दलित आत्मकथा के अंशः आलोक कुमार सातपुते

जो खानदानी रईस हैं वो मिज़ाज रखते हैं नर्म अपना
तुम्हारा लहज़ा बता रहा है तुम्हारी दौलत नई नई है।
-शबीना अदीब

देशी और विदेशी साहित्य पढ़ने कारण अंग्रेजी भाषा में मेरी ठीक-ठाक कमांड हो गई थी। बचपन से ग़ज़लें सुनने के कारण मेरी उर्दू भी अच्छी खासी हो गई थी। सुभाष के साथ रहने का एक फायदा यह हुआ था कि मैं लड़की पटाने के लिए प्रयोग में आने वाली लचकदार भाषा का प्रयोग भी सीख गया था। अपनी भाषा में उर्दू और अंग्रेजी के प्रयोग से मेरी भाषा सम्मोहित कर सकने योग्य बन रही थी। लड़कियों के सामने तो मैं और भी ज्यादा स्टाइल मारकर बोला करता था, चूंकि वह क्षेत्र ईसाई बहुल था और जाति-पाति और छुआछूत लगभग नहीं के बराबर था, सो मुझे अपने आपको निखारने का मौका मिल रहा था। मेरे व्यक्तित्व का अच्छा विकास हो रहा था। मैं आत्म-विश्वास से लबरेज़ था। मैं सुभाष बन जाना चाहता था और इस दिशा में समग्र प्रयास भी कर रहा था। मैं कई बार सोचता हूँ कि भारत में सबसे बुरी बात है गरीब की किसी भी तरह से अमीर बन जाने की लालसा। शोषित वर्ग की शोषक वर्ग में तब्दील हो जाने की महत्वाकांक्षा। अपने अनुभव से मैंने पाया है कि जो मूल रुप से शोषक वर्ग से ताल्लुक रखते हैं वे फिर भी उदारमना होते हैं, लेकिन जो लोग शोषित वर्ग से शोषक वर्ग में तब्दील हो जाते हैं, वे बहुत ही ज्यादा कट्टर शोषक बन जाते हैं। मेरे अन्दर भी सुभाष जैसे लम्पट बन जाने की इच्छा बलवती रही।
मेरा एक दोस्त है। पहले वह रायपुर की एक स्लम बस्ती में रहता था । वर्तमान में वह एक पॉश कालोनी में रहता है । उसने शहर दो तीन मकान और खरीद रखे हैं । उसकी सारी शिक्षा-दीक्षा सरकारी स्कूल से हुई है ।उसके पिता एक पान ठेला चलाते थे । उसके सभी भाई सरकारी स्कूलों में पढ़-लिखकर अच्छी जगह पर पहुँच चुके हैं। मेरा वो मित्र एक सरकारी ऑफिस में बाबू है। वह नम्बरी भ्रष्ट है, लेकिन वह फ़ीस कमी के लिए हुए आन्दोलनों या स्लम बस्तियों को उजाड़ने के खिलाफ़ हुए आन्दोलनों और आन्दोलनकारियों को माँ-बहन की गालियाँ देता रहता है। हालाँकि गावों में अभी भी उनके पास खेत हैं, जिन्हें वे लोग रेघा या अधिया के रूप में लीज़ से दे देते हैं। वह किसान आन्दोलनों को भी पानी पी- पीकर कोसता है। वह एक किस्म का बेहद खतरनाक नव-शोषक है।
