नेताजी का क्रांतिकारी आत्मगोपन

देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए कृतसंकल्प नेताजी सुभाष चंद्र बोस जब पठान का वेश बदलकर 16-17 जनवरी 1941 की रात कलकत्ता के एल्गिन रोड स्थित अपने निवास से देश से बाहर जाने के लिए निकले थे तब उनके साथ जर्मन वांडरर कार नं. बीएलए-7169 में उनके भतीजे शिशिर कुमार बोस थे। शिशिर नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र के पुत्र हैं जिन्होंने अपने चाचा को कार में गोमो स्टेशन पर छोड़ा था। पेशे से चिकित्सक (बाल-रोग विशेषज्ञ) डा. शिशिर कुमार बोस का जन्म उस समय हुआ था जब देश में आजादी की अलख जगनी शुरू ही हुई थी। सामयिक असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर शिशिर भी अपने पिता और चाचाओं की तरह भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़े थे और जेलयात्रा की। सन् 1957 में उन्होंने ही कलकत्ते में ‘नेताजी रिसर्च ब्यूरो’ की स्थापना की थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, शरत चंद्र बोस और स्वतंत्रता—संग्राम पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और संपादित कीं। अंग्रेजी में ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’, ‘द ग्रेट एस्केप’, ‘द वॉयस ऑफ़ शरतचंद्र बोस’ और बांग्ला में लिखी ‘अनिर्वाण ज्योति’, ‘बसु—बाड़ी’, ‘महानिष्क्रमण’, ‘स्वाधीनतार युद्धे आजाद हिंद फौज उनकी उल्लेखनीय पुस्तकें हैं।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की सौवें जन्मदिन पर जनवरी 1997 में शिशिर कुमार बोस का बांग्ला में लिखा एक लेख ‘आनंद बाजार पत्रिका’ में प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने नेताजी के देश से बाहर जाने के बाद स्वदेश में हो रही घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया है। प्रस्तुत है साभार उस लेख का अनुवाद —
भारत से नेताजी के भूमिगत होने के तीन माह बाद की कहानी है। उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश के जिन कर्मियों ने विदेश में नेताजी के आत्मगोपन की राह सुरक्षित कर रखी थी, उनके साथ बातचीत कर शांतिमय गंगोपाध्याय को सन् 41 के जनवरी माह में काबुल भेजा गया। साथ गए भगतराम तलवार उर्फ रहमत खान और सोढ़ी मोहिन्दर सिंह। इनका उद्देश्य था काबुल में इटली के कूटनीतिज्ञों के जरिए नेताजी के साथ पत्र-व्यवहार की व्यवस्था सुनिश्चित करना । खबरों का लेनदेन उत्तम चंद की दुकान पर होता। वहां शांतिमय और भगतराम नेताजी के लिए समाचार छोड़ जाते और वायरलेस से नेताजी द्वारा भेजा गया संदेश या निर्देश प्राप्त करते। दूसरी ओर नेताजी के लिए यह कार्य इटली के मंत्री कोयारोनी की पत्नी या अन्य कोई करता।
