दो लघुकथाएँः सुरेन्द्र अरोड़ा

तब और अब

” क्या तुम तब भी इतना ही प्यार करतीं थीं जितना कि अब ? ”
” तब भी का मतलब ? ”
” बताने की जरुरत है क्या ? मेरे प्रश्न का अर्थ तुम जानती हो । ”
” यदि यही प्रश्न मैं तुमसे करुँ तो ? ”
” तो हो सकता है मैं भी वही उत्तर दूं जो कि तुम देना चाहती हो। ”
” तो फिर पूछ क्यों रहे हो ? ”
” यूं ही ख्याल आया तो पूछ लिया। तुमसे सुनूंगा तो अच्छा लगेगा । ”
” क्या पता बुरा भी लगे ? ”
” तो डरती हो क्या ? ”
” मुझे डरने की क्या जरुरत है ? वो भी तुमसे ! ”
” तो फिर बता क्यों नहीं देतीं ? ”
” पहले तुम कहोगे तब ज्यादा स्पष्ट कह सकूंगी । ”
” हां ! मैं उसे भी इतना ही प्यार करता था , जितना कि तुम्हें। शायद इससे भी ज्यादा । ”
” तुम्हारी स्पष्टवादिता और सचबयानी पर सन्तोष और सुख दोनों ही की अनुभूति हो रही है । ”
” इर्ष्या क्यों नहीं ? ”
” इर्ष्या क्यों हो ? तुम पर प्यार और मजबूत हुआ है । ”
” एसा क्यों ? ”
” क्योंकि तुम्हारे बारे में आज मुझे यह भी पता लग गया कि तुम मुझसे कभी झूठ नहीं बोलोगे, सच के लिये तुम कुछ भी कर सकते हो । यहां तक कि मुझे खोने का खतरा भी उठा सकते हो। ”
” तो फिर अब मेरे प्रश्न का उत्तर भी दो कि क्या तुम तब भी…….. ! ”
” हां ! मेरा भी सच यही है कि मैं उसके लिये भी एसी ही समर्पित थी जैसी कि अब तुम्हारे लिये । बस एक बात को छोड़कर । जिसने मुझे उससे अलग कर दिया । ”
” वो कौन सी बात ? ”
” सच को न मानने वाली बात । ”
” कैसा सच ? ”
” स्रष्टि में देवता तो कोई भी नहीं है । मन का तो मतलब ही बदलाव है। वो अक्सर मुझसे कहता था कि उसके जीवन में प्यार की कहानी मुझसे शुरु होकर मुझ पर ही खत्म हो जाने वाली है । मैने इसे सच नहीं माना , यह मैने उसके साथ रहकर पाया भी था । ”
” तो फिर सच क्या था ?”
” सच ये है कि कहानी कोई भी हो, वो कभी खत्म नहीं होती। मन , पानी की वो धारा है जो कभी नहीं रुकती। इस पर कोई बान्ध, बांधा नहीं जा सकता। जो एसा कहता है , वो झूठ बोलता है , अपने साथ भी और अपनो के साथ भी । ”
” मन के लिये तुम्हारी यह सोच मुझे स्तब्ध कर रही है । मुझे तुम पर गर्व हो रहा है । ”
” गर्व क्यों ? ”
” क्योंकि संबंधों की सच्चाई को तुमने इतनी सादगी से कह दिया । ”
” हम हमेशा व्यवस्था के आगे समर्पण कर देते हैं और आडम्बर को सच मानने को मजबूर होते हैं , वरना सच तो ये है कि जिन्दगी में न तो पहला और न ही आखिरी प्यार सिर्फ एक बार होता है। ये वो सच्चाई है जो कहीं भी, कभी भी हो जाती है और होती ही रहती है और हर बार इसे सम्भाल कर रखना पड़ता है। सम्भाल कर न रखो तो धारा का रुख बदल जाता है।”
वो उसके हिलते हुए होठों को एकटक देखे जा रहा था और उसकी साफगोई को अपनी उपलब्धि मानने को मजबूर था ।