खैर उस ईसाई बहुल कस्बे में रहते हुए मुझे बड़ा अचरज होता जब मैं देखता कि शर्मा, तिवारी, त्रिपाठी पांडे और दुबे आदि सरनेम वाले कई ब्राह्मण चर्चों में आते हैं। इनके घरों में क्रास का चिन्ह भी बना होता था। इसका सीधा सा मतलब यह था कि वे इसाई धर्म के मानने वाले लोग थे। यह मेरे लिए शाकिंग था, क्योंकि इतिहास विषय और दलित साहित्य पढ़ते हुए मैंने पाया कि ब्राह्मण तो शुरुआत से ही हिंदू धर्म की सर्वश्रेष्ठ जाति मानी जाती रही है। इस जाति में पैदा हो जाना ही श्रेष्ठ हो जाना होता है। इतिहास में मैंने पढ़ा था कि ब्राह्मण धर्म ही हिंदू धर्म है। इसी कड़ी में मैं सोचने लगा कि अगर ब्राह्मण धर्म ही हिंदू धर्म है और चूँकि ब्राहमण बमुश्किल तीन चार प्रतिशत हैं सो हिन्दू धर्म ही अल्पसंख्यक धर्म हुआ। फिर तो फिर मेरे हिसाब से बहुजन भी एक धर्म होना चाहिए। हालाँकि कांशीराम ने इस दिशा में काम करना शुरू किया था, पर आगे चलकर यह आंदोलन भटकता चला गया। बहुसंख्यक पिछड़ा वर्ग पिछलग्गू ही बना रहा। मेरा अपना यह मानना है कि जिस देश में धर्म जितना कमजोर होता है, राष्ट्रीयता उतनी ही ज्यादह मजबूत होती है। इस बात पर यकीन करते हुए भी मुझे लगा कि अगर ब्राम्हण इस तरह से धर्म परिवर्तित करते रहे, तो हिंदू धर्म में आख़िर बचेगा ही क्या। मुझे हमेशा ही यह प्रश्न उद्वेलित करता रहा कि आख़िर इन ब्राह्मण लोगों को हिंदू धर्म ने क्या नहीं दिया, जो कि ये लोग भी धर्म परिवर्तित करे बैठे हैं। इन्हें मान-सम्मान, धन- दौलत, पद-प्रतिष्ठा सब कुछ तो मिली हुई है, फिर भला इनमें इतना असंतोष क्यों है। मैं इन बातों को सोच सोचकर कई महीनों तक परेशान रहा। मुझे लगता कि क्या दलित साहित्य झूठा है और क्या वामपंथी अवधारणा खोखली है। इस तरह के इसाई-ब्राह्मण मुझसे अपना पिछला पढ़ा हुआ पूरी तरह भूल जाने को कह रहे थे। मैं वामपंथी साहित्य को तो भूल सकता था, क्योंकि मेरा अपना मानना है कि भारतीय संदर्भों में वामपंथ पूरी तरह से असफल है, क्योंकि यह सिर्फ़ आर्थिक विषमता की बात करता है, सामाजिक विषमता की नहीं। चूंकि भारत में जातिवाद कूट-कूटकर भरा हुआ होता है, सो दलित जाति का व्यक्ति कितने भी बड़े पद पर पहुंच जाए, उसे मान-सम्मान नहीं मिल पाता है, जिसका कि वह हक़दार होता है, उल्टे उस पर आरक्षण का ठप्पा लगाकर उसकी प्रतिभा को कुण्ठित किये जाने का कुत्सित प्रयास किया जाता है। प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से उसे हर कदम पर खारिज किए जाने का षड्यंत्र रचा जाता है। मेरे वामपंथी विचारधारा वाले कुछ दोस्तों का यह मानना है कि आर्थिक विषमता ही सामाजिक विषमता है। मैं इससे कतई इत्तेफ़ाक नहीं रखता हूं। मैं इन ईसाई ब्राह्मण सरनेम के आधार पर अपना पढ़ा हुआ वामपंथी साहित्य भूल सकता हूं। मैं बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग को अपने दिल से निकाल सकता हूं, पर दलित साहित्य तो पूरी तरह जीवंत साहित्य है। उसे भला मैं कैसे और क्यों भूल सकता हूं। खैर मैं इन ईसाई-ब्राह्मणों से कभी भी यह पूछने का साहस नहीं जुटा पाया कि इन्होंने भला क्यों धर्मांतरण कर रखा है।