जर्मन की ओर से उत्तर-पश्चिम सीमा से सशस्त्र अभियान की बदौलत भारत को स्वाधीन करना होगा, तब यही योजना बनी थी। इस आक्रमण में नेतृत्व करेगी यूरोप से प्रशिक्षण-प्राप्त नेताजी की सुसंगठित सेना और साथ रहेंगे उपजाति क्षेत्र के सशस्त्र छापामार गोरिल्ला सैनिक । बहरहाल, भगतराम को पत्रवाहक का दायित्व देकर उस वर्ष के मध्य में शांतिमय भारत लौट आए। निश्चय हुआ कि कलकत्ता और लाहौर के बीच नियमित पत्र-व्यवहार बदस्तूर जारी रहेगा। स्वदेश लौटकर शांतिमय ने सिर्फ एक बार सत्यरंजन बक्शी से मुलाकात की थी। बाद में उन्होंने ज्योतिष गुहा और शशांक दासगुप्त के माध्यम से ही सत्यरंजन के साथ संपर्क बनाए रखा। इस अंदरूनी मामले में निश्चय ही चंद्रशेखर सेनगुप्त, विनय सेनगुप्त, कामख्या राय का भी आवागमन रहा। सन् ‘42 के नवंबर में गिरफ्तार होने के पहले तक ‘बंगाल वालेंटियर’ के तहत शांतिमय कई बार लाहौर हो आए थे। वहां सहयोगी क्रांतिदल कीर्ति किसान पार्टी के सदस्यों के साथ कई तरह के विचार-विमर्श होते और कई तरह की योजनाएं बनतीं।
नेताजी के भूमिगत होने के तीन महीने के अंदर ही एक और सूत्र सक्रिय हो उठा था। कलकत्ते में जापान के कौंसिल जनरल कातसूयो ओकाजाकि तथा उनके सहकर्मी इटोर के मार्फत नेताजी व शरतचंद्र बोस के बीच पत्र-व्यवहार और खबरों का आदान-प्रदान आरंभ हुआ। शरतचंद्र के रिसड़ा स्थित फार्म हाउस में यह गोपनीय मुलाकात होती। पहली बार मेरे निर्णय पर ही ओकाजाकि को गुप्त वाहन में रिसड़ा ले जाया गया था। बाद के किसी एक बैठक में सत्यरंजन बक्शी भी उपस्थित रहे, यह भी मुझे अच्छी तरह याद है। जापानी फौज के वर्मा सीमा पर पहुंचने पर किस तरह बंगाल में अस्त्र-शस्त्र का प्रसार संभव है, ये सुनिश्चित करने के लिए शरतचंद्र ने उस क्षेत्र का एक मानचित्र लेकर बैठक में विशद वार्ता भी की थी। शांतिमय को भी अच्छी तरह याद है, पार्टी के इस अंदरूनी मामले में जापान के इस जुड़ाव की बात ज्योतिष गुहा ने ही उन्हें बतलायी थी। बंगाल के प्रादेशिक फारवर्ड ब्लॉक कमेटी के एक सदस्य के नाते ज्योतिष कई मंतव्यों के लिए शरतचंद्र से मुलाकात करते रहते थे। जापान द्वारा सन् 41 के दिसंबर में ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध-घोषणा होते ही शरतचंद्र को गिरफ्तार कर लिया गया। भारत सरकार ने एक स्पष्टीकरण जारी किया कि शरतचंद्र और जापानियों के बीच संपर्क है। अतः उनके विरुद्ध ऐसा निर्णय लेने के अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं था।
सन् 42 में चट्टग्राम सीमा से होकर ‘बंगाल वॉलेंटियर्स’ ने वर्मा में एक दल भेजने की योजना बनायी, परंतु चट्टग्राम में कई लोगों के पकड़े जाने के फलस्वरूप इसका पर्दाफाश हो गया। अतः वह कार्य फलीभूत न हो सका।
1942 में जब शरतचंद्र बोस दक्षिण भारत के जेल में थे, तब उनकी पत्नी विभावती के साथ भेंटकर सत्यरंजन बक्शी यूरोप में नेताजी की गतिविधि व कार्यप्रणाली की सूचना पहुंचा देते। इससे ही समझा जा सकता है, काबुल के जरिए संपर्क की जो व्यवस्था की गई थी, वह तब भी सुचारू रूप से चल रही थी। 1944 के मई महीने में काबुल के जर्मन कूटनीतिज्ञ पिल्गर ने बर्लिन में एक गुप्त सूचना भेजी। उसमें उन्होंने यह जानकारी दी थी कि सीमांत प्रदेश में एक बाहरी व्यक्ति आकर बोस के अनुचरों के साथ संपर्क साध रहा है। वह व्यक्ति स्वयं को सुभाष बोस का संदेशवाहक बताकर दावा कर रहा है कि कुछ दिन पहले ही उनका सैन्यदल पनडुब्बी में गुप्त रूप से भारतीय समुद्र—तट पर उतरा है। पिल्गर स्वयं इस समाचार की सत्यता के प्रति संदेह व्यक्त कर रहे थे। फिर भी उन्होंने यह बतलाया था कि उस व्यक्ति के पास सुभाष का एक पत्र भी है और उस पत्र में हस्ताक्षर उनके स्वयं के हैं और शरत के पुत्र शिशिर ने भी यह स्वीकारा है।
