श्री विजय सिंह नाहटा न केवल राजस्थान की कविता अपितु हिन्दी की समकालीन कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं।
इनकी कविताएं हिन्दी में नयी दिशा और दशा का संकेत देती है।
इनकी कविताएं कथ्य , भाषा और शिल्प के स्तर पर विस्मय विमुग्ध करने वाली होती है।
कभी सुप्रसिद्ध समीक्षक डाॅ नामवरसिंह ने कहा था कि श्री विजय सिंह नाहटा का काव्य वैभव चित्रात्मकता लिए है और भाषा में संस्कृत निष्ठता है।
हाल ही में प्रकाशित नाहटा का कविता संग्रह भी सुधि पाठकों को भीतर बाहर प्रभावित करता है।” अग्नि पाखी ” नामक इस संग्रह में बहुत सौजन्यता से अपनी कविताओं के जरिए रचनात्मक मनुष्य के बाह्य रूप और आभ्य॔तर आत्म प्रदेश के हर सूक्ष्म प्रकोष्ठ में दाखिल होती नाहटा की कविताएँ गहन संवाद करती है और यह संवाद एक तरह के वृहद् सभ्यता समीक्षा में बदल जाता है — इस भावभूमि पर खड़ी नाहटा की कविताएँ दमित और मलिन चित्त को उद्बुद्ध बनाती है। इस संग्रह की भूमिका में सुप्रसिद्ध साहित्यकार डाॅ सत्यनारायण इन कविताओं को ” आत्म चेतस् कवि की जीवन तलाशती कविताएं ” कहते हैं । वहीँ यशस्वी कवि डाॅ मदन कश्यप ” नाहटा की कविताओं में बदलाव की बेचैनी को महसूस करते हैं और इस संग्रह को हिन्दी का महत्वपूर्ण संग्रह मानते हैं। इस नये संग्रह की कविताओं में शिल्प की सुघङता के साथ साथ उनके अनुभव संसार और संवेदना के विस्तार को भी स्पष्ट रूप से लक्षित किया जा सकता है। ” कुल 82 कविताओं के इस संग्रह में नाहटा का काव्य वैभव अपनी लय में निबद्ध है। उनकी रचना प्रक्रिया को उदघाटित करती ” शेष न रहने के लिए ” शीर्षक कविता में कवि कहता है –” शेष न रहने के लिए / भाषा में बिखरना चाहता हूँ बीज की तरह / और …../ चाहता हूँ कविता में खिलना / ,,,,,,,, शब्द की तरह। ” इसी प्रकार संग्रह की शीर्षक कविता ” अग्नि पाखी ” का एक अंश दृष्टव्य
है — ” अपनी कविता की आग में जल कर/ भस्मीभूत होता कोई कवि/ रचना की बारिश तले / उसी सनातन राख से फिर हो जाता प्रज्जवलित। ” नाहटा की कविताएँ मनुष्य बोध कीं कविताएं हैं और मनुष्य की गरिमा को जीवन के केन्द्र में प्रतिष्ठित होते देखना चाहती हैं। अंतहीन उम्मीद और सजग आशावादिता उनकी कविताओं को अधिक प्रासंगिक और सारवान बनाती है।
” कोई उम्मीद अंतिम नहीं ” कविता में यह स्वर ऊर्ध्वगामी बना है — ” कोई उम्मीद अंतिम नहीं/ चिड़िया की हर उड़ान है अंतहीन/ हर दिन आकाश एक नवीन आमंत्रण । ” और इसी तरह ” कवि की चाय ” कविता में उनकी कविता अस्तित्व के हर आरोह अवरोह को जीवन की व्याप्ति में तलाश करती है। कवि कहता है—”
और फिर …../ अस्तित्व के हर अंतराल में / प्रविष्ट होंने का स्वप्न बुनते / हम ; / अदृश्य कोहरे की नाजुक छुअन महसूस करते हैं। ” पत्थर श्रृंखला की कविताएँ भी चमत्कृत करने वाली मेधा का सुपरिचय देती है। संग्रह में गजानन माधव मुक्तिबोध को लेकर दो कविताएं हैं। ” हो न सकूँगा ” — नामक कविता पर मुक्ति बोध की ‘ पीला तारक ‘ कविता की अनुगूँज को सहज ही महसूस किया जा सकता है लेकिन नाहटा की यह कविता मौलिक वितान के अनेक प्रतिबिम्ब बनाती है। इसी कविता का अंतिम स्पर्श कुछ यूं है– कोटि कोटि सूर्यो का विरूद – गान / मै हो न सकूँगा ; देव /
मुझे अपनी ही आलोक रश्मियों में बिखरने दो , प्रभु /
दुःख और अंधेरे के स्वायत्त साम्राज्य में। ” नाहटा अपने स्वकथ्य ” अनिर्वचनीय ” में कहते हैं — संक्षेप में कविताएं ही अपना वक्तव्य खुद होती है – ऐसा मेरा मानना है।……….. मै कविता की चेतन सत्ता को कवि कर्म के दौरान महसूस करता रहा हूं। ” विविधता और चिन्तन के अनेकानेक उन्मेष उदघाटित करता यह संग्रह
हिन्दी कविता का नवीन पड़ाव है – इसका हिन्दी संसार में स्वागत और मूल्यांकन होना चाहिए। कविता संग्रह का प्रकाशन सुराणा पब्लिकेशंस बीकानेर ने किया है। कवर पर कवि की कलाकृति को स्थान मिला है। इति।
( डाॅ बंशीधर तातेङ )