4 मुकीम कौन हुआ है
मकाम किसका था

एक दिन मेरे घर पर सुजीत चहकता हुआ आया और उसने मुझे बताया कि फलां तारीख को मेरी शादी है। तुझे मेरी ससुराल में दिनभर रहना है। ऐसा कहते हुए उसने मुझे अपनी शादी का कार्ड थमा दिया। वधू वाली जगह पर सुधा पांडे नाम देखकर मैं भौंचक रह गया। सुजीत एक दलित सतनामी जाति का लड़का था, जो क्रिश्चियन बन चुका था। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि एक दलित जाति के लड़के की शादी एक ब्राह्मण लड़की से हो रही है। मुझे लगा कि सुजीत ने तो वाकई में लंबा हाथ मारा है। यह सोचते-सोचते मैं टाईम मशीन में बैठकर मोहनभांठा क्षेत्र की स्मृति में पहुंच गया, जहां दलितों से ब्राह्मण तो छोड़िये, ओबीसी के साथ-साथ आदिवासी जातियां भी नफ़रत करती थीं। चूँकि सुजीत के साथ मेरी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रतिद्वंद्विता बनी ही रहती थी, सो मुझे लगा कि यहां सुजीत ने मुझसे बाजी जीत ली है। मोहनभांठा क्षेत्र में सुभाष और यहां पेंड्रारोड में सुजीत, इन दोनों ने ही मुझे पटखनी दे दी है, सोचते-सोचते मैं फिर से हीनता की दलदल में धंसने लगा।
अपने वर्तमान में वापस लौटते हुए मैंने कार्ड को देखा। विवाह-स्थल एक चर्च का कैंपस था। मैं फिर सोचने लगा कि बताओ यार सुधीर एक ब्राह्मण लड़की से शादी कर रहा है, वह भी अपनी मर्जी से। और तो और अपने ईसाई धर्म के अनुरूप। मानना पड़ेगा कि सुजीत भी बहुत ऊंची चीज है। शिक्षाकर्मी होने की वजह से मैं तो उसे ख्वामख्वाह ही डोमिनेट करता रहा। मोहनभांठा क्षेत्र में एक शराबी शिक्षाकर्मी वीनू को और यहां पर सुजीत को देखकर मेरा नेचर स्वतः ही डोमिनेटिंग हो जाता था। अब मुझे अपने ऊपर गुस्सा आने लगा। मुझे याद आया कि मेरे से आधी से भी कम तनख्वाह वाला यह सुजीत इससे पहले भी एक बेहद खूबसूरत लड़की को पटा चुका है, जिस पर मेरी भी नजरें लगी हुई थीं।
अपर्णा उस पूरे क्षेत्र की सबसे खूबसूरत लड़कियों में शुमार की जाती थी। मैंने अपनी पीठ थपथपाने के लिए खुद से ही कहा-तू तो हमेशा ही से एक नंबर की आइटम को पटाता रहा है। वहां स्नेहा और यहाँ पर अपर्णा। तू भी किसी से कम थोड़े ही है। अब तक अपर्णा की शादी हो चुकी थी और मैं फिलहाल खाली था। मतलब प्रेमिकाविहीन था। मैंने सामने बैठे हुए सुजीत को भड़काने की गरज से कहा- क्यों भाई इतने बड़े पेंड्रारोड में तुझे इसाई लड़की नहीं मिली, जो तू इस बम्भनीन से शादी कर रहा है। अबे तू मुझे बोला होता तो मैं तेरे लिए एक से बढकर एक ईसाई लड़कियों की लाइन लगा दिया होता। अब बेटा तू बम्भनीन से शादी कर तो रहा है, पर वह जीवन भर तेरी जात और धर्म को लेकर अपमानित करती रहेगी। बेटा घुट-घुटकर जियेगा तू। बाद में देखना तू मुझे याद करेगा कि मैंने कभी तुझसे यह बात कही थी। तू किसी कलेंडर में आज की डेट और मेरी कही बातों को नोट कर ले। मेरे ऐसा कहने पर सुजीत मंद-मंद मुस्कुराने लगा। उसकी मुस्कुराहट देखकर मेरी खीझ और बढ़ गई। फिर अचानक उसने धमाका करते हुए कहा कि अबे वो लड़की इसाई ही है। मैंने आश्चर्य से पूछा – अबे किसकी लड़की है? मैं तो यहां लगभग सभी ईसाई लड़कियों को जानता हूं। इस पर उसने उत्तर देते हुए बताया कि अबे वह मैथ्यू अंकल की भांजी है। वह पिछले तीन सालों से अपने मामा के