यह समाचार शत-प्रतिशत सही था। इसके पहले ‘43 के दिसंबर की एक शाम एक अपरिचित आगंतुक कलकत्ता स्थित उडबर्न पार्क वाले घर में मेरे साथ मुलाकात करने आए थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘आप मुझ पर पूर्णतः विश्वास कर सकते हैं। कुछ दिन पहले खुद नेताजी के निर्देशानुसार हमारा एक दल जापानी पनडुब्बी के जरिए गुप्त रूप से कठियावाड़ तट पर आया है। उसके बाद पूर्व योजनानुसार दल के सभी विभिन्न दिशाओं में फैल गए हैं।’’
अपने वक्तव्य के समर्थन में उन्होंने नेताजी का एक पत्र भी मुझे दिखलाया। मैं यह पत्र देखते ही सब समझ जाऊंगा, ऐसा नेताजी ने उनसे कहा था। यहां यह बता देना जरूरी है कि नेताजी के भूमिगत होने के कुछ महीने बाद भगतराम 1941 के 13 मार्च को शरतचंद्र बोस के हाथ नेताजी के कुछ पत्र और कागज़ात दे गए थे। इसके बाद ही पिताजी ने मुझसे कहा था कि सर्दूल सिंह ने यह सूचना पहुंचायी है कि भविष्य में सभी आवश्यक संदेश नेताजी बांग्ला में ही लिखकर भेजा करेंगे। खैर, मध्यम कद का गोरा व कतिपय घुंघराले वालों वाले उस आगंतुक ने अपना नाम टी.के.राव बताया। सिंगापुर में आजाद हिंद के प्रादेशिक सरकार गठन की घोषणा के बाद क्या-क्या हुआ, उन्होंने मुझे सविस्तार बताया। जो पत्र उन्होंने मुझे दिया, उसके शीर्ष पर ‘एकता-विश्वास-आत्मत्याग’ लिखा हुआ था और उसके नीचे इंडियन इंडपेंडेंस लीग, चानसेरी लेन, सायनान। श्री श्री कालीपूजा। 29 अक्तूबर 1943।
मजमून यह था — पत्रवाहक विशेष कार्य के लिए स्वदेश जा रहे हैं। मेरे मित्र, सहकर्मी और समर्थक उनकी सहायता करें तो मैं विशेष अनुग्रहित और सुखी होऊंगा। विनीत – सुभाष चंद्र बोस।
पत्र जाली नहीं था, इसे लेकर निश्चय ही मुझे कोई संदेह नहीं था। इसके अलावा राव की बातें सुनकर उन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं मिल पाया। नेताजी के निर्देशानुसार राव ने तीन-चार व्यक्तियों से मुझे मिलने के लिए कहा, जिनसे आवश्यक सहायता प्राप्त हो सकती थी। राव ने जिनका जि़क्र किया था, वे थे सत्यरंजन बक्शी, सुरेशचंद्र मजूमदार, अतुल चंद्र कुमार और संभवतः सुधीर चंद्र राय चौधरी लेकिन वे सभी उन दिनों या तो जेल में थे या फिर कलकत्ता से बाहर। कुछ बीमार भी चल रहे थे। अतः मैंने सोचने के लिए कुछ समय लिया और फिर निश्चित हुआ कि अगले दिन मेट्रो सिनेमा के शाम के शो में राव के साथ फिर से मेरी मुलाकात होगी। इसी बीच मां विभावती को पत्र दिखाकर मैंने परखना चाहा और अब किस तरह से क्या किया जाय, इस मामले में उनसे विचार-विमर्श किया।
