पढ़तेः माँ ने कहा था-आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर

आदरणीया देवी नागरानी जी ने अपनी पुस्तक ‘माँ ने कहा था’ की समीक्षा लिखने के लिए अमेरिका से फोन किया तो मेरे पैर मानो ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। कितने फख्र की बात है ! कैसा स्वर्णिम अवसर मेरे हाथ आया है। बिल्ली के भाग से मानों छींका टूटा है। पहले छींके में तो होता था दूध, पर मेरा वाला छींका ऊँचाई पर नहीं लटका था, वरन् हजारों किलोमीटर दूरी पर, अमेरिका के एक लैपटॉप के छींके में ‘माँ ने कहा था’ मानो दूध का भगोना रखा था. अस्तु।
पहली बार तो सरसरी नज़र से कविताओं को खंगाल डाला। विस्मित रह गई। छोटी-छोटी कविताएँ, लेकिन उनकी लघुता पर न जाइए। एक-एक शब्द भावों से इतना भरा है कि चकित कर देता है।
कवयित्री के भीतर इतनी आग है कि कभी वह राख की रजाई ओढ़े सोई हुए चिंगारी-सी लगती हैं तो कभी दहकता अंगारा, जिसकी तपिश एक-एक पंक्ति में अंदर से उठकर पाठक को भी तपा देती है।
पहली कविता का शीर्षक ही संग्रह का मुखपृष्ठ है – माँ ने कहा था
जिज्ञासा जगाने वाला शीर्षक! क्या कहा होगा माँ ने ? इसका उत्तर ढूँढने के लिए पृष्ठ पलटते गई, पलटते ही गई.
माँ ने कहा था- कितना संत्रास कितनी दयनीय स्थिति
फेंक दिया वहाँ, जहाँ कोई रद्दी भी नहीं फेंकता।
माँ ने सच ही कहा था –
वह मर चुका होता है, जिसका ज़मीर ज़िदा नहीं!

आगे कि पंक्तियों में बड़ी होते ही पालने में झूलती कवियत्री की संवेदना देखिए –
मुझे याद आती है/ उस पेड़ पर लटके झूले की
झूले से बंधी रस्सियों की/ जो आरी की तरह घाव देती है
उस पेड़ की शाख को।
ठीक वही स्थिति है – रसरी आवत – जात तो सिल पर पड़त
निसान झूले में लेटी बच्ची को रसरी एक आरी की तरह पेड़ को काटते दिखाई देती है. कितनी संवेदनशीलता…और आगे उनकी बानगी देखिये:
आँसूओं की बाढ़ में
जब आँखों के किनारे डूबते हैं।
ठीक वैसे ही मानो, सावन की बाढ़ में नदी के किनारों का दृश्य
नैन पटल पर कौंधकर चला गया।
कहीं मेरा वजूद, उसकी रौ में बह न जाए ।
सही तो है बाढ़ की राह में आई जल-थल में हर छोटी-बड़ी चीज़ का वजूद भला कहा सुरक्षित रहता है !
कवयित्री अपना वजूद बनाए रखना चाहती है. अपनी औकात जानती है। विरोध का ऐलान करती जीने का सामान इकट्ठा करने के लिए कवयित्री कहती है:
इतनी नादाँ तो मैं नहीं
उस ताले की चाबी तुम्हें सौंप
गुलामी की जंजीरे पहन लूँ।
इस गुमान में मत रहना कि जंग लगी चाबी अभी भी उनके पास है, चंगुल से छूटने के लिए। नारी ही नारी की शत्रु है का सार इस बदनाम औरत नाम की कविता में देखिये:
बच्चियों की आँख खुले, दुनिया को नज़र भर देखें,
इससे पहले ही एक दाई नामक नारी
उसे विदा कर देती है,
ऐसे ही समय को भी ‘ज़ालिम वक्त’ की संज्ञा से कवियित्री संबोधित करती है जो पल में ही सर्वस्व छीन लेता है. औरत रिहाई तो मांगती है पर भीख में ज़िन्दगी नहीं चाहती.
ऐ वक्त/ कुछ रियायत कर
ज़िंदगी न सही मौत तो दे दे !
जीवन मालामाल कैसे हो ? इसका दार्शनिक खाका खींचा गया है – नींव में सुविधा के रिश्तों को वह अपंग घोषित कर देती है अब आधारित रिश्तों को लालच के रंग में रंगा हुआ और अंत में अपनी बात दृढ़ता से कहती हैं –
रिश्ते साथ निभाने को नींव पर टिके हों,
तो जीवन मालामाल हो जाता है।
मुद्रा के अभाव में भी मालामाल हुआ जा सकता है। कितना गहन दर्शन!
याद के पन्ने में देखिये-मन की लाइब्रेरी में देवी जी ने एकत्र यादों के पन्नों को स्मरण किया। याद के झरोखे से उन पन्नों को बिना छुए उलट – पलटकर पढ़ भी लेती हैं। कमाल की कल्पना है…
देवी जी की अधिकांश कविताओं में स्त्री विमर्श के रंग बिखेरे हैं। सत्ताधारी, कामी, अंहकारी पुरुष को ललकारते दिखती हैं। तलाक देकर दूसरा विवाह उन्हें ऐसा ही लगता है, जैसे ज़िंदगी के गुलशन से रंग-बिरंगा फूल तोड़ा, सूँघा, मुरझाया भी नहीं था कि तोड़- मरोड़कर फेंक दिया। कवयित्री चेताती हैं कि औरत को ललकारो मत। ग़ौर करो कि यदि वह भी तुम्हारे नक़्शे क़दम पर चलने का साहस जुटा ले तो ? औरत तो जीवन के निर्माण का अणु है।
बेजुबान चीखें में उनकी अभिव्यक्ति में चीख भी बेसदा हो सकती है। जी हाँ ! देवी जी चीखों को बेजुबान कहती हैं। निर्भया के संदर्भ में रची गई यह कविता उसकी चीखों से पाठक के दिल को हिला देनेवाली है। अपने भाई-बेटों से उसे लाज के कफन की दरकार थी। बेधड़क, बेझिझक, घूमती बेहयाई, पाकीज़गी की चीड़-फाड़ करते दरिंदे कवयित्री को भीतर तक को हिलाकर रख दे रहे हैं।
12. नारी कोई भीख नहीं