घर पर यहीं रहकर पढ़ रही थी। उसके ऐसा कहते ही मुझे ध्यान आ गया कि स्कूल बैग लिए हुए एक लड़की मैथ्यू अंकल के घर से निकलती तो थी, पर चूँकि वह एक स्कूली लड़की थी और उम्र में मुझसे बहुत छोटी थी सो मेरा ध्यान उसकी तरफ़ कभी नहीं गया था। मैथ्यू अंकल का घर मेरे घर से आठ- दस घरों के बाद ही था। मैंने सुजीत से प्रश्न किया कि ये लड़की पांडे सरनेम क्यों लिखती है? इसके उत्तर में उसने जो बताया उसने ईसाई-ब्राहमणों के बारे में मेरी जिज्ञासा शांत कर दी। उसने बताया कि सुधा का पिता ब्राह्मण है पर माँ ईसाई है।उसकी माँ मैथ्यू अंकल की सगी बहन है। भले ही लड़की की माँ ने एक ब्राह्मण से शादी की है, पर उसने अपने बच्चों को ईसाई संस्कार ही दिए हैं। यहां तक कि उनका बपतिस्मा भी कराया है। तुझे इस कस्बे जितने भी ब्राह्मण सरनेम ईसाइयों के घर नजर आते हैं, उन सभी की यही स्टोरी है। ईसाई लड़कियां भले ही ब्राह्मण से शादी कर लेती हैं, पर वे हिंदू धर्म को कभी भी दिल से स्वीकार नहीं कर पाती हैं, क्योंकि वे खुद या उनके पूर्वज हिंदू धर्म से प्रताड़ित होकर ही तो ईसाई बने हुए होते हैं। यह अलग बात है कि प्यार-व्यार के चक्कर में ब्राह्मण लड़कों से शादी कर लेती हैं। उधर उनके पति भी दिल से ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं कर पाते हैं, पर अपनी पत्नी का मन रखने के लिए चर्च आ जाते हैं। उनके घरों में पति-पत्नी के बीच समानांतर व्यवस्था रहती है। और चूँकि बच्चे माँ के ज्यादा करीब होते हैं, सो वे भी अपनी माँ का ही धर्म अपना लेते हैं। सुजीत के मुंह से सारी बातें सुनकर मैं सोचने लगा- तभी तो मैं कहूं कि हिंदू धर्म की इतनी प्रतिष्ठित जाति के लोग भला क्यों कर ईसाई बनने लगे। हालांकी वहां आसपास के गाँव में कुछ वास्तविक ब्राह्मण भी थे, जो बेहद रसूखदार थे।
खैर सुजीत ने मुझे फिर से याद दिलाते हुए कहा कि उस दिन मुझे सुबह से रात तक मैथ्यू अंकल के घर पर ही रहना है। वहीँ पर सारे कार्यक्रम होने हैं। जाते-जाते उसने कहा कि तुझे यह जानकर खुशी होगी कि वर्तमान मुख्यमंत्री मैथ्यू अंकल के दोस्त हैं और शायद वे भी मेरी शादी में आएंगे। मुझे लगा कि सुजीत अब फेकने लगा है। मैं मन ही मन सोचने लगा कि एक प्राइमरी स्कूल के बेहद मामूली से शिक्षाकर्मी की शादी में भला मुख्यमंत्री क्यों आने लगे। यह बात तो कल्पना से भी परे थी। मैं सोचने लगा कि मुझ जैसे शहरी एरिया में पढ़े-लिखे, अंग्रेजी जानने वाले लड़के को भी बीडीओ हड़काकर बात करता है। मुझे तो उसके कमरे में जाने में भी डर लगता है। सुजीत खुद भी छोटे मोटे अधिकारियों के पास जी जी करता रहता है,ऐसे में भला राज्य का मुख्यमंत्री उसकी शादी में कैसे आ सकता है। मुझे लगा कि यहां पर सुजीत ने लंबी फेंक दिया है।।।फेकू कहीं का। चूँकि उस वक्त तक सरकारी पदों के मामले में मेरी समझ बहुत छोटी थी, सो मैं मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक वाली स्थिति में था। थोड़ी देर बाद मैं सुजीत के और सुधा के बारे में सोचने लगा। कुछ महीनों पहले तक तो मैं सुधा को स्कूल जाते हुए देखता था। मतलब वह बारहवीं पास होगी तो बमुश्किल अट्ठारह उन्नीस की ही होगी और सुजीत लगभग अट्ठाईस उनतीस बरस का। बाप रे ! इस जमाने में भी दस साल का अंतर।