अंततः निर्णय लिया गया कि सत्यरंजन बक्शी के छोटे भाई सुधीर रंजन से ही सभी बातें खुलकर की जांय क्योंकि भारत में नेताजी के जो अनुचर तब गोपनीय रूप से कार्य कर रहे थे, उनके साथ संपर्क साधने का यही एकमात्र सही रास्ता था। मैंने सुधीर रंजन के घर जाकर नेताजी का पत्र दिखलाया और उनसे सहायता मांगी, पर एक गलतफहमी हो गई। सुधीर ने सोचा था कि राव से मिलने के लिए वे भी मेट्रो सिनेमा जाएंगे जबकि मैंने सोच रखा था कि सिनेमा मैं अकेला ही जाऊंगा तथा राव से कहूंगा कि मुवक्किल के छद्मवेश में टैक्स का मामला सुलझाने के उद्देश्य से कलकत्ता कार्पोरेशन में सुधीर से मुलाकात करें। मैंने और सुधीर ने ठीक किया कि राव को प्रसाद के नाम से बुलाएंगे। बहरहाल, शीघ्र ही राव एक दिन शाम को कार्पोरेशन में सुधीर के दफ्तर जा पहुंचे। काम ठीकठाक हो गया है, यह बतलाने के लिए राव उर्फ प्रसाद ने सुधीर के घर में ठहरकर मुझे फोन भी किया था।
सुधीर बक्शी ने राव से जानना चाहा कि असल में वे चाहते क्या हैं? प्रत्युत्तर में राव ने जो कुछ कहा, वह था —
1. सेनावाहिनी पर जासूसी, विशेषकर एंग्लो-अमेरिकन सैन्य-शक्ति, अस्त्र-शस्त्र, युद्धक विमान और विभिन्न स्थानों पर सेना की तैनाती की खबर। नेताजी को ये सारे तथ्य बताने के लिए राव के पास एक जर्मन ट्रांसमीटर यंत्र भी था।
2. आई.एन.ए. की सेना जब भारत में प्रवेश करेगी तब बंगाल से भी छापामार दस्तों के जरिये गोरिल्ला ढंग से अंग्रेजों पर आक्रमण किया जा सके , इसके लिए आम नागरिकों को प्रशिक्षित करना।
3. जो सहकर्मी जेल में बंद हैं, उन्हें नेताजी की कार्यप्रणाली और योजना की जानकारी देकर तैयार रखना।
सुधीर बक्शी ने इस संदर्भ में रातुल राय चौधरी से संपर्क साधा। फिर वे आवश्यक सांगठनिक शक्ति के लिए धीरेन साहा राय के शरणागत हुए। इधर सन् 42 के नवंबर में शांतिमय की गिरफ्तारी के बाद से ही धीरेन दो युवकों के साथ नारायणगंज से कलकत्ता चले आए थे। ये साथी युवक थे नीरेन राय (गोसांई) और चंचल मजूमदार (सत्यव्रत)। वे 15, बलराम स्ट्रीट में एक किराये के मकान में रह रहे थे। मकान-मालिक और पड़ोसियों को किसी तरह संदेह न हो, इसके लिए धीरेन ने अपनी विधवा बहन गिरिबाला को भी वहां बुला लिया था।
सुधीर बक्शी, रातुल राय चौधरी और धीरेन साहा राय आपस में घनिष्ट संपर्क रखे चल रहे थे। सुधीर ने इस बीच कई बार राव से मुलाकात की। योजना के अनुसार सब कुछ ठीकठाक चल रहा है या नहीं, यह जानने के लिए 16-बी प्रियनाथ मल्लिक रोड पर मैं अक्सर बक्शी बंधुओं के घर जाता। सुधीर, रातुल और धीरेन के मन में शायद यह चल रहा था कि उपयुक्त समय पर घात लगाकर युद्ध आरंभ करने के लिए नेताजी गुप्त रूप से कहां अस्त्र-शस्त्र भेजेंगे, यह पहले से ही निश्चित कर रखना ठीक है। इसके लिए दो स्थानों का चुनाव भी कर लिया गया– संदेशखाली और रायमंगल। उस इलाके के लगभग पचास मल्लाहों के साथ बातचीत कर सब कुछ पक्का कर लिया गया। उन मल्लाहों को पेशगी कुछ रुपए भी दे दिए गए। यहां तक कि सीमा पार से जो लोग अस्त्र लाएंगे, उनके ठहरने की भी मुकम्मल व्यवस्था कर दी गई।
