दो लघुकथाएँः दूध-मलाई- शैल अग्रवाल


दूध-मलाई

बन्ने तेरे दादा की ऊंची हवेली सुनकर मैं चली आई
बन्ने तेरी बन्नी मक्खन-मलाई, ले लो हमरी बधाई।

हवा की तरह मंडली सर्र से पूरा लॉन पार करती, सीढ़ियाँ फलांगती बरांडे में आ पहुंची थी और बडे जोर-शोर से नाच-गाना शुरु कर दिया था।
पर जब धूप सेकती दादी के कानों पर जूँ तक रेंगती न दिखी, तो एक जो सबसे ज्यादा चुस्त और सजी-धजी थी, लचक-लचक उस तक जा पहुंची और कूल्हे पर हाथ टिकाती, आँखें मटकाती बोली- ‘पोता यूँ ही ब्याह लाएगी क्या दादी? न्योछावर नहीं देगी हमें!’

‘मेरी तबियत ठीक नहीं, अंदर जाकर मांगो।’ दादी ने भी बेरुखी से फ़ौरन ही जवाब दे दिया । और वे तुरंत मान भी गईं।

‘अल्लाह, तुझे सेहत बख्शे!’

अब तरह-तरह की आवाजें और सारा शोर आंगन से आ रहा था। दादी के कान उधर ही लगे हुए थे।

‘इत्ती बड़ी हवेली और बहू की गोद भराई के बस 11 हजार हम तो 11 लाख लेंगे।’

‘लूट मचा रखी है? हट्टी-कट्टी हो कुछ काम क्यों नहीं करतीं?’

‘काम करें हमारे दुश्मन! हम तो यूँ ही नांचे-गायेंगे, मौज करेंगे।’

‘हमारे पास तुम्हारी मौज के लिए पैसे नहीं। निकलो बाहर।’

‘निकलें कैसें , पहले आशीर्वाद तो ले लो, लाल आए तुम्हारे घर भी जल्दी ही, हमारे जै…’

अधूरा वाक्य पूरा भी हो कि सहमे दादा जी आए और लाख की गड्डी गोदी में रखते हुए पैर पकड़ लिए -‘बस, अब आगे और कुछ नहीं कहना आप।’

गड्डी काँख में खोंसते हुए हँसकर बात संभाल ली उसने भी तुरंत -‘ अवश्य। अब तो बस यही दुआ है कि हमारा फिर इस हवेली में आने का अगले बरस ही बहाना बने आपकी हवेली में।’

अभी उनकी पीठ मुड़ी भी न थी कि खुले मुख और फटी आँखों के साथ खड़े दादा के आगे एक नया उलझन भरा स्वांग चालू हो चुका था।

होठों पर लिपिस्टिक और आंखों में उन्ही-सा मोटा काजल लगाए 14 साल का गुड्डू गोल-गोल घूम रहा था और उन्ही की तरह ताली पीट-पीटकर गा रहा था-‘ बन्ने तेरे दादा की उंची हवेली-‘

‘ यह क्या बदतमीज़ी है?’

बात बर्दाश्त के बाहर हो चली थी। सटाक-एक जोरदार चांटा उसके गालपर पड़ा। परन्तु उसकी आग्नेय आंखों में एक आंसू नही था, बस एक तेज झुलसाती लपट थी । साल भर से वह मोपट मांग रहा था और दादा-पापा सभी टाल रहे थे।

दादी देख रही थी गुड्डू के आंसू अब तक तेज धार बने उसका पूरा चेहरा भिगो चुके थे और आँखों की लपट अब सबको ही झुलसा रही थी,

‘वह भी तो यही कर रहे थे, पर! ऐसा क्या ख़ास था उनमें जो मुझमें नही है? क्या सारी दूध-मलाई बस उनके लिए ही और अपनों के लिए सिर्फ चांटा?’…

दूध-मलाई

भारत आना हमेशा की तरह एक सुखद अनुभव ही था। कई सुखद आश्चर्य थे। सड़कों पर , स्टेशन पर कूड़ा नहीं, भिखारी नहीं, विकलांग कीड़ों से रेंगते बच्चे नहीं। विदेशी सामानों से जगमग करते मॉल और युवाओं के दपदप करते चेहरे…कबूतरों से कोने -कोने पर बिखरे हुए और दौड़ते-भागते। गुटरगूं करते, आँखों में आँखें डाले हँसते और मुस्कुराते हुए । ए माई , तेरा लाल सुखी रहे…गोदी में बड़ा पेट और सूखे हाथ पैर वाले नाक बहते बच्चे की कोई रिरियाती माँ नहीं दिखी कहीं …बूट पालिश करवा लो साहब-जैसी कोई आवाज नहीं मिली। किसी फटी कमीज और कीचड़ भरी आंखों वाले बच्चे ने पैदल-पैदल पीछा नहीं किया कार का। और तो और धूपबत्ती टिशू पेपर वगैरह तक बेचने वाले तक नहीं दिखे इस बार तो। मानो किसी ने जादू की छड़ी घुमा दी थी और अनचाहा अनावश्यक सब गायब हो गया था—गरीबी के साथ-साथ गरीबों की पीड़ा-समस्या सभी कुछ!

