चार गीतिकायेंः कैलाश मनहर


ग़म की ऊन से रूह का स्वेटर कौन बुने
मन पाखी की कुरलाहट को कौन सुने

छू ले जो भी महक जायेगा भीतर तक
खिले फूल की पंखुरियों को कौन चुने

दर्द के मारे रेशा रेशा बिखर जायेगा
विरह तांत से प्रेम़ की रूई कौन धुने

दावानल-सी जलने लगती हैं यादें
रोज़ ख़्यालों में ख़ुद का ख़ुद कौन भुने

मछली का पानी से रिश्ता समझे कौन
इश्क़-मुहब्बत की सच्चाई कौन गुने

आदमी वो कि मौत में भी ज़िन्दगी देखे
ज़िन्दगी वो कि रंजो ग़म में भी खुशी देखे

बढ़ रहा हो जो ज़ुल्मतों का ज़ोर चौतरफ़ा
नज़र वही जो अँधेरों में रौशनी देखे

लगे हैं सूखने दरिया-ए-मुहब्बत सारे
कोई तो हो कि जो सूखे में भी नमी देखे

खुला-खुला रहे आकाश उड़ानों के लिये
लहलहाती हुई हरी-भरी ज़मीं देखे

ज़ुल्म के सामने डर कर न टूट जाये वो
रात गहराये तो फिर सहर भी होती देखे

उस के हसीन वादे मेरा यक़ीन झूठा
सब जानते हुये भी खाना है मुझको धोखा

वह चमकदार चाकू नोकीला और पैना
उन आँखों से निकल कर सीने में मेरे उतरा

मैं अब तलक़ भी धूँए और धुँध में पड़ा था
चारों तरफ़ था हल्ला मौसम के बदलने का

सब पर्णहरित खो कर जो सूखने लगा था
उस पेड़ से लिपट कर मैं बहुत देर रोया

दीवानग़ी की हद़ में आ पहुँचे हम जहाँ पर
गर्दन पे छुरी थी और सोने का था खज़ाना

मजदूर की मेहनत फले खेती किसान की
खुशहाल औ” सरसब्ज़ रहे अपनी ये ज़मीं

हर शख़्स में ज़िन्दा रहे जज़्बा-ए-मुहब्बत
दहशतज़दा ज़रा न हो किसी की ज़िन्दगी

हो ख़ात्मा इस मुल्क से ज़ुल्मी निज़ाम का
चैन-ओ-अमन की राह चलें सब खुशी खुशी

“गर ज़ुल्मतों को मिल के निचोड़ें करोड़ों हाथ
मिल जाये अपने हिस्से की सब को ही रौशनी

यह ख़्वाब हक़ीक़त में बदल जाये किसी रोज़
इंसाफ़-ओ-हक़ न मारे किसी का कोई कभी

–कैलाश मनहर
मनोहरपुर(जयपुर-राज.)
मोबा.9460757408

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