सुगठित देह और प्रखर व्यक्तित्व के धनी राव और उनके साथियों के साथ कार्पोरेशन पर नियमित रूप से मुलाकात करना उचित नहीं है, यह सुधीर बक्शी समझ गए थे। एक शाम वेलिंगटन स्क्वायर में राव और उनके साथियों को 15 बलराम बोस स्ट्रीट का पता देकर सुधीर ने वहां आने के लिए कहा। नेताजी के दूतों के साथ स्थानीय गुप्त संगठन का वह पहला साक्षात्कार था। राव अपने साथियों के साथ लगातार स्थान बदलते रहते थे। व्यवस्था इस तरह थी कि गुप्त संगठन के डेरा से खबर लेकर राव नेताजी के पास भेजते और नेताजी के निर्देश पहुंचा देते अनुचरों के पास।
विरोधी सेना की सारी खबरें प्राप्त करने में एक दुस्साहसी महिला का विशेष योगदान रहा था। वे थीं शांतिसुधा रायचौधरी। बरखास्त होने के पहले वे कलकत्ता में अमेरिकन सेना के मुख्य कार्यालय में सचिव के पद पर थीं। स्वयं को संकट में डालकर और लांछन का परवाह न कर उन्होंने पदस्थ अमेरिकी सेना व अधिकारियों से अत्यंत घनिष्टता स्थापित कर ली थी। सेना की बहुत-सी गोपनीय और मूल्यवान तथ्य उन्होंने गुप्त संगठन तक पहुंचायी। शांतिसुधा आवश्यक खबरें रातुल रायचौधरी को देतीं, वहां से धीरेन और चंचल के माध्यम से वह राव और उनके साथियों तक पहुंचती। इसी तरह ही ब्रिटिश युद्धपोतक की गतिविधियों के सांकेतिक शब्द नेताजी तक पहुंचे थे। इनमें एक संकेत था ‘पुष्प गुच्छ’ जिसका अर्थ था जल पोतों का बेड़ा। इसके अलावा शांतिसुधा ने विभिन्न फौजी विमान, उनकी विध्वंस-क्षमता और वे कहां पर हैं आदि कई तथ्य जुटाए थे। धीरेन, चंचल और नीरेन ने स्वयं बंगाल के कई स्थानों में जाकर आई.एन.ए. के लिए आवश्यक जानकारियां जुटायीं और गोरिल्ला-युद्ध के लिए एक सांगठनिक ढांचा तैयार कर लिया था।
1944 के फरवरी में मुझे पिताजी से बात करने की सरकारी अनुमति मिली। शरतचंद्र बोस तब दक्षिण भारत के कुन्नुर में बंदी थे। नेताजी का पत्र मेरे पास ही था। पहरेदारों की नज़रों से बचाकर मैंने वह पत्र उन्हें दिखाया और बताया कि पूर्व एशिया से आए नेताजी के साथी यहां क्या—क्या कार्य कर रहे हैं। खालिस पूर्व बंगाल की भाषा में हुई हमारी बातचीत का मर्म पुलिसवाले समझ नहीं पाए। इधर बरेली के पास इज्जतनगर जेल में बंद थे सत्यरंजन बक्शी। उनसे मुलाकात करने गए सुधीर ने भी उन्हें मौजूदा स्थिति से अवगत कराया। इंफाल की ओर से अभियान शुरू होने पर पूर्व रणक्षेत्र में युद्ध तब शिखर पर था। लिहाजा स्थानीय गुप्त संगठन का डेरा बदलना जरूरी हो गया। तब यहीं पर राव और उनके साथी आया करते थे । अतएव चितपुर के शिवठाकुर लेन के एक चार मंजिले फ्लैट में एक घर लिया गया। इस समय जहां रवींद्र भारती विश्वविद्यालय है, यह घर ठीक इसके विपरित दिशा में था। राव और उनके साथी इस नये ठिकाने पर भी अक्सर आने लगे और आवश्यक समाचार संग्रह कर नेताजी को सूचित कर देते।