पर गए तो गए कहाँ सब?

क्या गरीबी मिट गई देश से और अमीर-गरीब सब बच्चे स्कूल जाने लगे? संग-संग पढ़ते हैं? कोई दुर्व्यवहार और कुप्रथा शेष नहीं अब अपने देश में…एक खुशहाल भारत है यह आँखों के आगे…सोचती-समझती, गुनती-बुनती क्षमा कब ससुराल की हवेली की देहलीज पर खड़ी थी पता ही नहीं चल पाया उसे। देश ही नहीं, ससुराल में भी संपन्नता और सुधार कोने-कोने से झलक रहा था।
‘लाओ भाभी यह बैग और ट्राली मुझे दे दो।’ -कहती उस बारह साल की लड़की ने बड़ी कुशलता से तुरंत सारा सामान हाथों से ले लिया और पल भर में ही मेहमान खाने में व्यवस्थित भी कर आई। अब उस बड़े और सुव्यवस्थित कमरे में अकेली खड़ी थी क्षमा। चारो तरफ सन्नाटा… कोई दुआ सलाम नहीं, कोई आओ बैठो , कैसा रहा सफर. कोई तकलीफ तो नहीं हुई रास्ते में -जैसी प्यार भरी एक आवाज तक नहीं ।…यह कैसा अपना घर है, अपनेपन के अहसास से पूर्णतः रिक्त- मन कसैला हो चला था।

यह भी नया ही अनुभव था-शादी का घर और जाने कहाँ गायब थे सब। ज्यादा और न सोचते हुए क्षमा फ्रेश होने चली गई । लौटी तो देवरानी सामने खड़ी थी। पैर छूकर बोली -‘अंदर की कोठरी में सामान लगा रही थी , पता ही नहीं चल पाया- आप कब आईं? ‘
खुश रहो, कहकर एक ओर हो गई क्षमा। देवरानी की लोमड़ी जैसी चालें और आवभगत से पिछले चालीस साल से भलीभांति अवगत जो थी। जानती थी कि देवर के आने के पहले चाय तो छोड़ो, एक गिलास पानी तक के लिए नहीं पूछने वाली यह ।
आभा भी जैसे आई थी वैसे ही लौट भी गई तुरंत ही।

उसने दोनों नातिनी नेहा और निकिता की सौस की बोतलों पर दोनों के ही नाम लिख रखे थे। परन्तु चंट निकिता पहले नेहा की ही बोतल साफ करती फिर अपनी से हाथ लगाती और लाचार नेहा सिवाय रोने के उससे जीत ही न पाती। आभा को उसका भोलापन कचोटता, ‘कैसी धांधू लड़की है। अधिकारों की रक्षा कैसे की जाती है -आता ही नहीं इसे। कैसे गुजर होगी इसकी, पराए घर जाना है? ‘ आभा अक्सर ही कोसती रह जाती मासूम को। कुंठित आभा अक्सर बजाय सांत्वना देने के बुदबुदाती अपने कमरे का दरवाजा भेड बिस्तर पर जा लेटती।

गृहस्थी तो उन तीनो बच्चियों के सहारे ही चलती थी, जो बारह, चौदह और सोलह साल की थीं और बारी-बारी से हर मोर्चा बड़ी कुशलता से संभाले रहती थीं उसकी गृहस्थी का और नन्ही भी इतनी समझदार थी कि क्षमा के बस इतना पूछने पर कि स्कूल नहीं जातीं? फ्रिज से नेहा-निकिता को निकाली दूध-मलाई को मेज पर रखकर बोली-‘घर में माँ है, चार साल का भाई है। बापू बंगलौर में है। मोदी जी कुछ भी कहें, हम पढ़ने चले गए तो घर में रोटी कहाँ से आएगी? यह दूध-मलाई हम सिर्फ परोसते हैं, खा नहीं सकते!’


शैल अग्रवाल
1ए, ब्लैक रूट रोड, सटन कोल्डफील्ड, यू.के.

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