दीपावली पर्व सम्पूर्ण भारतभूमि की सांस्कृतिक एकता एवं सामाजिक समृद्धता का प्रतीक है। सामान्यतः दीपावली पर्व को शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से देखे तो स्पष्ट होता है,कि यह शब्द दो शब्दों के संयोजन से उद्गमित हुआ है प्रथम “दिप” एवं द्वितीय “अवली” अर्थात ऐसा त्यौहार जिसका आयोजन दीपो की कतार के माध्यम से की जाती हो। प्रमुखतः भारतीय मानस के द्वारा इस त्यौहार के लिए दीपावली के स्थान पर ‘दीवाली’ शब्द का प्रयोग किया जाता है,जो दीपावली का ही अपभ्रंषित अर्थात बिगड़ा हुआ रूप है। यह पर्व हिंदी पंचांग के अनुरूप कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष के अमावस्या तिथि को मनाई जाती है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार उपर्युक्त तिथि को भगवान श्रीराम जी का लंका विजय पश्चात माता सीता जी को सकुशल प्राप्त कर चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण करते हुए अयोध्या आगमन हुआ था। नगर में प्रभु श्रीराम जी के आगमन रूपी संदेश की प्राप्ति से सारे जनमानस में मानो अपार ऊर्जा वाली हर्षोल्लास रूपी तरंग का संचार हो गया हो,उसी ऊर्जा से सारे नगर वासियो ने नगर के चौक-चौराहे,घर-द्वार,प्रतिष्ठान,पंचायत आदि को दीपो की कतारों से सुसज्जित कर दिया। जो नगरवासियो द्वारा उनके अतिथ्यभाव तथा प्रसन्नता का प्रतीक था। उसी प्रसन्नता के प्रतीक रूप को आज दीपावली पर्व के रूप में सम्पूर्ण वैश्विक धरातल पर आयोजित की जाती है,यह पर्व सीमाओं के बंधन से मुक्त प्रत्येक देश मे भारतीय जनमानस एवं भारतीय संस्कृति के गौरव का महत्व को समझते हुए उसका आत्मसात करते हुए संवहन करने वाले लोगो के द्वारा मनाया जाता है।
आध्यात्मिक रूप से यह त्यौहार बृहदारण्यक उपनिषद से संदर्भित “तमसो म ज्योतिर्गमय” अर्थात अंधकाररूपी दानवी शक्तियों पर प्रकाशरूपी दैवीय शक्ति के विजय का प्रतीक है। इसी पावन-पवित प्रतीक के नित स्मरण और निज जीवन मे उसे प्रभावपूर्ण बनाने हेतु इस त्यौहार को सामान्यजन आनंद एवं प्रेरणा के साथ मनाता है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत में प्राचीन काल से दीवाली को हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह में गर्मी की फसल के बाद के एक त्योहार के रूप में दर्शाया गया। पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में दीवाली पर्व उल्लेखित है। माना जाता है कि ये ग्रन्थ पहली सहस्त्राब्दी के दूसरे भाग में किन्हीं केंद्रीय पाठ को विस्तृत कर लिखे गए थे। दीपक को स्कन्द पुराण में सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है, सूर्य जो जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का लौकिक दाता है और जो हिन्दू कैलंडर अनुसार कार्तिक माह में अपनी स्थिति बदलता है। कुछ क्षेत्रों में हिन्दू दीवाली पर्व को यम और नचिकेता की कथा के साथ भी जोड़ते हैं। नचिकेता की कथा,जो सही बनाम गलत, ज्ञान बनाम अज्ञान, सच्चा धन बनाम क्षणिक धन आदि के बारे में बताती है,पहली सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व उपनिषद में लिखित है। फारसी यात्री और इतिहासकार अलबरुनी, ने भारत पर अपने ११ वीं सदी के संस्मरण में, दीवाली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार कहा है।
दीपावली भारत को सांस्कृतिक रूप से एकजुट करने वाला पर्व के रूप में ख्यातिलब्ध है। इस पर्व हेतु विभिन्न स्थल से प्रत्येक लोग,चाहे वह अपने कार्यस्थल पर हो या किसी अन्य दूरवर्ती नगर में या फिर अध्ययन स्थल पर,इसे मनाने हेतु प्रत्येक व्यक्ति सहज भाव से गृहग्राम पहुचते है और सपरिवार दीपावली पर्व को समाहार के रूप में धनतेरस से प्रारंभ होकर कार्तिक माह के ही शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को पड़ने वाले भाईदूज तक के पर्व को आनंद एवं उत्साह के साथ मनाते है। इस पर्व में छोटे बच्चों के द्वारा फोड़े जाने वाले फटाखे एवं जलाई जानी वाली फुलझड़ियां हमारी प्रसन्नता को प्रदर्शित करने का माध्यम ही है। लेकिन ये चिंतनीय विषय है,कि दीपावली पर्व के आते ही “तथाकथित बुद्धजीवी वर्ग” हमे प्रकृति एवं पर्यावरण पर ज्ञान प्रदान करने लग जाते है। उन्हें ज्ञात होने चाहिए कि सनातनधर्मियों का अस्तित्व ही प्रकृति से है क्योंकि यह धर्म मूलतः प्रकृति पूजन पर ही आधारित है। अतः ऐसे आनंद के अवसर पर यह ज्ञान सामान्य उत्सवधर्मी के लिए पीड़ादायक है। और यह भारतीय लोगो की सजगता ही है,कि अब फटाखे की उपयोगिता में निरंतर कमी भी आ रही है। निश्चित ही प्रकृति का संरक्षण प्रत्येक मनुज का कर्तव्य है,लेकिन उसके क्षति का उत्तरदायी हमारे त्यौहार को ही सिद्ध करना नासमझी है। वैश्विक स्तर पर आयोजित होने वाले नववर्ष में दीपावली से कही अधिक फुलझड़ियां एवं आतिशबाजी जलाए जाते है। इस हेतु भी संरक्षण का प्रयास वैश्विक स्तर में भी प्रारम्भ होना चाहिए।
निरुपमा सिन्हा वर्मा
इंदौर (म. प्र.)