बारिश

द्वार खुलते ही उसने कहा , ” लो यह किताब रख लो और आफिस में किसी से कहना मत कि यह किताब मैं स्वयम तुम्हें देने आया था .लोग बात का बवंडर बना देंगें .”
इतना कहकर उसने अपने कदम पीछे खींच लिए .”
” अरे अंदर तो आइए . ” निशा बोली .
” नहीं ! जल्दी है , मैं वापस जाना चाहूँगा .” उसने कहा
” अरे वापस कैसे जायेंगें . पहले ही भीग गए हैं . बारिश रुकी कहाँ हैं ? रूक जाए तो चले जाइयेगा .” निशा आग्रही मुद्रा में थी . . आते – आते अचानक बारिश हो गयी . रास्ते में रुका तो था पर धीमी होते ही चल भी पड़ा था . बारिश ने फिर जोर पकड़ लिया . उसने बादलों की ओर देखा . वे तो बरसने को आतुर ही थे . चल देता तो और अधिक भीगना तय था वह अनमना सा हो गया . ” अरे सोच क्या रहे हैं , अंदर आ जाइये न . यही खड़े रहे तो बीमार हो जायेंगे . ”
कोई विकल्प न देख वह अंदर आ गया . भीगे माथे और सिर से जल की बूँदें फर्श पर गिरने लगी . उसने रूमाल निकाला ही था कि निशा ने तौलिया लाकर दे दिया . ” लीजिये बालों को सूखा लें , नहीं तो सर्दी लग जाएगी .”
उसने तौलिया ले लिया . इसी बीच निशा चाय बनाकर ले आयी .
मुझे पता होता कि आपको बारिश में भीगना पड़ेगा तो मैं किताब के लिए कहती ही नहीं .”
असल में आज ये किताब इतनी जरूरी थी कि नहीं मिलती तो मुझे तीन किलोमीटर दूर की बुक – शाप से लाना पड़ता क्योंकि कल सुबह तक नोट्स हर हाल में तैयार करने ही हैं .”
” जानता हुँ , तभी तो आने की हामी भरी वरना तय तो कुछ और ही था .” उससे कहे बिना रहा नहीं गया .
” आपने जो तय कर रखा है , वह जानती हुँ मैं ! पर सब कुछ तय करने वाले आप ही हो , इस बात के हिमायती तो आप कभी भी नहीं थे , फिर आज कैसे और क्यों यह सब कह रहे हैं ? ”
” वो इसलिए कि एक सीमा से अधिक कुछ भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता .” वह निशा से बिना नजरें मिलाये ही कह पाया .
” ठीक कहा आपने . बर्दाश्त की भी हद होती है . तुम्हे पता भी है तुम तो आज मेरी वजह से थोड़ी देर के लिए सिर्फ बारिश में भीगे हो जिसे तुमने सुखा लिया पर जिसका तन और मन दोनों ही तुम्हारी वजह से भीग चुके हैं , उसे क्या कहोगे ?” निशा के शब्द न जाने कहाँ से निकल कर आ रहे थे . उसे पता ही नहीं चला कि वह आप से तुम पर आ गयी है .
वह कुछ छण तक , एक – टक निशा को देखता रहा , फिर बोला , मेरे माथे पर बिखरी बूंदों को समेटा तो तुम्हारे तौलिये ने ही है न .”
निशा चाय के कप को देखती रही . बोली कुछ नही तो उसने कहा ,” लगता है बारिश रूक गयी है , अब चलना चाहिए .”
” बातों – बातों में चाय ठंडी हो गयी थी , थोड़ी देर रूक जाओ , गर्म चाय पीकर जाना . तब तक बारिश अच्छी तरह से रूक जाएगी .जितना भीगना था भीग लिए , अब और भीगना अच्छा नहीं है .”

सुरेंद्र कुमार अरोड़ा
D – 184 , Shyam Park Extension, Sahibabad – Ghaziabad ( India )
Mo.9911127277

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