थाती यादों की
कार के गाँव में पहुँचते “नीरजा”कैसी तो व्याकुल सी हो गई। आज १८ सालों के बाद वो नैहर के गांव आई है। माँ-बाबूजी दिल्ली में जब से भैया के यहाँ रहने लगे थें,वो भी वहीँ जाती थी। उनके न रहने पे कभी मन ही नहीं किया,तो नैहर छूठ ही गया। बड़े भैया नया घर बनवाये,तो गृह-प्रवेश में बेटा को गाड़ी के साथ भेज मुझे जबरन बुलवाये हैं। मेरी जड़ें मुझे पुरजोर तरीके से अपनी और खींचने लगे। गाड़ी को पहले पुराने घर तक ले गई,दौड़ते घर तक गई। ओह!चारों तरफ कितना बड़ा बगीचा हुआ करता था,झाड़ें कपडा खींची तो स्नेह उमड़ा,करोंदे के झाड़,एक-दो आड़ू-दाड़िम भी बेतरतीब बचे हैं। ये घर,दीवारें–वहाँ माँ की बड़ी सी रसोई थी,तिरछा खड़ा बड़ा सा छज्जा ,हाता ,बड़ा सा हॉल ,उसमे लगी खिड़की। दो घर को जोड़ता बड़ा सा आँगन जिसके बीचोबीच नदी से निकाल के लाया गया नाला जो हमलोगों के व्यस्तता का कारन हुआ करता था। उधर सीढ़ी थी,लगा मानो लहराती उतर रही मैं। भग्नावस्था में सारा घर बिखरा पड़ा है। चारों तरफ से आवाजें उठ रही है,मैं साफ-साफ सुन रही —-दादाजी चश्मा खोज रहें,माँ रसोई में खाना बनाते भैया को डाँटे जा रही है। बाबूजी बगीचे में बैठे पेपर पढ़ रहें हैं। जिस ड्योढ़ी को पार न करने की हिदायतें मिलती थी,वो कालग्रभित हो चूका है। कितनी पुकारें गूंज रही है।
कितनी यादें,कितनी बातें हम लड़कियाँ अपने दिल में संजो लेती हैं,जब मन हुआ यादों के भॅवर में डूब-उतरा गई। जिनका साया सर से उठ गया है,उन्हें भी तो हम अक्सराँ महसुस करते हैं। जो आवाजें हम सुन लेते हैं,जिन यादों से हमारी आँखे गीली हो जाती है,लड़के क्यूँ अछूते रह जाते हैं ??भैया को दिओ बाबुल महल-दोमहला, हमको दिये परदेश।।
आज सुगनाभगत जिससमय से आके खबर दिया है कि ये सभी जमीन का फॉरेस्ट से क्लियरेंस हो गया है और अगले महीने से यहाँ कोयला खनन शुरू हो जायेगा तभी से जतराउराँव खामोश सा आके झील के किनारे बैठ गया है और खोई-खोई निगाहो से सबकुछ निहार रहा है।
बात ही ऐसी है कि जिसपर कोई जोर नहीं चलेगा। और हो जाने पे मन की शांति खत्म हो जायेगी,जिंदगी रसहीन हो जायेगी। झील में मछली मारते,नहाते-तैरते तो उसका बचपन और जवानी गुजरा है। झील के उसपार उसका प्यार है। झील के किनारे उसके माँ-बाप दफ़न हैं। ये जंगल-पहाड़,नदी-नाले तो जीवन की व्यस्तता और गूँजता संगीत है। जतराउरावं अपने ननिहाल खेलारी में ये सब देख चूका है। बड़ी-बड़ी मशीने उतरेंगी और फिर वे सबकुछ करते जायेंगी। पम्प लगेंगे और झील १५-२० दिनों में सुख जायेगा । जँगल ओझल हो जायेगा और आँखों में सोये सपने खो जायेंगे। —
अपर्णा शाह
हुड़क
आज सुबह से उनका मन भारी है। नाश्ता खाना सब पर्वूव्रत चलता रहा । वो भूखी थीं यह तो नहीं कह सकते क्योंकि बेमन सेही दाने तो पेट में गए ही । मन के भारीपन के अलावा ऐसा आज कुछ नहीं हो रहा था जो पहले कभी नहीं हुआ हो । कुछ अजीब सी हुड़क उठ रही थी सीने में। असुरक्षा का एहसास था या बुरी खबरों का असर पता नहीं । वह बच्चों को कहना चाही कि तुम लोग आज नीचे ही रहो, मत आराम करो एक दिन, कुछ
बतियाने का मन कर रहा है। पर कह नहीं पाईं । बच्चों की दिनचर्या में बाधा भी नहीं बनना चाह रही थीं । तबियत कुछ ख़राब हो तो बोले भी, लेकिन ऐसा कुछ था ही नहीं । पति देव को ही उठा देतीं, परंतु आज उनकी भी तबियत कुछ
सुस्त है। सुनने सुनने के लिए वे तो हैं ही सदा । अकसर यह बोलकर आश्वस्त करते रहते हैं कि “मैं हूँ न तुम्हारे साथ तुम फ़िकर क्यों करती हो।” पर आज उन्हें भी डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं लगा । वह शाम के पाँच बजने का इंतज़ार करने लगीं जब नौकर चाय लेकर आया ।
“आवाज़ दे दो साहब को।” उन्होंने नौकर को कहा ।
‘इंतज़ार की घड़ी लम्बी होती है,‘ सुना था कभी, आज देख रही हैं।
“चाय ठंढी हो रही है।” वह स्वयं से बड़बड़ाईं और उठकर खुदु ही कमरे में चली गईं ।
“अभी तक सो रहे हैं, इतना भी क्या सोना भई, कभी खुद भी उठ जाया करें।” झल्लाती हुईं उन्होंने पति देव का पैर हिलाया ।
“कैसा लग रहा है अब , उठिए न , चलिए चाय पीते हैं, ठंढी हो रही है।” आवाज़ में तल्ख़ी का स्थान मिन्नत ने ले लिया । परंतु ये क्या… छूते ही शरीर एक ओर लुढ़क गया और पैर दूसरी ओर । अवाक् हो गईं वह , सीने की हुड़क ख़त्म हो गई और निस्तब्ध सी वह देखती रहीं।
आशा मिश्रा ‘मुक्ता’