5 हुस्न ही हुस्न जलवे ही जलवे
सिर्फ एहसास की जरूरत है।

तय तिथि पर मैं सुजीत की शादी में पहुंचा।चूँकि मैथ्यू अंकल एक राजनैतिक पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता होने के साथ पदाधिकारी भी थे, सो एक तरह से पूरा का पूरा कस्बा ही उमड़ा पड़ा था । एक से बढ़कर एक क्रिश्चियन और नान-क्रिश्चियन लडकियां वहां सज-धज के आई हुईं थीं। वे इधर से उधर डोल रहीं थीं। चूँकि अब तक मैं सुभाष बनने की ओर अग्रसर था और मेरी कुंठा की ग्रंथि अभी-अभी ही खुलनी शुरू हुई थी, सो मैं इस मौके का भरपूर फायदा उठाना चाहता था। वहां की स्थानीय क्रिश्चियन लडकियां मुझे और मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता था । मुझे मालूम था कि ये सब तो घर की मुर्गियां हैं, सो मैं उनसे इतर दूसरी खूबसूरत लड़कियों पर फोकस करना शुरू किया और कुछ लड़कियों के सामने मैंने अंग्रेज़ी झाड़नी शुरू की। उनकी अंग्रेज़ी न बोल पाने की झिझक से मुझे बड़ा आत्म-संतोष मिलने लगा। मैं इस तरह की परिस्थितियों में स्वयं को विजेता मानने लगा था।
मेहमानों में कुछ ब्राह्मण, कुछ सिन्धी और बनिया जैसे व्यापारी वर्ग की लडकियां भी थीं। सारी लडकियां एक से बढ़कर एक खूबसूरत थीं । उन लोगों से नयन- मटक्का करते हुए मैं सोचने लगा कि इस घनघोर जनजातीय क्षेत्र में ब्राम्हण और व्यापारी वर्ग भला कैसे पहुंच गए, तभी मेरा पुराना पढ़ा हुआ याद आया कि पहले छोटी-छोटी रियासतें होती थीं, जिनके राजा दक्षिणा के रूप में ब्राह्मणों को पूरे गाँव के गाँव दे दिया करते थे । इस तरह से आज वे सारे ब्राह्मण ज़मींदार बने बैठे थे । मैंने खुद वहां आसपास के गांवों का दौरा करते हुए पाया था कि मालिक के ब्राह्मण होने का वहां के आदिवासियों पर इस तरह मनोवैज्ञानिक दबाव था कि वे उनके घरों और खेतों में बेगारी करने को भी तैयार हो जाते थे।
व्यापारी वर्ग के बारे में तो यह सर्व-विदित रहा है कि उन्होंने जन जातियों का बहुत शोषण किया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के जनजातीय क्षेत्रों में अपना कारोबार फैलाया । वे भोले-भाले आदिवासियों से थोड़े से नमक के बदले में उनसे बेशकीमती चार-चिरौंजी सहित अन्य वनोपज ले लेते थे। आज भी छत्तीसगढ़ के अधिकांश क्षेत्रों में इन्हीं व्यापारी वर्ग की बड़ी-बड़ी राईस मिलें हैं। इन्हीं लोगों के बारे में कहा जाता है कि ये लोटा और थाली लेकर आए थे और आज वे कहां से कहां पहुंच गए हैं। खैर फिलहाल उस शादी वाले घर में मेरा वैचारिक हो जाना मेरे लिए नुकसानदेह साबित हो सकता था, सो मैंने खुद को वर्तमान में फोकस करने के इरादे से अपने सर को झटका दिया और फिर नयन-मटक्का करने में व्यस्त हो गया।
उस क्षेत्र में ब्राह्मण सहित दूसरी उच्च जाति की लड़कियों को बाहर निकलने का मौका बहुत कम मिलता था, सो वे वहां एकदम बिंदास व्यवहार कर रही थीं। दो-चार लोगों ने तो मुझसे एकांत में मिलने का वादा भी कर दिया, पर मैं यह बात अच्छी तरह से जानता था कि इस क्षेत्र में ऊंची जातियों की लड़कियों को फांस लेना जानलेवा भी साबित हो सकता है, क्योंकि वहां के सारे ब्राह्मणों सहित दूसरी ऊँची जातियां दबंगों की श्रेणी में आती थीं। वे लोग छोटी-छोटी बातों पर खुलेआम मारपीट पर उतारू हो जाते थे, सो मैंने अपने आपको उनसे बातचीत करने तक ही सीमित रखना उचित समझा। खैर जो भी हो, उस दिन तो मेरा आत्मविश्वास आसमान छूने लगा था। यों तो सुजीत की शादी तो क्रिश्चियन पद्धति से होनी थी, पर कुछ रस्मो-रिवाज हिंदू पद्धति के अनुसार ही होने लगे। इस पर मैं सोचने लगा कि जातिवाद की तरह ही हिंदू कर्मकांड भी हमारे अपने अवचेतन में इतने गहरे बसे हुए होते हैं कि उनसे पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता है। हालाँकि परिस्थितिजन्य कारणों से दलित-आदिवासी धर्म तो परिवर्तित कर लेते हैं,पर वे उस नये धर्म के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाते हैं।
अधिकांश महार लोगों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया है, पर बौद्ध धर्म की पूजा पद्धति से पूरी तरह अनभिज्ञ होने के कारण वे पूरी तरह कंसंट्रेट नहीं कर पाते हैं। सिर्फ इतना ही अंतर आया है कि मंदिरों की जगह विहारों ने ले ली है और अगरबत्तियों की जगह मोमबत्तियों ने ले ली हैं। जानकारियों के अभाव में वे वापस हिंदू धर्म के कर्मकांड करने लग पड़ते हैं। मेरे हिसाब से तो विपश्यना साधना ही बुद्धिज्म है। इस तरह वे धर्म परिवर्तित लोग न तो ढंग से बौद्ध या ईसाई ही बन पाते हैं और ना ही हिंदू ही रह पाते हैं। वे बीच मझधार में फंसे रहते हैं और यह तो सबसे ज्यादा खराब स्थिति होती है। इसी संदर्भ में मुझे छोटा नागपुर पठार के आदिवासियों की याद आती है। वे यों तो इसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं, पर उनके सारे कर्मकांड आदिवासी पद्धति से ही होते हैं। शादी की रस्में भी पूरी तरह आदिवासी पद्धति से होती है। वे चर्च में सिर्फ औपचारिकता निभाने जाते हैं । छोटा नागपुर का जिक्र आया है तो वहां के कई आदिवासियों के बारे में सोच-सोचकर मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है । वहां के आदिवासी पढ़ने-लिखने के महत्व को भलीभांति समझ चुके हैं। वे सरकार में भी ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर पहुंच गए हैं । इसके अलावा उस क्षेत्र के कई आदिवासी लड़के-लड़कियां मेरे संपर्क में आए हैं, जो कि सरकारी नौकरी न करते हुए अपनी प्रतिभा के बल पर कई बड़े-बड़े ग़ैर सरकारी संगठनों पर काबिज हैं। उन्होंने यूएन के संगठनों में भी अपना वर्चस्व कायम किया हुआ है।