अपने संदेशवाहकों के माध्यम से नेताजी कई रेडियोवार्ताएं भी भेजते। सुधीर बक्शी के पास मैंने इस तरह की दो वार्ताएं देखी थीं, मुझे आज भी याद है। एक में था, बंगाल वॉलेंटियर्स के प्रति शुभकामना संदेश और दूसरा था आंदोलन से जुड़ा निर्देश। सीमांतर के उस पार उन्होंने जो संग्राम छेड़ा है, उस पर बंगाल के लोगों का आकर्षण का भी उनमें जिक्र था। निर्देशानुसार, इंडियन नेशनल आर्मी के नाम से नेताजी की तस्वीर सहित कई प्रचार- सामग्री विभिन्न जिलों के कर्मियों को वितरित की जा चुकी थी। उनसे कहा गया था, कलकत्ते से निर्देश आने पर ठीक समय पर उनको लोगों में बांट दिया जाय । जेशोर, खुलना और चट्टग्राम होकर पनडुब्बी बिना किसी कठिनाई के किस राह पर अग्रसर होगा, उस बारे में भी नेताजी जानना चाहते थे।
युद्ध की तीव्रता बढ़ते ही सभी दलों का कार्य और व्यस्तता बहुत बढ़ गई। शिवठाकुर लेन के दो कमरे का छोटा फ्लैट एक क्रांतिकारी केंद्र के रूप में परिणत हो गया था। बंगाल वॉलेंटियर का एक अन्य सक्रिय सदस्य और सरकारी कर्मचारी अनिल राय अपने बड़े भाई और भाभी के साथ उसी घर के एक कमरे में रहते थे। बहरहाल, काम का दबाव और दायित्व जब दोनों ही बुरी तरह बढ़ गए, धीरेन की बहन को ढाका भेज दिया गया। इन परिस्थितियों में नेताजी की ओर से सूचना मिली कि जेल में जो साथी हैं, उनसे संपर्क साधने का उचित समय आ गया है। विशेषकर सत्य गुप्त और ज्योतिष जोयारदार को जेल तोड़कर आगे बढ़ते आई.एन.ए. सेना के साथ जुड़ने के लिए तैयार रहने के लिए कहा गया। इसी उद्देश्य के चलते नीरेन राय को मुस्लिम वेश धारण करना पड़ा। उन्होंने दाढ़ी रखी और उसी के अनुरूप पोशाक धारण किया। बक्सा बंदीगृह में शमशेद नाम के एक वार्डर के साथ नीरेन के रहने की व्यवस्था हुई। शमशेद की सहायता से ही नीरेन बंदीगृह के खेल के मैदान में सत्य गुप्त, ज्योतिष जोयारदार व अन्य के साथ मिले और नेताजी का संदेश पहुंचा दिया। बक्सा से नीरेन के लौटने के बाद कई जगहों में जाकर बंदियों को सूचना पहुंचायी गई। निर्णय हुआ कि उपयुक्त समय पर कैदी जब जेल तोड़कर पलायन करेंगे, बंदीगृह के बाहर उनके लिए घोड़े तैयार रहेंगे।
इधर उस वर्ष मई में ही बरसात शुरू हो गई। महीने के मध्य में राव और उनके साथियों ने शिवठाकुर लेन के रहवास में आकर बताया कि नेताजी ने खबर भेजी है कि इस घोर वर्षा में आई.एन.ए. और जापानी सैन्यदल के लिए अभियान चलाना असंभव है लेकिन वर्षा के थमते ही अभियान दुबारा शुरू हो जाएगा। यह समाचार मुझ तक सुधीर बक्शी ने पहुंचायी । हम भी तब तक समझ चुके थे कि दुर्गापूजा के समय ही अब बड़ा आक्रमण हो पाएगा। इस समाचार को पाने के कुछ दिन बाद राव और उनके साथी एक दिन आकर धीरेन और चंचल को हिंदुस्तान इंश्योरेंस बिल्डिंग के दूसरी ओर के एक होटल में ले गए। धीरेन और चंचल के पास नेताजी को बतलाने लायक सेनावाहिनी के कुछ गुप्त तथ्य थे। संकीर्ण गली के अंदर के उस चार मंजिल के होटल के एक कमरे में उनके सामने ही राव ने यह खबर नेताजी को दी। बाद में कब इस तरह फिर से बैठना होगा, उसे लेकर सुधीर बक्शी से बात होगी यह निश्चय हुआ।
