जयमंगल पांडेय और नादिर अली शूरवीर सूबेदार थे। वे 1857 के सिपाही गदर के समय रामगढ़ बटालियन की 8वीं नेटिव इन्फैंटरी में कार्यरत थे। उन दोनों की वीरता, लगन के किस्से आम थे। गुलामी के कारण कहीं उनके अंदर भी क्रांति ज्वाल धधक रही थी। 1857 के सशस्त्र स्वतंत्रता आंदोलन के समय दोनों ने अंग्रेज सैनिकों से लोहा लेते हुए हँसते-हँसते अपनी शहादत दी थी।
यूँ तो दोनों सामान्य परिवार से थे, ज्यादा साधन संपन्न नहीं थे लेकिन उन्होंने अपने कीमती बलिदान से स्थानीय लोगों का दिल जीत लिया था। कभी अज्ञात रहा जयमंगल पांडेय, नादिर अली एवं 150 सैनिकों का आत्मोत्सर्ग। पर सामान्य कद काठी के उन दोनों क्रांतिवीरों की शहादत आज एक मिसाल की तरह है। अब उनके कारनामे की चर्चा होने लगी है।
चतरा, झारखण्ड का एक छोटा सा जिला है। अंग्रेजों के जमाने में कमीश्नरी था। बाद में सब डिवीजन फिर जिला बना। उन दिनों यहाँ बाघ, चीतल, साँभर, वनैला सूअर, हिरण जैसे अनगिन पशु थे। अंग्रेज अफसर अपने लाव-लश्कर के साथ चतरा के गहन जंगलों में अक्सर शिकार खेलने आया करते थे।
इस अज्ञात से वनाच्छादित स्थान पर 1857 के गदर के समय नादिर अली और जयमंगल पांडेय नामक सूबेदारों ने 150 सिपाहियों के साथ देश की स्वतंत्रता की खातिर आत्म बलिदान किया था। अजब संयोग कि महानायक ‘मंगल पांडे’ और इस ‘जयमंगल पांडेय’ दोनों का नाम एक है।
सिपाही गदर के महानायक मंगल पांडे के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध बैरकपुर में विद्रोह का बिगुल बजाते ही पूरे देश में गुलामी से मुक्ति के लिए सैनिकों के बीच विद्रोह की जो ज्वाला जली, उसमें संकल्पित क्रांतिकारी सिपाहियों के साथ तात्कालीन बिहार के रामगढ़ रेजीमेंट में भी ज्वार सा उठा था। चारों तरफ लगी आग में यहाँ के सैनिकों ने भी आहुति देने के लिए कमर कस ली थी। 30 जुलाई 1857 को रामगढ़ बटालियन की 8वीं नेटिव इन्फैंटरी के जवानों ने दोनों सूबेदारों के नेतृत्व में राँची के लिए कूच किया।
उधर जगदीशपुर के वीर कुंवर सिंह भी गुलामी की खिलाफत का झंडा उठाए हुए थे। कुँवर सिंह की सेना से मिलने हेतु सितंबर के मध्य में रामगढ़ बटालियन की 8वीं नेटिव इन्फैंटरी के जयमंगल पांडेय एवं नादिर अली जैसे दो अलग-अलग धर्म, समुदाय के सूबेदारों के नेतृत्व में 150 जवान जान हथेली पर लेकर एक साथ निकल पड़े।
भनक लगते ही इनके विद्रोह को दबाने के लिए मेजर इंगलिश की अत्याधुनिक हथियारों से लैश अति विशाल सेना इनका पीछा करने लगी। और चतरा में इनके सामने आ धमकी। आतताइयों के हथियारों और संख्या बल के सामने ये कमजोर होते हुए भी मन और संकल्प से कमजोर न थे। दोनों सूबेदारों का मनोबल खूब बढ़ा हुआ था। गुलामी की जंजीरें तोड़ने, आतताइयों को सबक सिखाने का जज्बा जयमंगल पांडेय एवं नादिर अली में कूट-कूटकर भरा था। उन्होंने पहले भी अपने जज्बे और वीरता का परिचय दिया था।दोनों ने ईश्वर और अल्लाह का नाम लेकर सिपाहियों को ललकारा और चतरा के हरजीवन नामक तालाब के पास भयंकर लड़ाई छिड़ गई थी। चारों ओर घनघोर, दुर्गम जंगल…गहरा अँधेरा…जंगली जानवरों का आतंक। दूसरी ओर मेजर की सेना। और ऐसे में निर्भय वीरों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे।