नारी के तन की ख़ुशबू का मूल्य आँका जाता है। कवयित्री इस अवस्था को बदलना चाहती हैं। वे साहसपूर्वक कहती हैं –
अब वे हाथ कट जाने चाहिये/ जो औरत को अपना माल समझते हैं।
तन को गोश्त समझकर मांसाहारी प्रवृत्ति से व्याप्त ये नरपशु दबोचते, चबाते, निगलते स्वाद लेते हैं। वे सावधान करते हुए आगे कहती हैं —
कभी वह गले में फाँस बनकर/ अटक भी सकती है…
दामिनी के दर्द का अहसास कराते हुए वे बेबाकी से लिखती हैं:
जो ज़िंदगी में जीते जी/ दाह पर आह भरती रह गई।
उसके दर्द का अहसास भारत की बेटी-बेटी ने महसूस किया। आगे वे भूख के स्वरुप को सामने ले आती है कुछ इस तरह…
भूख -एक बीमारी, एक लाचारी है —
गुरबत को निगलकर भी / डकार तक नहीं लेती…
भूख के दो प्रकारों पर लिखते हुए वह कहती हैं कि आदमी अपनी ही हवस की भूख के आगे कितना लाचार है कि उसका कभी पेट ही नहीं भरता. और आखिर न कहते हुए एक नए आगाज़ पर लगभग हर घर-परिवार में घटता वसीयत का यह मंजर कवयित्री ने चित्रित कर डाला है। सबने अपनी चाहतों और ज़रूरतों को दर्ज़ किया उसमें, पर माँ की चाहत , ज़रूरतों का क्या ? विवश हो तभी उन्हें कहना पड़ा —
आज तुम हाक़िम हो/ कल तुम्हारे वंशज हुकूमत करेंगे,
वे तुम्हारे हस्ताक्षर ख़ुद ही कर लेंगे।
वसीयत का एक नया इतिहास यहीं से शुरू होगा। माना जाता है कि कवि क्रांतदर्शी होते हैं अर्थात् भविष्ययवेत्ता। देवी नागरानी जी की इस कविता में उन्होंने वसीयत का मानो भविष्य बाँच लिया है। आगे वसीयतों में फर्जी हस्ताक्षरों का चलन आम होने वाला है। यह उन्होंने आज ही घोषित कर दिया है।
माँ ने कहा था संग्रह में ऐसा प्रतीत होता है कि वे स्वयं को ही खोज रही हैं। उनके भीतर एक अतृप्त प्यास है। किसी भी कवि में ऐसी प्यास का होना ज़रूरी भी है। मेरी दृष्टि में माँ ने कहा था भाषा, शब्दचयन, भावाभिव्यक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो साहित्य जगत में चिरस्मरणीय रहेगा।

आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर
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