नमनः प्रियम्वदा देवी मिश्रा – नीरजा द्विवेदी

अपने नाना श्री मुकुट बिहारी लाल मिश्रा एवं नानी श्रीमती रामकली मिश्रा को, जिन्होंने जनपद बदायूँ के दातागंज नामक कस्बे में लड़कियों की शिक्षा की नींव रक्खी, नमन करते हुए मैं पंडित एम.बी.एल.एम क्लैन की प्रथम सबसे मेधावी कन्या और देश-विदेश में ‘माताजी’ के नाम से प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित कवयित्री, अपनी ‘प्रेमा मौसी’ श्रीमती प्रियंवदा देवी मिश्रा के प्रेरक जीवन चरित्रके विषय में कुछ बातें बताना चाहती हूँ, जो बहुत कम लोग जानते हैं।
प्रेमा मौसी का जन्म बदायूँ जनपद के दातागंज नामक कस्बे में 1. दिसम्बर 1922. को हुआ था। वह मेरी मम्मी श्रीमती सुशीला शर्मा से बड़ी थीं। उनका विवाह जनपद हरदोई के शाहाबाद नामक कस्बे के निवासी एक प्रतिष्ठित ज़मींदार परिवार में पंडित कैलाश नारायण मिश्रा के साथ हुआ था। विवाह के पूर्व उन्होंने हिंदी में विशारद, संस्कृत में शास्त्री एवं इंगलिश से इंटर की परीक्षा पास कर ली थी। वह हिंदी में कवितायें, कहानियां एवं आलेख लिखती थीं जो तत्लालीन पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। विवाह के पश्चात पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण साहित्य से उनका नाता टूट गया। पति के सेवानिवृत्त होने के उपरांत वह पति के साथ शाहाबाद में रहने लगी थीं। सन 1991 में पति की मृत्यु के पश्चात वह 1992 में अपने बड़े पुत्र डॉक्टर प्रमोद कुमार मिश्रा एवं पुत्रवधू श्रीमती अंजना मिश्रा के पास इंग्लैंड में बर्मिंघम में आकर रहने लगीं।
1995 में डॉक्टर कृष्ण कुमार ने बर्मिंघम में “गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक समुदाय’’ नामक संस्था की स्थापना की। डॉक्टर कृष्ण कुमार जी की प्रेरणा से मौसी इस संस्था की प्रतिष्ठित सदस्य बन गईं । डौक्टर कृष्ण कुमार की प्रेरणा से 50 वर्ष बाद उनकी पहली कविता लिखी गई जो निम्नलिखित है।
“ आज कहते हो प्रणय के गीत गाओ,
बुझ गया जो दीप उसको फिर से जलाओ।
हृदय में है पीर- प्राणों में अँधेरा,
सुप्त स्वर क्या गा सकेगा-सप्त स्वर में राग प्यारा।
कह रहे हो आंधियों में तेल का दीपक जलाओ।”
उनका 1996 में “अनुभूतियाँ’’ तथा 2005 में “जीवन धारा बहती जाये’’ नामक दूसरा काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ।
एक सीधी-साधी गृहिणी के रूप में उन्होंने जिस संकल्प शक्ति और कर्मठता का परिचय दिया वह सबके लिये प्रेरक है और सबको जानना आवश्यक है। मौसी का विवाह संयुक्त परिवार में हुआ था। एक बार जब मैंने उन्हें उनकी ससुराल में देखा था तो वह घूँघट निकाले भोजन पका रही थीं। एक बार में सत्तर लोगों का भोजन बनता था। मौसा जी बहुत सीधे थे। मौसी ने अपने बच्चों को समुचित शिक्षा देने के विचार से मौसा जी को प्रेरित किया। उनकी तैयारी कराई और मौसा जी को और्डिनेंस फैक्ट्री में नौकरी मिल गई। कानपुर में रहकर उन्होंने बच्चों की उचित शिक्षा का प्रबंध किया।
उनकी कर्मठता का दूसरा उदाहरण मेरी मम्मी ने बताया था। किसी ज्योतिषी ने बताया था कि मौसी का छोटा पुत्र प्रदीप पढ़ेगा नहीं। वह साधू हो जायेगा। प्रदीप औसत बुद्धि का बालक थे। मौसी ने ठान लिया कि वह प्रदीप को पढ़ा कर रहेंगी। वह पहले स्वयं गणित सहित सब विषय पढ़तीं और फिर प्रदीप को पढ़ातीं। उन्होंने भाग्य की रेखा को बदल दिया और प्रदीप सेक्रेटेरियट में सेक्शन औफिसर होकर सेवा निवृत्त हुए। अपनी पुत्री कल्पना को भी उन्होंने सुयोग्य और सुशिक्षित बनाया। उनके सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्र प्रमोद कुमार मिश्रा तो लब्धप्रतिष्ठ डॉक्टर हैं ही। “सुखमय हो संसार तुम्हारा’’ नामक आशीर्वाद मौसी ने मेरी मम्मी- श्रीमती सुशीला शर्मा और पापा श्री राधे श्याम शर्मा के विवाह के अवसर पर लिखा था जिसे आज भी क्लैन की हर कन्या के विवाह के अवसर पर गाया जाता है।
वह अत्यंत सहृदय और सहनशील स्त्री थीं। अपने जीवन में उन्होंने बहुत संघर्ष किया था। वह किसी को कष्ट में देखतीं तो उसकी सहायता अवश्य करती थीं। मेरी संस्था ज्ञानप्रसार संस्थान को वह जीवन पर्यंत आर्थिक सहायता देती रहीं। मेधावी बच्चियों को छात्रवृत्ति देने के लिये सबसे पहले मौसी ने ही प्रावधान रक्खा।
जब लड़कियों को शिक्षा देने का चलन नहीं था तब मौसी को नाना जी ने घर पर शिक्षा दिलाई। मौसी को पढ़ने का शौक था अतः नाना जी ने उनके लिये पुस्तकों और समाचारपत्रों की व्यवस्था की थी। वह कविता लिखती थीं और उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती थीं। विवाह के बाद संयुक्त परिवार में उनकी प्रतिभा खो गई। जब मेरा पहला कविता संग्रह “गाती जीवन वीणा’’ छपा तब उसे देखकर मेरे बड़े मामा श्री राजेंद्र कुमार मिश्रा के मुख से निकला—“ प्रेम बहिन जी भी कविता लिखती थीं।’’ मैं चकित थी कि अब तक मुझे किसी ने इतनी बड़ी बात नहीं बताई थी। तब मामा ने बताया –“बहिन जी ने एक बार बदायूँ में सुमित्रा नंदन पंत के साथ कवि-सम्मेलन में भाग लिया था। मैं भी साथ गया था। स्टेज पर मैंने बहिन जी की कविता पढ़ी थी। पंत जी ने मौसी को आशीर्वाद दिया था।’’ ताज्जुब है कि उनकी पहले की लिखी कवितायें नष्ट हो गईं।
श्रीमती प्रियम्वदा देवी मिश्रा बर्मिंघम में अपने पुत्र प्रमोद, पुत्रवधू अंजना, पौत्री अनिता, पौत्र डॉक्टर रवि मिश्रा और पौत्रवधू शिखा को आशीष देकर और सबके सामने अपने प्रेरक व्यक्तित्त्व का उदाहरण रखते हुए इस नश्वर काया को त्याग कर 20 मार्च सन 2010 में बैकुंठ धाम चली गईं परंतु अपनी यशःकाया से सदा अमर रहेंगी।

-नीरजा द्विवेदी
लखनऊ, भारत

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