दोनों सूबेदारों ने मिलकर मात्र 150 सैनिकों के सहारे मेजर इंगलिश की विशाल सेना का सामना वीरतापूर्वक करते हुए उनको छट्ठी का दूध याद दिला दिया था। उनके लिए देश पहले था। स्वतंत्रता पहले थी। फिर जाति-धर्म की या अन्य बातें। देश के लिए जाति-धर्म के परे एक साथ लड़ते हुए मुट्ठी भर सैनिकों के साहस के सहारे उन्होंने 58 दुश्मनों को मार गिराया गया था। तब उन सभी की लाशों को एक साथ तीन कब्रों में ही दफना दिया गया था। एस.बी. आई. चतरा के पास वह स्थान अब भी है।
अंततः उनकी वीरता ने मेजर इंगलिश की सेना को पीछे हटने पर विवश कर दिया था।
लेकिन उक्त संग्राम में विशाल, साधनसंपन्न मेजर इंगलिश की सेना से उन्हें हारना पड़ा था। बाद में नादिर अली तथा जयमंगल पांडेय सहित सभी वीरों को धोखे से बंधक बना लिया गया था। हरजीवन तालाब के चारों ओर के आम्र वृक्षों पर अक्टूबर 1857 में उन सबको फाँसी दे दी गई थी। या फाँसी बाहर देकर सभी शहीद सैनिकों के शवों को गाछों पर लटका दिया गया था। (अलग-अलग विचार के कारण इस बारे में शोध की आवश्यकता है) क्रूर अंग्रेज क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़ने, सीख देने के लिए देश के अन्य स्थानों पर भी ऐसे ही स्वतंत्रता की चाह रखनेवाले वीरों को फाँसी पर लटकाया करते थे। यहाँ सामूहिक रूप से इतने क्रांतिकारियों को फाँसी दी गई थी।
झारखंड के लोकगीतों में विभिन्न जीवनानुभव के साथ शहीदों की आहुतियों को भी समेट लेने की परंपरा रही है। शहादत के बाद एक प्रेरक गीत चतरा की गली-कूचों में भी गाया जाने लगा था, जिसने न जाने कितने देशप्रेमियों को जागरूक किया था। वह गीत था –
नादिर अली मंगल पांडेय
दोनों सूबेदार रे!
दोनों मिल फाँसी चढ़े
हरजीवन तालाब रे!!
तभी से सबके जीवनदायी ‘हरजीवन तालाब’ का नाम बदलकर ‘फाँसी तालाब’ हो गया था। इसे फाँसीहरी तालाब या मंगल तालाब का नाम भी उसी बलिदान के कारण मिला।
महानायक नादिर अली, जयमंगल पांडेय तथा वीर शहीदों के आत्मोत्सर्ग से प्रभावित होकर बाद में कई चतरावासी और आस-पास के युवा, प्रौढ़ स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
ये प्रथम सिपाही विद्रोह के ऐसे रणबाँकुरें हैं, जिन्हें शहीदों के मजारों पर लगनेवाले मेले का इंतजार है। 75 बरसों से 150 शहीद उस मेले के इंतजार में हैं।
जेल रोड, चतरा में अब भी सिकुड़ता हुआ फाँसी तालाब नजर आ जाता है। इसके चारों ओर के वे पुराने वृक्ष अब नहीं रहे। लेकिन अनेक वृक्ष उन शहीदों की याद दिलाते हैं। अब ये वृक्ष भी मृतप्रायः हैं।
उसी स्थल पर बारा समिति ने 1960 में फाँसी तालाब के किनारे एक स्मारक बनवाया। उस पर लिखा –
शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का बाकी यही निशां होगा
स्मारक का फिर 1979 में जीर्णोद्धार किया गया। अब खस्ताहाल। जगह-जगह से दीवारें टूट रही हैं।
राष्ट्रीय त्योहारों पर यहाँ का प्रशासन स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित करता है, छोटा सा आयोजन होता है। सिमरिया के किसी गाँव में अब भी जयमंगल पांडेय के छट्ठे वशंज जीवित हैं। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गाँधी जयंती पर उन्हें भी आमंत्रित किया जाता है। उनके कुछेक वंशजों के नाम हैं – सच्चिदानन्द पांडेय, पारो देवी, संजीवन पांडेय, शशिकला पांडेय, कमल पांडेय आदि।
अनिता रश्मि
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