“…मगर समय पुराना नहीं होता !”
सपनों के शहर का पास
अचानक से इनवैलिड हो गया !
आपाधापी और हड़कंप मचा है।
हो भी क्यों ना …
हर कोई यथार्थ से छिपना चाहता है
भागना चाहता है।
ख़ुद से उकताये लोग
सपनों में सहारा ढूंढा करते हैं।
तारीख़ और यादों से परे रहने वाली ….
पिछले कुछ दिनों से
तुम्हारी एक बात बहुत याद आ रही है।
वो बात,
जो तुमने तीन सौ पचहत्तर साल पुराने
बरगद के नीचे बैठकर कही थी।
जब मेरा सिर तुम्हारी गोद में था
मुँदी हुई पलकों पर
तुम्हारे आँचल की खुशबू फैली थी
और एक अजीब सा साँसों का संगीत
चहुं ओर व्याप्त था !
तुम्हारे शब्द…
प्रतिध्वनित हो कर
दो-दो बार मुझ तक आ रहे थे।
“ सोचो देव,
जो प्राकृतिक है वो कितना सुंदर है
अनुपम, अलौकिक, अप्रतिम।
और जो इंसान ने बनाया
वो तो कभी भी अप्रासंगिक हो सकता है
…. इनवैलिड !”
अपनी भारी हो चुकी पलकें खोलकर
मैंने उनींदे स्वर में पूछा था …
“मतलब ?”
और तुम ठहाका लगाकर हँस पड़ी थीं।
विशाल आँगन वाला
एक पुराना घर !
पुराना घर …
जो कि आँगन से छोटा है।
मिट्टी का आँगन…
जिसने अभी तक
सीमेंट, कॉन्क्रीट का स्वाद नहीं चखा है।
बरामदे में एक तखत।
जिस पर बैठे अठहत्तर साला एक बुज़ुर्ग,
हाथों में माला
मुखड़े पर संतोष।
मुझे प्यार से बैठाते हैं
आशीष देते हैं;
शुद्ध घी की जलेबी
केसरिया दूध में भिगो कर
अपनेपन से खिलाते हैं।
मेरी हिरण सी नज़रें
उनके बड़े से ड्राईंगरूम में लटकती हुई
घड़ी की ओर जाती है।
“बहुत पुरानी है ये घड़ी
मुझे इससे लगाव है।”
इतना कहकर वो बुज़ुर्ग,
अपने अधेड़ बेटे की ओर देख
मुस्कुरा देते हैं।
बेटा भी मुस्कुराता है
उसकी आँखों में स्नेह–युक्त आदर है।
अचानक मैं तुम्हारी कमी महसूसने लगता हूँ
फिर उस घड़ी की टिक-टिक
तुम्हारी आवाज़ में तब्दील हो जाती है।
“देव,
समय बताने वाली मशीन
कितनी भी पुरानी हो
मगर समय पुराना नहीं होता
सदैव चलता रहता है
…बगैर ठहरे।”
और बस …
मैं वहाँ होकर भी
वहाँ का नहीं रहता
उठ कर बाहर आ जाता हूँ
गहरी साँसें लेकर
पूरे आँगन का चक्कर लगाने लगता हूँ।
ओह्ह…
सुनो मेरी बहुत-कुछ,
मेरा सबकुछ बन जाओ ना !
… मेरा आधार,
मेरा पासपोर्ट,
मेरा लायसेंस,
मेरे आयडेंटिटी नंबर्स,
मेरे अकाउंट्स, मेरी पासबुक
… सबकुछ !
ऐसा नहीं कि मैं डरता हूँ,
मेरी रुचि नहीं कुछ चीजों में !
और वैसे भी
जो तुमसे प्यार करे
उसकी पॉलिटिक्स और इकनॉमिक स्टेटस में
भला कोई रुचि कैसे हो !
तुमने ही तो बनाया है मुझको
सबसे सुखी,
सबसे समृद्ध !
बोलो हाँ ….
तुम्हारा
देव
“बया के घोंसले जैसी !”
ओ मेरे देव,
नाराज़ नहीं मैं तुमसे
मेरी चुप्पी को
तुम नाराज़गी क्यों समझ लेते हो ?
चुप होकर
मैं ख़ुद में उतरती हूँ
फिर…
तुम्हारे और करीब आ जाती हूँ।
मानती हूँ
मैंने ही कहा था
कि कहीं से भी
मेरे लिए बया का घोंसला लेकर आओ।
पर यदि तुम न ला सके
तो कोई अपराध तो नहीं किया !
अच्छा ही हुआ
जो नहीं लाये।
देखो तो,
इस घोंसले की तलाश में
मैं कितनी दूर चली आई।
ज़िला सागर, तहसील देवरीकला
और वहाँ से भी सात किलोमीटर दूर मिला मुझे
सदियों पुराना नरसिंह मंदिर !
वही मंदिर…
जिसके प्रांगण में जब-तब दिख जाता है
नाग और नागिन का जोड़ा !
दूर एक कुआँ
जिसमें अनगिनत टूटी-फूटी मूर्तियाँ
और कुएं के मुहाने पर खड़ी
पहरा देती हुयी सी नाग-नागिन की साबुत प्रतिमा।
उफ़्फ़….
‘द कपलिंग स्नेक्स’ !
लहराता-इठलाता, सर्पिल-श्यामल, प्रेमी जोड़ा !!
मंदिर प्रांगण के ठीक बाहर
बाजू में ही है एक और कुआँ,
और उस कुएं में लटकते हज़ारों घोंसले
मेरी प्यारी टेलर-बर्ड यानी बया के !