आलोक कुमार सातपुते

(आत्मकथा ख़त खुला रहने दिया से )

आलोक कुमार सातपुते

नाम – आलोक कुमार सातपुते
जन्म – 26/11/1969
शिक्षा- एम.काम.
प्रकाशित रचनाएं- भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल के प्रगतिशील हिन्दी,उर्दू, एवं नेपाली पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी, उर्दू, बंगाली और नेपाली भाषाओं रचनाओं का प्रकाशन।
संग्रह का प्रकाशन- 1 शिल्पायन प्रकाशन समूह दिल्ली से दलित लघुकथा संग्रह अपने-अपने तालिबान का प्रकाशन।
2 शिल्पायन प्रकाशन समूह,से ही दलित कहानी संग्रह देवदासी का प्रकाशन।
3 सामयिक प्रकाशन समूह से एक संग्रह वेताल फिर डाल पर प्रकाशित।
4 डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली से कहानियों का संग्रह मोहरा प्रकाशित ।
5 डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली से किस्से-कहानियों का संग्रह बच्चा लोग ताली बजायेगा प्रकाशित ।
6 लघुकथा संग्रह मोक्ष प्रकाशित।

7. आकिफ बुक डिपो, नई दिल्ली से अपने-अपने तालिबान का उर्दू संस्करण प्रकाशित।

8 लघुकथा संग्रह अपने-अपने तालिबान की अंग्रेजी एवं मराठी अनूदित पुस्तकें भी प्रकाशित। दस अन्य भाषाओं में अनुवाद कार्य ज़ारी।

9 कथाओं का मंचन।
सम्पर्क-832,सेक्टर-5,हाउसिंग बोर्ड कालोनी, सडडू, रायपुर 492007 छत्तीसगढ़, मोबाइल -07440598439

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