धीरेन और चंचल शिवठाकुकर लेन वाले आवास पर मध्यरात्रि तक लौट गए परंतु मुहल्ले में प्रवेश करते ही भारी पुलिस दल को वहां देखकर माजरा जानना चाहा। विवेकानंद रोड पर अनिल राय की जो ज्वेलरी की दुकान थी, वहां के कर्मचारियों ने बताया कि उनके फ्लैट में पुलिस की तलाशी जारी है। नीरेन को गिरफ्तार किया जा चुका है और पुलिस के साथ झड़प में उनका अल्पवयसी साथी गोपाल सेन चौथी मंजिल के बरामदे से गिर गया है। उन्होंने यह भी बताया कि पुलिस अभी घर के अंदर ही है। यह सुनकर धीरेन और चंचल वहीं छुप गए और अपने साथियों को सूचना भिजवायी कि वे भूल से भी उधर का रुख न करें। सुधीर बक्शी को भी सब कुछ बतला दिया गया। परिमल रायचौधरी ने अपने घर में धीरेन और चंचल के रहने की व्यवस्था की। राव और उनके साथियों का चूंकि कोई स्थायी ठिकाना नहीं था, अतः धीरेन के साथ उनका संपर्क टूट गया। इसी बीच अपनी मां से मिलने सुधीर बक्शी बरिशाल चले गए। अतः राव की उनसे भी भेंट नहीं हो पायी। शिवठाकुर लेन वाले घर की तलाशी के बाद सुधीर ने मुझे बताया कि नेताजी ने अपने संदेशवाहकों को विभिन्न दिशाओं में फैल जाने के लिए कहा है क्योंकि पुलिस सरगर्म हो चुकी है। इसके अलावा उस घटना के ठीक बाद सुधीर मेरे साथ कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में मुलाकात कर आहत गोपाल सेन के बारे में जानकारी लेने आए थे। मैं तब मेडिकल का छात्र था। गोपाल के बारे में कुछ खबर लाकर उन्हें दे पाने में सफल हुआ था। उस वर्ष मई-जून से लेकर लगातार सितंबर तक पुलिस हमारे पीछे छाया की तरह लगी रही। सितंबर में मनोहरपुकुर रोड के एक घर में धीरेन पुलिस के हाथ लग गए। ठीक इसी समय बरिशाल में सुधीर बक्शी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ दिनों बाद मेडिकल कॉलेज जाते समय रास्ते में पुलिस ने मुझे भी उठा लिया। सभी को एक साथ लाहौर के कुख्यात जेल में भेज दिया गया।
नीरेन राय ने बाद में उनके शिवठाकुर लेन वाले डेरे पर पुलिस के छापे का जो विवरण दिया था, वह इस तरह था —
राव के साथ धीरेन और चंचल के चले जाने के आधे घंटे बाद ही सादे कपड़ों में पुलिस ने अचानक घर को घेर लिया। घर में उस समय अनगिनत आवश्यक मानचित्र और कागज-पत्र थे। नीरेन और गोपाल को पहले से ही कहा गया था कि प्राण भले चले जांय, ये अनमोल कागज़ात हाथ से जाने न दें। पुलिस को देखते ही नीरेन ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। दरवाजे पर पीठ टिकाकर उन्होंने कागज़ातों को जलाना शुरू कर दिया। अपेक्षाकृत एक गैरज़रूरी भारतीय रेल और सड़क मानचित्र को छोड़कर वे बाकी सब कुछ जला डालने में सफल रहे। इसी बीच पुलिस दरवाजा तोड़कर अंदर आ गई और हाथापाई शुरू कर दी। पुलिस नीरेन को पकड़े हुई थी कि इसी बीच नक्शों को लेकर गोपाल चार तले के बरामदे से कूद गया अथवा गिर गया। उसका अंतिम वाक्य यही था– मेरे जीवित रहते ये किसी के हाथ नहीं लग सकते। उसने ऐसा किया भी।
बुरी तरह चोटिल गोपाल की वह विकृत देह की तस्वीर बाद में लाहौर जेल में सुधीर रंजन बक्शी को दिखाई गई थी।

मूल बांग्ला से अनुवादः रतन चंद ‘रत्नेश’, कोठी नं. 213-O, विक्टोरिया एन्क्लेव, भबात रोड, जीरकपुर 160043 (पंजाब) मो0 9417573357

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