चांद सूरज से लेकर
पूरा बृह्मांड खंगाला हो जिसने
जानने चाहे हों सभी रहस्य
क्यों वह अगले पल ही ढूंढ लाता है
विनाश के शस्त्र
आधिपत्य अधिकार फिर विध्वंस
कितना खतरनाक
हो गया है यह खेल !
किलका होगा जो शिशु-सा
खोजकर पहला पहिया
ढूँढकर पहली ध्वनि, पहला शब्द
पहला स्वाद, पहली पहचान
खुद से इस दुनिया से
पहली वह तड़प और जरूरत
बंधन अनोखे
घर-संसार और समाज के
बेचैन आज संजोकर
मैं और मेरा
सबसे बेहतर की
एक मनमानी दुनिया
सब कुछ मौजूद जहाँ
फुरसत नहीं उसे बस
पल भर भी
अपनों के संग
जीने को!
क्यों करता रहता
उद्दंड शरारत
हत्या की, युद्ध की
औरों के संग
अपनी भी मृत्यु की
स्वप्न देखता क्यों
कंकालों पर एकक्षत्र
साम्राज्य चलाने का!
आज भी तलाश
विश्वश्यनीय साथ की
सुगम व्यापार की
मूलभूत सुविधााओं की
सहज मानव अधिकार की
जी सके ताकि वह बेदखल
एक आरामदेह संसार में,
कुछ भी तो नहीं
आम आदमी के पास
आज भी…
नए हथियार और
नित नए व्यापार
हार के जीत के
खत्म नहीं होगी कभी
इसकी निर्मम तलाश
क्या है यह
जरूरत, सामंजस्य या समझौता
हवस लालच या फिर खिलवाड़
सभ्यता के शिखर पर
पहुँचे जीवन में
खोजी और बेचैन मानव
लेता नित नित
कितनी ऊँची
कितनी नीची
सफल असफल
व्यर्थ उड़ान!
सबसे अच्छी कार
सबसे अच्छी नौकरी
सबसे अच्छा पति
सबसे अच्छी जिन्दगी
‘ देख, साले बुढ्ढे को
कैसे लार गिराता है
देखते ही मुझे
झेलती हूँ इसे भी
और ये नौजवान
न जीने का शऊर
ना ही सहेजने का
मेरे लायक मिले तो सही
शायद है ही नहीं कहीं ! ’
अकेली थी, बहुत अकेली
भीड़ में खड़ी, सपने तलाशती
डेट पर जाती, जश्न मनाती
सफल और तितली सी
जादुई चिराग ढूंढती
वह औरत बेहद अकेली…
बुद्ध विचलित हुए थे
शव की काठी देखकर
वृद्ध का दुख देखकर
पर्याप्त था यही
संसार त्याग देने को
सत्य की तलाश में
निकल जाने को
क्योंकि असफल स्वप्न
और सिद्धांत ही तो
जन्म देते हैं वैराग को
फिर राजकुमार थे न
कोमल और सुकुमार
सुख और वैभव में
सुरक्षित पले बढ़े
पर जूझता आसू पीता
इंसान आदी हो जाता है
हर कष्ट और दुःख का
फुरसत नहीं होती
जीवन से जूझते के पास
सोचने और समझने की
क्या होता गर देख आते वह
आज की यह जर्जर दुनिया
भरे पेटवालों की जूठन से
पेट भरती नन्ही मुनिया
एक रौंदता और कई रुंदते
भूखे असहाय बम के आगे
जिन्दा ही एक इशारे से
हो जाते जो चिथड़े-चिथड़े
कितने दुख और कितने रोग
कितनी लूटपाट कितने अत्याचार
न सब सन्यासी ना सब अपराधी
चलता रहता है निर्मम व्यापार
यह संसार
पर सत्य की तलाश में
निकले जब चैतन्य
बाध्य हो जाए
खुद से संसार से
विमुख होने को
पत्नी और पुत्र से
दूर जाकर
सच खोज लाने को
पिता के वचन पर त्यागा था
राम ने भी तो राजपाट
छोड़कर अयोध्या
राह वन की ली थी
क्योंकि शिव की तलाश थी
कृष्ण ने भी तो त्यागी थी
राधा और बांसुरी
उठाया था सुदर्शन चक्र
छोड़ बृंदावन
कुरुक्षेत्र जाने को
हर तलाश में
मोह ही नहीं क्या पर
जो प्रेरित करता
दूर तक ले जाता
फिर यही क्यों
आज भी बस
बंधन ही कहलाता !
सबकी
अपनी-अपनी तलाश
पथ और प्रारब्ध
एकाकी राह है
यह जीवन की
बेचैन करते रहते
दिनरात सवालों के
क्रूर राक्षस
करते रहते
जीवन तप को भंग
पर जरूरी है तलाश के लिए
पीछे मुड़कर न देखना
एकनिष्ठ हो
आगे ही बढ़ते जाना
आसुरी भ्रमों के बीच
देवत्व को बचाना
जरूरत पड़े तो
गहन अंधेरों में
खुद ही जलकर
दीपक हो जाना
तलाश एक प्यास
बेचैन यह अहसास
जरूरी बहुत
आदर्श समाज और
विकास के लिए
नित बदलती
परिस्थियों से
सामंजस्य के लिए
पर आसान कब
आँखें खुली रख पाना
बूंद सा सिमटना
फिर समेटना
सबकुछ और
सागर हो जाना…
शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com