दो लघुकथाएँः सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

रूदन

” तुम जब हँसती हो तब तो सुन्दर दिखती ही हो , जब रोती हो तब भी बहुत सुन्दर लगती हो । ”
” बड़े निष्ठुर प्रेमी हो जो अपनी प्रेमिका के रोने में भी सुन्दरता देख लेते हो। ”
” क्यौंकि तुम कभी अपनी तकलीफ में नहीं रोती। तुम्हें जब भी रोते हुए पाया है , मेरी ही कोई तकलीफ तुम्हें रुला रही होती हैं। ”
उसने अपना चेहरा झुकाया, आँखों को पलकों से ढका और धीमें से मुस्कुरा दी।
थोड़ी ही देर में पलकों की कोर फिर से भीग चुकी थी ।

भरी – पूरी बस्ती

” खोया – खोया सा है , कुछ बोलता क्यूं नहीं ? ” उसे लगा , उसे किसी ने पुकारा है। कौन है ? आस – पास कोई नहीं है।
वो थोड़ा सकपकाया। स्वर को पहचानने की कोशिश की। यह तो उसकी अपनी ही ध्वनि है। उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ। आश्वस्त होने के बाद बोला।
” क्या बोलूं भाई , लगता है कि मैं किसी निर्वात में खड़ा हूं। सब तरफ विरानी सी पसरी है। और न जाने कब कोई धक्का देकर मुझे कहाँ गिरा देगा या मैं स्वयं ही गिर पडूंगा , नहीं पता ? ”
” मूर्ख है क्या । भरी पूरी जिंदगी है तेरी । बंगला है , गाड़ी है , फिक्स और रेगुलर आमदनी है , सेहत भी ठीक – ठाक है , आज्ञाकारी और सम्मान देने वाले बच्चे हैं,तुझे कभी किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ी ,घर – समाज में एक खास जगह भी बनी हुई है , जरूरत मंदों की मद्दत भी करता ही रहता है , तुझे और क्या चाहिए जिंदगी से , जो इस तरह गुम – सुम सा बैठकर जिंदगी में शून्य की कल्पना कर रहा है ?
” हाँ वो तो है पर सोचता हूं जिंदगी को मैंने क्या दिया या जिंदगी से मैंने मैंने क्या लिया ? ”
” तू क्या देगा भाई , जब जिंदगी तेरे पास आयी तो तेरे पास था ही क्या , जो तू जिंदगी को कुछ दे पाता ? जो कुछ भी तेरे पास है वो सब कुछ तो तुझे तेरे वजूद से ही मिला और वजूद उन दूसरों से , जिन्हें तू कुछ भी नाम दे ले।”
” कोई नाम का क्या मतलब है ,वो मेरे मां -पिता थे भाई ! ”
” हां थे और उनसे ही तेरा अस्तित्व बना । पर एक बात और भी तो जान लेता । ”
” वो क्या ? ”
” अस्तित्व मिला, देह मिली। तू इसे ही सबकुछ समझता रहा। इसी के लिए सबकुछ करता रहा। इसे ही संभालता रहा , सजाता रहा। इसे ही पुख्ता करता रहा। इतना ही नहीं, इसके बाहर बैठकर इसे ही से निहारता भी रहा। । कभी इसके अंदर नहीं गया।इसके अंदर बैठकर इसे देखने की कोशिश भी तो करता। इसके अंदर की विशालता ,विकरालता ,सुंदरता और इसमें समायी हुई कलाकृतियों को परखता और समझता तो शायद यह न कहता कि तू किसी निर्वात में भटकता हुआ उद्देश्यहीन पिंड है। जिन सगे – साथियों को तू इस देह से बाहर ढूंढता फिरता है , क्या पता वे तेरे इसी निवास के अंदर अठखेलियां कर रहे हों ! एक बार वहां बैठकर कोशिश तो कर भाई ! ” स्वर और आग्रह उसके अपने ही थे ।
उसने प्रयोग के रूप में इस सलाह को मानने का निर्णय ले लिया। उसने पाया कि उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है और अब वो किसी निर्वात का नहीं , एक भरी – पूरी बस्ती का आजाद बाशिंदा है ।

सुरेंद्र कुमार अरोड़ा ,
डी – 184 , श्याम पार्क किसने प्रेरित एक्सटेंशन , साहिबाबाद – 201005 ( ऊ. प्र. ),मो : 9911127277
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