कभी तुम्हारा मन नहीं किया
इनसे चलकर पूछें
कि कैसे बनाती हैं ये
इतने सुंदर, इतने कलात्मक
…. इतने मज़बूत घोंसले !
मेरा बहुत मन करता है
कि इस छोटी सी चिड़िया को
अपनी हथेली पर बैठाकर
एक प्यारा सा चुंबन दूँ
और फिर पूछूँ
कि,
“ओ बया….
कहाँ से लाती हो तुम
ये जीजीविषा !
कहाँ से सीखा तुमने
ये अद्भुत कौशल !”
और देखो तो देव
कुओं के भीतर
लटकती हुई शाखों पर ही अक्सर
बनाती है बया
अपना बसेरा !
अंडे से निकलकर
सीधे हवा में उड़ते हैं उनके बच्चे
धरातल नहीं मिलता उनको
पहले-पहल फुदकने को !
देव मेरे ….
सहेज लो ख़ुद को
बया बनकर।
क्यूँ खर्च होते रहते हो बात-बेबात पर।
वेदों ने भी तो कहा है
“अणो रणीयान, महतो महीयान” !
लघुतम से भी लघु
और महत्तम से भी बड़ा।
दोनों ही संसार
हमारे ही भीतर हैं।
मानव के देवत्व को पहचानो देव।
उस लड़की को अपने हाल पर छोड़ दो अभी
क्यूँ दिन-रात उसीकी चिंता में घुले रहते हो
वो तय कर रही है अभी
ख़ुद से ख़ुद तक की दूरी।
जैसे ही यात्रा पूरी होगी
वो ख़ुद को पा लेगी
और जब ख़ुद को पाएगी
तो तुम तक भी लौट आएगी।
बहना चाहती है वो
तुम्हारे शब्द, तुम्हारी देखभाल
उसके प्रवाह में खलल डाल रहे हैं।
मैं ये नहीं पूछूँगी,
कि तुम इतने व्यथित क्यों हो।
हाँ,
ये ज़रूर कहूँगी
कि प्यार का मतलब
हर बार केअर करना नहीं होता।
कभी-कभी
किसी को उसके हाल पर छोड़ देना भी
प्यार ही होता है।
और हाँ,
यदि इतने पर भी
तुम्हारी बेचैनी चैन न पाये
तो एक धागा लो
और बुनो,
या कूची पकड़ो
और बनाओ,
या फिर कलम थाम लो अपनी
और कविता लिखो
…. बया के घोंसले जैसी !
समझे हो !!
तुम्हारी
मैं !
हृषीकेश वैद्य
शिक्षा – वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर , इतिहास में स्नातकोत्तर (स्वर्ण-पदक), हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर।
वर्तमान में हिन्दी साहित्य में पी-एच. डी. हेतु अध्ययनरत।
साहित्यिक गतिविधियाँ –
‘कृष्ण नहीं बन पाऊँगा’ काव्य-संग्रह वर्ष 2003 में प्रकाशित।
नाट्य लेखन के अंतर्गत 10 से अधिक हिन्दी के पूर्णकालिक नाटकों, एकांकियों एवं रेडियो नाटकों का लेखन (मंचन एवं प्रसारण)।
वर्ष 2007 में हिन्दी नाटक ‘जवाब दो गाँधी’ का ग्वालियर में मंचन।
वर्ष 2012 में साहित्य कला परिषद दिल्ली के द्वारा नाटक ‘उसके बाद’ को ‘अखिल भारतीय मोहन राकेश सम्मान’ प्राप्त एवं मंचन।
वर्ष 2013 में हिन्दी नाटक ‘खट, खट, खट !’ का कश्मीरी भाषा में अनुवाद होकर श्रीनगर में मंचन।
वर्ष 2016 में सिंहस्थ उज्जैन पर लिखित हिन्दी रेडियो नाटक ‘निमंत्रण’ का आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र से प्रसारण।
वर्ष 2017 में साहित्य कला परिषद दिल्ली द्वारा हिन्दी नाटक ‘मॉर्फोसिस’ को ‘अखिल भारतीय मोहन राकेश’ सम्मान प्राप्त एवं मंचन।
वर्ष 2019 में हिन्दी नाटक ‘मॉर्फोसिस’ का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के नाट्योत्सव भारंगम हेतु चयन एवं मंचन।
वर्ष 2019 में ही हिन्दी नाटक ‘मॉर्फोसिस’ का मध्यप्रदेश नाट्योत्सव हेतु चयन होकर भारत भवन भोपाल में मंचन।
वर्ष 2019 में हिन्दी नाटक ‘मॉर्फोसिस’ मराठी में अनुदित होकर इंदौर और ग्वालियर में मंचित।
वर्ष 2019 में हिन्दी नाटक ‘मॉर्फोसिस’ के मराठी अनुवाद का मंचन, उनसठवीं महाराष्ट्र राज्य नाट्य स्पर्धा के प्रारम्भिक दौर में जलगाँव केंद्र पर मंचित होकर प्रथम स्थान प्राप्त।
वर्ष 2020 में हिन्दी नाटक ‘मॉर्फोसिस’ के मराठी अनुवाद का मंचन, उनसठवीं महाराष्ट्र राज्य नाट्य स्पर्धा के अंतिम दौर में औरंगाबाद केंद्र पर मंचित होकर छियालीस नाटकों के मध्य विभिन्न श्रेणियों में कई स्थान प्राप्त।
इसके अतिरिक्त कहानियों और लघु कथाओं का लेखन।
वर्ष 2014 से प्रेम और दैनंदिन जीवन पर आधारित एक ब्लॉग ‘तुम्हारा देव’ का लेखन।
संप्रति –
मध्यप्रदेश शासन में सहायक संचालक, वित्त के पद पर पदस्थ।
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