दो लघुकथायेंः रतन चन्द ‘रत्नेश’

आजादी

बाप-बेटे शहर के चौराहे पर खड़े थे। सामने से एक मौन जुलूस जा रहा था, हाथ में बैनर-पोस्टर थामे।
भावशून्य पिता जुलूस के गुजरने की प्रतीक्षा कर रहा था, पर पाँच वर्ष के अबोध बच्चे के मन में प्रश्न कुलबुलाने लगे थे। उसने उत्सुकता से पूछा—
‘पापा, ये लोग कौन हैं ?’
‘हमारी ही तरह इन्सान हैं बेटे।’
‘कहाँ जा रहे हैं ये लोग ?’
‘यह इनका जुलूस है। अपने देश की आजादी की फरियाद कर रहे हैं।’
बच्चे ने अगला प्रश्न किया —
‘यह आजादी क्या होती है, पापा ?’
पिता थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गये। क्या उत्तर दे अपने बेटे को ? फिर समझाया—-
‘इनका भी हमारे जैसा देश है जिसे दूसरे देश ने अपने कब्जे में कर रखा है। इन्हें अपना देश वापस चाहिए जहाँ की हवा में ये खुलकर साँस ले सकें।’
बच्चा कुछ समझा, कुछ नहीं। तब पिता ने आकाश की ओर इशारा किया—-
‘वह देखो, पक्षी आकाश में आजादी से उड़ रहे हैं। यदि उन्हें पकड़कर कोई पिंजड़े में डाल दे तो इनकी आजादी छिन जाएगी।’
बेटा अपने पिता की बातें ध्यान से सुनता रहा। जुलूस गुजर गया तो वे आगे बढ़ गए। दोनों बाजार में पहुँचे । पिता एक दुकान से सब्जियाँ खरीदने लगा। बेटा दूसरी दुकान तक चला गया और वहाँ एक पिंजड़े में बंद तोते का दरवाजा खोल दिया। तोता फुर्र से आसमान में उड़ गया।
बच्चा तालियाँ बजाने लगा, ‘आजाद हो गया, आजाद हो गया।’
बाजार में सबकी निगाहें बच्चे की ओर उठीं। अभी-अभी गुजरे जुलूस का दर्द महसूस करने वाले कई चेहरों पर मुस्कुराहटें तिर गईं।

हम हैं हिन्दुस्तानी

घना कोहरा होने के कारण रमेश ऑटोरिक्शा लेकर दिन के लगभग ग्यारह बजे अपने निश्चित अड्डे पर पहुँचा। अपने दिन की शुरुआत वह मेडिकल कॉलेज के इसी अड्डे से करता है।
घंटा भर प्रतीक्षा करने के बाद भी जब कोई सवारी नहीं मिली तो उसने ऑटो को मुख्य बस-अड्डे की ओर बढ़ाया। कुछ दूर जाने पर कॉलेज से लौटती एक युवती ने हाथ के इशारे से उसे रोका। उस युवती को बस-अड्डे ही जाना था जहाँ के लिए प्रति सवारी ये ऑटोवाले दस रुपए हीलेते हैं।
कोहरा धीरे-धीरे छंटने लगा था। अगले स्टॉपेज पर दो महिलाओं ने उसे रुकने का इशारा किया। निकट जाने पर देखा कि वे गोरी-चिट्टी विदेशी मेमें हैं।
उनमें से एक ने पूछा, ‘सैक्टर ट्वेन्टी-टू ? हाउ मच ?’
रमेश ने मौके का फायदा उठाते हुए तपाक से कहा, ‘वन हंड्रेड ।’
वे आसानी से मान गईं और ‘ओ.के.’ कहकर ज्योंही उसके ऑटो पर बैठने लगीं कि उसने बस-अड्डे की ओर जा रहे एक दूसरे ऑटोवाले को रोककर अपनी ऑटो में बैठी युवती को उसमें बिठा दिया।
आज अच्छी दिहाड़ी बन रही थी रमेश की। इन अंग्रेज महिलाओं से उसे अच्छा-खासा किराया मिलनेवाला था।
लगभग तीन किलोमीटर के बाद सैक्टर-22 आ गया। दोनों विदेशी महिलाएँ ऑटो से उतरीं और उनमें से एक ने जैसे ही रमेश की ओर एक सौ रुपए का नोट बढ़ाया तो वह बोला, ‘नो मैडम, ओनली ट्वेंटी रूपीज़।’
‘बट यू टोल्ड वन हंड्रेड ?’
रमेश ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘आई……जोकिंग।’
उन्होंने रमेश को दस-दस रुपए के दो नोट थमाए। उनके जाते ही उसके मन को सुखद अनुभूति हुई। उसने अपने देश को बदनाम होने से बचा लिया था। शुक्र है कि उसने उन्हें नहीं ठगा वरना जब उन्हें पता चलता तो हमारे देश और हमलोगों के बारे में क्या सोचतीं।
‘हम हिन्दुस्तानी गरीब हो सकते हैं पर बेइमान नहीं।’ ऐसा सोचते ही रमेश का सीना गर्व से फूल गया।

रतन चन्द ‘रत्नेश’
मोबाइल- 9417573357

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